मन-माटी / असगर वज़ाहत / पृष्ठ 1

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पते की बात सीधी-सच्ची होती है। उसे बताने के लिए न तो चतुराई की जरूरत पड़ती है और न सौ तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। सीधी-सच्ची बात दिल को लगती है और अपना असर करती है। मैं यहां इन पन्नों में आपके सामने कुछ सच्ची बातें रखने जा रहा हूं। ये बातें गढ़ी हुई नहीं हैं आपकी और हमारी दुनिया में ऐसा हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा। कुछ आपबीती है और कुछ जगबीती है।


एक वक्त की बात है। कलकत्ता के पार्क स्ट्रीट इलाके में एक पादरी सफेद लंबा कोट पहने, टोपी लगाये, हाथ में पाक खिताब लिये जोशीली आवाज में कुछ कह रहा था। लोग उसे घेरे खड़े थे। सुन रहे थे।


अकरम को कलकत्ता आये तीन-चार दिन ही हुए थे। उसके बड़े भाई मिस्टर जैक्सन के अर्दली थे। अकरम की उम्र सोलह-सत्तरह साल थी। वह अपने पुश्तैनी गांव अरौली से आया था और आने का मकसद यह था कि बड़े भाई ने उसकी नौकरी लगवा देने का पक्का परोसा दिलाया था।


दो दिन से पड़ा सो रहा है, उठाओ उसे। अकरम जब से आया है सो रहा है। खाना-वाना खाता है, फिर सो जाता है।


उठ अकरम...उठ। अकरम की भाभी ने उसे झिंझोड़ दिया। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसके बड़े भाई असलम की कड़ी और खरखराती आवाज आई, क्यों? सोने आया है यहां...चल उठ जाके बाजार से दही ले आ, तो तेरी भाभी खाना पका ले।


अकरम हाथ में पतीली लेकर बाहर आया, गली से निकलकर सड़क पर आ गया। यहां से उसे उल्टे हाथ जाना था लेकिन सामने भीड़ लगी थी। पादरी का चेहरा धूप में लाल हो रहा था। अकरम ने इससे पहले कभी कोई गोरा नहीं देखा था। वह डर गया, लेकिन फिर भीड़ में पीछे छिपकर तमाशा देखने लगा। गोरे पादरी का चोगा पसीने से भीग गया था। उसकी घनेरी दाढ़ी हवा में लहरा रही थी। सीने पर पड़ा हार इधर-उधर झूल रहा था। अकरम उसे एकटक देखने लगा। उसकी बड़ी-बड़ी नीली आंखें इधर-उधर घूम रहीं थीं। वह जहन्नुम में दी जानेवाली तकलीफों के बारे में बात कर रहा था। उसकी आंखें और खौफनाक हो गईं थी। वह तेजी से घूम-घूमकर चारों तरफ जमा लोगों से कह रहा था, सच्चा और पक्का मजहब और एक करारी मेम कौन लेगा? पादरी की आवाज में कड़क थी, गरज थी, ईमानदारी थी, लालच था। वह सबको घूरकर देख रहा था।


अचानक पादरी की आंखें अकरम की आंखों से टकराईं। पादरी ने गरजकर फिर अपना सवाल दोहराया, सच्चा और पक्का मजहब और एक करारी मेम कौन लेगा?


अकरम को लगा कलेजा उसके मुंह से आकर लग गया है। उसका गला सूखने लगा। जबान पर लगा कांटे उग गये हैं। वह टकटकी लगाये पादरी को देख रहा था। पादरी बार-बार अपना सवाल दोहरा रहा था। हर बार सवाल के बाद अकरम की हालत खराब हो जाती थी। ऊपर आसमान में सूरज चिलचिला रहा था। भीड़ में कुछ अजीब आवाज उठ रही थी। अकरम को लगा उसे अपने ऊपर काबू ही नहीं है।


वह बोल उठा, मैं।


अकरम के चेहरे पर एक अजीब तरह का भाव था। वह गर्मी से झुलस रहा था। आंखें फटी जा रही थीं। पूरे मजमे ने अकरम की तरफ देखा। पादरी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। वह आगे बढ़ा और अकरम के आगे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, फिर धीरे-धीरे अकरम का हाथ पादरी के हाथ में चला गया।


अकरम के भाई ने उसे कलकत्ता की हर गली में खोजा, आसपास के गांवों में गया। पुलिस दारोगा से पूछा। अस्पताल, मुर्दाघर, कब्रिस्तान हर जगह जाकर पता लगाया, लेकिन अकरम का कहीं पता नहीं चला। थक-हारकर घर चिट्ठी लिख दी। घर यानी यू.पी. के मेरठ जिले की सरधना तहसील के अरौली गांव। अकरम के बूढ़े बाप और मां को यह खबर मिली तो मां ने रो-रो के जान दे दी। छोटे भाई हैरत में पड़े रहे। बाप ने तौबा कर ली कि अब किसी औलाद को कलकत्ता नहीं भेजेंगे।


अरौली गांव में सब-कुछ वैसे ही होता रहा-जैसा होता आया था। अकरम के लापता हो जाने की बात सब भूलते चले गये।


पाठकों, समय बीतता गया और बीतता गया। दस लाख नौ हजार पांच सौ बार सूरज निकला और डूबा। खेतों में गेहूं लहलहाया और कुंदन की तरह लाल हुआ। नदी में नीला पानी बहता रहा, हवा चलती रही, पत्ते हिलते रहे। मौसम पर मौसम बदलते रहे। बदलते समय के साथ चेहरे भी बदलते रहे। अकरम के वालिद गुजर गये। कलकत्ता में असलम का इंतकाल हो गया। अकरम के छोटे भाई वहीद हैजे से मरे। उनके दोनों बेटों, तक्कू और आबिद ने हल-बैल संभाल लिया।


चैत का महीना है, गेहूं कट चुका है, लगता है पृथ्वी का मुंडन कर दिया गया है। इधर-उधर आम के बागों में कोयलें कूकती फिर रही हैं। आवारा लौंडों के गिरोह सीकल बटोरने की ताक में इधर-उधर घूम रहे हैं। घने पेड़ों के नीचे बुजुर्ग चारपाइयों पर आराम कर रहे हैं। खलिहानों में मढ़ाई चल रही है।


दूर से बैलगाड़ी आती दिखाई दे रही है। इस गांव की बैलगाड़ी नहीं है। किसी और गांव की है। धीरे-धीरे बैलगाड़ी अरौली गांव के गलियारे में आ जाती है। धूल का एक बवंडर उठता है और बैलगाड़ी रुक जाती है। दो-चार लोग बैलगाड़ी के पास जाते हैं। बैलगाड़ी से एक अजीब तरह का आदमी उतरता है। उसने गोरोंवाले कपड़े पहन रखे हैं। सिर पर हैट भी लगाये है। हाथ में छड़ी, कोट की जेब में घड़ी की चेन पड़ी है। सब जने इस आदमी को देख रहे हैं और यह आदमी गलियारे को और इधर-उधर देख रहा है। फिर इस आदमी ने जो किया उससे तो अचंभे का पहाड़ टूट पड़ा। यह आदमी अजीब-सी आवाज में जोर से चिल्लाया और गलियारे में लोटने लगा, रोने लगा। उसका हैट गिर गया, कपड़े धूल में अट गये। घड़ी जेब से बाहर निकल आई पर यह गली में, गर्दे में लोटता और रोता रहा। सबको लगा कि कोई पागल है, पर पागल है तो इतने अच्छे कपड़े कैसे पहने है? बैलगाड़ीवाले ने बताया कि साहब छवलिया स्टेशन पर पसिंजर गाड़ी से उतरे थे। स्टेशन मास्टर ने उसकी बैलगाड़ी करा दी थी। कहा था साहब को अरौली गांव जाना है।


अरौली में किसके घर आना था?


यह तो बात नहीं हुई।


नाम-पता कुछ है?


नहीं हमारे पास नहीं है।


बीस-पच्चीस मिनट के बाद यह आदमी धीरे-धीरे उठा अपनी टोपी उठाई। कपड़े ठीक किये और रामचंदर के चाचा के पास गया। वही भीड़ में सबसे बुजुर्ग थे।


मेरा नाम अकरम है...


अकरम?


हां...असलम मेरे बड़े भाई कलकत्ता में काम करते थे...मेरा छोटा भाई वहीद है।


रामचंदर के चाचा का मुंह खुला-का-खुला रह गया। आंखें फटी-की-फटी रह गईं। उसके मुंह से बोल नहीं निकल रहा था।


आप वसीउद्दीन के लड़के अकरमउद्दीन हो?


हां...हां मैं वही बदनसीब हूं। साहब फिर रोने लगा।


सब उन्हें लेकर तक्कू के घर की तरफ चले। गांव के गलियारे से वे बैलगाड़ी में नहीं बैठे। पैदल चलते रहे। कहीं-कहीं रुक जाते और किसी मकान या पेड़ को ध्यान से देखते और फिर आगे चलते। सब हैरान थे कि गांव में ऐसा क्या अजीब है जिसे यह आदमी, जो बिल्कुल अंग्रेज लग रहा है, इस तरह देखता, हँसता, रोता या आहें भरने लगता है।


उनके पीछे करीब-करीब पूरा गांव चल रहा है। सबसे पीछे बैलगाड़ी है जिसमें उनका सामान धरा है-पहाड़-जैसे चार बक्से हैं, एक गोल बक्सा है। इस तरह के बक्से गांव में पहली बार देखे गये हैं। यही वजह है कि गांव के लौंडे उन्हें छूकर देख रहे हैं और बैलगाड़ीवाला या दूसरे बड़े लोग उन्हें मना कर रहे हैं।


घर के सामने पहुंचकर यह साहब रुक गये। तक्कू और आबिद भी घर से निकल आये थे। साहब ने सिर पर से हैट उतार लिया। घर को इस तरह देखा-जैसे कोई अपने जवान बेटे को देखता है। दूसरे लोग उन्हें देख रहे हैं और वह घर को देखे जा रहे हैं। गांव में जिसे खबर नहीं थी उसे भी खबर लग गई है और सब अब्बू के घर की तरफ दौड़े आ रहे हैं। कुछ देर खड़े-खड़े मकान को देखने के बाद साहब दरवाजे की तरफ लपके और जोर-जोर से जंजीर बजाने लगे। सब पर हैरत का पहाड़ टूट पड़ा। किसी की समझ में न आया कि जंजीर क्यों बजाई जा रही है? घर के मालिक घर के बाहर खड़े हैं। पूरा गांव घर के बाहर खड़ा है और ये साहब जंजीर बजा रहे हैं। किसको बुला रहे हैं? किस तक आवाज पहुंचाना चाहते हैं? कुछ किसी की समझ में न आया। इतने में हाजी वलीउल्ला और मुंशी करामत अली आ गये। सब लोग मकान के सामने नीम के पेड़ के नीचे चारपाइयों पर बैठ गये। चारपाइयां कम पड़ रही थीं, तो पास-पड़ोस के घरों से आ गईं।


मुंशी करामत अली ने साहब से पूछा, पता चला कि आप मरहूम वसीउद्दीन के बेटे हैं और वहीद मियां के भाई हैं।


उन्होंने कहा, हां, मैं ही वह बदनसीब हूं। सन्नाटा छा गया। कुछ देर के लिए सब खामोश हो गये लेकिन कव्वों की कांव-कांव जारी रही। आप अपने रिश्तेदारों से मिलने आये हैं? हाजी वलीउल्ला ने पूछा।


हां, मैं अपने गांव और घर में रहने आया हूं... मैं अब यहीं रहूंगा।


चारों तरफ खुसर-फुसर होने लगी।


कुछ सोचकर मुंशी करामत अली ने कहा, हां आपको पूरा हक है। आपका मरहूम... की जायदाद में हिस्सा है।


उन्होंने कहा, मुझे जमीन, जायदाद में कुछ नहीं चाहिए... एक तिनका नहीं चाहिए...मैं बस इस घर और इस गांव में रहना चाहता हूं... मुझे किसी चीज की कमी नहीं है। लंदन में मेरा रुतबा है। वहां मेरी शादी हो गई थी। मेरा एक लड़का है जो फौज में है। एक लड़की है जिसकी शादी हो गई है।


साहिब, यह आपके भतीजे हैं। आपके भाई तो दस साल हुए गुजर गये थे। तक्कूउद्दीन उर्फ तक्कू मियां और आबिदउद्दीन उर्फ अब्बू मियां का मुंशी करामत अली ने तआरुफ कराया। साहब दोनों से लिपटकर रोने लगे।


बैलगाड़ी घर के सामने पहुंच चुकी थी। तक्कू और अब्बू साहब के पहाड़-जैसे बक्से उतार-उतारकर नीचे रखने लगे। साहब ने अपने बूट खोले और नीम के पेड़ के नीचे बिछी चारपाई पर लेटकर ऐसे सोये-जैसे जिंदगी में पहली बार नींद आई हो।


साहब ने बताया कि उन्होंने ईसाई मजहब कुबूल कर लिया है और अब फिर से मुसलमान नहीं होना चाहते। जो कुछ हुआ, हो गया है। साहब महीने में एक बार बैलगाड़ी करके डिगलीपुर गिरजाघर जाया करते थे और अपने हिसाब से इबादत किया करते थे। उन्हें बैठक का एक हिस्सा रहने के लिए दे दिया गया था। साहब ने अपने भाइयों से साफ कह दिया था कि वे जमीन-जायदाद में कोई हिस्सा नहीं चाहते। लंदन में उनके पास पैसे की कमी नहीं है और अरौली वे पैसे के लिए नहीं आये हैं। इस तरह भाइयों के दिल से यह खौफ निकल गया था कि कहीं साहब को जायदाद में हिस्सा न देना पड़ जाए और अंग्रेजों का जमाना है, साहब ईसाई हैं, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं, कलक्टर-कमिश्नर से मिल सकते हैं। एक कागज भी चला देंगे तो भारी पड़ जाएगा, लेकिन साहब ने ऐसा कुछ नहीं किया। हां, उनके गांव में रहने से छोटे-मोटे अहलकार-जैसे पटवारी और सिपाही गांव से कुछ दबने लगे थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि साहब की पहुंच लंदन तक है और वे वहां से जोर डलवा सकते हैं।


साहब सुबह खाना खाकर घर से निकल जाते थे। जी में आता तो पूरे गांव का चक्कर लगाते। एक-एक गली में घूमते। सलाम-राम-राम करते। लोगों की खैर-खबर पूछते। घूमते रहते। कहीं किसी पेड़ के नीचे दो-चार लोग बैठे होते और साहब से बैठने के लिए कहते तो बैठ जाते। साहब हुक्का नहीं पीते थे, बताते थे कि लंदन में चुरट पीया करते थे। चुरट यहां नहीं मिलता इसलिए और कुछ नहीं पीते। साहब लंदन की और बातें भी बताया करते जिसे गांव के लोग बड़े चाव से सुना करते, लेकिन साहब को बातचीत करना उतना पसंद नहीं था, जितना घूमना। वह गांव के दो-तीन चक्कर लगाकर खेतों की तरफ निकल जाते और पांच-सात कोस का चक्कर लगा लेते।


साहब के पास लंदन से पैसा आता है। साल में दो-तीन बार डाकिया साहब का मनीआर्डर लाता था। साहब पैसा वसूल करके इकन्नी डाकिया को देते थे। साहब अपने पास एक नाड़े में मोतियों-जैसा पिरोकर छेदवाले एक पैसे के सिक्के रखते। जहां मन करता, पैसा निकाल लेते थे।


एक दिन साहब को कैथे के पेड़ पर एक पका हुआ कैथा लगा दिखाई दिया। उन्होंने बशीर से कहा कि मेरे लिए कैथा तोड़ लाओ तो तुम्हें एक पैसा दूंगा। बशीर फट से पेड़ पर चढ़ गया और कैथा तोड़ लाया। इसी तरह साहब को कभी जंगल-जलेबी खाने का शौक होता तो पैसा देकर तुड़वाते थे। बूट खाने का साहब को शौक था। होले भूंजने के लिए साहब पैसा दिया करते। यही वजह है कि साहब जब निकलते तो लौंडों का गिरोह उनके आगे-पीछे रहता।


गर्मियों के दिनों में साहब खूब तड़के, सूरज निकलने से पहले उठ जाते और खेतों की तरफ निकल जाते। कब्रिस्तान में महुए के पेड़ों के नीचे गांव की औरतें महुए बीनतीं तो साहब भी एक-आध महुआ साफ करके खा लिया करते। फिर बाग आ जाते अच्छी कोई सीकल मिल जाती तो धोकर खाते। एक-दो फालसे चखते, चटनी के लिए दो-चार कच्चे आम उठा लेते। पुराही चल रही होती तो खूब मजे में नहाते और गांव लौट जाते।


रात में जहां गुड़ बन रहा होता, साहब वहां पहुंच जाते। कढ़ाव की खुरचन खाते। एक-आध लोटा रस पीते। इधर-उधर की गप्प सुनते और देर तक बैठे आग को देखते रहते। कढ़ाव के ऊपर आते फेन को तकते रहते। नहीं तो ऊपर देख लेते। तारोंभरा आसमान दिखाई देता।


चांदनी रात में गांव के बाहर लड़के कबड्डी खेलते तो साहब जाकर जरूर देखते। कभी खुश होते तो जीतनेवाली टीम के लिए इकन्नी का इनाम भी रख देते। इकन्नी में पांच सेर हलुआ बनता जिसे खिलाड़ी मजे लेकर खाते। साहब को तालाब में तैरना और सिघांड़े तोड़कर लाना बहुत पसंद है। दो मिट्टी के घड़ों की डोंगी बनाकर साहब घंटों तालाब में सिघांड़े तोड़ते रहते, कभी-कभी घर भी ले आते।


पूरे गांव में ही नहीं दस-बीस गांवों में साहब के पास ही घड़ी है। साहब के अलावा अतरौला के नवाब साहब के पास घड़ी है। साहब सुबह घड़ी में कूक दिया करते थे तो लोग जाकर देखते थे कि घड़ी में कूक कैसे देते हैं! टाइम देखना तो साहब के अलावा और किसी को आता न था। ऐरा-गैरा आदमी साहब से टाइम पूछने की हिम्मत न कर सकता था। गांव में दो ही तीन आदमी हैं जो टाइम पूछने साहब के पास आते हैं। साहब डिब्बा खोलकर घड़ी निकालते हैं, ढक्कन उठाते हैं, घड़ी साफ करते हैं, एक आंखवाला चश्मा लगाते हैं और घड़ी में टाइम देखकर बताते हैं। गांव में किसी को घंटा और मिनट की जानकारी भी नहीं थी, इसलिए टाइम किसी की समझ में न आता था।


हाजी करीम टाइम पूछने के लिए अपने नौकर जुम्मन को भेजते थे। उसे साहब जो टाइम बताते थे उसे वह रटता हुआ हाजीजी के घर की तरफ दौड़ता। जुम्मन फिर रास्ते में किसी से बात नहीं करता था, क्योंकि अगर वह बात कर लेता था तो टाइम भूल जाता था और फिर साहब के पास जाना पड़ता था। साहब दोबारा टाइम देखने की बात से चिढ़ जाते थे और कभी-कभी मना भी कर देते थे, तब जुम्मन कहता कि वही टाइम बता दीजिए जो पहले बताया था। इस पर भी साहब को गुस्सा आ जाता था। कहते थे कि टाइम को क्या समझ रखा है? क्या टाइम हमेशा एक रहता है? अरे टाइम तो बदलता रहता है। यह सुनकर लोग अचरज में पड़ जाते थे कि टाइम लगातार कैसे बदलता रह सकता है? कोई ऐसी चीज नहीं है जो लगातार बदलती रही, फिर टाइम क्यों लगातार बदलता रहता है? बहरहाल तरस खाकर साहब फिर टाइम बता देते थे और जुम्मन रटता हुआ हाजीजी के घर की तरफ भाग जाता था।


इलाके में अगर कभी किसी जमींदार या नवाब के यहां अंग्रेजी का कोई खत आ जाता था तो साहब को बुलाया जाता था। साहब को लेने बैलगाड़ी आती थी। साहब उस दिन अपना काला कोट पहनते थे, हैट लगाते थे, गले में सफेद रुमाल बांधते थे। बूट पहनते थे। चश्मा और घड़ी रखते थे। कलमदान लेते थे और बैलगाड़ी पर बैठ जाते थे। एक-दो बार उन्होंने बैलगाड़ी पर कुर्सी रखा दी थी और कुर्सी पर बैठते थे, लेकिन हिचकोलों से कुर्सी एक-दो बार गिर जाती थी। इसलिए साहब अब बैलगाड़ी के डंडे पर बैठते हैं। साहब जब अंग्रेजी खत पढ़ने जाते होते हैं तो उनके घर के सामने लौंडों की भीड़ लग जाती है। साहब के भतीजे तक्कू मियां और अब्बू मियां फूल जाते हैं। किसी को अपने आगे कुछ नहीं समझते हैं। है कोई इलाके में ऐसा जो साहब की तरह अंग्रेजी पढ़-लिख और बोल सकता हो?


एक बार नवाब अतरौला के यहां कलक्टर आ रहा था। नवाब साहब बड़े परेशान थे, उन्होंने साहब के लिए फिटन भेजी थी। उस पर साहबों की तरह बैठकर वो अतरौला गये थे और कहते हैं साहब की अंगे्रेजी सुनकर कलक्टर दंग रह गया था। उसे यकीन ही नहीं था कि इस इलाके में कोई ऐसी अंग्रेजी बोलता होगा।


तक्कू कहता है, अब तुम लोग क्या समझते हो? साहब को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती? अरे वो चाहें तो नायब तहसीलदार तो हो ही सकते हैं। दो-तीन बार नवाब मीर अजमद अली ने उन्हें मनीजर बनाने की बात की है, लेकिन साहब तो मनमौजी हैं। उन्हें गांव में मजा आता है। अरे, ये तो हमारे नसीब हैं कि गांव में साहब-जैसा आदमी रह रहा है। कहां मिलेगा ऐसा आदमी जो लाट साहब से बात कर सकता हो?


गांव के पुराने लोगों को यह अब तक याद है कि साहब चमचे से दाल खाया करते थे। यह बात आसपास के गांवों में लोगों को भी पता चल गई थी और सबके लिए यह एक अनबूझ पहेली बन गई थी कि साहब दाल चमचे से क्यों खाते हैं? साहब जब आये थे तो उन्होंने अपने एक बक्से में से छुरी, कांटा और चमचा निकाला था। कांटा और छुरी घरवालों के लिए ही नहीं पूरे गांव के लिए नई चीजें थीं और किसी की समझ में न आता था कि ये क्या है?


तक्कू ने डरते-डरते पूछा था, चचाजान यह क्या है?


ये खाना खाने के लिए है। उन्होंने कहा था।


तक्कू की समझ में कुछ न आया था। वह ये तो जानता था कि बर्तन खाये नहीं जाते। क्या साहब बर्तन खाते हैं? ऐसा है तो घर के सब बर्तन साहब खा जाएंगे।


यह खाते हैं?


नहीं, इससे खाना खाते हैं।


...और साहब ने छुरी, कांटे और चमचे से जो खाना शुरू किया तो घर के बाकी लोग सिर्फ उन्हें देख रहे थे। सब खाना, खाना भूल गये थे। धीरे-धीरे साहब ने छुरी और कांटे को अलग रख दिया, लेकिन चमचे का इस्तेमाल करते रहे। खाना खाने के बाद वह अपने चमचे को खुद धोते, पोंछते और सही जगह पर रख देते थे। गांव में यह बात धीरे-धीरे फैली थी और फिर आसपास तक चली गई थी। लोग कहते थे कि अंग्रेज ऐसा ही करते हैं। वे हाथ से खाना नहीं खाते, क्योंकि हाथ को गंदा मानते हैं। माना जाता था कि अंग्रेज हाजत के बाद पानी का इस्तेमाल नहीं करते हैं, कागज से पोंछ लेते हैं, लेकिन साहब ऐसा नहीं करते।


साहब के चमचे से र्‍यादा उनके कांटे को देखकर लोग हैरान थे। किसी ने कभी ऐसी चीज न देखी थी और यह तो कोई सोच भी न सकता था कि उससे खाना खाया जा सकता है। जिन्होंने साहब का कांटा न देखा था और ऐसे लोगों की बड़ी तादाद थी, उन्हें बताया जाता था कि समझ लो चम्मच में बबूल के बड़े-बड़े कांटे लगे होते हैं चमचे की जगह पर, जिससे साहब खाना खाते हैं। कांटे क्या उनके मुंह में चुभ न जाते होंगे? या कांटे में खाना कैसे आता होगा? मान लो साहब सालन-रोटी खा रहे हैं तो क्या करते होंगे? रोटी तो पूरी-की-पूरी कांटे में फंस जाती होगी। क्या साहब रोटी दांत से काट-काटकर खाते हैं? और साहब कांटे से सालन कैसे खाते होंगे? दो-चार लोग जो साहब के नजदीक आ गये, उनसे कांटा दिखाने की फरमाइश भी करते थे। साहब उन्हें चांदी का बड़ा-सा कांटा दिखाते थे, लेकिन कांटा किसी के हाथ में नहीं देते थे।


कुछ साल के बाद साहब के पास एक खत आया जिसे पढ़कर वह बहुत रोये। बताया कि लंदन में उनकी घरवाली के गुजर जाने का हाल खत में लिखा है। फिर साहब को ध्यान आया। उन्होंने सबसे पूछे कि देखो जब मैं मर जाऊंगा तो क्या तुम लोग लंदन मेरे बच्चों को खत लिख सकोगे? खत अंग्रेजी में होना चाहिए, क्योंकि मेरे बच्चों को उर्दू नहीं आती। अब तो बड़ा मसला पैदा हो गया। गांव के सबसे र्‍यादा पढ़े-लिखे आदमी मुंशीजी को भी अंग्रेजी में चिट्ठी लिखना न आता था। वे फारसी-उर्दू जानते थे। आसपास के गांवों में भी कोई ऐसा न था। हद यह है कि डिगलीपुर गिरजाघर के पादरी को भी अंग्रेजी में चिट्ठी लिखना न आता था। शहर यहां से चालीस कोस पड़ता है। जहां का एक-आध वकील अंग्रेजी में चिट्ठी लिख सकता है।