मतदान की पेटी और गुटका गीता संस्करण / जयप्रकाश चौकसे

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मतदान की पेटी और गुटका गीता संस्करण
प्रकाशन तिथि :26 मई 2016


मतदान के लिए लंबे अरसे तक न्यूनतम आयु 21 वर्ष रही है, जिसे घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया परंतु अपनी इच्छा से विवाह करने के लिए न्यूनतम आयु आज भी 21 वर्ष है। आप अपना नेता जिस न्यूनतम आयु में चुन सकते हैं, उसमें आप जीवनसाथी नहीं चुन सकते। नेता का चुनाव सीमित समय के लिए होता है परंतु जीवनसाथी पूरी उम्र का मामला है। आजकल तलाक का चलन बढ़ गया है, अत: 'जीवनसाथी' शब्द में भी परिवर्तन करना होगा।

रिचर्ड बर्टन और एलिजाबेथ टेलर ने एक-दूसरे से आधा दर्जन बार विवाह किया और रिचर्ड बर्टन ने फरमाया था कि वे दोनों एक ही मांस के दो लोथड़ों की तरह हैं। इस रिश्ते को आख्यानों ने जन्म जन्मान्तर का कहकर भ्रम बढ़ा दिया है। जब जीवन ही क्षणभंगुर है, तब कोई रिश्ता कैसे जन्म जन्मांतर का हो सकता है। शकंुतला से विवाह की स्मृति का संबंध एक अंगूठी से जुड़ा था, जिसे एक मछली निगल गई थी और मछुआरे ने राजा के अधिकृत खरीददार को रिश्वत देकर अपनी मछलियां बेची थीं। शकुंतला के पुत्र के नाम पर ही देश का नाम भारत पड़ा है, तो क्या भ्रष्टाचार इस तरह हमारी कुंडली से जुड़ा है? कमाल की बात यह है कि भ्रष्टाचार धन से जुड़ा होते हुए भी दरअसल नैतिक मूल्यों का अभाव है। अगर ऐसा नहीं होता तो धनाढ्य और साधन-संपन्न लोग क्यों धनी होते? हमारे यहां तो शिक्षित लोग अनपढ़ों से अधिक भ्रष्ट हैं। व्यवस्था की गलियां कुछ ऐसी हैं कि पढ़ा-लिखा आदमी ही उनमें जा सकता है। किसी अन्य संदर्भ में निदा फाज़ली ने लिखा है कि इन भारी-भरकम किताबों से बच्चों को बचा लीजिए वरना दो-चार किताबें पढ़कर ये हमारी-तुम्हारी तरह हो जाएंगे। पाठ्यक्रम में चरित्र-निर्माण के पाठ नहीं हैं और हो भी तो क्या है। हमारी शिक्षा प्रणाली परीक्षा केंद्रित है, वह ज्ञान केंद्रित नहीं है। राजकुमार हीरानी की आमिर खान अभिनीत 'थ्री इडियट्स' का नायक अन्य व्यक्ति के नाम से डिग्री हासिल करता है, जो डिग्री केंद्रित शिक्षा पर करारा व्यंग्य है। यही नुक्ता चेतन भगत के 'फाइव पॉइंट सम वन' में नहीं है। इसीलिए फिल्म के लेखन का श्रेय पटकथा लेखक को दिया गया है और नामावली मेें प्रेरणा देने के लिए चेतन भगत को धन्यवाद दिया गया है। संभवत: चेतन भगत को इसका मलाल है कि वे इस सर्वकालिक महान फिल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं हैं। दरअसल, राजकुमार हीरानी ने पहली पटकथा ही इस विषय पर लिखी थी परंतु सही हुक के अभाव में उन्होंने पहले 'मुन्नाभाई' बनाई।

सृजनशील व्यक्ति के अवचेतन में हमेशा विचार बनते रहते हैं और पूरी तरह पक जाने पर ही वह उन्हें दर्शक के सामने परोसता है। देवआनंद के साथ यही पेरशानी थी कि वे न्यूज़पेपर से प्रेरणा लेते थे और पूरी पटकथा लिखने के पहले ही सेट लगाकर शूटिंग शुरू कर देते थे और शूटिंग पूरी होने के पहले ही संपादन पर बैठ जाते और उन्हें फिल्म प्रदर्शित करने की बड़ी जल्दी रहती थी। वे फिल्म का परिणाम तक जाने बिना ही दूसरे विषय में रुचि लेने लगते थे। दिलीप कुमार एक ही विचार पर वर्षों सोचते रहते थे। इसी का परिणाम है कि उन्होंने अपने साठ वर्ष के कॅरिअर में केवल एक फिल्म का ही निर्माण व निर्देशन किया! इतना ही नहीं उन्होंने फिल्में भी साठ से अधिक अभिनीत नहीं कीं। वे हेमलेट की तरह 'करूं या न करूं' की दुविधा से ही ग्रस्त रहते थे। हेमलेट से काफी समानता है हमारे देवदास की, जिसने बालपन में मोहब्बत की और उसे ही दहकते सीने में पालते रहे तथा चिता की अग्नि के साथ ही उसकी भीतरी आग की भी परिणति हुई। यह भी गौरतलब है कि महाभारत के अर्जुन भी कुरुक्षेत्र में दुविधाग्रस्त थे कि अपने ही रिश्तेदारों के खिलाफ शस्त्र कैसे उठाए? उन्हें श्रीकृष्ण ने रास्ता दिखाया।

कुरुक्षेत्र की इस घटना का विस्तार ही गीता है परंतु यह दुविधा जरूर है कि जब दो विराट सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं, तलवारें म्यान से बाहर निकल चुकी थीं, कसी हुई लगाम के कारण घोड़ों के मुंह से झाग निकल रहा था, तब क्या श्रीकृष्ण के लंबे भाषण ने धैर्य की परीक्षा नहीं ली? यह संभव है कि श्रीकृष्ण ने सारगर्भित बात संक्षेप में कही, जिसकी विशद व्याख्या बाद में गीता के नाम से भारतीय अवचेतन में गहरे पैठ गई। युद्ध की पटकथा में इतने लंबे पाठ की गुंजाइश नीं होती और न ही अठारह अध्याय तक तलवारें म्यान से बाहर रहती हैं, घोड़े भी लगाम से इतने समय तक नहीं बांधे जा सकते। अत: तर्क तो यही कहता है कि उस सारगर्भित गुटके की ही विशद व्याख्या बाद में हुई है और सच तो यह है कि आज भी व्याख्याएं की जा रही हैं। यह विषय कालातीत है। इसमें निहित विरोधाभास को समझना होगा। मसलन, एक अध्याय कर्म को महत्व देता है तो अन्य अध्याय में सब विचार और घटनाओं को ईश्वर द्वारा पूर्व नियोजित बताया गया है। आख्यान तो ये भी कहते हैं कि हम सब विष्णु के देखे गए स्वप्न के पात्र हैं। 'अब ख्वाब में सच है क्या और भला झूठ है क्या।'

'दरअसल इन बातों की विशद व्याख्या करना जरूरी है। यह भी विचारणीय है कि सतत व्याख्या की आवश्यकता ही इसके रहस्य को गहरा करती है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि व्याख्याओं की अनंत संभावनाओं ने ही पंडिताई के व्यवसाय पक्ष को विराट बनाया है। सदियों से यह सदा सुहागन व्यवसाय फल-फूल रहा है। बहीखातों में यही शुभ लाभ और लाभ शुभ है। किसी भी मतदान ने इस बहीखाते को नहीं बदला है।'