भूमिहार-ब्राह्मण-सभा का खात्मा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सन 1929 ई. के गर्मियों के दिन थे। मैं सुरताँपुर (सुलतानपुर) में श्री अनिरुद्ध शर्मा के बँगले में था। पहले से बात तय थी कि इस बार चातुर्मास्य में मेरठ की तरफ जा के स्वामी सोमतीर्थ जी के साथ रहूँगा। जैसा कि बुलंदशहर के तौली मौजे में जाने और रहने की बात पहले ही कह चुका हूँ।ईधरअखबारों में पढ़ा था किश्री सुंदर लाल जी की 'भारत मेंअँग्रेजीराज्य'पुस्तक शीघ्र ही प्रकाशित होनेवालीहै। वह सोलह रुपए में मिलेगी। लेकिन जो पहले ही ग्राहक बनेंगे उन्हें बारही रुपए में लब्ध होगी। इसलिए मैं ग्राहक बन चुका था और उसके आने की प्रतीक्षा में ही था कि एकाएक उड़ती खबर मिली कि मुंगेर में भूमिहार ब्राह्मण महासभा का अधिवेशन होगा और सर गणेशदत्त सिंह उसके सभापति होंगे। मैं ताज्जुब में आया और घबराया भी। मेरी समझ में यह बात असंभव थी!

बाबू श्री कृष्ण सिंह और बाबू रामचरित्र सिंह ये दोनों ही उस जिले के कांग्रेस नेता और कौंसिल के सदस्य थे। सर गणेश रामचरित्र बाबू के विरुद्ध कौंसिल के उम्मीदवार भी हुए थे। कौंसिल में ये दोनों सर गणोश को खूब खरी-खोटी सुनाते भी। ईधर श्री कृष्ण सिंह ही भूमिहार ब्राह्मण सभा की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। इसीलिए विश्वास नहीं होता था कि जीती मक्खी वे लोग निगलेंगे और अपने विरोधी एवं पक्के सरकार परस्त आदमी को सभापति बनाने को राजी होंगे। मैंने सोचा कि और न सही, तो बाहरी दुनिया में होनेवाली बदनामी से तो डरेंगे। क्योंकि लोग खामख्वाह कहेंगे कि कौंसिल में तो विरोध करते हैं पर,घर में उसी आदमी को सिर चढ़ाते हैं! फिर ऐसों का विश्वास क्या! एक बात और भी थी। आगे एकाध ही वर्ष में फिर कौंसिल चुनाव होने को था। ऐसी दशा में सर गणेश को सभापति बनाना साँप को दूध पिलाना ही था। क्योंकि उसके करते समाज में प्रिय और ऊँचे बन के फिर कौंसिल के चुनाव के समय विरोध करेंगे।

इसी उधोड़बुन में था कि सभा का समय आ धमका। उधर दैवात'भारत में अंग्रेजी राज्य' की बी.पी. आ गई। फिर तो,बी.पी. छुड़ा के पास में पुस्तक रखी और मुंगेर जाने के लिए बक्सर स्टेशन को रवाना हो गया। पीछे पता चला कि बी.पी. छुड़ाने के फौरन ही बाद पुलिस डाकखाने में पहुँची कि वह बी.पी. कहाँ गई, इसका पता लगाए। मगर तब तक तो 'चिड़ियाँ चुग गई खेत'। मैं सुलतानपुर में था भी नहीं कि पुलिस दौड़-धूप करती और पुस्तक उठा ले जाती। छपते-छपते ही वह जब्त हो गई यह निराली बात थी। हालाँकि जो बातें उसमें लिखी हैं वह अंग्रेजी की मेजर बोस की 'राईज आँफ दी क्रिश्चियन पॉवर इन दी ईस्ट' में मिलती हैं। मगर वह जब्त नहीं हैं! असल में हिंदी में होने से जनसाधारण के लिए यह सुलभ हो गई। इसीलिए सरकार सतर्क हो गई कि कहीं जनता की आँखें खुल न जाए। वह तो अब तक आँख मूँदे तेली के बैल की तरह एक निश्चित दायरे के भीतर ही घूमती थी। अब कहीं फाँद के बाहर न निकल जाए, यह डर था।

जब मैं गाड़ी में बैठ के मोकामा आया तो गाड़ी में चढ़ के मुंगेर सभा में चलनेवाले परिचित लोगों से ही पता लग गया कि सर गणेशदत्त सिंह ही सभापति होंगे, यह तय पाया गया है। अब तो मेरे क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। सिर्फ इसलिए नहीं कि मेरा उनके साथ विरोध था। यह कोई व्यक्तिगत बात या कारण न था। असल में मैंने देखा कि ईधर लगातार चार-पाँच सभाओं में फिर चाहे वे प्रांतीय हों या अखिल भारतीय, वह एक ही आदमी सभापति होता चला आता था। यह बात बुरी तरह खटकनेवाली थी। क्या समाज में कोई और पढ़े-लिखे, योग्य या धनी नहीं रह गए कि एक ही आदमी के हाथ में वह बिक गई? यह एक बड़ा अपमान उस समाज का था जिसे जगाने और स्वात्माभिमान युक्त बनाने में मैंने काफी परिश्रम किया था और जिसे बगावत का झंडा गाड़ने के लिए भी तैयार किया था।

एक बात और थी। अगले वर्ष कौंसिल चुनाव होने को था। एक बड़े समाज का सरताज बन के वह चुनाव में काफी गड़बड़ी करते और कांग्रेस के विरुद्ध समाज की जनता को सफलतापूर्वक भड़काते। ताकि फिर मिनिस्टर बन जाएँ। तीसरी बात थी, श्री कृष्ण बाबू की बड़ी बदनामी की। लोग खामख्वाह कहते कि ये ऊपर से तो राष्ट्रवादी बनते हैं। मगर भीतर से कांग्रेसी और जी हुजूर सब एक है। यदि यह अक्ल उन्हें न आई तो मैं क्यों अंध बनूँ और उन्हें न बचाऊँ! आखिरउनको बचाना तो कांग्रेस को बचाना था। बस,इन्हीं सब कारणों से मैंने तय कर लिया कि जब खुली सभा में सभापतित्व के लिए सर गणेश का नाम आएगा तो मैं उसका विरोध जरूर करूँगा। यह बात मैंने न सिर्फ गाड़ी में ही लोगों से कह दी। प्रत्युत मुंगेर के पूर्व सराय स्टेशन पर जो लोग प्रबंधकर्ता के रूप में मिले उनसे भी कहदी।

एक दिन जो आदमी कांग्रेस या, यों कहिए कि स्वराज्य पार्टी के खिलाफ सर गणेश को कौंसिल में जिताने गया था, वही दो ही वर्ष के बाद आज उन्हीं सर गणेश को देख नहीं सकता और भरी सभा में उन्हें अपमानित करने पर तुला बैठा है! वह नहीं चाहता कि वह फिर कौंसिल में जाए और मिनिस्टर बनें! ऐसा आदमी जातिवादी (communalist) हो सकताहैया नहीं, यह निष्पक्षपात लोग ही बता सकते हैं।

अब तो मुंगेर पहुँचते ही हो-हल्ला मच गया। ऐसी सनसनी फैली कि सभी लोग बेचैन थे। लोगों को यह तो निश्चय होई गया कि मैं विरोध करूँगा ही और उसके वोट लेने पर सर गणेशदत्त सिंह कदापि सभापति चुने न जाएगे। लोग दल के दल मुझे समझाने आए। मगर निरुत्तर हो के चले गए। अब हमारे दोस्तों और लीडरों को, रामचरित्र बाबू को और श्री कृष्ण बाबू को, यह फिक्र हुई कि उनके जिले में आकर यदि सर गणेश की छीछालेदर हुई तो समाज में उनकी बदनामी होगी। मगर इसका अपराधी कौन! उन्होंने ऐसा होने ही क्यों दिया? वे लोग समझाने आए तो मैंने साफ कह दिया कि मुझे तो यह कह के बदनाम किया गया कि मैं कांग्रेस-विरोधी और सर गणेश का पिट्ठू हूँ। मगर आप तो कांग्रेस के लीडर है। फिर यह उलटी बात क्यों? मैं सर गणेश का विरोध करूँ और आप लोग उससे हैंरान हों? आप उनके समर्थक हों? मैंने अनजान में उनका समर्थन किया और जान लेने पर आज उनका पक्का विरोधी हूँ। मगर आप लोग जानकर क्यों उनके साथी बनते हैं? दुनिया आपको क्या कहेगी? इसका उत्तर वे लोग क्या देते? मैंने उनसे साफ कह दिया कि इतना ही नहीं। चुनाव में वे जहाँ खड़े होंगे मैं उनका विरोध सारी ताकत लगा के करूँगा और देखूँगा कि मिनिस्टर बन के वे आगे सरकार-परस्ती कैसे करते हैं। इस पर वे लोग चले गए। फिर बाबू राम दयालु सिंह को मेरे पास भेजा। क्योंकि जानते थे कि उनकी बात मैं शायद मान सकूँ।

श्री राम दयालु सिंह मेरे पास आए। देर तक बातें होती रहीं। आखिर में मैंने यह कहा कि सभा में जाने पर तो मैं उनके सभापतित्व का विरोध अवश्य करूँगा। क्योंकि यह बात कह चुका हूँ। उसे टाल नहीं सकता। पर यदि आप लोगों की यही मर्जी है कि वे सभापति बनें ही तो लीजिए मैं सभा में जाऊँगा ही नहीं। आप लोग सँभालें और करें। वह खुश हुए। यह जानकर औरों की चिंता घटी। मगर सभा में जब लोग खचाखच भर गए और मुझे न पाया तो कानाफूँसी होने लगी कि स्वामी जी क्यों नहीं आए? सर गणेश सभापति तो बन ही चुके थे। किसी ने उनसे पूछा कि स्वामी जी यहाँ आ के भी सभा में क्यों नहीं आए? उनका जैसा स्वभाव है,रंज हो के कह दिया कि स्वामी जी की बात मैं क्या जानूँ! आप उनसे पूछिए! फिर क्या था? कोई ईधर उठा, कोई उधर और सवाल होने लगे। आवाज आई कि स्वामी जी को बुलाकर लाया जाए। बराबर लोगों ने कहा। उन्होंने कहा कि स्वामी जी के बिना सभा का काम रुक नहीं सकता। इस पर और गड़बड़ी मची और मेरे बूढ़े गुरु भाई स्वामी परमानंद सरस्वती ने उठ के कहा कि स्वामी जी ने समाज को जगाया, और उन्हीं के बिना काम नहीं रुकेगा? आप ही काम चलाइएगा? और क्रोध से सभापति की ओर वह बढ़े। फिर तो ऐसी गड़बड़ी मची कि सर गणेश को अपने ऊपर खतरा मालूम पड़ा। फलत: सभा भंग कर दी और पुलिस! पुलिस!! पुकार के उठ खड़े हुए। किसी प्रकार लोगों ने घेर-घार कर उन्हें बचाया और डेरे पर पहुँचाया।

इस प्रकार भूमिहार ब्राह्मण महासभा भंग हो गई। हालाँकि, मैं बाहर ही था। मेरे पास दौड़े-दौड़े एक सज्जन पहुँचे कि'सभा में तूफान है, चलिए शांत कीजिए' मैं समझ न सका। पीछे उनसे कहा कि मैं जल्दी में चला आया हूँ। शायद सर गणेश पिट गए। हालत नाजुक है। इस पर मैं दौड़ के सभा में पहुँचा तो हंगामा देखा। मुझे देखते ही लोग ठंडे हो गए। लोग यही तो चाहते थे कि मैं आऊँ। खैर मैंने समझा-बुझा के शांत किया और न आने का कारण बताया। गड़बड़ी करनेवालों को फटकारा भी। लेकिन यह तो ठीक ही है कि सभा सदा के लिए भंग हो गई। अच्छा ही हुआ। उससे भलाई तो कुछ होती न थी। हाँ बुराई जरूर हो जाया करती। अब ईधर सुना है, दस वर्षों के बाद उसे फिर जिलाने का यत्न हो रहा है। नहीं जानता कि वह सफल होगा या नहीं। दस वर्षों तक तो मेरे डर से सभा का नाम लेने की किसी को हिम्मत होती न थी। लोग जानते थे कि यदि उन्होंने सभा की मैं जाकर उसमें विरोध करूँगा और उनकी एक न चलने दूँगा। इस प्रकार उसे फिर भंग कर दूँगा। मगर अब जब सबों को पता लग गया है कि मुझे उससे अब कोई वास्ता नहीं है और उसमें जाऊँगा ही नहीं। तब शायद हिम्मत बँधा रही है!