मन का चोर / महेश दर्पण

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"मैं बाल कटवाने जा रहा हूँ। तुम तब तक बर्तन माँजकर कमरों में झाड़ू लगा लेना। और हाँ, मुझे आने में देर हो जाए तो ताले लगाकर चाबी पड़ोस में दे जाना।"

काम करनेवाली को समझाकर मित्र के साथ मैं घर से बाहर हो लिया।

मित्र को मेरी यह लापरवाही कतई पसन्द नहीं आई-- "तुम्हें पता नहीं, कैसे होते हैं यह लोग। पहले तो विश्वास जीत लेंगे आपका, और फिर एक रोज़ चूना लगाकर चलते बनेंगे। पूरा घर इस तरह खुला छोड़ आना भी कोई समझदारी होती है?"

"अपने यहाँ रक्खा ही क्या है यार! कोई चाहेगा भी तो क्या ले जाएगा?"

मैंने आदतन उसे चुप करा दिया।

बाल कटवाते वक्त अनायास ध्यान हो आया कि अलमारी में 700 रुपए यों ही छोड़ आया हूँ। अलमारी बन्द हो, सो भी नहीं। मित्र का कहा बार–बार कानों में बजने लगा। उसके चेताने पर भी तो मैं... पर अब किया ही क्या जा सकता था!

बाल कटवाकर आदत के ठीक विपरीत पाँव मुझे सीधे घर खींच ले गए। पड़ोस से चाबी लेकर ताला खोलने के बाद पहला काम मैंने परदा हटाकर अलमारी देखने का किया। सौ रुपए के सात नोट ठीक उसी तरह करवट लिए निश्चिन्त पड़े थे, जैसा मैं उन्हें छोड़ गया था। घर पहले से कहीं ज्यादा ठीक–ठाक नज़र आ रहा था। मैं सोच ही रहा था कि बेकार उस भली औरत पर शक किया कि वह फिर आ पहुँची-- आ गए बाऊ जी,डॉक्टर साहब के यहाँ जा रही थी, गेट खुला देखा तो मैंने कही–जरा देख लऊँ, गरमी के दिनन में चोरी-चकारी का बड़ा डर रहवै है न!"

वह तो चली गई, पर मैं देर तक शीशे के सामने सिर झुकाए खड़ा रहा।