भोजपुरी भाषा: नामकरण, क्षेत्र और मानकीकरण / जीतेन्द्र वर्मा

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भाषा के अर्थ में ‘भोजपुरी’ शब्द का पहला लिखित प्रयोग रेमंड की पुस्तक ‘शेरमुताखरीन’ के अनुवाद (दूसरे संस्करण) की भूमिका में मिलता है। इसका प्रकाशन वर्ष 1789 है। इसके नामकरण के बारे में कई तरह के मत मिलते हैं। जिनमें से तीन मत काफी प्रचलित हैं।

पहले मत के अनुसार राजा भोजदेव (सन् 1005-55 ई.) के नाम पर भोजपुर पड़ा। इस मत के समर्थक जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन, उदयनारायण तिवारी आदि हैं। इस संबंध में उदयनारायण तिवारी ने लिखा है कि “भोजपुरी बोली का नामकरण शाहाबाद जिले के भोजपुर परगने के नाम पर हुआ है। शाहाबाद जिले में भ्रमण करते हुए डॉ. बुकनन सन् 1812 ई. में भोजपुर आए थे। उन्होंने मालवा के भोजवंशी ‘उज्जैन’ राजपूतों के चेरों जाति को पराजित करने के संबंध में उल्लेख किया है।” 1

आधुनिक इतिहासकारों ने मालवा के राजा भोजदेव या उनके वंशजों के भोजपुर विजय को संदिग्ध् माना हैं। इसपर विचार करते हुए दुर्गाशंकर सिंह नाथ ने लिखा है कि (मालवा के भोज का)” भोजपुर-भोजदेव पूर्वी प्रांत में कभी नहीं आए।” 2

दूसरे मत के अनुसार इसका नामकरण वेद से जोड़ा गया है। वेद में भोज शब्द का प्रयोग मिलता है।3 इस मत के समर्थकों में डा.ए.बनर्जी शास्त्री, रघुवंश नारायण सिंह, जितराम पाठक का नाम प्रमुख है।

असल में यह मत पुनरूत्थानवादी मानसिकता की देन है जिसमें हवाई जहाज बनाने से लेकर परमाणु बम - सबका मंत्र वेद में खोजा जाता है। कुछ लोगों को यह भी लगता है कि किसी भी चीज को प्राचीन सिद्ध करने से उसका महत्त्व बढ़ जाता है, स्वतः प्रामाणिक हो जाती है। इस मानसिकता के लोग भी भोजपुरी का उत्स वेद में सिद्ध करते हैं।इस संबंध में एक तीसरा मत भी है जिसके अनुसार भोजपुरी भाषा का नामकरण कन्नौज के राजामिहिर भोज के नाम पर भोजपुर बसा था। इस मत के पक्षधर पृथ्वी सिंह मेहता और परमानंद पांडेय हैं। परमानंद पांडेय के अनुसार “ गुर्जर प्रतिहारवंशी राजा मिहिरभोज का बसाया हुआ भोजपुर आज भी पुराना भोजपुर नाम से विद्यमान है।4 मिहिरभोज का शासनकाल सन् 836 ई. के आसपास माना जाता है।

राहुल सांकृत्यायन ने भोजपुरी को ‘मल्ली’ और ‘काशिका’ दो नाम दिया था। असल में वे प्राचीन गणराज्यों (सोलह महाजनपद) की व्यवस्था से सम्मोहित थे। वे महाजनपदों के नाम से ही वहाँ की भाषाओं का नामकरण करना चाहते थे। बिहार की दो भाषाओं अंगिका और वज्जिका का नामकरण उन्हीं का किया हुआ है। अंग नाम के महाजनपद के नाम पर वहाँ की भाषा का नाम उन्होंने अंगिका रखा। इसके पूर्व ग्रियर्सन ने अंगिका को मैथिली के अंतरर्गत रख था परंतु इसकी स्वतंत्रा भाषिक विशेषता भी उनके ध्यान में थी।इसीलिए उन्होंने अंगिका को मैथिली का ‘छीका-छाकी’5 रूप कहा है। राहुल जी द्वारा भोजपुरी का किया गया नामकरण मान्य नहीं हो सका। असल में उस समय तक भोजपुरी नाम प्रचलित हो गया था। दूसरे यह भोजपुरी को मल्ली और काशिका नाम से दो भाषाओं में बाँट रही थी। भाजपुरी की उत्पत्ति मागधी प्राकृत तथा अपभ्रंशों से हुई है।

यह पूर्वी परिवार की भाषा है। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से पूरा भोजपुरी भाषी इलाका हिंदी क्षेत्रा से बाहर पड़ता है। इस मत का समर्थन जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन, सुनीति कुमार चटर्जी, उदय नारायण तिवारी आदि भाषावैज्ञानिकों ने किया है। भाषाविज्ञान के अनुसारभोजपुरी हिंदी की अपेक्षा बंगला, उड़िया, असमिया से अधिक नजदीक है। स्वतंत्राता संग्राम के दौरान भोजपुरी भाषी इलाके में हिंदी का प्रचार हुआ और यहाँ पर हिंदी को शिक्षा, राजकाज आदि की भाषा के रुप में स्वीकार कर लिया गया। लिपि साम्यता (देवनागरी लिपि) की वजह से भी भोजपुरी हिंदी के करीब आई। क्षेत्र

भोजपुरी एक बड़े भूभाग की भाषा है। यह पूर्वी बिहार और पश्चिमी उत्तर - प्रदेश के साथ-साथ झारखंड के कुछ क्षेत्रों के लोगों की मातृभाषा है। इसके आलावा बिहार और उत्तर प्रदेश के भोजपुरी भाषी जिलों से सटे नेपाल के कुछ हिस्सों में यह बोली जाती है।

यह बिहार के पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, सारण, सीवान, गोपालगंज, भोजपुर, बक्सर, सासाराम और भभूआ जिलों में तथा उत्तरप्रदेश के बलिया, देवरिया, कुशीनगर, वाराणसी, गोरखपुर महाराजगंज, गाजीपुर, मऊ, जौनपुर, मिर्जापुर के लोगों की मातृभाषा है।

झारखंड में यह पलामू, गढ़वा और लातेहार जिलों के कुछ भागों में बोली जाती है।

एक अनुमान के मुताबिक भारत में कुछ भागों में बोलनेवालों की जनसंख्या 18 करोड़ के आस-पास है।

नेपाल के रौतहट, बारा, पर्सा, बिरग, चितवन, नवलपरासी, रूपनदेही और कपिलवस्तु में भोजपुरी बोली जाती है। वहाँ के थारू लोग भोजपुरी बोलते हैं। नेपाल में भोजपुरी भाषी लोगों की आबादी ढ़ाई लाख से अधिक है। जो वहाँ की जनसंख्या के लगभग नौ प्रतिशत है। भोजपुरी सही मायने में विश्वभाषा है। भारत और नेपाल के अलावे यह मारीशस, फिजी, सूरीनाम, ट्रीनीडाड, नीदरलैंड जैसे कई देशों की बड़ी आबादी इसे बोलती-समझती है। रोजी – रोजगार की भाषा नहीं रहने के कारण नई पीढ़ी इससे कट रही है |

मानकीकरण

सर्वविदित है कि भोजपुरी एक विशाल भूखंड की भाषा है। स्वाभाविक रूप से इसके वाचिक रूप में विविधता है । भोजपुरी के पुरोधाओं का ध्यान शुरू से इस ओर रहा है। इसके मानकीकरण के लिए तरह-तरह के प्रयास होते रहें हैं।

शुरुआती दौर में भोजपुरी के पुरोधओं का विचार था कि सभी जगहों के लेखक अपनी-अपनी भोजपुरी में लिखें। उस समय सभी लेखकों को उत्साहित करना था।

धीरे - धीरे स्थिति बदली। सभी जगहों के भोजपुरी लेखको को भोजपुरी की मान्यता और प्रचार-प्रसार के लिए मानकीकरण की जरूरत महसूस हुई। शुरुआती दौर में राहुल सांकृत्यायन, अवध् बिहारी सुमन (दंडिस्वामी विमलानंद सरस्वती) जैसे कई लेखक भोजपुरी को बोलचाल के हिसाब से लिखते थे परंतु जैसे-जैसे भोजपुरी में लेखन तेज हुआ, इसके मान्यता की बात उठी वैसे-वैसे भोजपुरी में यह आग्रह कम हुआ। भोजपुरी के हितचिंतकों का विचार बना कि भोजपुरी का स्वरूप ऐसा हो जिसमें शिक्षा, सरकारी कामकाज, संचार माध्यमों आदि का काम हो सके।

भोजपुरी मानकीकरण की मुख्यतः दो प्रकार की धारा रही है। एक धारा का मानना है कि भोजपुरी एकदम गंवारू रूप में लिखी जानी चाहिए। इसके बोलचाल के ठेठ स्वरूप को किसी हाल में नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इस धारा के हिसाब से श, ष, क्ष, त्र, ज्ञ जैसे अक्षरों या संयुक्ताक्षर का प्रयोग नहीं होना चाहिए। इस विचारधारा को मानने वालों में हवलदार त्रिपाठी सहृदय, रासबिहारी पांडेय, अवधबिहारी कवि प्रमुख हैं। भोजपुरी में इस धारा को न के बराबर समर्थन मिला।

दूसरी धारा भोजपुरी में बदलते समय के अनुसार बदलाव की पक्षधर रही है। इस धारा के अनुसार कुछ लोगों का आग्रह रहता है कि भोजपुरी जैसे बोली जाती है, एकदम वैसे ही लिखी जाए।यह विचार भोजपुरी के हित में नहीं है | यहाँ इस बात का हरदम ध्यान रखना चाहिए कि बोली और भाषा में हमेशा अंतर रहता है। दुनिया की कोई भाषा जिस तरह बोली जाती है एकदम उसी तरह लिखी नहीं जाती है। अब भोजपुरी बोली भर नहीं रह गई है। यह अब सिर्फ गीत-गवनई की भाषा नहीं रह गई है। अब यह विचार और शास्त्र की भाषा बन चुकी है, जल्दी ही शासन-प्रशासन, ज्ञान-विज्ञान आदि की भी भाषा बनेगी। ऐसी स्थिति में इसके लिए देवनागरी लिपि का कोई अक्षर, संयुक्ताक्षर या मात्रा को छोड़ना ठीक नहीं होगा। इससे अभिव्यक्ति में कठिनाई होगी।

जिस चीज के लिए भोजपुरी में शब्द है बेहिचक उसे अपनाना चाहिए परंतु हिंदी, अंग्रेजी तथा अन्य किसी भाषा के शब्दों का भोजपुरीकरण करने के फेरे में उसकी वर्तनी बिगड़ना ठीक नहीं है। जरूरत पड़ने पर दूसरे भाषा के शब्दों को बेहिचक अपनाना चाहिए। इससे भोजपुरी समृद्ध होगी। बंगला, मैथिली आदि ने यही किया है। इससे भोजपुरी का विकास होगा। अंग्रेजी की समृद्धि का एक कारण यह भी है कि उसने अपनी जरूरत के मुताबिक किसी भाषा के शब्दों को अपना लेती है। लाठी, धोती, समोसा, गर्दा उड़ गइल - जैसे बहुत से शब्द इसके उदाहरण हैं। शुद्धतावादी दृष्टिकोण से हिंदी को बहुत नुकसान हुआ है। खांटी भोजपुरी के आग्रह से बचना चाहिए। जब भोजपुरी को हर तरह की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना है तो मुखसुख, स्थानीय प्रयोग आदि के आग्रह से ऊपर उठना होगा। अंग्रेजी, हिंदी सहित सभी भाषाओं का स्थानीय रूप है परंतु उस हिसाब से लिखे नहीं जाते हैं।

भूमंडलीकरण के दौर में इंटरनेट तथा अन्य नए-नए आविष्कार के प्रयोग, सूचना क्रांति से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समृद्धि बढ़ेगी। इससे भोजपुरिया समाज के आचार-विचार, व्यवहार, जीवन-मूल्यों आदि में बदलाव होगा। चूँकि भाषा सामाजिक विकसित होती है। इसलिए समाज में हो रहे बदलावों के हिसाब से भोजपुरी को अपने-आप को ढालना पड़ेगा। इस समय समाज में कईएक कारणों से एक जगह से दूसरे जगह आना-जाना, संपर्क बढ़ रहा है। इसका प्रभाव भाषा पर भी पड़ता है। नहीं चाहने पर भी एक भाषा दूसरी भाषा से प्रभावित होती है। प्रत्येक भाषा का एक ग्राम रूप (cocknex) और एक शिष्ट रूप होता है। अब भोजपुरी सिपर्फ गंवार लोगों की भाषा नहीं रह गई है। इसलिए मूर्खतापूर्ण, संस्कारहीन आदि बातों को असली भोजपुरी नहीं माना जाना चाहिए। इसे बोलने वाले हर तरह के लोग हैं।

भोजपुरी भाषा की बढंती के लिए ठोस प्रयास की जरूरत है। सिर्फ यह कहने से काम नहीं चलेगा कि भोजपुरी में ऐसे-ऐसे शब्द हैं जिसका अनुवाद दूसरी भाषा में हो ही नहीं सकता, भोजपुरी सबसे मीठी भाषा है। ऐसी बातें आत्ममुग्धता की उपज हैं। दुनिया की सभी भाषाओं के संबंध में ऐसी बात कही जा सकती है और यह सब समृद्धि की कोई परिचायक भी नहीं है।

संदर्भ

  1. भोजपुरी भाषा और साहित्य, पृष्ठ संख्या-252
  2. भोजपुरी के काव्य और कवि, पृष्ठ संख्या-18
  3. इमे भोजा अंगिरसो विरूपा दिवस्थुत्रासो, असुरस्थ वीराः। विश्वामित्राय ददतो मद्यानि सहस्त्रासावे प्रतिरन्तु आयुः। --- ऋगवेद (3, 53, 7) (हे इंद्र ! यह भोज और सुदास राजा की ओर से यज्ञ करते हैं। यह अंगिरा ,मेघातिथि आदि विविध् रूप वाले हैं। देवताओं मे अत्यंत बली रुद्रोत्पन्न , मंरूदगण अश्वमेध यज्ञ से मुझ विश्वामित्र का महान धन दे और अन्न बढ़ावे।)
  4. अंगिका और भोजपुरी भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन, पृष्ठ संख्या-5
  5. लिग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, जिल्द-5, खंड-2