मजबूत डोर वाली महंगाई की पतंग / जयप्रकाश चौकसे

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मजबूत डोर वाली महंगाई की पतंग

प्रकाशन तिथि : 14 जनवरी 2011

सूर्य की प्रखरता के अवसर के कारण मकर संक्रांति का अवसर इतना पावन माना गया है कि भीष्म पितामह तीरों की शैया पर लेटे रहे, क्योंकि मकर संक्रांति पर ही वे प्राण तजना चाहते थे। अपने परिवार के सिंहासन के प्रति अंधी निष्ठा के कारण वे अन्याय होते देखते रहे और सत्य-असत्य के महायुद्ध में भी अन्याय करने वाले पक्ष की ओर से लड़े। उनकी दुविधा और मानसिक संताप हर कालखंड में अनेक लोगों ने भोगा और मानवता दंडित होती रही। आज भी सत्ता तथा विपक्ष में अनेक लोग उसी दुविधा को भोग रहे हैं। सिंहासन के प्रति निष्ठा से बेहतर है जनता के प्रति निष्ठा या कम से कम स्वयं के तर्क के प्रति तो निष्ठावान होना ही चाहिए।

मकर संक्रांति के साथ जाने कैसे कुछ प्रांतों में इस दिन जुआ खेलने की कुरीति भी निभाई जाती है- शायद भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को दूसरी बार जुआ खेलने और अपनी साझा पत्नी को दांव पर लगाने से नहीं रोका, जबकि पहली बार हारी सारी चीजें गांधारी के दबाव में दुर्योधन को लौटानी पड़ी थीं। आज पक्ष-विपक्ष दोनों ने जनता को द्रौपदी की तरह समझ लिया है। मकर संक्रांति पर पतंग उड़ाने का भी रिवाज है। पतंग विभिन्न स्वरूपों में अनेक देशों में उड़ाई जाती है। अफगानिस्तान की पृष्ठभूमि पर खालिद हुसैनी का 'काइट रनर' नामक उपन्यास प्रशंसित रहा है।

यह बात गौरतलब है कि चीन और जापान में बनी पतंगें भारत के बाजार में उपलब्ध हैं, परंतु हम अपने पतंग व्यापार को सरहद के पार नहीं ले जा सके। पतंग बनाना मुंबई और गुजरात के अनेक परिवारों का पुश्तैनी व्यवसाय रहा है। एक जमाने में दिलीप कुमार ने राजस्थान में अपने किसी मित्र की सहायता से मांजा मंगवाया था। दिलीप कुमार स्वयं भी पिसे हुए कांच का मांजा घर पर तैयार करते थे और दस्ताने पहनकर मांजा सूतते थे। आस-पास की कुछ इमारतों के लोगों से वे शर्त बदकर पतंगबाजी करते थे और अपनी हार को गंभीरता से लेते हुए मांजे का मिश्रण बदलते थे। एक बार मुझे उनका उचका संभालने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

बहरहाल, पतंग पर बने चित्र और लिखी इबारतें मजेदार होते हुए समाज की भीतरी भावनाओं को भी उजागर करती हैं। पतंग बाजार में देश के जिन व्यक्तियों के चित्र चस्पा किए जाते हैं, उससे उनकी लोकप्रियता का अनुमान भी लगाया जा सकता है। दरअसल इस समय सबसे मजबूत डोर महंगाई वाली पतंग की है और शायद वह आकाश तोड़कर अंतरिक्ष तक जा पहुंचेगी।

उदारवाद के बाद स्वतंत्र बाजार की असीमित ताकतों ने अपने साथ एक नई जीवनशैली भी प्रस्तुत की है और महंगाई का विकास इसी में निहित है। आज कम लोगों को थोड़ी सी चीजें ज्यादा मुनाफे में बेचने को इससे बेहतर समझा जाता है कि अवाम के बीच अधिकतम बिक्री हो। इसकी एक बानगी मल्टीप्लैक्स में नजर आती है, जो कम लोगों को महंगे टिकट बेचने में यकीन करते हैं, जबकि उनकी अधिकांश कमाई पॉपकॉर्न बेचने से होती है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि सरकार की निष्क्रियता को नजरअंदाज किया जाए। यह साझा सरकारों का अभिशाप है कि सरकार को बचाए रखने के लिए भ्रष्टï और निकम्मे सहयोगियों को महत्वपूर्ण विभाग दिए गए हैं। उनमें से एक पुराना खिलाड़ी मौजूदा व्यवस्था को भंग करने में लगा है क्योंकि अगले चुनाव के नए साथी दल से वह समझौता कर चुका है।

सीधी सी बात यह है कि अवाम को ही महंगाई के दौर में किफायत को अपनाते हुए भोजन में मौलिक परिवर्तन लाना चाहिए। सत्ता अंधी, लंगड़ी और बहरी हो जाए तो अवाम को ही पेट पर पट्टी बांधनी पड़ती है। धृतराष्टï्र जन्म से अंधे थे, परंतु गांधारी ने आंख पर पट्टïी क्यों बांधी? वह अगर अपने पति की आंखें बनती तो बचपन में अपने गुमराह होते बच्चों को देख पाती। सबसे बड़ा अंधत्व तो शक्तिशाली भीष्म का रहा। आज के पावन अवसर पर देश के सारे भीष्म, गांधारियां और द्रौपदियां सोचें कि इस सदी के महाभारत को कैसे रोका जाए।