मन-माटी / असगर वज़ाहत / पृष्ठ 3

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इतने सालों के उतार-चढ़ाव के बाद अब भारत में मैं सिर्फ साजिद रहमान को ही जानता हूं। वह मेरी रिश्ते की एक बहन का सबसे छोटा बेटा है और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाता है। मैंने उसे अपने भारत आने का प्रोग्राम लिखा और उसका जवाब आया कि वह मुझे लेने एयरपोर्ट आएगा और मैं जहां-जहां जाना चाहता हूं, वहां-वहां ले जाएगा। मैंने उसे जवाब दिया था कि मैं सिर्फ डिबाई जाना चाहता हूं, और कहीं नहीं जाना चाहता। सिर्फ एक दिन डिबाई में गुजारकर वापस चला आऊंगा। डिबाई में इसलिए नहीं रुकना चाहता कि वहां रहूंगा कहां?


दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरते ही मुझे अनायास लगने लगा था कि मैं सतर्क हो गया हूं। मैं हर काम अपने पूरे होशो-हवास में करने की कोशिश कर रहा हूं। ये नहीं कि कोई मेरे ऊपर निगाह रख रहा है और ये भी नहीं कि मैं किसी भी गलती पर पकड़ा जा सकता हूं पर यह जरूर है कि मुझे सावधान रहना चाहिए। मैं इमीग्रेशन की लाइन में बड़ी शालीनता से खड़ा हुआ। एक-दो लोग मेरे आगे आकर खड़े हो गये थे, लेकिन मैंने कोई एतराज नहीं किया था। जब मेरा नंबर आया तो मेरा दिल धड़क रहा था, लेकिन मैं चेहरे पर पूरी गंभीरता और विश्वास के भाव संजोये हुए था, फिर मुझे लगा कि ये भाव कहीं मेरे अंदर के डर को न रेखांकित कर दें। इसलिए मैं मुस्कुराने लगा, पर अंदर से कांप रहा था। मुझे लगता जरूर कुछ-न-कुछ गड़बड़ हो जाएगी और मुझे वापस लौटाया जा सकता है, लेकिन जब मेरी बारी आई और सिख पुलिस अफसर ने मेरा पासपोर्ट और कागज हाथ से लिए तो मेरी जान ही निकल गई। सिख, सुना था, मुसलमानों से बहुत नफरत करते हैं। उन्हें दंगों वगैरह में बहुत मारा गया था। कत्ले-आम किया गया था। मैं सन्नाटा मारे खड़ा रहा, सिख अफसर ने मेरे कागज देखकर ठप्पे लगाये। कायदे से मुझे आगे बढ़ जाना चाहिए था, लेकिन मैं कुछ सेकंड के लिए वहां खड़ा-का-खड़ा रह गया, फिर खयाल आया कि मैं क्या कर रहा हूं? यह तो पहले अपने आप को 'गिल्टी' साबित करने जैसा काम है। मैं तेजी से आगे बढ़ गया।


दिल्ली हवाई अड्डे के बाहर मुझे साजिद मिल गया। उसके साथ एक साहब और मिले जिनका तआरुफ यह कहकर कराया गया कि यह डा. शर्मा हैं और हिंदी के लेक्चरर हैं। मैं कुछ पसोपेश में पड़ गया लेकिन जल्दी ही यह बात मेरी समझ में आ गई कि साजिद ने बड़ी अक्लमंदी का काम किया है।


होटल में सामान-वामान रखने के बाद साजिद ने मेरा पासपोर्ट देखा और एक बहुत बड़ी गलती का पता चला। मैंने दिल्ली और अलीगढ़ का वीजा लिया था। साजिद ने बताया कि डिबाई तो बुलंदशहर जिले में है और मुझे बुलंदशहर का वीजा लेना चाहिए था। मेरे हाथों के तो तोते ही उड़ गये। या अल्लाह यह मैंने क्या कर डाला! मैं यह क्यों समझे बैठा था कि डिबाई अलीगढ़ जिले में है? वजह यह रही होगी कि हम लोग अलीगढ़ होते हुए ही डिबाई से लखनऊ आया-जाया करते थे। यही वजह थी कि मैं डिबाई को अलीगढ़ जिले में समझ बैठा था।


अब क्या किया जाए? मैंने साजिद से पूछा।


सूरते-हाल पता चली कि अब दिल्ली में नया वीजा लगना तो करीब-करीब नामुमकिन है और यह हो ही नहीं सकता कि बुलंदशहर का वीजा लगवाने इस्लामाबाद जाऊं? रास्ता यह है कि मैं...मैं कांप गया और बेसाख्ता नहीं-नहीं कहने लगा। सत्तर साल की उम्र में, एक अच्छी-खासी हैसियत का आदमी होने के बाद अपने को जेल की सलाखों के पीछे खड़ा देखकर घबरा गया।


यह मैं नहीं करूंगा।


अंकलजी... घबराने की कोई बात नहीं है? डा. शर्मा बोले और मैं हैरत से उनका चेहरा देखने लगा। उनके चेहरे पर विश्वास और दोस्ती थी। ये दोनों मुझे समझाते रहे कि कुछ न होगा, लेकिन मेरी परेशानी कम नहीं हुई। मैं न तो नहीं कह सकता था और न हां।


अंकल आप को देखकर कौन कह सकता है कि आप पाकिस्तानी हैं? डा. शर्मा ने कहा।


मैं तो कह ही रहा हूं कि चलिए। साजिद ने कहा


मैं सब संभाल लूंगा। यह कैसे हो सकता है कि आप पचास साल बाद अपना गांव देखने आये हैं और बिना देखे चले जाएं?


मैं टुकुर-टुकुर शर्मा की तरफ देखने लगा। जैसे तोता जाल में फंसने के बाद चिड़ीमार को देखता है।


आपको कुछ न होगा।


देखो बेटा, मेरे दिल के दो आपरेशन हो चुके हैं।


सर मैं आपसे कैसे कहूं कि कुछ न होगा... मेरे मामा लखनऊ में डी.आई.जी. हैं। मेरे पिताजी रिटायर्ड चीफ इंजीनियर हैं...मेरा भाई आई.आर.एस. में है। आप भी अंकल...। शर्मा ने पूरे यकीन से कहा।


तय यह पाया कि मैं आराम करूं, फिर थाने जाकर रिपोर्ट करूं। अपने को 'कंपोज' करूं-लाहौर फोन करके बेगम साहिबा से बात कर लूं और फिर सो जाऊं।


सब-कुछ मेरे लिए नया है। पचास साल पहले की यादें खत्म हो चुकी हैं। रास्ते, इमारतें, पेड़-पौधे, पुल और नदी-नाले लगता है सब नये हैं।


मैं गाड़ी की पिछली सीट पर साजिद और शर्मा के साथ बैठा हूं। ड्राइवर के बराबरवाली सीट पर एक बावर्दी सिपाही बैठा है। यह शर्माजी का कमाल है। उन्होंने मेरा विश्वास बढ़ाने के लिए इस सिपाही का इंतजाम किया है। अब हम पुलिस की हिफाजत में हैं। हमें कौन रोक सकता है? अगर पुलिस ने रोका भी तो पुलिस का सिपाही, डी.आई.जी. आर.के. शर्मा का नाम लेगा और हम आगे बढ़ जाएंगे।


गाड़ी हिचकोले खाती गुजर रही थी। मैं सब-कुछ इस तरह देख रहा था कि जिंदगी में दोबारा यह सब न देख पाऊंगा।


अब हम डिबाई आ गये हैं। शर्मा ने कहा।


मैंने इधर-उधर देखा। ये तो नहीं है। एक कच्ची सड़क बड़े नीले तालाब के पास से मुड़ती थी। सड़क के दोनों तरफ देसी आम के बड़े-बड़े पेड़ थे। आगे थाना था। खपरैल की इमारत के सामने पीपल का पेड़ था। उसके तने के पास एक छोटी-सी मूर्ति रखी रहती थी। बाईं तरफ दारोगाजी की घोड़ी बंधी रहती थी, जिसे कभी किसी ने कहीं और न देखा था। दारोगाजी जब निकलते थे तो बड़ी शान से लखनऊ का कुर्ता-चूड़ीदार पैजामा पहनते और टोपी लगाते थे। उनके पीछे पूरी वर्दी में दो सिपाही हाथ बांधे चला करते थे। दारोगाजी को वर्दी में शायद ही किसी ने देखा हो। दारोगाजी ठाकुर राम सिंह की हवेली तक आते थे और कुछ देर बैठकर लौट जाते थे। थाने के बाद इसी सड़क पर सरकारी अस्पताल था। वह भी नजर नहीं आ रहा है।


यह डिबाई है? मैंने हिचकिचाते हुए पूछा।


हां अंकल, यह डिबाई है।


वह पक्का तालाब कहां है?


सामने आप दुकानें देख रहे हैं... उनके पीछे छिप गया है। वैसे भी अब तालाब में कम ही पानी है। पिछले साल यहां बारिश नहीं हुई है...सूखा पड़ा है।


एक जगह गाड़ी रोक दी गई। सिपाही और ड्राइवर को गाड़ी के पास छोड़ दिया गया और हम लोग आगे बढ़े। अब हम पुराने कस्बे की तरफ जाने लगे।


अंकल, यहां किस मोहल्ले में आपका घर था? शर्मा ने पूछा।


सैयदबाड़ा।


हम पूछते-पूछते सैयदबाड़ा आ गये।


यही है वह मोहल्ला? साजिद ने पूछा।


मैं इधर-उधर देखने लगा। कुछ पता नहीं चला क्योंकि पुरानी निशानियां गायब हो चुकी थीं।


पता नहीं। मैं धीरे से बोला और अपने आप पर शर्म आने लगी। आगे बढ़ साजिद ने दो-एक लोगों से पूछा और सबने यही बताया कि यही सैयदबाड़ा है। एक पतली-सी गली के दोनों तरफ मकान बने थे। अब यह तय हो गया कि सैयदबाड़ा यही है। मैं इस गली में इन दो लोगों के साथ अपना मकान तलाश करने लगा। मेरे दिल में एक ऐसी हलचल, ऐसा तूफान और ऐसी बेचैनी थी जिसे बताया नहीं जा सकता। लगता था कि मुझे अपने ऊपर काबू ही नहीं है। पूरी गली देख डाली पर मुझे अपना मकान नहीं मिला। जहां मैं पैदा हुआ था। जहां बचपन और लड़कपन बीता था।


अंकल और कोई निशानी याद है? शर्मा ने पूछा जब हम तीनों हताश एक जगह खड़े थे।


गली में शियों की मस्जिद थी...हमारा घर मस्जिद से आठवां मकान था। मैंने कहा। शियों की मस्जिद जल्दी ही मिल गई।


यह वही मस्जिद है। साजिद ने कहा।


हां, वही है। मैंने खुद अपनी आवाज को कांपते महसूस किया। मस्जिद का लोहे की सलाखोंवाला दरवाजा बंद था। पूछा तो बताया गया कि सामनेवाले घर में चाबी है। साजिद चाबी ले आये। ताला खोला गया। हम मस्जिद में आ गये। मुझे पहली बार लगा कि मैं डिबाई में हूं। ये लोग मुझसे कुछ कह या पूछ रहे थे लेकिन मुझे सुनाई नहीं दे रहा था।


जाड़े की सर्द रात तेज ठंडी हवा चल रही है। आधी रात ओले पड़े हैं लेकिन दादी फ़जर की नमाज के लिए चार बजे उठ गई हैं।


शज्जू...ऐ शज्जू...उठो...नमाज का वक्त हो गया है। मैं बिस्तर पर बेखबर सो रहा हूं।


शाकिर...उठो...तुम्हीं ने तो कहा था कि...मुझे मस्जिद में अजान देनी है। उठो...।


मैं बिस्तर पर बेखबर नहीं...कसमसा रहा हूं।


गली में सर्द हवा के तेज झोंके...मैं लिहाफ ओढ़े हूं...मस्जिद के ठंडे पानी से वजू कर रहा हूं।


अल्लाह हो अकबर...। ठिठुरती हुई आवाज कहां तक पहुंच रही होगी मुझे भी नहीं मालूम।


यह मस्जिद वही है। शर्मा ने पूछा।


वही है। मैंने कई बार पूछने पर जवाब दिया।


लेकिन... वह हौज कहां है जहां पानी होता था? आसपास के लोग आ गये हैं। वे बताते हैं जब से नल लगा है, हौज बंद करा दिया गया है।


...और यह लोहे का दरवाजा?


हां पहले लकड़ी का था... हर दो-चार साल बाद बदलना पड़ता था।


मस्जिद के सहेन से आसमान का उतना ही टुकड़ा दिखाई देता है। अब भी मस्जिद उसी तरह सफेद चूने से पोती जाती है-जैसे उस जमाने में। ये दर, ये दीवारें, ऊपर की छत, मीनारें और मिंबर। मैं खामोशी से यह सब नहीं देख रहा था। मेरे अंदर आवाजों का जमाट था। आवाजें-दादी की-दरुद शरीफ पढ़ने की आवाज, अब्बा की मर्सिया पढ़ने की आवाज, अम्मा की खाना खा लेने की पुकार, आपा की गुडि़या की शादी के गाने की आवाज।


साजिद और शर्मा कुछ अलग खड़े थे। वह चाहते थे कि मैं दिलभर कर वह सब सोच लूं, जो सोचना चाहता हूं। हमने मस्जिद से निकलकर घर गिनना शुरू किये। आठवां घर मेरा होना चाहिए।


यही है आठवां घर। शर्मा ने कहा।


पहचान रहे हैं आप?


नहीं ये नहीं है। मैं घर को ऊपर से नीचे देखता हुआ बोला।


अंकल और कोई पहचान याद है गली की? शर्मा ने पूछा


गली के नुक्कड़ पर छर्‍जू हलवाई की दुकान हुआ करती थी।


छर्‍जू हलवाई की दुकान तलाश करने में कोई मुश्किल नहीं हुई। मैं हैरान हो गया। पता नहीं क्यों अब तक वैसी ही है ये दुकान-जैसी हुआ करती थी। धुएं से काली दीवारें सामने बड़ी-सी कढ़ाई, तख्त पर मिठाइयों के थाल...दुकान पर एक आदमी बैठा जलेबियां बना रहा था।


क्यों भाई आप छर्‍जू हलवाई के कौन हैं। शर्मा ने पूछा


मेरे दादाजी थे। वह बोला


यहां इस गली में विकार हुसैन साहब का घर है?


वही जो पाकिस्तान चले गये थे?


हां-हां, वही।


उधर पांचवां घर है।


वहां अब कौन रहता है?


सराफ बाबू रहते हैं।


हम घर गिनते आगे बढ़ने लगे।


यही है रामलाल सराफ। दरवाजे पर लगी नेम प्लेट पढ़कर साजिद ने बताया।


यही घर है अंकल?


तीन दर गली में खुल रहे हैं। उनके बराबर सदर दरवाजा...तीन सीढ़ियाँ...हां, हां यही है...यही है...मैं घबरा कर गली में आगे बढ़ गया। शर्मा और साजिद दरवाजे पर खड़े रहे।


आइए, अंदर से तो देख लीजिए। साजिद ने कहा।


बस देख लिया...देख लिया। मैं रुका नहीं आगे बढ़ता चला गया। लगा कि एवरेस्ट फतह करके वापस लौट रहा हूं। मैं पीछे मुड़कर भी नहीं देखना चाहता था।


मैं आगे बढ़ता चला गया, मेरा सीना धौंकनी की तरह चल रहा था। मुझे न कुछ दिखाई दे रहा था और न सुनाई दे रहा था। मैं बस आगे निकल जाना चाहता था। अब मेरे अंदर हिम्मत नाम की कोई चीज न बची थी। मैं यह बर्दाश्त ही नहीं कर सकता था कि हर रात सपने में आने वाला मकान मेरे सामने मौजूद है। यह कैसे हो सकता है कि कल्पना सजीव हो उठी हो। मेरे अंदर डर और खुशी के जर्‍बे एकसाथ मिल गये थे। मुझे लगता था बस अब हो चुका...बस अब देख लिया। यह भी लगा कि वह सब अब कहां मिलेगा जिसकी तलाश में मैं आया हूं। वह अब कहीं है तो मेरे अंदर है। मुझे वह सब अपने अंदर ही देखना चाहिए। मेरे पैर रुक ही नहीं रहे थे।


मेरे पीछे से साजिद की आवाज आई।


चलिए, वे लोग आपको बुला रहे हैं।


कौन?


सराफ साहब.. शर्मा ने उनसे बात कर ली है।


मैं रुक गया। मैंने चेहरे से ढेर सारा पसीना पोंछा।


नहीं, अब वापस चलो।


इतनी दूर आ गये हैं...मकान मिल गया है तो अंदर से भी देख लीजिए।


देख लिया...।


वे लोग बुरा मानेंगे।


कौन?


सराफ साहब... उन्हें शर्मा ने आपके बारे में बता दिया है।


सदर दरवाजे पर एक अधेड़ उम्र आदमी कुर्ता-पैजामा पहने खड़े थे। उनके गले में सोने की एक मोटी-सी चेन थी। उनसे मुझे मिलवाया गया। उन्होंने बड़ी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया और सदर दरवाजे से हम अंदर दाखिल हुए। बाईं तरफ वाली बैठक में आ गये। बैठक सजी हुई थी। उन्होंने तीनों बाहरी दरवाजे खोल दिये। मैं छत की तरफ देखने लगा।


साजिद और शर्मा के लाख छिपाने के बाद भी सराफ साहब को ये पता लग गया कि मैं पाकिस्तान से आया हूं। जाहिर है विकार हुसैन का बेटा और साबिर हुसैन का भतीजा पाकिस्तान से ही आया होगा। यह मकान मेरे चचा साबिर हुसैन ही बेचकर गये थे, क्योंकि पूरे खानदान में उन्होंने ही सबसे बाद हिजरत की थी।