मछली-मछली कितना पानी / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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मनोहर सिर्फ नाम का ही मनोहर नहीं, दिखने और बात करने में भी मनभावन था। मुझे वह बेहद पसन्द था। उसका मनभावनपन था या मेरी पसन्दगी, मैं मन ही मन उसे कई-कई नाम देता रहता। कभी मैं उसे सुमुख कहता, कभी सोचता उसका नाम मधुर होना चाहिए था। मूलतः तो वह अवध प्रदेश का वासी था, पर उसका लब्बो-लहज़ा दिल्ली की पुरानी तहज़ीब जैसा था। उसके बातचीत के अन्दाज़ को लखनवी अन्दाज़ भी कहा जा सकता था। मनोहर दिल्ली दैनिक में रिपोर्टर था और मुझ जैसे लेखकों को गाहे-बगाहे अख़बार वालों की ज़रूरत पड़ ही जाती है।

एक दिल्ली दैनिक का चीफ रिपोर्टर मेरा मित्र नहीं तो एक अच्छा परिचित ज़रूर था। यूँ वह खुद भी कवि था, इसलिए साहित्यिक ख़बरें छापने में उसकी रुचि बनी रहती थी। एक ऐसे ही कार्यक्रम की रिपोर्ट लेकर उसके पास पहुँचा तो देखा कि चीफ रिपोर्टर सुरेश गौड़ मुँह में पाइप दबाए टेलीफोन सुन रहा था। मुझे देखते ही आधा उठा आधा बैठा वाले अन्दाज़ में उसमें हरकत हुई और उसने मुझे सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।

अख़बार का दफ़्तर। गहमगहमी तो थी वहाँ। फोन घन-घना रहे थे। रिपोर्टें इधर-उधर हो रही थीं। सुरेश को फोन पर बिज़ी पा मैंने इधर-उधर देखा कि शायद कोई और परिचित मिल जाये, पर दूर-दूर तक कोई परिचित नहीं दिखा। ख़ैर, फोन पर उसकी बात जल्दी ही खत्म हो गई। बोला-”कहिए भूपि जी! क्या हाल हैं? आप इधर कभी आते नहीं, आज कैसे?” मैंने रिपोर्ट उसके सामने रखते हुए कहा, “आज ऐसे।”

सुरेश ने सरसरी निगाह से रिपोर्ट पढ़ी, फिर कहा-”ज़रा विस्तार से दो यार, ऐसा करो कि वो आपकी कॉलोनी में हमारा एक रिपोर्टर रहता है मनोहर...मैं उसे कह दूँगा, इसे विस्तार से लिखकर कल उसी के हाथ भिजवा दो। कार्यक्रम की कोई फोटो हो तो वो भी दे देना। सण्डे फीचर में लगवा दूँगा।” इतने में चाय आ गयी।

अगले दिन मैं रिपोर्ट और फोटो के कोई फोन किये बिना मैं सुरेश द्वारा दिये गये मनोहर के पते पर जा पहुँचा। कालबेल बजते ही दरवाज़ा एक भद्र महिला ने खोला। उसे देखते ही मेरा हाथ में पकड़ा हुआ लिफाफा गिरते-गिरते बचा। गोरा रंग, तेज़ नैन-नक्श, भूरी आँखें, भूरे ही बाल, भरा हुआ बदन। मैंने इससे पहले इतनी सुंदर महिला कम ही देखी थी। मुझे अपने एक मित्र की याद आयी, जो पहाड़ से एक लड़की ब्याह कर लाया था। उसका सौन्दर्य एक शरारा था और यह अंगारा। क्षणभर तो मैं अवाक् रहा, फिर बोला-”जी वो मनोहर से मिलना था।”

“वो तो कहीं निकल गये हैं।” उसकी आवाज़ भी कम मधुर नहीं थी। कई बार बहुत सुन्दर महिला की आवाज़ इतनी ख़राब होती है कि सुनने के बाद व्यक्ति सोचता है-‘नाहीं बोलती तो ठीक था’, पर इस भद्र महिला की आवाज़ इतनी संगीतमय थी कि मन कर रहा था कि उससे और बात करूँ, लेकिन सुबह-सुबह क्या बात करूँ। उसने अन्दर आने के लिए भी तो नहीं कहा। मैंने ही पूछा-”कब मुलाकात हो सकती है?”

“आप काम बताइए...या अपना फोन नम्बर छोड़ जाइए...उन्हें बता दूँगी।” यह कहते हुए लगा जैसे वह दरवाज़ा बन्द करना चाहती है।

“यह एक रिपोर्ट है, दरअसल मुझे उनके अख़बार के चीफ रिपोर्टर सुरेश जी ने यहाँ भेजा है”, यह कहकर मैंने स्वयं को आश्वस्त किया कि कोई अनाहूत मेहमान नहीं हूँ।

“अच्छा...अच्छा...” कहकर उसने लिफाफा मेरे हाथ से ले लिया और मनोहर का एक विज़िटिंग कार्ड देते हुए कहा-”आप एक घण्टे बाद उनसे बात कर लीजिए।”

अब मुझे वहाँ खड़े रहना मुश्किल भी लग रहा था और कुछ असभ्य भी, पर जाते-जाते मैंने उससे जानना चाहा कि-”आप...!”

“मैं उनकी पत्नी हूँ।”

इससे पहले कि वह दरवाज़ा बन्द करे, मैंने अबाउट टर्न कर लिया। मन था कि ठिकाने नहीं आ रहा था। यह होती है सुन्दरता। कौन आदमी ऐसी सुन्दरता की जंज़ीर में नहीं जकड़ना चाहेगा, पर कुछ बेरुखी भी थी यार उसमें...तो क्या वह एक अनजान आदमी को अन्दर बुला लेती...वक़्त देखा है, कैसा जा रहा है...और फिर खूबसूरती को देख किसकी नीयत खराब होने होने में कितना वक़्त लगता है, कौन जाने...तरह-तरह के तर्क-वितर्क करता हुआ लौटा। कुछ बेचैनी और कुछ सम्भव घटने की आशा में मैंने तीन-चार बार फोन किया, पर सिर्फ़ घण्टी बजती रही। घण्टे भर बाद मनोहर का ही फोन आ गया-”हलो, मैं मनोहर...”

“रिपोर्ट मिल गयी?”

“जी...प्रिया ने दे दी है।”

“प्रिया...!”

“हाँ, मेरी पत्नी, उन्हें दरअसल दफ्तर जाना था, आपको बिठा भी नहीं सकीं।”

मेरी जान में जान आयी। जो थोड़ा-सा अपमानित-सा अनुभव कर रहा था, वह भाव खत्म हो गया और मन ने प्रिया के व्यवहार के पक्ष में कई तर्क जुटा दिये।

“रिपोर्ट बहुत अच्छी है”, मनोहर कह रहा था, “ऐसी ख़बरें और भी हों तो हमें दीजिए...नहीं फोटो तो शायद न जा सके...फिर भी सुरेश जी से बात कर लूँगा...कभी आइए न...एक प्याला चाय पिएँगे।”

फोन पर हुई बातचीत ने मुझे मनोहर के प्रति भी आकर्षित किया और अगली ही शाम का समय तय करके मैं उसके घर जा धमका।

“प्रिया नहीं दिख रही”, मैंने अपनी उत्सुकता को भरसक दबाते हुए पूछा।

“आती ही होगी, मिलकर चाय पीते हैं।” और सचमुच चन्द मिनटों बाद ही प्रिया आ गयी। सारा दिन काम करने के बाद भी वह तरोताज़ा लग रही थी। उसने बड़ी बेपरवाही से एक कुर्सी सँभाली और पर्स एक ओर फेंकते हुए बैठ गयी।

“हलो”, मैंने कहा।

“हलो”, प्रिया ने कहा।

मनोहर ने पानी पेश किया और ब्रू होती हुई चाय को ट्रे में सलीके से सजाकर ले आया। प्रिया की सुन्दरता पर तो मैं एक तरह से मोहित ही हो चुका था। मनोहर की सुन्दरता भी कोई कम नहीं थी। अगर महिलाएँ प्रिया जैसी सुन्दर कम होती हैं तो पुरुष भी मनोहर जैसे सुन्दर कम ही होंगे। मन से कहा-‘जोड़ी अच्छी है।’

मनोहर का सलीका, उसकी तहज़ीब मुझे और भी अच्छी लगी। आम भारतीय परिवारों में कामकाजी महिलाओं के साथ भद्र-व्यवहार नहीं होता है, दोस्त या उससे भी एक पारम्परिक पत्नी, बहू, माँ और बहन की-सी अपेक्षाएँ की जाती हैं। पति सिर्फ पति होता है, दोस्त या हमसफर नहीं, ऐसे में मनोहर का व्यवहार मुझे आम पतियों से थोड़ा अलग लगा और अच्छा भी। उसी ने चाय बनाई और हम तीनों ने मिलकर पी। कुछ इधर-उधर की बातें की इधर-उधर की बातों से ही मुझे पता चला कि उनकी एक बच्ची भी है। मन में सोचा प्रिया माँ तो लगती ही नहीं। अच्छा मेनटेन कर रखा है। यह भी पता चला कि दिल्ली आने से पहले वे दोनों कलकत्ता में काम करते थे। थे तो अलग-अलग अख़बारों में लेकिन मेल-मुलाकात हो ही जाती थी। प्रिया सिख परिवार से थी, यह पता चलते ही उसकी सुन्दरता, उसकी देह का भराव मेरे लिए स्वीकार करना आसान हो गया। मन ने कहा-‘पंजाबनें होती ही बला की सुन्दर हैं। खुद मेरी माँ कितनी सुन्दर थी। हीर भी इतनी सुन्दर न रही होगी।’

मनोहर यू.पी. का था, लेकिन जगह-जगह काम करने की वजह से उसमें अन्य प्रदेशों के भी थोड़े-बहुत गुण समा गये थे। दिल्ली की औपचारिक हाय-हैलो भी उसने सीख ली थी,

लेकिन लखनवी तहज़ीब वह पूरी तरह छोड़ नहीं पाया था। या शायद वही उसकी पहचान थी। हाँ तो कलकत्ता की बात कर रहा था-वहीं मनोहर और प्रिया में प्रेम हो गया और दोनों ने विवाह करने का फैसला ले लिया। दोनों परिवारों में उसका विरोध हुआ, लेकिन उन्होंने उसकी परवाह न करते हुए विवाह कर लिया। तब उन दोनों को यह लाभ था कि यह सिर्फ उन्हीं का मिलन नहीं बल्की उत्तर प्रदेश और पंजाब का भावनात्मक मिलन है। कुछ करने के लिए और कुछ न करने के लिए तर्क अलग होते हैं। उन्होंने कुछ करने के लिए तर्क खोज लिए अन्तर्जातीय, अन्तर्प्रदेशीय विवाहों के बिना भावनात्मक एकता सम्भव ही कैसे है। प्रिया का जन्म कलकत्ता में ही हुआ था, लेकिन पंजाबीपन उसमें ठेठ पंजाबियों जैसा ही था। मसलन मनोहर को अरहर की दाल पसन्द थी तो प्रिया का ज़्यादा ज़ोर राजमां पर रहता था। मनोहर पूड़ी पसन्द करता था तो प्रिया ज़्यादातर परांठा बनाकर परोस देती। खाने-पीने की आदतों से थोड़ी दिक्कत तो ज़रूर हुई, लेकिन प्यार-मुहब्बत से सब निभ जाता है। मनोहर को अगर कोई बात पसन्द नहीं थी तो वह थी प्रिया के परिवार की दखलन्दाज़ी। पारिवारिक विरोध के चलते प्रिया के पिता और माँ का हस्तक्षेप मनोहर को खलने लगा। इसी बीच मनोहर को दिल्ली दैनिक में काम मिल गया, तो उसने हाँ करने में देर नहीं लगाई और प्रिया से भी पूछने के बजाय उसने अपना फैसला सुना दिया-”मैं अगले महीने दिल्ली दैनिक ज्वाइन कर रहा हूँ!”

प्रिया थोड़ा सकते में थी।

“हाँ, बस...यहाँ हिन्दी पत्रकारिता का कोई भविष्य नहीं है, दिल्ली में रहूँगा तो कहीं पहुँच भी जाऊँगा।”

“और मैं...”

“यू डिसाइड अबाउट योर सैल्फ...”

“मेरी जॉब है यहाँ।”

“लीव इट...तुम भी वहीं कोई और नौकरी देख लेना...”

प्रिया को मनोहर का यह बर्ताव अच्छा नहीं लगा।

“पर तुम्हें एक एक्सेप्ट करने से पहले मुझसे बात तो कर लेनी चाहिए थी।”

“जरूरत नहीं समझी।”

“व्हॉट डू यू मीन!”

“मुझे अपना कैरियर देखना है।”

“और मुझे!”

“किसने रोका है तुम्हें...वैसे भी तुम्हें अपने पर नाज़ है कि नौकरियों की क्या कमी है।”

“डू यू मीन इट।”

“यस आई मीन इट।”

“ओ.के. दैन आई टेक इट एज़ ए चैलेंज!”

सचमुच प्रिया ने इसे एक चुनौती की तरह से ही लिया और मनोहर के ज्वाइन करने से पहले ही एक पब्लिक लिमिटेड कम्पनी के हाउस जर्नल की उप-सम्पादक के पद पर उसकी नियुक्ति हो गयी। मनोहर हतप्रभ हुआ। थोड़ा विचलित भी। सन्तोष इस बात से था कि कलकत्ता से पिण्ड छूट गया। वस्तुतः कलकत्ता से पिण्ड छुड़ाने का अर्थ था प्रिया के परिवार से पिण्ड छुड़ाना। दोनों ने थोड़ा आगे-पीछे ज्वाइन कर लिया और यों वे दिल्ली के बाशिन्दे भी हो गये। यहीं पर उनकी बेटी तानिया पैदा हुई।

मुझे इन सब बातों का कतई पता न चलता, अगर मैं और मनोहर हम प्याला न हो गये होते। हालाँकि मनोहर मुझसे दस-बारह साल छोटा था, लेकिन उसकी तहज़ीबी एक्स्ट्रा कॉन्शेस ने मुझे कभी भी ‘आप’ से ‘तुम’ पर नहीं उतरने दिया। हममें एक आत्मीयता तो आ गयी थी और हम एक-दूसरे से बातें भी खुलकर करने लगे थे, लेकिन औपचारिकता की रेखा न कभी मनोहर ने तोड़ी न कभी मैंने। सप्ताह में कम से कम एक बार तो हम एक साथ ड्रिंक्स ले ही लेते थे। एक ही कॉलोनी में होने की वजह से देरी होने की आशंका न उसे थी, न मुझे। अक्सर तीन-तीन पैग हम इतनी इच्छा से लेते और चौथा एक-दूसरे के कहने पर। उसके बाद सिगरेट पीना ज़रूरी हो जाता था। पास ही मेन मार्किट थी और वहीं चौक पर एक पान वाले की दुकान। सिगरेट का कश लेते ही मनोहर की तन्त्रियाँ खुलने लगती थीं और वह अपने दुःख खोलने लगता। बैठक मेरे घर में होती, तब तो उसे बात करने में कोई दिक्कत नहीं होती थी, लेकिन उसके घर में प्रिया भी थी। कई बार प्रिया नहीं होती थी, तो वह अपने घर में भी दुःखड़ा रोने लगता। शुरू-शुरू में तो वह बातें सांकेतिक ढंग से करता रहा, फिर थोड़ा खुलने लगा, पर औपचारिकता का पर्दा वह कभी भी हटने नहीं देता था। हमारी बातचीत का दायरा राजनीति, धर्म, समाज से गुज़रता हुआ व्यक्तिगत सम्बन्धों तक पहुँचता। मनोहर को साहित्य और कलाओं में कोई रुचि नहीं थी और धर्म या समाज पर भी वह सतही ही रह जाता था। हाँ, राजनीतिक ख़बरें उसके पास भरपूर होती थी, लेकिन राजनीतिक चिन्तन और दर्शन की बात आते ही वह अक्सर खामोश हो जाता। इस बीच कभी-कभी प्रिया भी बैठ जाती। जिन बातों से मनोहर कन्नी काटता था, उन्हीं बातों पर प्रिया अपनी राय खुलकर देती। इन्हीं बहसों में मैंने पाया कि चिन्तन और सोच के स्तर पर प्रिया मनोहर से बहुत आगे है। जब मनोहर राजनीतिक दर्शन की बात करते हुए अपने तर्क नहीं जुटा पाता तो वह सारी बहस को वैयक्तिक स्तर पर लाने की कोशिश करता। प्रिया बिफरती, खामोश होती और फिर उठकर चली जाती। प्रिया का चले जाना मुझे खलता। उसकी उपस्थिति ही मुझे अच्छी लगती थी। उससे बात करना भी भला लगता था। अन्दर टटोला तो लगा कि मैं प्रिया के प्रति आकर्षित हूँ, फिर लगा आसक्त हूँ...मैं मन ही मन उसके प्रति आसक्ति का भाव पालता रहा। यह भाव तो उस दिन खण्डित हुआ, जिस दिन एक बहस के दौरान प्रिया ने मुझे अंकल कह दिया...इससे पहले उसने या तो ‘सर’ कहकर सम्बोधित किया था फिर बिना किसी सम्बोधन के ही बातचीत होती रहती थी। वह मेरे प्रति आसक्त या आकर्षित थी, यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन उसे मेरे मनोभाव की आहट भी न मिली हो, मुझे यकीन नहीं होता। प्रिया ने हमारे सम्बन्धों में दूर से आती एक ऊष्मा बनाये रखी। मनोहर इस बारे में क्या सोचता था, उसने कभी ज़िक्र नहीं किया। शायद वह प्रिया के मुझे ‘अंकल’ कहने से आश्वस्त था। तब मैंने प्रिया को अविश्वसनीय नज़रों से देखा भी था, और उसके बाद उसने कभी भी इस सम्बोधन से मुझे नहीं पुकारा, लेकिन हमारे सम्बन्ध अपरिभाषित ही रहे। हाँ, प्रिया और मनोहर के सम्बन्धों में पड़ती दरारों की ख़बरें मुझे हमारे कॉमन दोस्तों से मिलती रहीं, लेकिन मैंने ख़ुद-ब-ख़ुद इन बातों का ज़िक्र न तो मनोहर से कभी किया और न ही प्रिया से।

सम्बन्धों को लेकर मनोहर और मेरी सोच अलग-अलग थी। मनोहर संकेतों से, कहानियों से अपनी बात कहकर मेरी राय जानना चाहता था। यह जानते हुए भी कि मनोहर के संकेतों और कहानियों के पीछे उसकी अपनी पीड़ाएँ उसके अपने दर्द हैं, मैं उसे यह एहसास नहीं दिलाना चाहता था कि मैं सब जानता हूँ। मैं यह भी मानता था कि दोस्त चाहे कितना ही करीब क्यों न हो, जब तक वह खुलकर बात न करे, उसे अपनी राय नहीं देनी चाहिए।

एक दिन मनोहर थोड़ा खुला-”यू नो, प्रिया की फिर प्रोमोशन हो गयी है”, उसने ‘फिर’ शब्द पर थोड़ा ज़्यादा ज़ोर दिया था।

“वेरी नाइस, कॉन्ग्रेट्स!”

“थैंक्स, लेकिन भूपेश जी! आई जस्ट डोंट अंडरस्टैंड कि पब्लिक अंडरटेकिंग्स में प्रोमोशंस इतनी जल्दी हो जाती हैं...मुझे देखिए, रिपोर्टर बनकर आया था, पाँच साल हो गये, अभी भी वहीं हूँ...चीफ रिपोर्टर भी नहीं बन सका तो...?”

“प्रिया अब...” मैं प्रिया के पद के बारे में जानना चाहता था।

“यू नो...पाँच साल पहले वह उप-सम्पादक थी, आज वह चीफ पर्सनल मैनेजर है...यू सी...शी इज़ गोइंग टू जापान...नेक्स्ट वीक...विद दैट ब्लडी डायरेक्टर...” वह फट पड़ा।

“ड्रिंक!”

“हाँ।”

वह मेरे ही घर में था। मैंने ड्रिंक बनाया। उसे दिया। वह एक ही झटके में पीने के बाद बोला, “बॉटम्स अप”, मुझे भी बॉटम्स अप करना पड़ा और एक-एक पटियाला बनाकर हम बैठ गये।

“आप को तो खुश होना चाहिए यार।”

“खुश...जी...खुश हूँ...बिना मुझसे बात किये, बिना मुझसे पूछे, जा रही है जापान।”

“यार यू आर टॉकिंग लाइक ए मेल शावनिस्ट।”

“मी...मैं...भूपेश जी! यह मत कहिए...।”

“अरे भाई, जब आपने यहाँ ज्वाइन किया था तो आपने प्रिया से बात की थी क्या?”

“नहीं साहब, वो बात और थी, मैं प्रिया के घर वालों से परेशान हो चुका था...वहाँ न मुझे मेरी पसन्द का खाना मिलता था, न प्रिया...जब भी घर पहुँचो, कोई न कोई मौजूद है, कभी माँ, कभी बाप, कभी भाई...।”

“अब...।”

“अब वो बात नहीं है वो भी दिल्ली में, पर कभी-कभी आते हैं, दरअसल प्रिया का पिता मुझे आज तक स्वीकार नहीं कर पाया।”

“यह तो उसकी प्रॉब्लम है, आप अपनी प्रॉब्लम बोलो।”

“वो जा रही है जापान...और मैं यहाँ अकेला...।”

“तानिया!”

“मैंने कहा भी तानिया को तो ले जाओ, लेकिन नहीं, वो जानती है कि तानिया के साथ रहने से उसकी आज़ादी में खलल पड़ेगा।”

“इट्स पार्ट ऑफ हर जॉब यार...लो यह सिगरेट।”

उसने सिगरेट सुलगाते हुए कहा-”आई नो...आई अंडरस्टैंड, अच्छा आप एक बात बताइए, आप पंजाबी हैं, आपकी बीवी भी, क्या पंजाबी बीवी को सँभालना बड़ा टफ काम है?”

“जस्ट नेचुरल...टफ तो कोई भी हो सकता है...आपकी असली प्रॉब्लम क्या है! व्हाई डोंट यू कम टू दि पाइंट?”

उसने पटियाला भी खाली कर डाला और फिर दूसरा पटियाला बनाते हुए कहने लगा- “भूपेश जी! बात यह है कि वह कहती है यू हैव नॉट कम अप टू माई एक्सपैक्टेशंस।”

“इन व्हॉट सेंस?”

“इन एवरी सेंस।”

“यानी!”

“यानी बहस में, बिस्तर में।”

“बट यू आर वेरी कोऑपरेटिव, स्पोर्टिंग...आई हैव सीन यू...कि आप दोनों सारा काम बाँट कर करते हो...अब बहस और बिस्तर...।”

“बहस...बुलशिट...वह हमेशा यह सोचती है कि जो वह सोचती है, वही ठीक है...सोचने का हक उसी को है, मुझे है...हाँ, सिर्फ इतना कि मैं वहीं तक सोचूँ, जहाँ तक वह सोचती है कि मुझे सोचना चाहिए...और बिस्तर...साहब! आप ही बताइए हू इज़ दि वुमेन हू डज़ नॉट वांट टू बी स्क्रिूयड एंड स्क्रिूयड हार्ड, बट आई एम नॉट अ स्टड...यू सी...आई एम नॉट दैट...आई कांट बी।”

“आपका वहम भी तो हो सकता है।”

“नहीं साहब”, कहते हुए वह एकदम खामोश हो गया।

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उसे क्या कहूँ, वह जल्दी-जल्दी पी जाने की वजह से लुढ़कने को था, मैंने उसे घर तक पहुँचाना ही बेहतर समझा।

मनोहर के घोर विरोध के बावजूद प्रिया जापान चली गयी। उसे मैंने गुड लक कहा था। प्रिया एक सप्ताह का कार्यक्रम था। इन सात दिनों रोज़ शाम को या तो मनोहर मेरे पास चला आता या मुझे अपने यहाँ बुला लेता और सब बातों के बीच एक ही बात वह रोज़ पूछने के अन्दाज़ में दोहराता-”इस वक़्त जापान में क्या हो रहा होगा! प्रिया क्या कर रही होगी!” सम्भवतः कहना तो वह यह चाहता था कि ज़रूर डायरेक्टर के कमरे में उसी के साथ होगी। उसे जो चाहिए था, मिल गया होगा। पर शायद थोड़ा संकोच उसके मन में अभी भी था। वह प्रिया को बहुत प्यार करता था। शायद! या फिर यह कि प्रिया के सिवाय उसका कोई और ठिकाना नहीं था। मैंने संकेत किया भी कि वह सुन्दर है, युवा है, मधुर है, उसका भी कोई ठौर-ठिकाना बन सकता है, लेकिन वह इस सवाल के जवाब में एक खामोशी से घिरा रहता। वह ख़ुद कुछ भी नहीं कर पा रहा था और प्रिया जो भी करना चाहती थी, उसे करने से रोक भी नहीं पा रहा था। एक बेचैनी के दायरे में घूम-घूम कर मनोहर अन्ततः थककर बैठ जाता। निरीह! कमज़ोर! लाचार! या तीनों।

सप्ताह बाद प्रिया जापान से लौटी। बहुत प्रफुल्लित। उसका कार्यक्रम बेहद कामयाब रहा था। कम्पनी को ढेर सारे ऑर्डर मिले थे उसे। वाहवाही और कुछ कमीशन भी। उसके चेहरे पर सन्तोष और सफलता की छाया साफ दिखती थी। यह देखकर मुझे हैरानी नहीं हुई, पर जब उसने अपने बैग में से स्कॉच निकालकर मेरे सामने रखते हुए कहा-”फॉर यू” तो थोड़ी हैरानी ज़रूर हुई। मैं उसकी उम्मीद नहीं कर रहा था। यह प्रिया का मेरे प्रति आदर भाव था, आकर्षण था कि दोनों का मिला-जुला रूप, मैं निश्चित नहीं कर पाया। मुझे खुशी ज़रूर हुई। मनोहर के चेहरे पर शून्य तैर रहा था।

प्रिया ज्यों-ज्यों महत्वपूर्ण होती गयी, मनोहर त्यों-त्यों अपने को पिटा हुआ महसूस करने लगा। दोनों में तनाव बढ़ता ही गया। एक दिन मनोहर ने सारी स्थिति को मेरे सामने रखते हुए कहा-”क्या ऐसा नहीं हो सकता कि प्रिया अपना जीवन जैसे भी जीना चाहती है, जीती रहे और मुझे भी अपना हिस्सा मिलता रहे।” मनोहर इस हद तक टूट चुका था, इसका अन्दाज़ मुझे उसकी इस बात से हुआ। एक क्षण बाद मेरे आधुनिक मन ने कहा-दिस इज़ लिबरेशन। पर क्या सचमुच वे दोनों ख़ुद को लिबरेटेड महसूस कर रहे थे? ऐसा होता तो फिर तनाव क्यों? और मैं...मैं कहाँ खड़ा हूँ...मनोहर को क्या सलाह दूँ...यह कि प्रिया को तलाक दे दे। मैंने उसे ऐसा कहा भी। वह चुप रहा। मुझे लगा कि यह सलाह देने के पीछे शायद मेरा कोई अपरिभाषित आशाभाव काम कर रहा है। उन दोनों के सम्बन्धों में तनाव फैलता गया...तमान कोशिशों के बावजूद...और एक दिन प्रिया तानिया को अपने साथ लेकर घर छोड़कर चली गयी। पिटे हुए मोहरे सा मनोहर भी कहीं और जाकर रहने लगा। जाने से पहले वह मेरे पास आया था। उसका भाई भी उसके साथ था, सामान भी...मेरी समझ में नहीं आया कि सामान उसका था या भाई का। मैंने कुछ पूछना उचित भी नहीं समझा। बिना कोई सवाल पूछे उसे जाने दिया। दो साल बाद मुझे उनके तलाक की ख़बर किसी मित्र के माध्यम से मिली। उस वक्त मैं अपने ड्राइंग रूम में बैठा था। मेरे सामने एक छोटा सा एक्वेरियम था और उसमें तीन रंग-बिरंगी मछलियाँ तैर रही थीं। तीनों बीच-बीच में एक-दूसरे पर झपटतीं।

अचानक क्या हुआ कि एक्वेरियम का आकार बढ़ने लगा। एक बहुत बड़ा एक्वेरियम...उसमें तीन मछलियाँ थीं। तीन मछलियाँ...पानी में ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर...एक-दूसरे पर झपटने को तैयार...पर तीनों तैर रही थीं, अपने-अपने हिस्से का पानी लिये तीनों मछलियाँ निरन्तर तैर रही थीं...पर क्या उनको सचमुच पता था कि किसके हिस्से में कितना पानी है?