मन-मुखिया(हाइकु -रेखा रोहतगी ) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

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बहुविध रंगों से रँगा संग्रह-मन–मुखिया

हाइकु के बारे में हाइकु–जगत् के पुरोधा डॉ भगवत शरण अग्रवाल जी ने हाइकु भारती-12 में कहा था-"साहित्य में निहित सत्यं, शिवं, सुन्दरं की संगीतात्मक अभिव्यकि कविता है और कविता के सार्थक सारतत्त्व का सफलतम सांकेतिक रेखांकन हाइकु है।" इसमें 'सारतत्त्व' और सांकेतिक रेखांकन'पर ध्यान देने की आवश्यकता है। The classic Tradition of Haiku (Editor-Faubion bowers) में पाश्चात्य विद्वानों हाइकु को' Epigrams, snapshots or telegrams'(सुभाषित, आशुचित्र और टेलीग्राम) कहा है, वहीं। Sir George Sansom (1883-1965) -' litle drops of poetic essence (काव्य–सत्त्व की छोटी बूँदें) 'कहा है। इन तीनों कथन पर गौर किया जाए तो सार रूप में कह सकते हैं कि हाइकु कोई वर्णन न होकर वह कहा और अनकहा महत्त्वपूर्ण क्षण है जो अल्पतम शब्दों में सन्तुलित रूप से बँधा है, सांकेतिकता जिसकी अभिव्यक्ति है, सत्त्व जिसका भाव–प्राण और काव्य-दृष्टि' है। यहाँ 'काव्य-दृष्टि' को दर्शन के अर्थ में न लिया जाए. वह केवल 5-7-5 का चौखटा नहीं है। जिस प्रकार पर्वत की ऊँचाई पर चढने वाला अनावश्यक बोझ लादकर आरोहण नहीं कर सकता, उसी प्रकार घोर दार्शनिकता का पहाड़ लादकर चढने वाला औंधे मुँह खाई में ही गिरेगा। लद्दू लोगों का हाइकु लिखना वैसा ही है।

हिन्दी–हाइकु की दुर्गति में आशु यशकामी तिकड़मी लोगों का बहुत बड़ा योगदान है, जो 'कल हो न हो' की शैली में सिर्फ़ अपने ऊपर लिखवाकर आत्मप्रशंसा के कालपात्र गढ़वाकर अमर होने की तैयारी कर रहे हैं। दूसरे सप्तक के 'वक्तव्य' में भवानी प्रसाद मिश्र जी ने कहा था-'जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख / और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख'। ये अपने अग्रजों और अनुजों से सिर्फ़ इसलिए जुड़े रहना चाहते हैं कि वे इनके ऊपर लेख लिखें, वह भी उसी रूप में कि 'जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख।' जो इनको मना कर देता है, वह इनकी चारणगाथा की कोप–पुस्तिका में विरोधी के रूप में दर्ज़ हो जाता है। कुछ ऐसे भी हैं, जो अपनी ताकत केवल हाइकु–विरोध में खर्च करने पर उतारू हैं। मेरा मत है-भाषा एक संस्कार है और साहित्य विश्व-जन-मन की वह चेतना है, जो मानवता को जिन्दा रखे हुए है। हाइकु लिखकर कोई भी समर्थ रचनाकार जापान का यशोगान नहीं कर रहा है, वरन् इसी देश की मिट्टी की खुशबू परोस रहा है। जो भी सार्थक रचा जा रहा है, उसकी आत्मा पूर्णरूपेण भारतीय है, जैसे गीत, ग़ज़ल, रूबाई, नवगीत आदि की। रचनाकार विधा की उत्कृष्टता से बड़ा बनता है। लम्बाई के अनुसार विधा को बड़ा या छोटा कहने वाले दिमाग़ी दिवालियेपन के शिकार हैं। हनुमान चालीसा चौपाई छन्द में रची छोटी-सी पुस्तिका है। क्या इससे इसका महत्त्व कम हो जाएगा। इस तरह के कोहरा-ग्रस्त वातावरण में कुछ ऐसे भी रचनाकार हैं कि जो केवल सर्जन पर स्वयं को केन्द्रित किए हुए हैं। रेखा रोहतगी ऐसा ही एक नाम है, जो अपने पहले संकलनों से हाइकु–जगत् में अपना स्थान बना चुकी हैं। 'मन–मुखिया' इनके उस समय के अनुभवों का संकलन है, जब आप शारीरिक कष्टों को धता बताकर अँधेरों में भी उजालों की तलाश में जुटी थी। यह इनका ही संकल्प था कि

चढ़ा बुखार / हाइकु लिख-लिख / दिया उतार

14 खण्डों में विभाजित इनका संग्रह-'मन मुखिया' जीवन की चित्र–दीर्घा जैसा बन गया है। प्रभु कृपा से ही लेखनी मन को सुमन बना सकती है। रेखा जी की प्रभु से दया की याचना की भी एक विशेष भाव-भंगिमा है, जिसे सांकेतिक रूप में प्रस्तुत कर दिया गया है—मैं कुछ करूँ / या न भी करूँ, प्रभु! / तू दया कर।

'हाइकु-नीर' में हाइकु की परिभाषा दी है, इसका सीधा-सा भाव है कि सच्चा हाइकु वही है, जो हमारी संवेदना से सृजित हुआ हो, विचारों की खूँटी पर न टँगा हो—पीड़ा को बोया / आँसुओं से जो सींचा / उगे हाइकु।

सरसता और सत्त्व ही हाइकु की पहचान है। यही सरसता मनस्ताप हरने वाली होने पर उसके सामाजिक दायित्व को स्थापित कर सकती है—हाइकु मेघ / नन्ही-नन्ही बूँदों में / ताप हरते।

'खुला आकाश' जहाँ उड़ान के लिए आमन्त्रित करता है, वहाँ हमारे जीवन के सत्य को दृष्टि भी देता है, यहाँ हमें दर्शन के स्थान पर दृष्टि की कोमलता को स्नैपशॉट के अन्तर्गत समझना होगा, जिसके लिए ये दो उदाहरण देना समीचीन होगा—तुम दूर हो / खिड़की से झाँकता / आकाश पास -धरा-गगन / साथ ही साथ चलें / कभी न मिलें।

'मन-मुखिया'–मन की पर्तों को खोलकर कथित के पीछे जो अनकहा छुपा है, उसको उद्घाटित करता है; चाहे वह आँसुओं के रूप में सामने आए. मन की व्यथा प्रकट न करने पर तो मन भर की हो जाएगी। कुछ लोग मन की बात जीवन भर सुनते हैं, लेकिन उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते, ऐसी स्थिति में पीर का कोई साथी नहीं बन पाता, उसे अकेले ही मन-कोटर में बन्द रहना पड़ता है—मन की व्यथा / जो आँसुओं में बही / कम तो हुई -मन की व्यथा / मन में जो रही, हुई / मन भर की -मन की बात / सुनी जीवन भर / कह न पाई -मन-कोठरी / न संगी, न सहेली / पीर अकेली

यादें बहरूपिया-यादों को बहुरुपिया नाम दिया है, जो बहुत सार्थक है। जीवन में यादें तरह-तरह के रूप धारण करके आती रहती हैं। कवयित्री ने उनको बहुत सुकोमल रूप में चित्रित किया है। कहीं वे अँधेरा–उजाला हैं, तो कहीं नन्हे हाथ हैं, तो कहीं खिला गुलाब, तो कहीं जीवन में व्याकुलता पैदा करने वाली-जंगल में भटकी हिरनी हैं—रेशमी यादें / जैसे कोमल स्पर्श / नन्हे हाथों का -खिला गुलाब / याद आया मुझको / तेरा चेहरा -यादें जंगल / मैं भटकी हिरनी / निकलूँ कैसे?

शांत प्रकृति में प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य दर्शनीय है। धूप की मुस्कान, वर्षा में निखरी कलियाँ, गोधूलि वेला की चन्दनवर्णी धूल, विभिन्न ॠतुओं का चित्रण रेखा रोहतगी के सौन्दर्यबोध का साक्षी है-

धूप-मुस्कान / सूरज-सा मुखड़ा / सूरजमुखी

-गोधूलि वेला / चंदनवर्णी धूल / सौंधी सुगंध।

गर्मी के मौसम में सूनी सड़क का शब्द चित्र-


-सिर पर सूर्य / विधवा की माँग-सी / सूनी सड़क

सूर्य के कोहरे में विलुप्त होने पर शीत का चित्रण सहज बन पड़ा है—कोहरा ओढ़े / सूरज है ग़ायब / भोर ठिठुरे

पाले से पाला पड़ने का मुहावरा इस हाइकु को बहुत प्रभावी बना देता है—पड़ा है जाड़ा / पाले से पड़ा पाला / मार ही डाला

भीषण गर्मी में वर्षा की बूँदों का प्रभाव और गर्म तवे का उपमान चित्रण को अत्यन्त सहज बना देता है—वर्षा की बूँदें / गर्म तवे-सी भू पर / छन्न से गिरीं रेखा जी के सामाजिक बोध की बात करें तो बेटी के महत्त्व को रूपायित करने में छाते और जोत का रूपक मन को छू जाता है-

वर्षा में भीगूँ / छाते-सी याद आये / बेटी मुझको

-दीया बालूँ तो / जोत-सी याद आए / बेटी मुझको

व्यंग्य विनोद में रेखा जी खुद पर भी व्यंग्य करने से नहीं चूकतीं। अपने मोटापे और नकली घुटनों की खबर इस प्रकार लेती है-

गाड़ी में मुझे / आगे सीट दिलाए / प्यारा मोटापा

-नकली अच्छे / असली धोखेबाज़ / मेरे घुटने

सास-बहू की शाश्वत नोंक–झोंक के लिए यह हाइकु बहुत सटीक है—सास-बहू में / जो ज़्यादा चालें चले / उसकी चले

'सतरंगी तरंग' में प्यार कुछ इस प्रकार सामने आता है—प्यार के धागे / खुल-खुल जाएँ रे! / स्वार्थ के आगे -तू मेरे पास / रौशनी में नहाई / ये काइनात।

सब बाधाओं सुखों–दु: खों के बीच आगे बढ़ना है, तो वह तो छोड़ना ही पड़ेगा जो मर गया है, अपनी प्रासंगिकता खो चुका है-'तर्पण करूँ / मृत सपनों का तो। मैं आगे बढ़ूँ।'

मेरा विश्वास है कि जीवन के बहुविध रंगों से रँगा रेखा रोहतगी का यह संग्रह पाठकों के बीच पूर्ववत् अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराएगा। -0-

[28 दिसम्बर, 2013]