मधुमिता / लावण्या नायडू

Gadya Kosh से
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कुछ सालभर पहले की बात है, ऑफिस में जैसे ही मैं अंदर गया आज एक नई भीनी-भीनी खुशबू से सारा वातावरण महक रहा था। ऊपर वाले की मेहरबानी कहें या अभिशाप मेरे नाक से कोई भी महक छुप नहीं पाती फिर वह विभा दी के टीफिन में माछेर झोल की हो या गोपाल दा के पान पराग और सिगरेट की। फिर आज तो नयी खुशबू फ़िज़ा में थी।

जोयदीप बाबू ने कल बताया था ऑफिस में एक नयी एचआर आने वाली है। 2साल का गॅप लिया था करियर में फिर भी हमारे बड़े साहब ने सीनियर पोस्ट दे दी है। सुना है पहचान से मिली है ये नौकरी उसे। कल से ही ये बात सुनकर मन में उसके लिये एक क्रोध, बेमतलब की इरशा की भावना को खास जगह दे दी थी मैंने।

आज वह सामने खड़ी थी, निश्चल मुस्कान के साथ, सहकर्मीयों से रूबरू हो रही थी। जब मेरी बारी आयी तो मुझसे भी वैसे ही एक मधुर मुस्कान के साथ अभिवादन किया

"शुबोध, ये मधुमिता है, हमारी नयी एचआर और मधुमिता ये शुबोध है हमारे सीनियर अकाउंटेंट, बहुत मेहनती है बस थोड़ा खडूस है" खुद की ही बात पर जोर-जोर से हँसते हुए दास बाबू मधुमिता को लेकर आगे बढ़ गये।

मैं खडूस? खैर, जीवन में जिसने सिर्फ जिम्मेदारी और फर्ज़ के कांटे ही देखा हो उस बंजर ज़मीन पर गुलाब तो खिलेंगे नहीं। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।

दिन ऐसे ही बीत रहे थे और मधुमिता के लिये मेरी बेमतलब की नफरत अब जलन में बदलने लगी थी। कोई इतना खुश कैसे रह सकता है? हमेशा चेहरे पर मुस्कान, कभी कोई शिकन नहीं। उसका ऑफिस में रहना जैसे सकारात्मक ऊर्जा का संचार था सभी के लिये। सभी के लिये? हाँ उन सब में मैं भी था पर ये मैंने कभी जाहिर नहीं होने दिया यहाँ तक खुद को भी नहीं।

अब मैंने ऐसी हरकत शुरू की जिसके बारे में मैं अपने बुरे से बुरे सपने में भी नहीं सोच सकता था। पीछा करने लगा मैं मधुमिता का। आज ट्राम में चढ़ गया, ये भी नहीं सोचा की उसने देख लिया तो क्या सोचेगी मेरे बारे में। मैं ऐसे बैठा जैसे मैंने उसे देखा ही नहीं। मोबाइल पर आँखें गढ़ाये पर मौका मिलते ही तिरछी नज़र से उसे देख लेता। अनजान बनते हुए बीच में कहीं भी ट्राम से उतर भी जाता। बेहद नफ़रत करता हूँ इससे, पर जब हवा में उड़ते उसके ज़ुल्फ़ को वह कानों के पीछे दबाने की नाकाम कोशिश करती है मैं अपनी नज़र हटा नहीं पाता। वह जब हँसती है तो उसकी आँखें भी होठों के वफ़ादार दोस्त की तरह मुस्कुरा देते हैं। शायद इसीलिये शुजोय, जोयदीप बाबू सब इसके पीछे मंडराते रहते हैं, हू! मैं अपने मन में उसके लिये नफ़रत भरने की नाकाम कोशिश कर रहा था दूसरी तरफ मेरा मन ये कहता की विभा दी और चैताली क्यों उसकी तारीफ करते नहीं थकते? कोई तो बात होगी उसमें तभी तो मैं भी...

एक दिन शाम को ऑफिस से निकलते हुए ही पता चल गया था कि अगले दिन मधुमिता ने छुट्टी ली है। मैं रात भर बेचैन रहा, सोया ही नहीं। इतनी बार उसका पीछा करते हुए उसके घर का पता तो चल ही गया था। अगले दिन अपनी कार में बैठे उसकी बिल्डिंग के बाहर उसका इंतज़ार कर रहा था। देखना चाहता था वह कहीं किसी के साथ बाहर जायेगी या अकेले? आजतक मैं बिना बताये ऑफिस देर से भी नहीं गया वही मैं आज छुट्टी लेली और ये बताना भी जरूरी नहीं समझा ऑफिस में। शुजोय का फोन आया तो बोल दिया की अचानक माँ की तबीयत रात में खराब हो गई थी इसलिये बताना भूल गया। आज नहीं आ पाउंगा।

मैंने फोन रखा ही था कि मधुमिता एक बुजुर्ग महिला के साथ गेट के बाहर आयी, शायद माँ होगी और टैक्सी पहले ही बुक करके रखी थी शायद, उसमें बैठकर दोनों निकल गये। मैं भी उनका पीछा करने लगा।

एक बड़ी-सी बिल्डिंग के बाहर दोनों उतरकर अंदर चले गये, मेरे कार पार्क करके आने तक ना जाने दोनों कहाँ गये पता ही नहीं चला। हारकर मैं वापस लौट आया।

क्या कर रहा था मैं और क्यों? खुद के सवालों का जवाब नहीं था मेरे पास।

अगले दिन ऑफिस में फिर वही सब नोर्मल रुटीन।

कुछ दिनों बाद अचानक मधुमिता ऑफिस नहीं आयी और वजह कोई नहीं जानता था। मेरे अंदर बेचैनी बढ़ती जा रही थी। तीन चार दिन ऐसे ही निकल गये। मैने उसके घर के बाहर चक्कर भी काट लिये पर सब नाकाम।

ऑफिस से भी सबने कॉल लगाया पर उसकी माँ ने ये कहकर फोन रख दिया की वह विदेश चली गयी।

विदेश! यूं अचानक? ऐसे कौन जाता है? सबसे इतना हँसी मज़ाक करती थी, दोस्त बनाये थे उनको भी भनक ना लगने दी। सही सोचता था मैं, वह थी ही मेरे नफ़रत के काबिल।

पर मैं उसे क्यों इतना मिस कर रहा हूँ?

समय बीतता गया पर उसकी मुस्कुराहट मेरे ज़हन से नहीं जा पा रही थी। एक दिन ऑफिस के काम से उसके घर की तरफ जाना हुआ। हाँ मैं झूठ बोल रहा हूँ की मुझे ऑफिस के काम से उस तरफ जाना पड़ा क्योंकि ये बस एक बहाना था खुद के लिये।

आज हिम्मत करके उसकी माँ से मिलने चला गया। किसी तीसरे ने दरवाज़ा खोला। मेरा परिचय लेकर अंदर खबर करी और इजाज़त से मुझे अंदर बैठाया। घर में मधुमिता की खुशबू तो नहीं थी पर दवाओं जैसी गंध आ रही थी। थोड़ी देर बाद वह सामने थी हमेशा की तरह मुस्कुराती होठों से और आँखों से। पर आज मेरी आँखों के सामने एक पल को अँधेरा छा गया था। अपनी आँखों में नमी महसूस कर रहा था।

"कैसे हैं शुबोध सर? बड़ी देर कर दी आपने, मुझे तो लगा था बहुत पहले ही आ जायेंगे।"

"मैं कुछ समझा नहीं और तुम विदेश से कब वापस आयी"

वो ज़ोर से हंस दी।

"सर आपकी जासूसी में कमी रह गई।"

मैं हैरानी से उसे देख रहा था।

"अगर आप ठीक से उस दिन कार में मेरा पीछा करते तो पता चल जाता आपको की मैं डॉक्टर के पास गयी थी और डॉक्टर किस बिमारी का इलाज करते हैं वह उनकी नेमप्लेट बता देती और प्लीज़ आप मुझे दया की नज़र से मत देखिये, आप तो बस वह खडूस नज़रों से ही मुझे देखिये। अच्छा लगता हे। कोई दया ना दिखाये इसलिये तो ऑफिस में सबसे छुपाया और अचानक नौकरी छोड़ दी जब डॉक्टर ने ऑपरेशन का डेट फाइनल किया।"

"किस लिये ऑप" शब्द पूरा नहीं कर पाया मैं, कुछ अटक गया जैसे गले में

"ब्रेस्ट कैंसर" बोलते हुए भी उसके होठों पर मुस्कान थी पर आज आँखों ने दगा दे दिया। पानी तैर आये आँखों में

"तीन साल पहले भी हुआ था तब सोचा चलो जड़ से उखाड़ फेका है पर इस कैंसर को मुझसे मोहब्बत इतनी थी की वापस आ गया। मैंने फिर उखाड़ फेंका है"

उसकी आवाज़ में खुद के लिये गर्व था।

"बस एक सवाल का जवाब दोगी?"

"पूछिये"

"इतनी तकलीफ़ में भी तुम हँसती मुस्कुराती रहती हो, कैसे? आज तुम्हारे सामने मेरी हर तकलीफ़ छोटी लग रही है।"

"मैं अगर अपनी तकलीफ़ सबको बताऊँ तो कुछ दिन सब सुनेंगे फिर दूरी बना लेंगे क्योंकि हर किसी के पास अपने हिस्से की तकलीफ़ है और वैसे भी खडूस बनकर रहूँगी तो कौनसी मेरी तकलीफ़ कम हो जायेगी। आपको कॉम्पटीशन नहीं देना मुझे" बोलकर वह हंस दी।

इस बार मैं भी हंस दिया, खुलकर कई सालों बाद।

"हंसते रहिये शुबोध सर, अच्छे लगते हैं।"

फिर मधुमिता से मिलने का सिलसिला शुरू हो गया। वह मुझपर एक टॉनिक जैसा असर कर रही थी। पर भगवान ने ये दवा ज्यादा दिन ना चलने दी और मुझे नौकरी में नया अवसर मिला जो मुझे सात समंदर पार ले गया। जाना तो कुछ साल का ही तय हुआ था पर

एक रात जोयदीप दा का फोन आया, "मधुमिता एडमिट है शुबोध, बहुत सीरियस है।"

सुनकर मैंने तुरंत वापसी की टिकिट बुक कर ली पर कुछ ही देर में वापस जोयदीप दा का फोन था। बात पूरी होती इससे पहले मेरे हाथ से फोन छूट कर गिर गया।

"तुमसे बहुत नफरत करता हूँ मैं मधुमिता। आखिर चली गई ना मुझे छोड़कर" बोलते हुए रोता रहा मैं रातभर इस पराये देश में अकेला, हाँ अकेला! अकेला तो हमेशा था पर महसूस फिर से कई दिनों बाद हुआ।