मथुरा की तरफ / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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हाँ, तो उस गरीब ब्राह्मण के घर रात में ज्वार की रोटी का सबसे मीठा भोजन कर के हम लोग अगले दिन आगे बढ़े। कुछ दूर चलने के बाद किसी रेल्वे स्टेशन पर एक सज्जन ने ट्रेन में बिठा दिया जिससे हम लोग मथुरा चले आए। ब्रज में घूम-घाम कर हाथरस के रास्ते गंगा तट पहुँच हरद्वार जाने का निश्चय किया। वहाँ से हृषीकेश होते बदरीनारायण के दर्शनों का विचार था। हाथरस में हमें पहली बार ऐसा गहरा कुआँ मिला जिसमें साठ हाथ से कम गहराई में पानी न था। हमारी लंबी रस्सी खत्म हो गई! फिर भी हमारा कमंडलु (जलपात्रा, जो दरियाई नारियल का होता है) पानी तक पहुँच न सका। हमें पास के कपड़े जोड़ कर किसी प्रकार पानी निकालना पड़ा। यह भी एक अनुभव था कि इतनी गहराई से पानी निकलता है। बंबई के पास टापुओं में सिंघाड़े की तरह की एक चीज पानी में होती है। फर्क यही है कि उसके फल बहुत ही लंबे होते और दो-दो एक में जुटे होते हैं। वही दरियाई नारियल है। वह बड़ा ही सख्त होता है, ऐसा कि काटना मुश्किल है। वजनी भी होता है और पानी रहने पर सड़ता भी नहीं। उसके भीतर की गूदी (गिरी) दवा के काम आती है और ऊपर का ढाँचा कमंडलु वगैरह के काम। कहते हैं कि उस गिरी या अंततोगत्वा कमंडलु को ही घिस कर पिला देने से हैंजे का शमन होता है। संन्यासी लोग, और अब तो दूसरे साधु भी, वही कमंडलु, उसमें काठ का हैंडल वगैरह लगा कर अपने काम में लाते हैं। संन्यासियों को धातु के पात्रा रखने की आज्ञा शास्त्रों में नहीं है, ऐसा माना जाता है।