भोजन और मनोरंजन का महत्व / जयप्रकाश चौकसे

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भोजन और मनोरंजन का महत्व
प्रकाशन तिथि :07 दिसम्बर 2016


तमिलनाडु कीमहारानी जयललिता ने अपने शासन में कम दामों में भरपूर भोजन के ठिए खुलवाए थे और सिनेमाघरों को बाध्य किया था कि सिनेमाघर की दर्शक क्षमता का पचास प्रतिशत हिस्सा कम दाम के टिकटों के लिए समर्पित होना ही चाहिए और इसके बदले में सिनेमाघरों को भरपूर सहायता उपलब्ध कराई थी। दूसरी ओर उत्तर भारत के मल्टीप्लेक्स वालों से जब निवेदन किया गया कि वे कम दाम के टिकट रखें ताकि अधिकतम लोग उनके यहां फिल्म देख सकें तो उनका जवाब था कि वे अधिक दाम में टिकट खरीदने वाले दर्शक ही चाहते हैं, क्योंकि ये ही समृद्ध दर्शक महंगे पॉपकार्न खरीदता है और दस रुपए की पानी की बोतल 30 रुपए में खरीद सकता है गोयाकि सिनेमाघर में उन्हें फिल्मप्रेमी नहीं चटोरों की आवश्यकता थी। इन बातों में हम जयललिता का आम दर्शक के प्रति प्रेम देख सकते हैं और मल्टीप्लेक्स के सारे व्यापार का दृष्टिकोण भी उभरकर आता है कि उन्हें वे कम लोग ही पसंद हैं, जो अनावश्यक चीजें अधिक दाम में खरीद सकते हैं।

इस तरह की धुंध पैदा की जाती है कि आप साफ नहीं देख सकें। सिनेमा दर्शक में पॉपकार्न खरीदने वाले का महत्व है। रंगीन रोशनियों की बाहों में पसरा जादुई बाजार अनावश्यक वस्तुओं की खरीदी पर लाभ कमाना चाहता है। वाजिब दामों में जीवनोपयोगी वस्तुओं की खरीदी-बिक्री इस नवविकसित बाजार के एजेंडे में है ही नहीं। इस तरह से व्यापक खोखलापन पैदा किया जा रहा है। गरीबी हमेशा ही औद्योगिक उत्पाद रही है और उसी को सिक्का बनाया गया है। धरती इतना देती है कि कहीं कोई खालीपेट नहीं रहे परंतु व्यवस्था का जतन है कि पेट खाली रहे और विचार प्रक्रिया निरस्त रहे। इन बातों को चतुर सुजान नरेंद्र मोदी बखूबी जानते रहे हैं और पत्रकार अमूल्या गोपालकृष्णन ने सही पकड़ा है कि मोदीजी केवल धंुध पैदा करते हैं ताकि कोई कुछ स्पष्ट नहीं देख सके गोयाकि उनके खोखले वादे का अस्तित्वविहीन स्वर्णजड़ित देश महज आंख का धोखा और जादू का खेल है। तमाशबीन जनता के अवचेतन की कमजोरियों का ही वे दोहन कर रहे हैं और यही कमोबेश सारे सूर्यवंशी, चंद्रवंशी राजे-महाराजे करते रहे हैं।

श्याम बेनेगल की फिल्म 'अंकुर' में शोषित महिला का पुत्र अमीर व्यक्ति की हवेली पर पत्थर फेंकता है। यही उस फिल्म का आखिरी दृश्य था अौर उस दौर में कई मासूम समीक्षकों ने यकीन कर लिया था कि 'अंकुर' फॉर्मूला फिल्म की कांच की हवेली पर फेंका गया पत्थर है। इस तरह की खुशफहमी पर ही हम जीवित रहे हैं। दुष्यंत कुमार की पंक्तियां हैं, 'कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो' वर्तमान में हम देख रहे हैं कि अन्याय आधारित व्यवस्था की हवेली के चारों ओर परकोटा है, रक्षा के लिए मजबूत दीवारें बनी हैं और इसे तोड़ने के महान उद्‌देश्य से उछालकर इस पर फेंका गया हर पत्थर सुरक्षा दीवार पर जाकर चिपक जाता है और उसी दीवार को और अधिक मजबूत करता है, जिसे तोड़ने के लिए यह फेंका गया था। वह दीवार चुंबक से बनी है और हर पत्थर उस पर चस्पा होकर उसे मजबूती प्रदान कर रहा है। अन्ना हजारे और केजरीवाल भी उन्हीं पत्थरों की तरह सिद्ध हुए। अब आम आदमी का नैराश्य अपने चरम पर पहुंचता दिख रहा है।

यह व्यवस्था रॉकिंग हॉर्स की तरह है। बच्चों के खेलने का काठ का घोड़ा होता है। यह इस ढंग से बना होता है कि कमोबेश झूले की तरह एक ही स्थान पर गति का ऐसा खेल रचता है कि बालक को घुड़सवारी का पूरा आनंद तो मिलता है परंतु वह एक इंच भी आगे नहीं बढ़ता है। जयललिता ने लगभग 300 फिल्मों में अभिनय किया था और वे व्यवस्था के रॉकिंग हॉर्स डिज़ाइन से परिचित थीं। अत: उन्होंने अधिकतम दस रुपए में भरपूर भोजन बेचना अनिवार्य किया अौर सिनेमाघर की पचास प्रतिशत सीटों के टिकट कम दाम के रखने का नियम बनाया। कुछ माह पूर्व ही उन्होंने आदेश जारी किया था कि समान काम करने वाले दफ्तर एक भवन में समेटे जाएं अौर इससे खाली हुए भवनों को सिनेमाघर में बदला जाए। जयललिताजी आम आदमी के जीवन में भोजन और मनोरंजन के महत्व को जानती थीं। उनकी लोकप्रियता का राज यही है।