मन और नेत्र / बालकृष्ण भट्ट

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हमारे यहाँ के दार्शनिक मन को सब इंद्रियों का प्रभु मानते हैं। उनका सिद्धांत है हाथ-पाँव इत्‍यादि इंद्रियों का किया कुछ नहीं होता यदि मन उस ओर रूजू न हो।

"मन: कृतं कृतं लोके न शरीर कृतं कृतं"

मन का सरोकार यद्यपि समस्‍त इंद्रियों के साथ है पर नेत्र के साथ तो उसका सबसे अधिक घनिष्‍ठ संबंध है। किसी बुद्धिमान का सिद्धांत है कि अकिलमंदों का मन आँख में रहता है। दार्शनिक यह शब्‍द ही दृश धातु से बना है अर्थात् वह मनुष्‍य जो किसी वस्‍तु को देख उन पर अपनी मानसिक शक्ति को जोर दे। हम सब लोग दिन-रात हर एक वस्‍तु संसार की देखा ही करते हैं पर उन देखी हुई चीजों पर मन को कभी जोर नहीं देते। वही बुद्धिमान जन हैं 'कहना चाहिये देखना जिनको ही आता है' उनके नेत्र उस देखे हुए पदार्थ के नस-नस में प्रवेश कर उस पर मन को काम में लाय सोचते-सोचते उसके तत्त्‍व तक पहुँच जाते हैं। लटकती हुई चीजों को मामूली तौर पर झूलते हुए सब लोग रोज देखा करते। लटकते हुए लैंप को इस प्रकार हवा में झोंका खाते देखा गैलेलियो के मन में यह एक अनोखी बात बोध हुई और इस बात को देर तक सोचने के बाद उन्‍होंने निश्‍चय किया कि इस तरकीब से हम समय को अच्‍छी तरह नाप सकते हैं और यही घड़ी के पेंडुलम की ईजाद का मूल कारण हुआ। अत्यंत क्षुद्र से क्षुद्र पदार्थ का देखना ही है जिस पर मन एकाग्र हो बड़े-बड़े विज्ञान, विद्या, और कलाओं के प्रचार पाने के हेतु हुआ! नितांत अज्ञ दुध-मुँहें बालक को जब कि उसकी मानसिक शक्ति अत्यंत अल्‍प रहती है उस समय नेत्र ही ज्ञान-द्वार होता है और यही कारण है कि बालक हर एक साधारण सी साधारण वस्‍तु को भी बड़े चाव और अचरज के साथ ग्रहण करता है तात्‍पर्य यह कि बालक की (मेंटल डेवलपमेंट) मानसिक शक्तियों का प्रकाश जैसा नेत्र के द्वारा देक्षने से होता है उतना सुनने आदि से नहीं। किसी चटकीली चमत्‍कारी वस्‍तु को सुन जो मन में उत्‍सुकता या व्‍यग्रता पैदा होती है वह नेत्र ही के द्वारा शांत होती है। कभी को देखने से मन और अधिक उत्‍सुक होता जाता है जैसा प्रेमी को अपने प्रेम-पात्र के देखने में, सच्‍चे भक्त को अपने इष्‍ट देव के दर्शन में एक बार दो बार दस बार सहस्त्र बार जितना ही देखते जाइये देखने की अभिलाषा अधिक से अधिक होती रहेगी जैसा आग में घी छोड़ने से आग और धधकती है।

मनुष्‍य के तन में एक आँख ही सार पदार्थ है और मन का तो इसके साथ ऐसा घना संबंध है कि मन को लोगों ने हिये की आँख ही मान रखा है। सूर ने अपने एक विनय में कहा भी है -

"सूर कहा कहे द्विविध आँधरो बिना मोल को चेरो।"

ईश्‍वर न करे किसी की हिये की फूटै, हिये की फूटने से फिर किसी तरह पर निस्तार नहीं है। हमारे देश वालों के हिये की फूटी है। हम लोग सौ बार सहस्त्र बार कहते-कहते थक गये इन्‍हें चेताने और हिये की खोलने के लिये भरसक यत्‍न करने में त्रुटि नहीं करते पर इनके चित्त में उनका अणुमात्र भी असर नहीं होता। हमारा मन यदि किसी एक वस्‍तु में एकाग्रता के साथ लगा ऐसे समय हम हजारों चीजों को देख कर भी उनका कुछ स्‍मरण नहीं रखते। इससे सिद्ध हुआ कि हृदय की आँख हमारे चर्म-चक्षु से कितना अधिक प्रबल है; तस्‍मात् हिये की आँख से जो देखना है और इस तरह का देखना जिन्‍हें मालूम है वे ही ठीक-ठीक देखना जानते हैं। चतुर सयाने जिन्‍हें इस तरह के देखने का हुनर याद है बाहरी आकार चेष्‍टा बोल-चाल और इशारे से मनुष्‍य का अंतर्गत मन जान लेते हैं और मन-मानिक की कदर जानने वाले और परखने वाले जौहरी भी ऐसे लोग होते हैं। मन के पवित्र या अपवित्र करने का द्वार नेत्र है। किसी पुण्‍याश्रम तपोभूमि, गिरि, नदी, निर्झर आदि-तीर्थ-विशेष में जाकर वहाँ के प्राकृतिक पवित्र दृश्‍यों को देखते ही या किसी जीवन्‍मुक्त महापुरुष के दर्शन से मन एक बारगी बदल जाता है। बड़े-बड़े महापापी ठग और डकैतों का हाल देखा और सुना गया है कि ऐसे लोग पवित्र स्‍थान में जाते ही या किसी पुण्‍यशील महत्‍मा से मिल कर सदा के लिए अपने उस पाप कर्म से अलग हो गये, महाशांति भाव धारण कर ऋषि तुल्‍य बन गये हैं। लोग मन को नाहक चंचल-चंचल कह कर प्रसिद्ध किए हैं चांचल्‍य नेत्रों का रहता है, बझता है निरपराधी मन बेचारा।

क्‍यों बसिये क्‍यों निबाहिये नीति नेह पुर माहि।

लगा-लगी लोयन करैं नाहक मन बँधि जांहि।।

दृग उरझत, टूटत कुटुंब, जुरत चतुर चित प्रीति।

परति गाँठ दुरजन हिये, दई, नई यह रीति।।

नयना नेक न मानहीं कितौ कह्यो समुझाय।

तन मन हारे हूँ हसैं तासों कहा बसाय।।

सच मानिये, मन महा अमीर को बहका कर आशिकी के पंथ में ले जाने वाले ये लोचन कुटने दूत हैं जो इसे इश्‍क के जाल में फँसा कर फिर किसी काम का नहीं रखते। किसी शायर ने कहा है -

दीदार दिलरुबा का दीवार कहकहा है।

जो उस तरफ को झाँका वह इस तरफ कहाँ है।।

फिर जब प्रेमी के वियोग में ये निराश हो बैठते हैं उस समय मन से अपने सहयोगी नेत्रों की तरस नहीं सही जाती, विकल हो सब ओर से दिन-रात एक उसी की खोज में प्रवृत्त हो जाता है। खान-पान तक छूट जाता है, दैवयोग से प्रेमी तो मिल गया तो अच्‍छा, नहीं तो जीने से भी हाथ धो बैठता है; सच है -

प्रेम वनिज कीन्‍हों हुतो नेह नफा जिय जानि।

अब प्‍यारे जिय की परी प्रान पुँजी में हानि।।

अपनी दशा का देखना मनुष्‍य के लिये यावत् सुधार और मन को अनोखी शांति का हेतु है। जो नाक निगोड़ी के कट जाने का भय छोड़ अपनी दशा देखकर काम करते हैं और कभी संकट में नहीं पड़ते।

सर्वथा स्‍वहितमाचरणीयं किंकरिष्‍यति जनो बहु जल्‍प:।

विद्यते न खलु कोपि उपाय: सर्वलोकपरितोषकरो य:।।

अनेक प्रचलित कुसंस्‍कारों में हमारे समाज के बीच नाक कट जाने का भय भी ऐसी बड़ी बुराई है कि इससे न जानिये कितने घराने घूर में मिल गये। जब तक हम अपनी दशा न देख इसी तरह नाक बढ़ाते रहेंगे, तब तक किसी लायक न होंगे। हम अपने से कम सुखी लोगों को देख उनकी दशा से अपनी दशा में तारतम्‍य देखते रहें तो दुख कभी पास न फटके और चित्त सदा के लिये शांति देवी का पवित्र मंदिर बन जाय। हमने मन और नेत्र का संबंध दिखलाया इसमें जो कुछ त्रुटि रह गयी हो पाठक जन सम्‍हाल लें।

अप्रैल, 1890 ई.