मनुष्य की बाहरी आकृति मन की एक प्रतिकृति है / बालकृष्ण भट्ट

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मुखपृष्ठ उपन्यास कहानी कविता व्यंग्य नाटक निबंध आलोचना विमर्श बाल साहित्य विविधकोश समग्र-संचयन अनुवादहमारे रचनाकारहिंदी लेखक बुद्धिमानों ने वेदादि ग्रंथों में मन के अनेक जुदे-जुदे काम लिखे हैं। तद्यथा-

“यज्जाहग्रतो दूरमुदेति देवं तदु सुप्तबस्यन तथैवैति दूरंगमं ज्योयतिषां ज्योदतिरेकं तन्मे् मन: शिव संकल्पदमस्तुे।।”

अर्थात्-जो जागृत दशा में दूर से दूर चला जाता है अर्थात् जो मनुष्यं के शरीर में रहता हुआ भी दैवी शक्ति संपन्न- है, जो सोती दशा में लय को प्राप्तु होता है अर्थात् न जाने कहाँ-कहाँ चला जाता है, जो जागते ही फिर लौट के आ जाता है अर्थात् पहले के समाने अपना सब काम करने लगता है, जो दूरगामी है अर्थात् जहाँ नेत्र आदि इंद्रियाँ नहीं जा सकतीं वहाँ भी पहुँच जाता है, जो भूत, भविष्यल और वर्तमान तीनों को जान सकता है, जो प्रकाशात्मँक है अर्थात् जिसके प्रकाश से अतिवाहित हो इंद्रियाँ अपने अपने विषयों में जा लगती हैं वह मेरा मन कल्याोण की बातों को सोचने वाला हो।

सुषारथिरश्वाषनिव यन्मैनुष्या न्नेकनीयते s भीसुभिर्वाजित हव। ह्रत्प्र तिष्ठव यदजिरं यविष्ठा तन्मेीमन: शिवसंकल्प मस्तु ।।

अर्थात् अच्छा् सारथी बागडोर के द्वारा जैसे घोड़ों को ले जाता है वैसा ही जो मन प्राणीमात्र को सारथी के सदृश ले चलता है, जो कभी जीर्ण नहीं होता अर्थात् शरीर में जैसा बाल्यप यौवन और बुढ़ापा आ जाते हैं वैसा जिसमें बाल्य, यौवन और बुढ़ापा नहीं आते, जो अत्यंत वेगगामी है वैसा मेरा मन कल्याेण की बातों का सोचने वाला हो।

इस मन को भावनाएँ या तरंगें जो प्रतिक्षण इसमें उठा करती हैं मनुष्ये के बाहरी आकृति से प्रकट होती हैं। इसलिए इस बाहरी आकृति को यदि मन की एक प्रतिकृति कहा जाय तो अनुचित न होगा। किसी के चेहरे को देख कोई कहता है इनके चेहरे पर जनानपन बरस रहा है। यह जनानपन क्याा चीज है? यही मन की एक प्रतिकृति है जो सर्वथा उस प्रकृति के विरूद्ध है जो पुरुष जाति की होनी चाहिए। पुरुषों के समान वीरता, उत्सा ह आदि पौरुषेय गुण स्त्रियों के मन में कहाँ रहते हैं। इसी तरह स्त्रियाँ भी बहुतेरी ऐसी होती है जो कितनी बातों में मर्दों के कान काटती हैं, जिससे यही प्रकट होता है कि अनेक पौरुषेय गुण उनके मन में बसे रहते हैं। ऐसा ही शूर वीर का चेहरा कायर और भगोड़े से, नम्र का अभिमानी से, जिद्दी हठीले का सरल सीधे स्वरभाव वाले से, कुटिल का सरल से, चालाक का गाउदी से नहीं मिलता। इतना ही नहीं जगत् के वाह्य प्रपंच का जो कुछ असर चित्त‍ पर होता है वह सब आदमी के चेहरे से प्रकट हो जाता है। किसी रूपवती सुंदरी नारी को देख कामी, दार्शनिक या विरक्ती योगी के मन में जो असर पैदा होता है और जो भावनाएँ चित्त में उठती हैं वे सब अलग-अलग उन-उन लोगों के चहेरे से जाहिर हो जाती हैं। कामी कामातुर हो जामें के बाहर हो जाता है, लाज और शरम को जलांजलि देकर हजारों चेष्ठािएँ उससे मिलने की करता है, दिनरात विकल रहता है और अपनी कोशिश में कामयाब न हो कभी को वियोग में जिंदगी से हाथ धो बैठता है। ऐसा ही दार्शनिक तत्व वेत्ताह ज्ञानी उस सुंदरी को पाँच भौतिक पदार्थों का परिणाम मान उसके एक-एक अंग की शोभा निरख सृष्टिकर्ता की निर्माण चातुरी पर मन-ही-मन प्रसन्न् होता है। विरक्त ज्ञानी उसे हाड़-सांस विष्ठाा, मूत्र आदि मलिन और दूषित पदार्थों की समष्टि समझ मन में वैराग्यह प्रदीप के प्रकाश को अधिक स्‍थान देता है। इसी तरह धन देख चोर, साह, लोभी, कदर्य के मन में जुदे-जुदे भाव उदय होते हैं जिनकी तस्वीथर प्रत्येहक के चेहरे पर उतर आती है। चोर का मन धन देखते ही उसके लेने की फिक्र में लगता है। उसका यह मानसिक भाव आँख और चेहरे से स्पतष्टच हो जाता है। दियानतदार उस धन को साधारण वस्तुा जान बेजां किसी का एक पैसा न लेना इस दृढ़ निश्च य को उस धन से अधिक कीमती मानता हुआ उसी के अनुसार वर्त्त ता है। यह भाव उसकी उदार प्रसन्नन मुखच्छसवि, ईषत् हास्यनयुक्त फरकते हुए ओष्टस आदि मरदाने ढंग से प्रकट हो जाता है। लोभी और कदर्य का बाहरी आकार, जिसको रुपया ही सब कुछ है और जो 'मर जैहौं तोहि न भुजैंहौं' वाली कहावत का नमूना है, उसकी मलिन राक्षसी प्रकृति को अच्छीर तरह से प्रकट करता है। बाहरी आकार से मन की बात पहिचानने वाले बुद्धिमान इसके द्वारा अपना बड़ा-बड़ा काम निकाल लेते हैं। यह एक हुनर है। पुलिस के महकमे में कितने ऐसे ताड़बाज इस फन के उस्ताोद हैं जो देखते ही चोर, ठग या खूनी का पहचान लेते हैं। जिससे साफ जाहिर है कि आकृति मन की प्रतिकृति है। इसी तरह किसी भक्त जन की मुखच्छिवि से मन में भक्ति के उद्गार की बानगी जाहिर होती है। पहचानने वाले लोग कपटी, मक्काखर, दांभिक से सरल सीधे सच्चेग भक्तै को चट्ट पहचान लेते हैं। बुद्धिमानों ने मन को मुकुर के साथ उपमा दी है। मुकुर में जो प्रतिबिंब पड़ता है उसका नमूद बाहरी आकृति ही में होता है।

बाह्य आकृति सर्वोपरि मुख है जिससे मानसिक भाव चट्ट से प्रतिबिंबत हो जाता है। मन में किसी प्रकार की वेदना या विकार उत्पिन्न्भ‍ होते ही फिर उसका छिपना कठिन ही नहीं वरन् असंभव है। मन की कोई बात यदि प्रगट होगी तो मुख्यमतर मुख ही के द्वारा। किसी मनुष्यि को कोई मानसिक वेदना है या उसने चार दिन से कुछ नहीं खाया या वह और किसी प्रकार की पीड़ा से आक्रांत है तो उसके लाख छिपाने पर भी मुख पर अवश्यं ही कुछ शिकन-सी मालूम पड़ेगी और उस पीड़ा का असर अवश्यि मुख पर झलक पड़ेगा। यदि न झलके तो वह उस योगी के समान है जिसने मन को जीत लिया है। जिस समय चित्तल में कुछ विकार रहता है उस समय आदमी के चेहरे से वह मानसिक भाव चट प्रकट हो जाता है। जिस समय चित्तव में क्रोध रहता है तो भौं चट चढ़ जाती है, आँख लाल हो जाती है, चेहर तमतमा उठता है। इसी तरह अब कुछ शोक का उदय मन में रहता है तो बाह्य आकृति उदास, चेहरा उतरा हुआ, मुख मलीन, आँख में आँसू डबडबाया रहता है। इसी तरह भयभीत का चेहरा भाई जर्द, मुँह सूखा हुआ, आकृति नितांत दीन-हीन होती है। जब चित्त प्रसन्नह रहता है तब बाह्य आकृति टटके फूले हुए गुलाब की सी, चेहरा मनोहर और रौनक दार मालूम होता है। ये सब लक्षण तात्काटलिक चित्त और चेहरे के परिवर्तन के हैं। इसी तरह बहुत से चिन्ह‍ चेहरे या और-और अंगों के भी होते हैं, वे चिन्हत चाहे मनुष्यन के हों या किसी पशु पक्षी के हों उसके मानसिक भाव को प्रकट करते है। मुख से मानसिक भाव प्रतिबिंबत होता है यह सामूहिक विद्या का एक सूत्र है, जो मालूम होता है बहुत जाँच के बाद निश्चित किया गया है। बाराहमिहिर ने वृहत्संसहिता में पंच महापुरुष के लक्षण तथा एक-एक अध्यािय में गौ, बैल, बकरा, मेढ़ा, हाथी, घोड़ा, ऊँट आदि पशुओं के अलग-अलग लक्षण दिए हैं। पंच महापुरुष के लक्षण जैस बडे़-बडे़ नेत्र, चौड़ा, लिलार, उतार चढ़ाव दार सीधी सुग्गा की टोंट सी नासिका, गड्ढेदार सीधी ठुड्डी इत्याहदि भाग्य वानी के चिन्हक हैं। कंजी आँखवाला, कोती गरदन वाला तथा पस्त कद अवश्यद कुटिल और फसादी होगा। एवं जिसके आगे के दो दाँत बड़े हों, वह मूर्ख न होगा। इसी प्रकार 'क्वरचित खल्वादट निर्धन, इस वाक्य‍ के अनुसार यह प्राय: देखा गया है कि खल्वामट या गंजी चाँदवाला अर्थात् जिसके चाँद में बाल न हों वह कदाचित ही निर्धन होगा। कानी आँखवाला साधु न होगा, आजानु लंबबाहु अर्थात् जिसका हाथ इतना लंबा हो कि खड़े होने पर घुटने तक छू जाए वह बड़ा वीर, विक्रांत, दानी, उदारप्रकृतिवाला होगा, स्त्रियों में जिसके शरीर में रोंआं अधिक हो वह चंडी, कलहप्रिया, महाकर्कशा होगी और जल्दं विधवा हो जायगी इत्या दि। इसी से लिखा है-

“आकारेणैव चतुरास्तोर्कयन्ति परेगितम्।”

अर्थात् चतुर लोग चेहरा देखते ही मन में क्यात है चट भाँप लेते हैं। सचमुच यही तो चतुराई है। चेहरा देखते ही मन में तुम्हा रे क्यां है न जान गए तो चतुर और गाउदी में अंतर ही क्याह रहा। साधारण मनुष्यों का मन टटोलना तो कुछ बड़ी बात नहीं है अलबत्ताो ऐसों का मन टटोलना कठिन है जो या तो बड़े गंभीर हैं या महाकुटिलहृदय हैं। ऐसों ही के मानसिक भाव के विवेचन के लिए सामुद्रिक का यह सूत्र है-

“मुख से मानसिक भाव प्रतिबिंबत होता है।”

तो यह सिद्ध हुआ कि मुख मानो एक मुकुर या दर्पण है जिसमें चित्तक की छाया पड़ा करती है। कोई मनुष्यस भाग्यमवान है या अभागा, मूर्ख है या विद्वान, चतुर है या गाउदी, चालाक सयाना है या सीधा-साधा इत्या्दि इन सब बातों का परिज्ञान आदमी के चेहरे ही से होता है और यह परिज्ञान केवल बुद्धिमान ही को हो सकता है। यह बात केवल एक व्यिक्ति पर नहीं वरन् कभी को समस्त जाति पर सुघटित होती है। चेहरा या शरीर का निर्माण उस जाति का मानसिक शक्ति प्रकट करता है। फसड़ी नाक, मोटे होंठ, मोटे बाल जैसा हब्शियों के होते हैं बुद्धितत्वस के हास के द्योतक हैं। जिसमें ये लक्षण मिलते हों अवश्य उसमें बुद्धितत्व की कमी होगी। केवल यही नहीं वरन वह अकल का भोंडा और शरारत का पुतला होगा। जानवरों में भी एक-एक गुण ऐसा देखा जाता है जिससे उस विशेष गुण का उसी से नाम पड़ गया है। जैसे 'काकचेष्टाक' अर्थात् कौवे की-सी चेष्टाउ, 'बकध्या न' बगुले के समान ध्यालन लगाना। अब जिसकी चेष्टा कौए की-सी या ध्या न बगुले के समान हो या जिसके चेहरे पर कौआ बगुले का-सा भाव प्रकट होता हो बस जान लेना चाहिए कि इसमें उस जीव का कुछ गुण अवश्यच है। इसी तरह पर 'घोड़मुहा' अर्थात् घोड़े का-सा लंबा मुँहवाला कुनही और जी का कपटी होगा। वही बात लुखरी-सा मुँहवाले में होगी इत्यासदि। और भी भारी सिरवाला बुद्धि का तीक्ष्ण और गंभीर विचार में प्रवीण होगा। लंबकर्ण अर्थात् जिसके कान के नीचे की लौर लंबी होगी वह अवश्यक दीर्घजीवी होगा। जिसकी जीभ प्रमाण से अधिक लंबी होगी वह या तो चटोरा या बड़ा बकवादी होगा। निदान 'यत्रकृतिस्तणत्र गुणा: वसंति' सामुद्रिक शास्त्रा का यह सिद्धांत बहुत ही ठीक है। इसी से कालिदास आदि कवियों ने बड़े लोगों के शरीर के वर्णन में -

“व्यूेढ़ोरस्कोीवृषस्कंनध: शालप्रांशुर्महाभुज:। आत्मवकर्मक्षमं देहं क्षात्रो धर्म इवाश्रित:।।

इत्या्दि अनेकों श्लोकक इस विषय के लिखे हैं।