मकान की तलाश / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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भाई प्रेमचन्द जी अपने पाँच बच्चों, एक अदद बीबी और चालीस नग सामान के साथ स्टेशन पर अवतरित हुए। सबसे पहला काम उन्होंने मुझे प़फ़ोन करने का किया। पुराने परिचित होने के नाते मैं पहुँचा, तो प्रेम-विभोर होकर जोंक की तरह मुझसे चिपट गए। प्रेम-विभोरता में नाक भी विभोर हो चुकी थी; जो आँसुओं का साथ देने के लिए सार्वजनिक नल की तरह बह रही थी। इस सामान में दो बक्से थे, तरह-तरह के भगवानों के। एक में थीं कई प्रकार की मूर्तियाँ-शिव, हनुमान, गणेश, पार्वती की। काली, भैरवी जैसे चित्र भी थे। कुछ में दण्डस्वरूप ठग का सिर आरे से चीरा जताा है, डाकू को खौलते तेल में कड़ाहे में उबाला जाता है, घूसखोर का हाथ काटा जाता है।

दस बक्सों में पाँच बच्चों को आज तक जन्म-दिवस पर मिले उपहार थे-खेलकूद में मिले उपहार एवं पदक थे-बेबी फीडर से लेकर बैट-बॉल तक। एक बड़े बक्से में थे 28 जोड़ी जूते चप्पल, बाथरूम से लेकर पिकनिक-पार्टी तक में पहनने के लिए। बाक़ी बक्सों की अन्तरात्मा का परिचय भी प्रेमचन्द जी ने मुझको प्लेटफार्म पर ही दे दिया। मकान मिल जाने पर यह सामान ऊपर-नीचे, दीवार-दरवाजे, कील-खिड़की पर जहाँ भी जगह मिलती, रख दिया या लटका दिया जाता।

प्रेमचन्द जी ने चुटकी बजाकर मेरी परेशानी को दूर कर दिया-"आपका एक कमरा तो खाली है। कुछ सामान उसमें रख देंगे, कुछ आपके ड्राइंग रूम में आ जाएगा। कल परसों तक मकान ढूँढकर पक्का इन्तज़ाम कर लेंगे। बस अभी लीजिए"-कहकर वे बन्दर की तरह उछले और बाहर निकल गए। दो मिनट में वे पाँच कुलियों समेत आए। जल्दी-जल्दी सामान उठवाकर बाहर खड़े ट्रक में भरवा दिया। मुझसे कहा-"तुम चलो बस, मैं आया अभी।"

मैं घिसटता हुआ घर पहुँचा। प्रेमचन्द अपनी आफ़त मेरे घर पर उतार चुके थे, सामान इधर-उधर गाँज दिया गया था। मैं अभिमन्यु की तरह जूझकर छलाँगते-फलाँगते किसी तरह भीतर पहुँचा। प्रेमचन्द जी प्रेमपूर्वक चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। मेरे लिए कुर्सी छोड़कर एक बक्से पर चढ़ बैठे-"आओ भाई महेश, देखो मुझे आपका प्रेम सिलीगुड़ी से यहाँ खींच लाया।" मैं फीकी हँसी हँसकर रह गया। शाम को प्रेमचन्द के साथ मैं कोलम्बस की तरह मकान की तलाश में निकला।

मेरे मकान मालिक आश्चर्य-मिश्रित मजबूरी से मेरी ओर निहार रहे थे। मुझे बुलाकर धीरे से कहा-"लगता है बेटा फँस गए हो! जल्दी छुटकारा पा जाओ। अगर देर की तो पछताओगे।"

मैंने कुछ सूफ़ियाना ढंग से कहा-"वही तो कर रहा हूँ।"

सबसे पहले जिस मकान मालिक से भेंट हुई, उसने शर्तें रखीं-"हर मौसम में चार बजे जागना होगा। नहा-धोकर कमरे में अगरबस्त्ती जलानी होगी। आँगन की सफ़ाई भी आप लोगों के जिम्मे रहेगी। माँस-मछली का सेवन नहीं करोगे। बीड़ी-सिगरेट-शराब नहीं पी सकोगे। हर मंगलवार कीर्तन में शामिल होना पडे़गा। रात के दस बजे मुख्य द्वार बन्द हो जाएगा, इससे पहले घर आना पड़ेगा। मेरी नज़र कमजोर हो गई है; अतः सुबह के समय मुझे अख़बार पढ़कर सुनाओगे। दिन में दो बार मेरी बुढ़िया पत्नी को चाय पिलानी पड़ेगी। शाम को घण्टा भर मेरी पोती को पढ़ाना पड़ेगा। सुबह-सुबह मेरे पैर छू लो, तो-तो कोई हर्ज नहीं। तुम्हारा परलोक भी सुधर जाएगा।"

शर्तें सुनकर प्रेमचन्द जी का रंग उड़ गया। नहाने का शौक इन्हें बिल्कुल नहीं। गर्मी के दिनों में भी बहुत कम नहा पाते हैं, सर्दियों में तो कभी-कभार। घुमक्कड़ ऐसे कि ग्यारह बजे रात से पहले घर पहुँचना पाप। सो जाएँ तो ढोल बजाने पर भी सात से पहले नहीं जाग सकते। अख़बार पढ़ना मूर्खता समझते हैं। कीर्तन में शामिल हो सकते हैं; लेकिन मछली नहीं छोड़ सकते। प्रेमचन्द जी इन शर्तों को न मान सके; अतः बिना कुछ कहे उठ खड़े हुए।

दूसरी जगह पहुँचे चम्पा ताई के यहाँ। काल कोठरी जैसा मकान। ऊपर चढ़ने के लिए संकरी सीढ़ियाँ। सर्कस में काम करने वाला ही आसानी से चढ़-उतर सकता है। चम्पा ताई ने प्रेम से समझाया-"मकान में रहो ख़ुशी से। किसी टैम आओ-जाओ, मन्नै के लेणा-देणा। घर में बच्चे रहेंगे, तो ख़ूब रौनक रहेगी। पर आँगन में कच्छा पहर कै बैल बरगा घूमता फिरै, ऐसा माणस मुझे खोट्टा लागै। दो मिहिने का किराया अडवांस देणा पड़ैगा। मेरा गेहूँ पिसाकै लाणा पड़ैगा। मन्नै एक भैंस पाल रखी है, उसकी खातिर मण्डी से घास खरीद कै अपनी साइकिल पै धर लाया करैगा। दूध हिंया से ही खरीदणा, पर पाणी मिलाणे की सिकायत कभी न करोगे। हर त्यौहार को मेरे घर, एक डिब्बा मिठाई का ज़रूर पहुँचाना पड़ैगा।"

"और कुछ?"-प्रेमचन्द जी गहरी साँस लेकर बोले।

चम्पा ताई अपनी भेंगी आँख खुजलाकर बोली-"दिन में एक बेर से ज़्यादा नहीं नहाओगे। ज़्यादा चलने से नल टूटता हैं, पाणी बरबाद होणे से इन्दर भगवान नाराज होते हैं, बस और कोई बात नहीं। मौज से रहो।"

प्रेमचन्द जी ने हारकर हाँ कह दी। दस ही दिन हुए थे कि चम्पा ताई ने बुलाया-"बेट्टे, तेरे भरोसे पै मकान दिया था। प्रेमचन्द की घरवाली छत पर बाल्टी पटकती रहती है तेरे ताऊ जी रात सुपने में आए। आकर चुपचाप मेरे सिरहाणे बैठ, कहण आए हैं? बिचारे दुखी होकै बोल्ले-जो किरायेदार तुमने रखा है, ठीक नहीं है। दिन में इसकी घरवाली कई बेर नहाकर पाणी बरबाद करती है। बाल्टी बड़ी ज़ोर से उठाते-धरते हैं, जिससे मेरे सिर में धमक लगती है। इनके बच्चे छत पर ऊधम मचाते हैं। दीवार में कीलें ठोककर कलेण्डर टाँगते हैं। मुझे लगता है, जैसे ये कीलें मेरी छाती में ठोंकी जा रही हैं। इनसे अब मकान खाली करवा लो।"

" मैं क्या करूँ? ताऊजी के 'सुपने' वाली बात का प्रेमचन्द जी से क्या सम्बन्ध?

"सम्बन्ध क्यों नहीं बेट्टे? जब तक जिए, मेरी हर बात मानते थे। अब सुरग में जा बैठे हैं। अब में उनकी बात नहीं मानूँगी, तो उन्हें अपनी सकल कैसे दिखाऊँगी? मकान तो इनसे खाली करवाणा ही होगा। तुम इन्हें कहीं और मकान दिलवा दो।"

मैं प्रेमचन्द जी को लेकर फिर मकान की तलाश में चल पड़ा हूँ। आख़िर 'सुरग' (भगवान जाने, नरक में हों या हमारे ही मुहल्ले में चूहा-छछून्दर बनकर आ गए हों) में बैठे ताऊ जी की बात कैसे टाली जा सकती है? चम्पा ताई उन्हें अपनी 'सकल' कैसे दिखाएँगी?