मंदी ने दी नई ताकत / वर्तमान सदी में मार्क्सवाद / गोपाल प्रधान

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उसके बाद तो अमेरिका में खड़े हुए 'अकुपाई वाल स्ट्रीट' आंदोलन के साथ ही ढेर सारे लोग मार्क्सवाद की ओर खिंचे आ रहे हैं। मसलन 2012 में डेविड हार्वे की किताब 'रेबेल सिटीज' प्रकाशित हुई है जिसमें यूरोप, अमेरिका और दुनिया के अन्य तमाम बड़े शहरों में फूट पड़नेवाले आंदोलनों के नगर आधारित होने के मद्दे नजर शहर के क्रांतिकारी महत्व को समझाने की कोशिश की गई है। हमारे देश में उद्योगीकरण के बाद मजदूर आंदोलन तो जरूर शहर केंद्रित रहे लेकिन नए दौर में बढ़ते हुए नगरीकरण की पृष्ठभूमि में इस परिघटना पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

हाल के दिनों में मार्क्सवाद की ओर रुझान को देखते हुए फ्रांसीसी मार्क्सवादी एलेन बादू ने इस समय को मार्क्सवाद के उभार का तीसरा दौर कहा है। इसके पहले के प्रथम दौर को वे 1792 में फ्रांसीसी गणतंत्र की स्थापना से ले कर 1871 में पेरिस कम्यून के पतन तक मानते हैं। दूसरा दौर 1917 की रूसी क्रांति से शुरू हो कर 1976 में चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति के खात्मे तक चला था। नई पीढ़ी के लोगों को बदलाव की प्रक्रिया को तमाम किस्म के आंदोलनों के क्षणिक उभार के आगे स्थायी प्रतिरोध की ओर ले जाने का रास्ता मार्क्सवाद के भीतर नजर आ रहा है।

यूरोप के कुछ देशों में नई तरह की वामपंथी राजनीति के उभार के कारण भी संगठन और आंदोलन के मामले में फिर से सुधारवादी और संघवादी आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं। अनेक लोग जो विरोध की उत्तर आधुनिक धारा के साथ चले गए थे वे भी नए उत्साह के साथ वापसी कर रहे हैं लेकिन स्वभावत: अपने नए और भ्रामक सूत्रीकरणों के साथ। इसीलिए दोबारा सावधानी के साथ अपने को मार्क्सवादी कहनेवालों के प्रति नए सिरे से आलोचनात्मक नजरिया अपनाने की जरूरत है।