भौंर्या मो / कमलानाथ

Gadya Kosh से
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किशनू हाँफता हुआ आया और उत्तेजित सा चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा- ‘बीरमा बळाई का पोता बड़ के नीचे मरा पड़ा है’.

नानी ‘हे राम, हे राम’ कहती हुई पगथियों से धीरे धीरे नीचे उतरी और छोटे मामा को पुकारने लगी. हम सभी बच्चे भोंचक्के से किशनू के गिर्द इकट्ठे होगये. मैं दो दिन पहले ही नानी के पास छुट्टियों में गाँव आया था. यही था मेरा ननिहाल - महापुरा गाँव. थोड़े दिन बाद तेजाजी का मेला लगने वाला था और मेरे हमउम्र ममेरे भाई मेरे आने से उत्साहित थे. वे मेरे पिछली बार गाँव आने से अब तक की, गाँव की, वहाँ के लोगों की, खेतों की, कलमी आम के पेड़ों की और घटनाओं की जानकारी बड़े उत्साह से दिया करते थे. मुझे भी बड़ा मज़ा आता था – सभी की उत्सुकता का केन्द्र मैं ही जो था. नाना वहाँ के इज्ज़तदार लोगों में थे और जागीरदार के रूप में उनकी खासी प्रतिष्ठा थी. अम्मा बताती थीं मेरे पैदा होने के क़रीब डेढ़ साल पहले वे नहीं रहे थे. उनके अन्य चचेरे भाई और उनके परिवार भी गांव में रहते थे. सभी के आसपास खेत भी थे. गाँव के मुख्य चौक पर मेरे नाना का ही एक पक्का मकान था जो पत्थरों से बना था, बाकी सभी कच्चे थे. संकरे रास्तों को छोड़ कर ये सभी मकान एक दूसरे से सटे हुए थे. बहरहाल मेरे नाना और उनके भाई गाँव में बड़ी हैसियत रखते थे. जागीरदारों की सी हैसियत. मैंने न नाना को देखा था न उनके किसी भाई को. लेकिन उनके भरेपूरे परिवार अवश्य थे और मेरे सभी मामा इस तरह अपने पिताओं की खेती की ज़मीनों पर बंटवारा करके रह रहे थे. गाँव के ही किसान उन खेतों पर मामाओं की तरफ़ से खेती करते थे. वैसे मेरे तीन मामा थे पर छोटे मामा हमको सबसे अच्छे लगते थे- ख़ासकर इसलिए कि वे खुशमिज़ाज थे और इसलिए भी कि पूजा के बाद वे हमें किशमिश दिया करते थे. खेल खेल में अकसर वे हमें उस समय तक जकड़ कर रखते थे जब तक कि हम ‘चीं’ नहीं बोलते. मेरे मंझले मामा के अपने बैल भी थे जिन्हें शाम को किसान लोग काम के बाद बाड़े में बाँध जाया करते थे. उनके खेत में गेंहू, जौ होते थे पर हमको यहाँ उगे ५ आम के पेड़ों और फालसों की झाड़ियों में ज़्यादा रुचि थी जिनमें उन दिनों फल आया करते थे. इनमें से एक आम का पेड़ हमारा, यानी अम्मा के नाम कर दिया गया था, ऐसा मेरे इन भाइयों ने मुझे बताया था. उस पर चढ़ कर बैठना मुझे बेहद अच्छा लगता था. उससे आईं कैरियाँ या आम कभी कभी जयपुर आजाते थे. इन आम के पेड़ों पर हम ‘गुलाम लकड़ी’ खेल खेला करते थे जो किशनू, सुद्धा वगैरह पहले से खेलते थे और उन्होंने मुझे सिखाया था. कोई एक बच्चा टांगो के नीचे से घुमा कर एक डंडे को दूर फेंक देता था और तब तक बाकी बच्चे पेड़ पर चढ़ जाते थे. उस पेड़ के चारों तरफ़ एक गोला बना कर उसके अंदर वह डंडा रख दिया जाता था. पेड़ से उतर कर बाकी बच्चों में से किसी को डंडा उठाना होता था लेकिन अगर इस प्रक्रिया में कोई उसे पेड़ के नीचे ज़मीन पर होने के कारण छू ले तो अगली ‘पोत’ उसे देनी होती. पर वह वापस पेड़ पर चढ़ कर छूने से बच सकता था. इस तरह अपनी होशियारी दिखाने के लिए और डंडे को खिसकाने के लिए ख़ूब पेड़ से कूदना और उस पर चढ़ना होता था जिससे थोड़ी देर में ही थकावट होजाती थी. पर इससे पेड़ों पर चढ़ने का अच्छा अभ्यास होजाता था. ‘अम्मा के पेड़’ पर डालियाँ नीचे से ही शुरू होगईं थीं इसलिए मुझे इस पेड़ पर चढ़ने उतरने में ज़्यादा आसानी होती थी, बनिस्बत अन्य पेड़ों के जिनके तने काफ़ी लंबे थे. मैं गाँव में होता था तब इसी पेड़ पर हम ‘गुलाम लकड़ी’ खेलते थे.

अम्मा का वैसे ही गाँव में ख़ूब सम्मान था और फिर वो पूरे गाँव की बेटी जो थीं और सारे बच्चों की बुआ. सारी औरतें उनके आते ही उन्हें घेर कर बैठ जाती थीं और तब उन तक पहुंचना भी मुश्किल हो जाता था. अम्मा मुझसे कहती थीं गाँव में मेरे ४७ मामा हैं. पहले आश्चर्य होता था, फिर यहाँ आने पर पता चला सचमुच सभी मेरे मामा हुआ करते थे – नील्या भंगी, भौंर्या और लादूराम पुजारी, ओंकार और भौंरीलाल बामण, कजोड़ी ढोली, लादूराम पटवारी, छग्या भड़भूंज्या, गणेश्या कुम्हार, छगन्या जाट, गिरदा माली......हमें सभी के नाम के आगे मामा लगा कर संबोधित करना होता था. अगर कोई बुज़ुर्ग हो, मसलन बीरमा बळाई, तो उसके नाम के आगे बाबा लगाना पड़ता था. जैसे बीरमा बाबा. गाँव से ही जुड़े एक सेडूराम सरपंच और स्रीनाराण जी बैज्जी (श्रीनारायण जी वैद्य जी) भी थे जिनके बारे में फिर कभी. अभी सिर्फ़ इतना कि सेडूरामजी सरपंच होने के नाते काफ़ी प्रभाव रखते थे, मंझले मामाजी के मित्र थे और कुछ छोटेमोटे राजनेताओं या मंत्रियों को जानते थे. स्रीनाराण जी बैज्जी गाँव के धनवान लोगों में, बल्कि यों कहें, एक मात्र अच्छे खासे धनवान थे जिनके यहाँ कहते हैं रुपये बोरियों में भरे पड़े रहते थे और जिनके दो और भाई थे. उनसे छोटा हरसहाय मशीनों की अच्छी जानकारी रखता था और ट्रेक्टर, जीप, पम्प-मोटर आदि ठीक कर सकता था. शायद जयपुर में उन लोगों का एक ‘कारखाना’ भी था. तीसरा जल्दी ही मर गया था.

दिन भर की मटरगश्ती करके शाम को घर लौट आने पर माहौल बिलकुल ही बदल जाता था. सारे गाँव में अँधेरा अँधेरा होजाता था और डर सा लगने लगता था. कभी कभी अचानक किसी पक्षी की तेज़ चीख़ रोंगटे खड़े कर देती थी. गाँव में बिजली नहीं थी इसलिए आमतौर पर बच्चे घर से बाहर रात को नहीं निकलते थे. घरों की लालटेनें या चिमनियां अपने निर्धारित ‘मोखल्यों’ या खंदों में रखी रहती थीं जो अँधेरा होते ही जला दी जाती थीं. उनकी धुंए की लौ से ऊपर छत तक गहरी काली लकीरें बन गयी थीं जिन्हें मैं अकसर घूरा करता था. एक अजीब तरह का अहसास होता था उनको देखने पर. कभी साँपों की कल्पना होती थी, कभी उन काली लाइनों पर हाथ फेरने की इच्छा होती थी यह देखने के लिए कि इससे हाथ कितने गंदे हो सकते हैं. सारे वातावरण में केरोसिन से जली चिमनियों और लालटेनों की गंध बसी रहती थी जो दिन में भी लगभग उसी तरह फैली रहती थी. पर हमेशा वो मुझे सुगंध सी ही लगती थी. बड़े मामा पढ़ लिखने के बाद नौकरी के लिए जयपुर चले गए थे मामी के साथ. बाकी दोनों मामियां इकट्ठी होकर चौक में रखे चूल्हे में रोटियाँ बनाती थीं. पहले हम सब बच्चे खाना खाते थे, बाक़ी लोग बाद में. रोटी, अचार और सब्ज़ी या दाल के साथ अकसर गुड़ की शक्कर होती थी जो मुझे बेहद पसंद थी. घर में हम कभी ऐसी शक्कर नहीं खाते थे. सफेद शक्कर सिर्फ़ दूध में ही अच्छी लगती थी. हमें जल्दी ही खाना खाकर अपने अपने गद्दों चद्दरों में घुस जाना अच्छा लगता था क्योंकि हममें से कोई न कोई नई रोचक कहानी या प्रसंग शुरू करने वाला होता था. ज़्यादातर किशनू ही इस मामले में पहल करता था क्योंकि अक्सर हमारी, यानी मामाजी की, बकरियों को वो खुद दूर दूर तक घुमाने लेजाता था और इस तरह गाँव और आसपास के बारे में सबसे अधिक जानकारी उसी के पास होती थी. भूतों और चुड़ैलों के बारे में वह अक्सर बड़े आत्मविश्वास और महारत के साथ बात करता था और गाँव के मुख़्तलिफ़ लोगों के साथ हुई उनकी तथाकथित भिड़ंतों से सम्बंधित क़िस्से बयान करता था. वह कहता था कई बार वह खुद उल्टे पैरों वाली चुड़ैलों को देख चुका था.

सवेरे सवेरे हम सभी मिट्टी के या अल्यूमीनियम के अपने अपने लोटे लेकर जंगल की तरफ़ जाते थे. सब अकसर किसी न किसी झाड़ी की तथाकथित आड़ लेकर बैठ जाते थे. कभी कभी एक नज़र एक दूसरे की तरफ़ भी मार लेते थे- ये देखने के लिए कि कौन अपनी पहली वाली जगह से कितनी दूर तक खिसका है. वैसे असल में ‘कुछ और’ भी देखने का मक़सद होता था. हाथ में कोई न कोई छोटा ‘फल्डा’ या सरकंडा होता था जो मक्खियाँ भगाने के या आसपास आने वाले कीड़ों को दूर खिसकाने के काम आता था. सबसे ज़्यादा कोफ़्त सिर्फ़ इस बात से होने लगती थी कि जल्दी ही मक्खियाँ आसपास भिनभिनाने लगती थीं- ख़ासकर मोटीवाली मक्खियाँ जिनसे थोड़ा डर लगता था. शायद यही कारण था कि झाड़ियों के चुनाव में थोड़ी सतर्कता बरतनी होती थी, जैसे कि उसके आसपास खिसकने के लिए उपयुक्त और संतोषजनक जगह होनी चाहिए, हालाँकि ज़्यादातर अच्छी जगह लोगों ने पहले ही कभी ढूंढ़ली होती थीं और वहाँ बैठना संभव नहीं होता था.

पूरे वातावरण की इस ख़ामोशी को केवल मक्खियों की भिनभिनाहट और एक डेढ़ मील दूर अजमेर सड़क पर चलने वाले वाहनों की आवाज़ ही तोड़ती थी. किसी खेत से किसी चिड़िया के चहचहाने या टिटहरी की ‘टीच टीच टिर्र’ भी तरंगों की तरह तैरती कानों को छू कर बह जाती थी. कभी कभी हमारे किसी मामा के आमों पर दूर मंडराते तोतों के फड़फड़ाने या चीखने की आवाज़ एक उम्मीद जगाती थी कि शायद आमों की कैरियाँ या फालसे थोड़े पकने लगे होंगे. हमारी अपनी आपस में धीमी बातें भी ऐसी लगती थीं जैसे हम चिल्ला रहे हों. इतनी शांति और नीरवता मैंने इससे पहले कभी नहीं देखी या महसूस की. दूर से आती कल्याणा पटवारी के खेतों में बैलों को हांकने की बड़बड़ाहट और बैलों की माँ के साथ निकट सम्बन्ध बनाने वाली किसी की गालियां लहराती हुई बीच बीच में सुनाई दे जाती थीं और हम लोग हँस पड़ते थे हालाँकि उन सब का अर्थ तब पूरी तरह स्पष्ट नहीं था. ये ज़रूर मालूम था कि वो अच्छी खासी गालियाँ हुआ करती थीं. कल्याणा का एक बैल बहुत सुस्त था- किशनू ने बताया था. वह बैल पहले बगरू के पटवारी के यहाँ हुआ करता था.

खैर, इस सारी मशक्कत के बाद हम लोग मामाजी के खेत में जाते थे जहाँ पानी से भरी एक छोटी सी कुण्डी एक बड़े पत्थर पर रखी होती थी. उसमें लगी लकड़ी की डाट को हटा कर पानी खोला जाता था जो अंदर की गन्दगी से इतना रुक रुक कर आता था कि सबसे पहले कुण्डी तक पहुँचने के लिए हर रोज़ दौड़ लगानी पड़ती थी. मिट्टी से तीन बार हाथ धो कर अपने अपने लोटे मिट्टी से ही साफ़ करके घर लाने होते थे.

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जयपुर से लगभग १० मील दूर अजमेर सड़क पर ‘बोंल्याळी पो’ (बबूल वाली प्याऊ) के सामने से बाईं ओर डेढ़ मील अंदर तक एक कच्चा रास्ता गाँव महापुरा को जाता था. महापुरा होकर ही कई अन्य गाँवों का भी रास्ता हुआ करता था. यह गाँव मेरे लिए खास इसलिए था कि यह मेरी नानी का गाँव था. लगभग पचपन वर्ष पहले जयपुर से अजमेर जाने के लिए जो सड़क थी वह बेहद छोटी थी. आसपास दूर दूर तक सिर्फ़ बालू ही बालू या मिट्टी के टीले दिखाई देते थे. या फिर खेत और बैलों की मदद से कुएं से सिंचाई करने के लिए पानी निकालते या हल जोतते किसान. इस पक्की छोटी सड़क पर काफ़ी अंतराल के बाद कोई लंबी नाक वाली पेट्रोल की बस दिखाई दे जाती थी. इन बसों के इंजनों को एक लोहे के हेंडल की सहायता से घुमा कर ही चालू किया जा सकता था. सड़क के दोनों ओर बैलगाड़ियों के आवागमन से पगडण्डीनुमा कच्चे रास्ते बन गए थे जिन पर किसान अपनी फ़सल या तरबूज़, खरबूज़े, ककड़ी बैलगाड़ियों पर लादे हुए दिखाई दे जाते थे. इन पगडंडियों के परे खेतों से सटी झुरमुट झाड़ियाँ और बबूल के पेड़ आसपास की बकरियों की पसंदीदा जगह हुआ करते थे. बरसात के दिनों में ‘भरभूंट्या’ और ‘गोखरू’ की झाड़ियाँ उग आती थीं और पैदल चलने वालों को ये काँटों वाली झाड़ियाँ काफ़ी परेशान करती थीं. पर साथ में और झाड़ियाँ भी होती थीं जो मुख्यतः लाल बेरों की होती थीं. हम लोग अकसर बैलगाड़ियों से ही गाँव जाते थे. आधे रास्ते तो पैदल ही उछलकूद करते हुए और झाड़ियों से कच्चे पक्के लाल बेर तोड़ तोड़ कर खाते हुए. फिर चलती बैलगाड़ी में दौड़ते हुए कूद कर बैठ जाते.

जयपुर से कुछ दूर पर ही इस रास्ते में पहले एक ‘नहर’ आया करती थी. वास्तव में यह अमानीशा नाला था जो अकसर बहता रहता था और जिसे ‘नहर’ के नाम से जाना जाता था. एक ढलान से हो कर नाले तक पहुँचते थे जो सभी का, खासतौर से साईकिल वालों का, मनपसंद हिस्सा होता था क्योंकि वे बिना पैडल मारे फर्राटे से नहर के आगे तक पहुँच सकते थे. नहर के बाद चढ़ाई पड़ती थी जिसे पार करने में साइकिलों, तांगों और बैलगाड़ियों को बेहद कठिनाई होती थी. सवारियां उतर जाती थीं और साइकिलें पैदल चल कर चढ़ाई के अंत तक लेजाई जाती थीं. पैट्रोल की बसें किसी तरह घूं घूं करके धीरे धीरे चढ़ती थीं. नहर के आसपास चारों ओर सब्ज़ियों के खेत थे.

गाँव के रास्ते में अगला जो सबसे बड़ा और प्रमुख पड़ाव आता था वह था भांकरोटा, जहाँ साईकिल सवार, बसें, बैलगाड़ियां आदि सभी विश्राम के लिए रुकती थीं. यहीं एक दो दुकानें चाय वालों की थीं, एक हलवाई जलेबी और कचोरी बना कर रखता था, एक थड़ी पर सोडा और शर्बत की कुछ बोतलें रखी रहती थीं, और आसपास कुत्तों को फटकार कर या लात लगा कर भगाते कुछ बच्चे जिनकी नाक अकसर बहती रहती थी. नानी के गाँव के लादूराम पुजारी जिन्हें हम लादू मामाजी कहते थे, एक थाल में त्रिशंकु या पुंगीनुमा काग़ज़ की पुड़ियाओं में सांगानेरी दाल (चने की नमकीन दाल) बेचा करते थे. ऐसी ही पुंगियों में हम चनाजोरगरम खाते थे. लादू मामाजी जयपुर में हमारे यहाँ हर पूर्णिमा को भोजन के लिए भी आते थे. रसोई के ठीक बाहर उनके लिए एक निर्धारित कोना था जिस पर ‘पोतना’ करके थाली रखने के लिए साफ़ कर दिया जाता था.

अगला पड़ाव ‘जखीरा’ळी पो’ हुआ करता था. यहाँ जानवरों के लिए एक बड़ी सी ‘खेळी’ थी जो हमेशा पानी से लबरेज़ रहती थी और जहाँ अक्सर ऊँट, बैल और बकरियां पानी पीते दिखाई देते थे. यात्रियों के लिए तो प्याऊ थी ही जिस पर एक लकड़ी की लंबी सी नाली रहती थी. ‘नीची’ जाति के लोग इसी से पानी पी सकते थे. प्याऊ पर बैठा आदमी रामझारे से इस लकड़ी की नाली में पानी डालता रहता था और दूसरे छोर पर वह यात्री ओक से पानी पीता था. बाकी सब लोग सीधे ही रामझारे से ओक लगा कर पानी पी सकते थे. पर हम वहाँ पानी नहीं पीते थे क्योंकि उससे क़रीब २ मील आगे ही ‘बोंल्याळी पो’ थी जिसे बड़ या शायद पीपल के एक बड़े पेड़ के नीचे बनाया गया था. पेड़ की छाया की वजह से कुछ लोग गर्मी के दिनों में यहाँ कभी पलक भी झपक लेते थे. बोंल्या (बबूल) के पेड़ों के झुंडों के बीच एक रामझारा और ४-५ घड़ों के साथ चबूतरे पर एक वृद्ध सज्जन जिनका नाम गोकर्णा था और जो हमारी नानी के गाँव के ही हुआ करते थे, मुसाफ़िरों को पानी पिलाने के लिए बैठा करते थे. यहाँ हमारी काफ़ी आवभगत हुआ करती थी अम्मा की वजह से. इस प्याऊ के ठीक सामने से यानी अजमेर सड़क की बाँई ओर से एक कच्ची चौड़ी सी पगडण्डी दिखाई देती थी जो हमारे गाँव महापुरा को जाती थी. पक्की सड़क बस इसी मोड़ तक थी और गाँव तक का रास्ता साईकिल वालों को पैदल चल कर ही पार करना होता था. कुछ देर विश्राम करके और ठंडा पानी पीकर गाँव के बाशिंदे और बैलगाड़ियां कच्चे रास्ते पर चल पड़ते थे. इस रास्ते पर आते ही ऐसा लगता था जैसे हम गांव लगभग पहुँच ही गए. बीच बीच में कोई न कोई परिचित साईकिल हाथ में पकड़े या बैलगाड़ी में आता जाता मिल जाता था जो बड़े स्नेह से ‘राम राम’ अवश्य बोलता था. वैसे सच पूछ जाय तो जो भी वहाँ से गुज़र रहा होता था, एक दूसरे से ‘राम राम’ कहता ही था, चाहे जानपहचान हो या न हो. बैलगाड़ियों से बनी लकीरों के अलावा दोनों तरफ़ हर जगह जंगली झाड़ियाँ और घास थी जहाँ बकरियां और भेड़ें चरती हुई दिखती थीं और बिना या हलकी सी छाँव वाले बबूल के किसी पेड़ के नीचे सुस्ताते गडरिये बच्चे. गाँव पहुँचते ही चिरपरिचित से मिट्टी के ऊँचे ऊँचे टीले, मामाजी के खेत, बड़ का घना बड़ा पेड़, मीठा कुआँ, आसपास पानी पीते जानवर, बालू रेत, चहलपहल, परिचित व्यक्ति या रिश्तेदार वगैरह दिखाई देने लगते थे.

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गाँव में जो सार्वजनिक जगह सबसे प्रसिद्ध थी वह थी मीठा कुआँ और उसके आसपास का बड़ा खुला क्षेत्र. यहीं पास में एक बहुत पुराना बड़ का पेड़ था जिसके इर्दगिर्द एक फूटा सा चबूतरा था लेकिन जो वर्षों से गर्मी/धूप में उस गाँव से गुज़रने वाले लोगों के लिए आराम करने का अच्छा स्थान बन चुका था. मुख्यतः गाँव में दो कुएँ थे – एक मीठा कुआँ जिसमें एक रस्सी और उससे बंधी डोलची हमेशा एक घिरघिट्टी से लटकी रहती थी ताकि कोई भी यात्री ठन्डे मीठे पानी से अपना गला तर कर सके. कुएँ की मुंडेर की दूसरी ओर एक बड़ा सा लाव (रस्सा) और उससे बंधा चमड़े का बड़ा चरस हुआ करता था. हर सुबह और शाम दो बैल इस लाव को खींचते थे और पानी भरे चरस के ऊपर आने पर एक आदमी उसे मुंडेर के बाहर रस्से से अलग कर देता था जिससे उसका सारा पानी बह कर पास ही एक खेळी (कुण्डी) में चला जाता था जहाँ गाँव के जानवर पानी पीते थे. कभी कभी वह आदमी रस्से पर बैठ जाता था और कोई गाना गाता था. चरस को खाली होने के बाद फिर से कुएँ में लटका दिया जाता था और बैलों को कुएँ की गहराई और लाव की लम्बाई जितनी परिधि के अंतिम छोर से वापस लौट आने पर दूसरे चक्कर के लिए फिर जोत दिया जाता था. इस तरह खेळी हमेशा पानी से भरी रहती थी ताकि वहाँ से गुज़रने वाली गायें, भैंसें, बकरियां, भेड़ें, ऊँट वगैरह पानी पी सकें.

दूसरा कुआं गाँव के बीचोंबीच था जो ‘खारा कुआँ’ के नाम से जाना जाता था. ज़ाहिर है इसका पानी खारा था. कुछ लड़कियां और औरतें पानी खींचती दिखाई देजाती थीं. गाँव की नीची जाति के लोग ही इस कुएं से पानी ले सकते थे. अगर इन लोगों को कभी मीठे कुएँ से पानी पीना हो तो कोई सवर्ण ही इन्हें पिला सकता था, वे खुद मीठे कुएँ की मुंडेर पर चढ़ कर अपने आप पानी नहीं खींच सकते थे. पास ही बने एक चबूतरे की एक मुंडेर पर गाँव के जाटों के आराध्यदेव ‘तेजाजी’ की एक पुरानी पत्थर की शिला लगी हुई थी हालाँकि उस पर क्या खुदा हुआ था यह समझ में नहीं आता था, पर यह तेजाजी की आकृति ही बतलाई जाती थी जिसके अनुसार तेजाजी खड़े हुए थे, अपने दोनों हाथों में साँपों को उठाए हुए. कुछ लकीरें जो शायद साँपों की आकृतियाँ दर्शाती थीं ज़रूर देखी जासकती थीं. उस दीवार पर किशनू हमें कभी नहीं चढ़ने या बैठने देता था. कहता था तेजाजी का सांप काट लेगा. बाकी तीनों तरफ़ से चबूतरा खुला था. मीठे कुएँ के आसपास कई और भी बड़े पेड़ थे – पीपल और नीम के, जिनमें कम से कम दो पुराने पेड़ों की जड़ों के पास साँपों की बांबियाँ थीं. पहले हमें लगता था ये चूहों के बिल थे, पर किशनू ने हमारी यह ग़लतफ़हमी दूर की थी और बताया था इनमें तेजाजी के सांप थे. तेजाजी का मेला जो अगले तीन दिनों में लगने वाला था इसी चबूतरे के गिर्द लगता था. इन सब के अलावा मुख्य रूप से थी चारों ओर दूर दूर तक फैली साफ़, सुनहरी, रेशमी बालू रेत. गर्मियों की दोपहर में तो उस पर चलना भी मुश्किल था, पर शाम को और चांदनी रात में ठंडी ठंडी बालू में दौड़ने में बड़ा मज़ा आता था जब हमारे पाँव ६-६ इंच तक धंस जाते थे. यह स्थान किसी पार्क का सा दृश्य पेश करता था- बच्चे रेत में कुश्ती, कबड्डी, पकड़म-पकड़ाई या ‘सितोलिया’ खेला करते थे, गाँव के बुज़ुर्ग अपनी गपशप की चौपाल लगाते थे, और लड़कियां पैलदूज, चपेटे या कोई अन्य खेल खेला करती थीं. चरने के बाद वापस लौटते जानवर कुण्डी में पानी पीते थे और फिर चरवाहे उन्हें हांकते हुए ले जाते थे. अपने घौंसलों में वापस लौटते पक्षियों के कलरव से शाम होने की आवाज़ तेज़ होजाती थी. इस तरह रात की सियाही फैलने से पहले तक फिर धीरे धीरे वहाँ रहस्यमय सी शांति उतरने लगती थी. तब केवल ब्यालू के बाद टहलने के लिए निकले लोग या छोटी टोलियों में गपशप करते लड़के ही दिखाई देते थे. चांदनी रातों में बहरहाल ऐसा बड़े स्तर पर होता था. अँधेरी रातों में साँपों का डर जो रहता था. अगर एक जगह से दूसरी जगह अँधेरे में जाना पड़ता तो अक्सर लालटेन साथ करदी जाती थी, हालाँकि उसके प्रकाश से ज़्यादा सिर्फ़ उसके साथ होने के अहसास से ही सुकून मिलता होगा. गाँव में शायद ही किसी के पास बैटरी (टॉर्च) हो, पर वैसे रात में लोगों का आना-जाना बहुत कम ही होता था. आवश्यकता पड़ने पर लोग अपनी उपस्थिति का भान ज़ोर से खंखार कर या भजन गा कर कराते थे. शायद इसके दो और भी उद्देश्य थे- एक तो अपने आप को आश्वस्त करना और दूसरा जंगली जानवरों, साँपों आदि को अपने रास्ते से भगाने की कोशिश करना. इससे यह भी फ़ायदा होता था कि यदि कोई केवल अँधेरे के सहारे ही खुले में लोटा लेकर बैठा हो तो वह सम्हल जाये और किसी आड़ में हो जाये.

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बीरमा बळाई के पोते छिगन्या को भौंर्या मो ने मारा था! उनके आतंक के कारण कोई लाश के पास तक नहीं जा सका था दो घंटे तक. किशनू ने घर में सब को सूचना दी थी. ‘ऊधमी छोरो छो, छेड़्यो होयलो भौंर्या मो नै’ मामाजी ने राय दी. सारे मामा लोग आपस में या गाँव में किसी से भी बात करते समय ढूंढारी (जयपुरी) भाषा ही बोलते थे, सिवा हमारे साथ. रात को सोते वक्त उस दिन किशनू ने कई तरह के भूतों के क़िस्से भी सुनाये. एक चुड़ैल तो मीठे कुएँ से रात को बारह बजे रोज़ पानी पीती थी. यह किशनू को एक बार लादू मामाजी ने बताया था. दूसरे गाँव से पूजा करके लौटते वक़्त जब भी कभी देर हो जाती थी उनको वो चुड़ैल दिखाई देती थी. उसके दोनों पैर उल्टे होते हैं. किशनू ने बताया अगर उसकी तरफ़ बिना देखे अगर कोई दूर से ही निकल जाये तो वो तंग नहीं करती. हम किशनू के सामान्य ज्ञान, हिम्मत और चुड़ैलों को पहचानने की और उनसे निबटने की विलक्षण क्षमता से हमेशा प्रभावित रहते थे.

जैसा मैंने पहले बताया, बड़ का वह पेड़ बहुत पुराना था. इसकी टहनियों से लंबी लंबी जड़ें लटकती रहती थीं. कई बार ऐसा लगता था जैसे बड़े बड़े लंबे सांप पेड़ से लटक रहे हों. कई जड़ें तो ज़मीन के अंदर तक धंस गई थीं और उन्होंने मोटे तनों की शक्ल लेली थी. कई बार मेरी बहनें इस पेड़ के इर्दगिर्द खेला करती थीं. भौंर्या मो के नाम से ही मुझे कई तरह की कल्पनाएँ हुआ करती थीं. कभी लगता था भौंर्या मो कोई बड़ा भेड़िया या पागल कुत्ता है- कभी लगता था शायद कोई भूत या चुड़ैल है, कभी कभी सांप की शक्ल का कोई जानवर ज़ेहन में आता था. बहरहाल यह निश्चित था, भौंर्या मो कोई बेहद ही ख़तरनाक चीज़ थी. और यह भी कि उसका वास इसी बड़ के पेड़ पर था जिसकी छाया में यात्री विश्राम करते थे और बच्चे खेलते थे. मैं सोचता रहता था किस तरह भौंर्या मो के इस पेड़ पर कब्ज़ा करने के पहले तक हम यहाँ स्वच्छंद हो कर खेला करते थे. पर अब ये भौंर्या मो! हर रोज़ सुबह जंगल जाते या वापस लौटते वक़्त किशनू हमें हमेशा इस पेड़ से दूर हटा कर लेजाता था. मेरे मन में अब यह पेड़ खौफ़ सा पैदा करने लग गया था और अकसर इसकी तरफ़ या इसके ऊपर देखने की हिम्मत नहीं होती थी. कभी कभी रात को सपने भी आते थे जिनमें मैं उस बड़ के पेड़ से उलटी लटकती हुई उल्टे पैर वाली चुड़ैलों को देखता था. उनके हाथ इतने लंबे थे कि पेड़ के पास से जाने वाले लोगों को वे आसानी से उठा सकती थीं. लेकिन लादू (पुजारी) मामाजी को विश्वास था कि गाँव में जो मंदिर हैं उनके कारण कोई चुड़ैल गाँव में प्रवेश नहीं कर सकती.

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गाँव के बीच में दो मंदिर थे- एक शिव मंदिर जो पुराना था और दूसरा लक्ष्मीनारायण मंदिर जो कुछ वर्षों पहले ही बना था. शाम होने के बाद हर रोज़ लक्ष्मीनारायण मंदिर में आरती होती थी, घंटा और झालरों के साथ. एक आदमी बाएं हाथ से झालर को ऊपर से नीचे घुमाता था और नीचे आने पर दूसरे हाथ से लकड़ी के हथौड़ीनुमा डंडे से उस पर मारता था. यह सब एक लय और ताल से होता था. घंटे की पहली ध्वनि के साथ ही बाहर कुछ कुत्ते इकट्ठे हो कर समवेत स्वर में मुंह उठा कर ‘हू हू’ करके रोते थे. हर रोज़ यही सिलसिला चलता था जब तक आरती होती थी. अम्मा कहती थीं वे भगवान से शिकायत करते हैं कि उनको कुत्ता क्यों बनाया. जो भी हो, पर यह संयोग विस्मयकारी था.

गाँव में ही एक ओंकार नाम के मामा थे जिनको बड़े लोग हमेशा ओंकार्या के नाम से ही पुकारते थे. वे अधेड़ावस्था से बुढ़ापे की तरफ़ तेज़ी से बढ़ तो रहे थे पर उन्होंने शादी नहीं की थी. अकसर वे दूसरे यानी शिव मंदिर में पाए जाते थे और बड़े भक्तिभाव के साथ शिवलिंग को स्नान कराके तीन उँगलियों से तीन आड़ी लकीरों वाला चन्दन लगाया करते थे. कभी कभी स्नान कराते वक़्त अचानक ही बड़े ज़ोर से ‘बम बम बम बम’ बोल उठते थे. शिवलिंग के ऊपर हमेशा एक मिट्टी का घड़ा लटका रहता था जिससे बूँद बूँद पानी शिवलिंग पर टपकता रहता था. शिवरात्रि या ऐसे ही किसी अवसर पर कभी कभी पानी की जगह दूध भर दिया जाता था. काले रंग के, कुछ गंजे, मोटी आँखों वाले और अचानक बम बम बोल उठने वाले ये ‘ओंकार मामाजी’ हमेशा मुझे शिव के ही कोई गण नज़र आते थे, इनसे डर सा लगता था और उनके पास जाने की हिम्मत कभी नहीं होती थी. वैसे मैंने उन्हें कभी हँसते या मुस्कराते भी नहीं देखा था. हाँ, अम्मा से उनकी बड़ी अच्छी तरह बात होती थी और वे लोग ढूँढारी (जयपुरी) बोली में ही बात करते थे. एक मोटा जनेऊ पहने खुले बदन वे कई बार मंदिर के बाहर ‘दासे’ पर बैठे रहते थे. कई बार मैंने उन्हें कुछ बच्चों को पहाड़े रटवाते भी देखा था –

‘सोळा नाम चाळा रे चंवाळ सो’ (१६ गुणा ९ = १४४)
‘सत्रा छक् दुलंतर सो’ (१७ गुणा ६ = १०२)
‘सत्रा सत्ते एक कम बीस्याँ सो’ (१७ गुणा ७ =११९)
‘बारम्बार चाळा रे चंवाळ सो’ (१२ गुणा १२ = १४४)
‘तेरा तेरा घुणन्तर सो’ (१३ गुणा १३ = १६९)

मुझे भी इसी तरह ४० तक के पहाड़े याद कराये गए थे और वे बहुत कारगर हैं. अम्मा को तो पौना, सवाया, डेढ़ा, ढइया, ढींचा वगैरह तक के पहाड़े सब याद थे और वे बड़ी आसानी से साढ़े तीन गुणा डेढ़ का उत्तर बता देती थीं.

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हमारे मामाजी के कई चचेरे भाई भी थे जो, ज़ाहिर है, रिश्ते में सब हमारे मामाजी ही लगते थे. उनमें एक ही परिवार के पांच भाई बड़े नामी थे जो सभी एक ऐसी भाषा के विभाग से सम्बंधित रहे जिससे उनका किसी तरह का कोई रिश्ता नहीं रहा था सिवा इसके कि इनमें से एक भाई सबसे पहले उस विभाग में नौकरी में लग गए और वहाँ के सरल स्वभाव वाले डाइरेक्टर के कृपापात्र बन गए और आजन्म यानी उनकी मृत्यु तक, जो उनके उस पद पर रहने के दौरान ही होगई, बने रहे. आगे चल कर उनका इतना दबदबा हो गया कि उन्होंने गाँव की आधी से ज़्यादा आबादी को इसी विभाग में ही, कभी कभी उनकी योग्यतानुसार, पर ज़्यादातर मामलों में उससे ऊंचे पदों पर, खपा दिया. आगे चल कर उन्होंने कुछ ऐसा चक्कर चलाया कि खुद भी वहीं ऐसे पद से सहायक निदेशक के पद पर चढ़ बैठे जहाँ से किसी अन्य विभाग में ऐसा संभव नहीं होता. खैर, इन पाचों भाइयों में हर एक उन दिनों की प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और जनसंघ में से किसी एक पार्टी की विचारधारा के साथ था. ताश खेलने में भी ये लोग माहिर थे और इस दौरान अक्सर उनमें विवाद हो जाता था जो ताश में की गई बेईमानी से शुरू होकर, उनकी पार्टियों की नीतियों से होता हुआ उनके नेताओं द्वारा निजी ज़िंदगियों में किये जारहे भ्रष्टाचार और व्यभिचार तक जाता हुआ हाथापाई से कुछ ही कमतर भयंकर वाक् युद्ध में बदल जाता था. अगर उस समय में ध्वनि की तीव्रता नापने का कोई साधन होता तो पता चलता कि वह आम आदमी के कान के पर्दों के लिए सह्य अधिकतम डेसीबल सीमा से कई गुना ऊँची पहुँची हुई होती थी. यह सब इतना ज़बर्दस्त होता था कि एक मील दूर भी किसी व्यक्ति को कोई संदेह नहीं होता कि वहाँ कोई गंभीर मारपीट या झगड़ा नहीं हो रहा है. मुझे भी पहली बार यही धोखा हुआ था और मैं कुछ डर सा गया था. पर सुद्धा ने बड़ी सहजता से बताया कि वे लोग ताश खेल रहे हैं. बहरहाल ये सभी भाई अपनी उम्र के मुताबिक और तत्सम्बन्धी सभी कार्यकलापों में रुचि रखते थे.

इन्हीं भाइयों के एक और बड़े भाई थे जो उनके चचेरे भाई थे. जयपुर में ही वे किसी महकमे में काम करते थे. गाँव से शहर आवागमन के लिए उन्होंने अपनी साईकिल में एक इंजन फिट करा लिया था. दुर्भाग्यवश एक बार जयपुर से गाँव आते वक़्त किसी दुर्घटना में वे कोहनियों तक अपने दोनों हाथ खो बैठे. उनके ५-६ पुत्रियां और २ पुत्र थे. एक पुत्री तो बोलने में सिर्फ़ ट-वर्ग - ट, ठ, ड का ही इस्तेमाल करती थी. कंतो से झगड़ा होने पर वह उसको धमकी देती थी – ‘ओ टंटो, टो मानैं ने टाईं, टाटाडी टूं ठै डउं डी’ (ओ कंतो, को माने न कांईं, काकाजी सूं कह दऊंगी). उनकी पत्नी दबंग, पर अच्छे अंग सौष्ठव वाली थीं- लंबी, छरहरी, सुन्दर भी. ऊपर से तुर्रा ये कि वे ज़्यादा ही खुली और खुशमिज़ाज, हंसीमजाक करने वाली थीं जो कि देवरों की चिर-आकांक्षा रहती है. ज़ाहिर है सभी देवर उनसे अच्छे और मधुर सम्बन्ध रखने के इच्छुक थे और वास्तव में रखते भी थे. सभी लोगों में वे भाभीजी के नाम से प्रसिद्ध थीं. हर देवर, ख़ासकर ये पांच हमेशा यह ध्यान रखने का सतत् प्रयत्न करते थे कि चाहे सुनसान दोपहर हो या देर रात, भाभीजी को अकेलापन कभी न सताए. शायद यही कारण रहा होगा कि जब भी उन लोगों में से किसी को ऐसा आभास होता कि भाभीजी अकेलेपन से जूझ रही होंगी, उनमें से कोई न कोई शुभचिंतक सतर्कता से इधर उधर झांकते हुए उनको साथ देने पहुँच जाता. जब कभी ये लाचार भाईसाहब लघुशंका के लिए रात में उठते या उठने से पहले खंखारते, तब भाभीजी का एकाकीपन यकायक दूर हो जाता और देवर चुपचाप खिसक लेता. भाभीजी निरंतर सौभाग्यशाली रहीं कि किसी भी देवर ने उन्हें कभी एकाकीपन महसूस नहीं होने दिया.

इन पांच मामाओं स्वयं के एक वृद्ध मामा थे जो पूर्णतः अंधे थे और ऊंचा सुनते थे. पूरे गाँव में वे मामाजी के नाम से ही जाने जाते थे. अक्सर वे किसी बच्चे की सहायता से लघुशंका स्थल तक लेजाते देखे जासकते थे. उनकी ख़ास बात ये थी कि वे ब्रजभाषा की कविताओं और कवित्तों में महारथ रखते थे. पद्माकर, केशव आदि के कवित्त वे बड़े चाव से सुनाते थे. अगर कुछ मनचले इकट्ठे होकर उनसे कवित्त सुनाने का आग्रह करते तो भी वे बिना उनकी मक्कारी भांपे उनको सचमुच गुणग्राही समझ लेते थे और कवित्त सुनाने लगते थे. वे हमेशा सिर और कानों को ढकने वाला एक सूरदासी टोपा पहन कर रखते थे. साधारणतः वे मैली सी ऊंची धोती और घर में सिला हुआ जेब वाला बनियान या बगलबंदी (बन्डी) पहनते थे, हां विवाह आदि कार्यक्रमों में ज़रूर उनकी धोती और बगलबंदी धुली हुई होती थी और वे बड़े सम्मान के साथ लाये जाते थे. तब यथासमय उनके कवित्तों का दौर चलता था. विवाहों के अवसर पर मंगलाचरणों और सुन्दर घनाक्षरी छंदों से वे रस सृजन करते थे और अंत में ‘शुभलग्न सावधान’ बोलते थे. यह आश्चर्यजनक है कि उनको ब्रजभाषा के सभी दिग्गज कवियों के दोहे, कुण्डलियाँ, कवित्त, छंद, सोरठे, आदि कंठस्थ थे. दुर्भाग्य से उनके किसी सम्बन्धी ने न तो उनसे कुछ सीखने का प्रयत्न किया न ही उनके कवित्तों का संकलन किया. उनकी बुज़ुर्गियत और इस क्षमता का सम्मान अक्सर शादी-ब्याह, यज्ञोपवीत आदि अवसरों पर ही देखने को मिलता था, बाकी समय उनके स्वयं के पोते-दोहते और अन्य छोरे-छपारे उनकी लाचारी का मज़ाक उड़ाते पाए जाते थे या उन्हें तंग करते दिखते थे. शौचादि के लिए मामाजी के लिए कच्चे मकानों के पिछवाड़े में ही मिट्टी की दीवार के पीछे एक स्थान विशेष निर्धारित था जिसके आसपास बबूल की सूखी टहनियाँ, कांटे वगैरह पड़े रहते थे. नील्या भंगी या उसके परिवार का दायित्व था कि हर रोज़ वह स्थान साफ़ रहे. गाँव के कुछ बच्चे जो शायद उस परिवार में मामाजी के सम्मानजनक ओहदे से बेख़बर थे, कभी कभी चलते फिरते उनके ‘सूरदास’ होने पर फ़ब्तियां कस देते थे. पर बच्चों को फटकार कर या गाली देकर वे आगे बढ़ जाते थे. एक बार शौच जाते वक़्त कुछ बच्चों ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया था और मिट्टी की टूटी दीवार के एक छेद में से कोई सरकंडा या डंडा मामाजी के खुले स्थान पर घोंप दिया था. उस हादसे के बाद से वे एक छड़ी हमेशा अपने पास रखते थे और शौच के समय किसी भी संभावित या काल्पनिक उपद्रवी को दूर रखने के लिए बीच बीच में वे उसे घुमा देते थे एक घुड़की के साथ. उपचार से सतर्कता भली.

इन्हीं मामाओं के एक चाचा थे जिन्हें वे लोग लादू काकाजी कहते थे. हम उन्हें लादू नानाजी पुकारते थे. इन्होंने इन मामाओं में से एक को गोद ले लिया था जो बेहद हकलाते थे. ये मामा सारे गाँव के इंजीनियर माने जाते थे. हर व्यक्ति जो अपना मकान बनवाता, इनसे ज़रूर सलाह लेता था और ये सहर्ष गाँव के मिस्त्रियों को जु़बानी नक्शा समझा दिया करते थे. इसी का नतीजा था कि गाँव के हर नए मकान का नक्शा एक सा होता था- सामने दो कमरे जिनमें घुसने के दरवाज़े भी बाहर थे, उन दोनों कमरों के बीच से घर में अंदर जाने के लिए एक पोली, फिर चौक और चौक के तीन तरफ़ फिर कमरे. टट्टी गुसलखाना वगैरह सब बाहर ताकि बाहर से ही नील्या भंगी हर रोज़ सफ़ाई कर दिया करे. बहरहाल इस नक़्शे से किसी को कोई शिक़ायत नहीं थी. ये कुशल पाकशास्त्री भी थे जो बड़े बड़े भोजों के लिए या शादी-ब्याहों में आने वाले किसी भी संख्या में मेहमानों के लिए लगने वाली सामग्री का तौल बता देते थे और इस तरह सारे गाँव के लोगों की निःशुल्क मदद करते थे. खैर.

लादू नानाजी काले, मोटे, और रौबीली आवाज़ के मालिक थे, लेकिन उनकी तेज़ आवाज़ अपने पुत्र और भतीजों के बच्चों को पुकारने में या गली के कुत्तों को हड़काने में ज़्यादा सुनाई देती थी. बहरहाल वे अपने सभी पोते पोतियों को बेहद प्यार करते थे और उनका ख्याल रखते थे. वे आजन्म अविवाहित ही रहे. शायद स्वेच्छा से ही. अपने ज़माने में वे अच्छे समाजसेवी भी रहे होंगे और निश्चित ही निर्बल, असहाय नारियों को संबल देते रहते होंगे. कभी अंग्रेजों की सेवा में रही एक महिला जिन्हें पूरा गाँव ‘पुनिया बोरी’ के नाम से जानता था, वर्षों से इन्हीं नानाजी और उनके परिवार के साथ रहती थीं. गोरीचिट्टी ये वृद्ध महिला अपनी नाक पर दाहिनी तरफ़ एक मोटा सा फूलनुमा कांटा पहनती थीं, और हाथ पैरों में चांदी के मोटे कड़े. अपने ज़माने में ये यक़ीनन सुन्दर और प्रभावशाली रही होंगी. इनके मुंह और हाथों पर बहुत सारे टैटू भी गुदे हुए थे. इनके बारे में यह प्रसिद्ध था कि ये अंग्रेज़ी जानती हैं. सुद्धा और मैं उनसे पूछते थे – ‘पुनिया बोरी, पानी को क्या कहते हैं?’ वे तपाक से जवाब देतीं – ‘बिंग ऑटो’. कई दिनों के विचार मंथन के बाद हम लोगों ने यह निष्कर्ष निकाला कि जिस अंग्रेज़ के यहाँ वे काम करती होंगी वो कहता होगा – ‘ब्रिंग वाटर’ और उन शब्दों का अर्थ उनके लिए था पानी. बहरहाल पुनिया बोरी पहले लादू नानाजी और फिर उनके पूरे परिवार की सेवा में आजन्म समर्पित रहीं और उस परिवार के सारे बच्चों का उन्होंने ही लालन पालन किया. उन्हीं की सेवा में रत इस सीधीसाधी, सरल स्वभाव की निश्छल महिला ने वृद्धावस्था में कई वर्ष गुज़ारने के बाद गाँव में ही देहत्याग किया.