मन अभिमान न आए रे / ममता व्यास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी जगह पर एक बहुत बड़ी जेल थी जिसका जेलर बहुत ही खूंखार था। कैदियों के प्रति तो वह बहुत क्रूर था ही आसपास के पशु-पक्षी भी उसे बिलकुल नहीं सुहाते थे। गोया पत्थरों की दीवारों के बीच रहकर उसका हृदय भी पत्थर का हो गया था। उस जेल परिसर में आने वाले पक्षियों को वो मार कर खा जाता था। उसके डर से कोई भी चिड़िया, कबूतर या तोते वहाँ नहीं आते थे।

कुछ दिनों बाद उस जेलर का ट्रांसफर हो गया और कुछ कैदी भी रिहा हो गए और नए कैदी उस जेल में आ गए। एक दिन नए जेलर ने देखा कि जेल परिसर की ऊंची दीवार के पास रोज बहुत से पक्षी आकर शोर मचाते है और अपनी-अपनी भाषा में पुकारते हैं । थोड़ी ही देर बाद जेलर ने देखा कि दीवार के उस पार से छोटे-छोटे रोटी के टुकड़े बाहर आए और सभी पक्षी उसे खाने लगे।

दरअसल उस जेल में सजा काट रहा एक कैदी रोज अपने हिस्से की रोटियों में से कुछ टुकड़े रोशनदान के बाहर फेंक देता था। जिसे पक्षी खाने चले आते थे और रोज उसे पुकारते थे। ये रोज का नियम था।

जिस दिन मैंने ये सच्ची घटना पढ़ी उस दिन ही सोचा कैसा अनोखा रिश्ता बनाया कैदी ने उन अजनबी, अनजान, अनदेखे परिंदों के साथ। जिन्हें उसने कभी न देखा और न जाना ही कभी। और न पक्षी जानते थे कि वो कोई गुनहगार है या कोई महान संत, कोई धर्मात्मा है या अपराधी है। वे तो सिर्फ प्रेम की भाषा जानते थे। और प्रेम पुकार पर खिंचे चले आते थे।

अब बात कैदी की जो पल-पल अपने जीवन को अँधेरी काल कोठरियों में खतम कर रहा था। उन ऊँची दीवारों के पीछे वो न जाने किस गुनाह की सजा काट रहा था। कौन जाने उसने क्या संगीन जुर्म किया था।

कैदी और पंछियों के बीच में पत्थरों की ऊँची दीवार थी जिसके उस पार वह कभी नहीं देख सकता था। लेकिन उसका प्रेम उन दीवारों के पार देख सकता। जैसे सौ ताले जड़े बंद दरवाजों की दरारों से भी प्रेम भीतर आ धमकता है। ठीक इसी तरह प्रेम को जब बाहर जाना होता है तो वो बंद दरवाजों ऊँची दीवारों के पार इसी तरह चुपके से रास्ता बनाता है। कैदी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसके द्वारा फेंके गए टुकड़े कौन-कौन खा रहा है। उसने तो बस अपना काम किया बिना किसी वापसी की उम्मीद किए।

लेकिन मुझे लगता है वह कैदी जब पंछियों की मधुर आवाज सुनता होगा जो बहुत दूर से आती थी तो उसके मन को ज़रुर गहरी शांति मिलती होगी। उसकी आत्मा और भी ज्यादा पवित्र हो जाती होगी।

कमाल ये कि खूंखार अपराधियों और पत्थर की दीवारों के बीच रहते हुए भी उसने खुद को बंजर होने से बचा लिया था। जीवन तो एक दिन सभी का नष्ट होना ही है उसका भी हो रहा था लेकिन उसकी आत्मा नहीं मरी थी। उस कैदी को किसी ने प्रेम नहीं किया होगा लेकिन वो आकंठ प्रेम से भरा हुआ था। वह कैद में रहकर भी; मजबूर हो कर भी देने का भाव रखता था।

उसने खुद के हृदय को बचाए रखा था। पत्थर नहीं होने दिया था। उसने अपने मन को बंजर होने से बचा लिया था। वह कैद में रहकर भी प्रेम से भरा था और प्रेम देने में विश्वास रखता था। कैद में रहकर और मजबूर होकर भी देने के भाव से भरा रहा। उसके पास तो दान देने के लिए कीमती वस्तुएँ, हीरे जवाहरात या मंहगे वस्त्र और बहुत-सा खाना नहीं था। उस उजाड़, वीरान जेल में जहाँ सुन्दर पक्षियों के खून के छींटे दिखाई देते थे वहाँ अब पक्षी प्रेमगीत गीत गाते थे।

यह प्रेम का कमाल नहीं तो और क्या है? यह प्रेम यज्ञ नहीं तो और क्या है? प्रेम यज्ञ में केवल भावनाओं की आहुति लगती है।

जब अनजाने अनदेखे अजनबी के द्वारा फेंके गए चंद सूखी रोटी के टुकड़े पक्षियों को आकर्षित कर सकते है उन्हें रोज आने पे मजबूर कर सकते हैं तो क्या हमारा प्रेम से किया गया कोई भी प्रयास व्यर्थ जा सकता है?

लेकिन हमने तो प्रेम से खुद को रिक्त कर रखा है। हमने अपने मन और देह की प्रयोगशाला में बहुत से जहरीले रसायन बनाए है; जिन्हें हम हमेशा छिपा कर रखते हैं। समय-समय पर हम उनका इस्तेमाल बखूबी करते है। कभी खुद को बचाने के लिए तो कभी दूसरे को सताने के लिए।

हमारे स्वार्थ, हमारे लोभ, हमारी इर्ष्या, हमारी अवसरवादिता और हमारी कुंठाओं के रसायनों से हमनें न जाने कितने दिलो की धरती को बंजर किया है।

हम इंसान ज़हर फ़ैलाने में माहिर हैं। हमने सबसे पहले धरती को ज़हरीला किया फिर समन्दर को, आसमान को भी और अब अन्तरिक्ष पर हमारी नज़र है। इस पर भी हमें चैन नहीं मिला तो हमने खुद को जहरीला बनाना शुरू कर दिया।

आज किसी भी चिकित्सक के पास जाओ तो वह सबसे पहले ब्लड टेस्ट करते हैं और फिर ब्लड में toxin यानि जीव-विष की पुष्टि कर देते हैं। मनोचिकित्सक कहते है कि मन में जहर भरे है और यही मानसिक रोग का कारण बनते हैं। कभी सोचा है कि हम देह और मन से इतने जहरीले कैसे हो गए? और किसके लिए?

किसी दूसरे को बंजर बना कर क्या हम खुद भीतर से बंजर नहीं हो रहे?

क्या किसी से प्रेम करने के लिए कोई शिक्षा लेनी होती है। किसी वृक्ष के नीचे तपस्या करनी होती है? क्या घर द्वार छोड़ना जरुरी है? संत के संग होना जरुरी है? यह प्रेम यज्ञ तो कहीं भी किया जा सकता है। ज्ञानियों ने घर त्यागे, संसार त्यागा, फिर प्रेम खोजा और ज्ञान भी लेकिन उस कैदी ने तो कैद में ही प्रेम खोज लिया और बाँट दिया बिना किसी स्वार्थ के; कोई वापसी की उम्मीद नहीं की उसने।

काश वह क्रूर जेलर उस समय वहाँ होता और उस कैदी के प्रेम को उसके मन को उसके पवित्र हृदय को देख सकता। उसे तब अहसास होता कि असली अपराधी तो वही है। और सबसे बड़ी कैद में तो वह खुद है। जिनके पास किसी को देने के लिए सच्ची मुस्कान नहीं, भाव नहीं, प्रेम नहीं, अहसास नहीं; वे जिनके मन बंजर हो चुके है; वे वास्तव में अपनी ही कैद में है। अपने अहम् , कुंठाओं, दंभ, अभिमान की कैद में हैं। और जिन्दगी भर वो अपनी इस कैद से आजाद नहीं हो पाते।

असल में आजाद तो वो कैदी था अपने विचारों से, मन से, भाव से। उसे प्रेम करने से कोई कैद नहीं रोक पाई।

दुनिया की पाठशाला हमें जिन्दगी भर सिखाती है कि हमें क्या करना है कैसे करना है लेकिन हमें क्या नहीं करना है यह कोई नहीं बताता। बड़ी-बड़ी डिग्रियां देते समय किसी भी शिक्षण-संस्थान ने अभिमान का सबक नहीं सिखाया था और न हमने कोई कोर्स किया था। फिर ये अहम् का पहाडा, हमने कब सीख लिया? अभिमान का गणित कब याद किया? किसी प्रयोगशाला में कभी जहरीले रसायन बनाने का कोई फार्मूला नहीं था फिर हमने कैसे सीखी ये घातक रसायन बनाने की विधि?

मन को हरा-भरा कर देने की कोई टेक्निक क्यों नहीं सीखी?

जिन्दगी भर समंदर किनारे खड़े होकर बूंद-बूंद समेटते रहे। लहर-लहर गिनते रहे। नमक कितना बना इसका हिसाब तो नाप-तौल के खूब किया लेकिन नमक कैसे बनता है ये कभी नहीं सोचा। समन्दर की रेत में से शंख सीपियाँ छांट ली लेकिन रेत का महत्व नहीं जाना। अपनी बुद्धि और दृष्टी का अभिमान इतना बड़ा हो गया कि लहर को बूंद से रेत को सीपी से अलग करके देखने लगे, विश्लेषण करने लगे। लेकिन यही चूक हो गई। हम ये भूल गए कि समन्दर की खूबसूरती उसकी सम्पूर्णता में ही निहित थी। एक बूंद या एक लहर में नहीं।

प्रेम भी तभी खूबसूरत है जब हम उसके हर रंग को मन से स्वीकारें। जो प्रेम के काबिल है उन्हें तो सारी दुनिया ही प्रेम करती है। कमाल तब है जब हम उनसे प्रेम करे जो प्रेम नहीं समझते। जिन्हें प्रेम का अनुभव नहीं, जो रीते से है, जो सूखे से हैं; उन्हें सिखाना होगा लेकिन स्मरण रहे मन में अभिमान न आने पाए।