भ्रम / एक्वेरियम / ममता व्यास

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जानते हो कवितायें और मछलियाँ दोनों ही भ्रम पैदा करती हैं? जैसे कविता बहती है न धीरे-धीरे मन में, ऐसे ही तो बहती है मछली समन्दर में।

कौन जाने, कितनी प्यासी है मीन जल में और कौन जाने कितनी प्यासी है कविता मन में। क्या जाने कविता कैसे सांस लेती है मन के अंधे कुएँ में और मछली समन्दर में। कौन जाने दोनों में से कौन कितनी प्यासी, किसके पास है कितनी गहरी उदासी.

हाँ, लेकिन मछलियों ने एक बहुत बड़ी सच्चाई सिखाई मुझे। उन्होंने बताया कि बहते-बहते भी सुन्दर सपने देखे जा सकते हैं कि बहते-बहते भी रिश्ते बनाये जा सकते हैं। वचन पूरे किये जा सकते हैं।

कोई ज़रूरी नहीं कि हर रिश्ते के आधार तलाशे जाएँ। कोई ज़रूरी नहीं कि जमीन पर ही अंकुर फूटे उनमें कोंपलें आएँ। लहरों और बादलों पर भी लिखी जा सकती है कोई कविता या अफसाना। जो जमीन तलाशते हैं न, अक्सर वे कभी कोई रिश्ता बना ही नहीं पाते और जो ठहरने का, रुकने का कहकर जाते हैं न वह कभी वापस नहीं आते।

मछलियाँ कभी ठहरती नहीं, न रुक के सोचती हैं। उनके पास शंका, संदेह का समय ही नहीं। वे तो सिर्फ़ बहती है प्रेम से, कवितायें भी तो कहाँ ठहर पाती हैं मन में। चुपके से आंखों के रस्ते निकल पड़ती हैं यात्रा पर।

तुम कवितायें लिखना और मैं मछलियाँ पालूंगी। हम दोनों समन्दर के किनारे एक नयी दुनिया बनायेंगे जिसकी कोई जमीन नहीं होगी। जहाँ खुरदुरे रस्ते नहीं होंगे, न भूलभुलैया वाली गलियाँ। वहाँ घर भी नहीं होंगे, न कोई दहलीज, न चौखट और न कोई लक्ष्मण रेखा।