मनोरंजन का ग्लोबलाइजेशन / जयप्रकाश चौकसे

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मनोरंजन का ग्लोबलाइजेशन
प्रकाशन तिथि : 08 अगस्त 2013


शाहरुख खान की रोहित शेट्टी निर्देशित 'चेन्नई एक्सप्रेस' को हिंदी के साथ ही 9 अन्य भाषाओं में भी प्रदर्शित किया जा रहा है। इसके संवाद इंग्लिश, स्पेनिश, जर्मन, हिब्रू, टर्किश इत्यादि में डब किए गए हैं। हॉलीवुड और चीन की फिल्में भी अनेक भाषाओं में 'डब' करके प्रदर्शित की जाती हैं। व्यापक प्रदर्शन से फिल्म की आय भी बढ़ जाती है। शाहरुख खान को हर चीज जोशोखरोश से करने का शौक है और भव्यता के प्रति उन्हें गहरा मोह है।

बहुत अधिक सिनेमाघरों में लगाने से समग्र आय बढ़ती है और हॉलीवुड ने भारत छोड़कर अन्य सभी देशों में अपनी फिल्मों के प्रदर्शन के लिए सिनेमाघरों की शृांखला पर कब्जा किया हुआ है। हॉलीवुड के इस 'साम्राज्यवाद' के कारण यूरोप के अनेक देशों में उनकी अपनी फिल्मों का व्यापक प्रदर्शन नहीं हो पाता। इस कारण यूरोप में अनेक देशों के सहयोग से फिल्में बनाई जाती हैं। हॉलीवुड के अश्वमेघ के घोड़े को भारत ही रोकने में सफल रहा है, जिसका श्रेय भारतीय दर्शक को जाता है। वे अमेरिकन फिल्में भी देखते हैं, परंतु जो जुनून हिंदुस्तानी सितारों के लिए है, उसी ने यहां अमेरिका के स्वामित्व के सिनेमाघर नहीं बनने दिए और मनोरंजन क्षेत्र में हम अभी भी स्वतंत्र हैं।

हिंदुस्तान के टेक्नोलॉजी में प्रवीण युवा लोगों को अनेक देशों में नौकरियां मिली हैं और वे हमारे सिनेमा के स्वाभाविक दर्शक भी हैं। बहुत कम जर्मन, फ्रेंच या अमेरिकन लोग हमारी फिल्में देखते हैं अर्थात हमारे सिनेमा की बॉक्स ऑफिस ताकत भारतीय दर्शकों से ही है, चाहे वे कहीं भी बसे हों। अगर हम सचमुच चाहते हैं कि हमारा सिनेमा विदेशी दर्र्शक देखें तो हमें अपनी सिनेमा भाषा का विकास करना होगा। ऐसा नहीं है कि हमारी सारी फिल्में इस क्षेत्र में कमजोर हैं, परंतु इस क्षेत्र में विकास के लिए सिनेमा आस्वाद को पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा। सिनेमाई शास्त्र में प्रशिक्षित दर्शकों की संख्या ही सिनेमाई भाषा के विकास के लिए फिल्मकारों को बाध्य करेगी।

यह आश्चर्य की बात है कि जापान में रजनीकांत की मसाला फिल्मेें बहुत सफल रहती हैं। जापान के कुछ फिल्मकारों ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। उच्च गुणवत्ता की फिल्में बनाने वाले देश में फूहड़ फिल्मों ने जाने कैसे अपना दर्शक वर्ग बनाया है? यह संभव है कि निर्मम यथार्थ के कारण उससे पलायन एक अंतरराष्ट्रीय सच्चाई है और तर्क के दायरे के परे जाने की इच्छा अत्यंत बलवती है। जंग के क्षेत्र में भीषण गोलीबारी करने वाला योद्धा चंद मिनटों के लिए अपने बंकर में आता है तो परिवार की दीवार पर लगी तस्वीर देखकर उसे घर की याद आना स्वाभाविक है, गोया कि युद्धरत व्यक्ति भी पलायन करता है। मनुष्य कहीं भी रहे, वह अपने कल्पना संसार से पूरी तरह कभी नहीं कटता, वह उसकी सांस्कृतिक नाल है।

हमारी अतार्किक नाच-गाने से भरपूर मसाला फिल्में एक तरह की मानसिक 'थैरेपी' हैं और कुछ रोगों से मुक्त भी करती हैं। तर्क और बुद्धिमानी हमेशा और हर क्षेत्र में आपको रास्ता नहीं दिखाती। कुछ अंधेरे कोने हैं, जहां फंतासी ही रोशनी डालती है। यह एक अजीबोगरीब उलटबांसी है।

रोहित शेट्टी बखूबी जानते हैं कि तर्क के परे की बेहूदगी व अतिरेक भी मनोरंजन करता है, इसलिए उनकी फिल्मों में एक साथ कई कारों का हवा में उडऩा इत्यादि चीजें पसंद की जाती हैं। फंतासी का आधार भी एक हकीकत है। रोहित शेट्टी अजय देवगन के साथ आजमाए फिल्मी टोटके अब शाहरुख के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। सितारा बदला है, परंतु उनके मसाले वे ही हैं और अब साधन-संपन्न निर्माता उन्हें अनेक भाषाओं में डब करके व्यापक क्षेत्र में पहुंचा रहा है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे विदेशों में मसाला डोसा बिक रहा है और भारत में चीनी भोजन भारतीय तड़के के साथ बेचा जा रहा है। मनोरंजन का ग्लोबलाइजेशन इस तरह हो रहा है।