मरना कोई हार नहीं होती / हरिशंकर परसाई

Gadya Kosh से
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राजनाँदगाँव में तालाब के किनारे पुराने महल का दरवाजा है- नीचे बडे़ फाटक के आसपास कमरे हैं,दूसरी मंजिल पर एक बड़ा हाल और कमरे,तीसरी मंजिल पर कमरे और खुली छत। तीन तरफ से तालाब घेरता है। पुराने दरवाजे और खिड़कियाँ ,टूटे हुये झरोखे,कहीं खिसकती हुई ईंटे,उखड़े हुये प्लास्टर की दीवारें। तालाब और उसके आगे विशाल मैदान। शाम को जब ज्ञानरंजन और मैं तालाब की तरफ गये और वहाँ से धुँधलके में उस महल को देखा तो वह भयावह रहस्य में लिपटा वह नजर आया। दूसरी मंजिल के हाल के एक कोने में विकलांग मुक्तिबोध खाट पर लेटे हुये थे। लगा, जैसे इस आदमी का व्यक्तित्व किसी मजबूत किले-सा है। कई लडा़इयों के निशान उस पर हैं। गोलों के निशान हैं,पलस्तर उखड़ गया है,रंग समय ने धो दिया है-मगर जिसकी मजबूत दीवारें गहरी नींव में धंसी हैं और वह सिर ताने गरिमा के साथ खड़ा है। मैंने मजाक की,”इसमें तो ब्रह्मराक्षस ही रह सकता है।” मुक्तिबोध की एक कविता है,’ब्रह्मराक्षस’। एक कहानी भी है जिसमें शापग्रस्त ब्रह्मराक्षस महल के खँडहर में रहता है। मुक्तिबोध हँसे। बोले,”कुछ भी कहो पार्टनर, अपने को यह जगह पसन्द है।” मुक्तिबोध में मैत्री-भाव बहुत था। बहुत सी बातें वे मित्र को संबोधित करते हुये कहते थे। कविता,निबन्ध,डायरी सबमें यह ‘मित्र’ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से रहता है। एक खास अदा थी उनकी। वे मित्र को ‘पार्टनर’ कहते थे। कुछ इस तरह बातें करते थे-’कुछ भी कहो पार्टनर,तुम्हारा यह विनोद है ताकतवार…आपको चाहे बुरा लगे पार्टनर पर अमुक आदमी अपने को बिल्कुल नहीं पटता।’ ज्यादा प्यार में आते तो कहते-’आप देखना मालक, ये सब भागते नजर आयेंगे।’ मुक्तिबोध जैसे सपने में डूबते से बोले,” आप जहाँ बैठे हैं वहाँ किसी समय राजा की महफिल जमती थी। खूब रोशनी होती होगी,नाच- गाने होते होंगे। तब यहाँ ऐश्वर्य की चकाचौंध चकाचौंध थी। कुछ भी कहो ,पार्टनर,”फ्यूडलिज्म’(सामन्तवाद) में एक शान तो थी…बरसात में आइये यहाँ। इस कमरे में रात को सोइये। तालाब खूब जोर पर होता है,साँय-साँय हवा चलती है और पानी रात-भर दीवारों से टकराकर छप-छप करता है…कभी-कभी तो ऐसा लगता है ,जैसे कोई नर्तकी नाच रही हो,घुँधरुओं की आवाज सुनायी पड़ती है। पिछले साल शमशेर आये थे। हमलोग २-३ बजे तक सुनते रहे…और पार्टनर बहुत खूबसूरत उल्लू…मैं क्या बताऊँ आपसे,वैसा खूबसूरत उल्लू मैंने कभी देखा ही नहीं…कभी चमगादड़ें घुस आती हैं”…बडे़ उत्साह से वे उस वातावरण की बातें करते रहे। अपनी बीमारी का जरा अहसास नहीं। दोपहर में हम लोग पहुँचे थे। हमें देखा ,तो मुक्तिबोध सदा की तरह-’अरे वाह,अरे वाह’,कहते हुये हँसते रहे। मगर दूसरे ही क्षण उनकी आँखों में आँसू छलक पड़े। डेढ़-एक महीने वे जबलपुर रहकर आये थे। एक्जिमा से परेशान थे। बहुत कमजोर। बोलते-बोलते दम फूल आता था। तब मुझे वे बहुत शंकाग्रस्त लगे थे। डरे हुये से। तब भी उनकी आँखों में आँसू छलछला आये थे,जब उन्होंने कहा था-पार्टनर अब बहुत टूट गये हम। ज्यादा गाड़ी खिंचेगी नहीं। दस,पाँच साल मिल जायें,तो कुछ काम जमकर कर लूँ। आँसू कभी पहले उनकी आँखों में नहीं देखे थे। इस पर हम लोग विशेष चिंतित हुये। मित्रों ने बहुत जोर दिया कि आप यहाँ एक महीने रुककर चिकित्सा करा लें। पर उन्हें रुग्ण पिता को देखने नागपुर जाना था। सप्ताह भर में लौट आने का वादा करके चले गये। फिर वे लौटे नहीं। क्षण भर में ही वे सँभल गये।पूछा,”आप लोगों का सामान कहाँ है?” शरद कोठारी ने कहा,”मेरे घर रखा है।” वे बोले,”वाह साहब,इसका क्या मतलब? आप लोग मेरे यहाँ आये हैं न?” हम लोगों ने परस्पर देखा। शरद मुस्कराया।इस पर हम लोग मुक्तिबोध को कई बार चिढ़ाया करते थे-”गुरू ,कितने ही प्रगतिशील विचार हों आपके ,आदतों में ‘फ्यूडल’ हो। मेरा मेहमान है मेरे घर सोयेगा,मेरे घर खायेगा,कोई बिना चाय पिये नहीं जायेगा,होटल में मैं ही पैसे चुकाऊँगा,सारे शहर को घर में खाना खिलाऊँगा-यह सब क्या है?” शरद को मुस्कराते देख वे भी मुस्करा दिये। बोले,”यह आपकी अनाधिकार चेष्टा है,बल्कि साजिश है।” यह औपचारिक नहीं था। मुक्तिबोध की किसी भी भावना में औपचारिकता नहीं- न स्नेह में ,न घृणा में ,न क्रोध में। जिसे पसंद नहीं करते थे,उसकी तरफ घंटे भर बिना बोले आँखे फाड़े देखते रहते थे। वह घबडा़ जाता था। बीमारी की बात की तो वैज्ञानिक तटस्थता से -जैसे हाथ-पाँव और यह सिर उनके नहीं किसी दूसरे के हों। बड़ी निर्वैयक्तिकता से,जैसे किसी के अंग-अंग काटकर बता रहे होंकि बीमारी कहाँ है,कैसे हुई,क्या परिणाम है? “तो यह है साहब अपनी बीमारी”-बोलकर चुप हो गये। फिर बोले -”चिट्ठियाँ आती हैं कि आप यहाँ आ जाइये या वहाँ चले जाइये। पर कैसे जाऊँ? जाना क्या मेरे वस की बात है?…हाँ एक भयंकर कविता हो गयी। सुनाऊँगा नहीं। मुझे खुद उससे डर लगता है। बेहद डार्क,ग्लूमी! भयंकर ‘इमेजें’ हैं। न जाने कैसी मन:स्थिति थी। कविता वात्स्यायनजी को भेज दी है।…पर अब लगता है ,वैसी बात है नहीं। जिंदगी में दम है। बहुत अच्छे लोग हैं,साथ।कितनी चिट्ठियाँ चिन्ता की आयी हैं। कितने लोग मुझे चंगा करना चाहते हैं! कितना स्नेह ,कितनी ममता है ,आसपास! पार्टनर…अब दूसरी कविता लिखी जायेगी।” ज्ञानरंजन ने कहा,”पिछली भी सही थी और अब जो होगी,वह भी सही होगी।” वे आश्वस्त से लगे। हम लोगों ने समझाया कि बीमारी मामूली है,भोपाल में एक-दो महीने में ठीक हो जायेगी। उनकी आँखों में चमक आ गयी। बोले,”ठीक हो जायेगी न! मेरा भी यही ख्याल है। न हो पूरी ठीक ,कोई बात नहीं। मैं लँगड़ाकर चल लूँगा। पर लिखने-पढ़ने लायक हो जाऊँ।” इतने में प्रमोद वर्मा आ गये। देखते ही मुक्तिबोध फिर हँस पड़े,”लो,अरे लो,ये भी आ गये! वाह ,बड़ा मजा है ,साहब!” प्रमोद मैं और शान्ता भाभी तथा रमेश से सलाह करने दूसरे कमरे में चले गये।इधर मुक्तिबोध ज्ञानरंजन से नये प्रकाशनों पर बात करने लगे। तय हुआ कि जल्दी भोपाल ले चलना चाहिये। मित्रों ने कुछ पैसा जहाँ-तहाँ से भेज दिया था। हम लोगों ने सलाह की कि इसे रमेश के नाम से बैंक में जमा कर देना चाहिये। मुक्तिबोध पर बड़ी विचित्र प्रतिक्रिया हुई इसकी। बिल्कुल बच्चे की तरह वे खीझ उठे। बोले,” क्यों? मेरे नाम से खाता क्यों नहीं खुलेगा? मेरे ही नाम से जमा होना चाहिये। मुझे क्या आप गैर जिम्मेदार समझते हैं?” वे अड़ गये। खाता मेरे नाम से खुलेगा। थोड़ी देर बाद कहने लगे,”बात यह है पार्टनर कि मेरी इच्छा है ऐसी। ‘आई विश इट’। मैं नहीं जानता कि बैंक में खाता होना कैसा होता है। एक नया अनुभव होगा मेरे लिये। तर्कहीन लालसा है-पर है जरूर ,कि एक बार अपना भी एकाउन्ट हो जाये! जरा इस सन्तोष को भी देख लूँ।” मुक्तिबोध हमेशा ही घोर आर्थिक संकट में रहते थे। अभावों का ओर-छोर नहीं था। कर्ज से लदे रहते थे। पैसा चाहते थे ,पर पैसे को ठुकराते भी थे। पैसे के लिये कभी कोई काम विश्वास के प्रतिकूल नहीं किया। अचरज होता है कि जिसे पैसे-पैसे की तंगी है,वह रुपयों का मोह बिना खटके कैसे छोड़ देता है। बैंक में खाता खुलेगा-यह कल्पना उनके लिये बड़ी उत्तेजक थी। गजानन माधव मुक्तिबोध का बैंक में खाता है-यह अहसास वे करना चाहते थे। वे शायद अधिक सुरक्षित अनुभव करते। तभी एक ज्येष्ठ लेखक की चिट्ठी आयी कि आप घबड़ायें नहीं,हम कुछ लेखक जल्दी ही अखबार में आपकी सहायता के लिये अपील प्रकाशित करा रहे हैं। चिट्ठी पढ़कर मुक्तिबोध बहुत उत्तेजित हो गये। झटके से तकिये पर थोड़े उठ गये और बोले ,”यह क्या है? दया के लिये अपील निकलेगी! अब,भीख माँगी जायेगी मेरे लिये! चन्दा होगा! नहीं-मैं कहता हूँ-यह नहीं होगा।मैं अभी मरा थोड़े ही हूँ। मित्रों की सहायता ले लूँगा-लेकिन मेरे लिये चन्दे की अपील! नहीं । यह नहीं होगा!” हम लोगों ने उन्हें समझाया कि आपकी भावना से उन्हें परिचित कर दिया जायेगा और अपील नहीं निकलेगी। उस शाम को रमेश ने एक चिट्ठी लाकर दी,जिसमें बीस रुपये के नोट थे। चिट्ठी उनके एक विद्यार्थी की थी। उसने लिखा था कि मैं एक जगह काम करके पढ़ाई का खर्च चला रहा हूँ । आपके प्रति मेरी श्रद्धा है। मैं देख रहा हूँ कि अर्थाभाव के कारण आप जैसे साहित्यकार की चिकित्सा ठीक से नहीं हो पा रही है। मैंने ये बीस रुपये बचाये हैं। इन्हें आप ग्रहण करें। ये मेरी ही कमाई के हैं,इसलिये आप इन्हें लेने में संकोच न करें। स्वयं आपको रुपये देने का साहस मुझमें नहीं है,इसलिये इस तरह पहुँचा रहा हूँ। चिट्ठी और रुपये हाथ में लिये वे बड़ी देर तक खिड़की के बाहर देखते रहे। उनकी आँखें भर आयीं। बोले,”यह लड़का गरीब है। उससे कैसे पैसे ले लूँ।” वहाँ एक अध्यापक बैठे थे। उन्होंने कहा,”लड़का भावुक है। वापस कर देंगे , तो उसे चोट पहुँचेगी। ” मुक्तिबोध बहुत द्रवित हो गये इस स्नेह से। बड़ी देर तक गुमसुम बैठे रहे। भोपाल जाने की तैयारी होने लगी। उनका मित्र -भाव फिरजाग उठा। मुझसे कहने लगे,”पार्टनर,मैं आपसे एक बात साफ कहना चाहता हूँ। बुरा मत मानना। देखिये, आपकी जीविका लिखने से चलती है। आप अब भोपाल मेरे साथ चलेंगे। वहाँ रहेंगे। आप लिख नहीं पायेंगे, तो आपको आर्थिक कष्ट होगा। मैं कहता हूँ कि आप मेरे पैसे को अपना पैसा समझकर उपयोग में लाइए।” मुक्तिबोध बहुत गम्भीर थे। हम लोग एक-दूसरे को देख रहे थे। वे मेरी तरफ जवाब के लिये आँखें उठाये थे और हम लोग हंसी रोके थे। तभी मैंने कहा,”आपके पैसे को मैं अपना पैसा समझने को तैयार हूँ। पर पैसा है कहाँ?” प्रमोद जोर से हँस दिया। मुक्तिबोध भी हँस पड़े। फिर एकदम गम्भीर हो गये। बोले,” हाँ ,यही तो मुश्किल है,यही तो गड़बड़ है।” जो थोडे़ से पैसे उनके हाथ में आ गये थे,वे कुलबुला रहे थे। उन्हें कितने ही कर्तव्य याद आ रहे थे। कोई मित्र कष्ट में है,किसी की पत्नी बीमार है,किसी के बच्चों के लिये कपड़े बनवान हैं। उस अवस्था में जब वे खुद अपंग हो गये थे और अर्थाभाव से पीड़ित थे,वे दूसरों पर इन पैसों को खर्च कर देना चाहते थे। आगे भोपाल में तो इस बात पर बाकायदा युद्ध हुआ और बड़ी मुश्किल से हम उन्हें समझा सके कि रोगी का किसी के प्रति कोई कर्तव्य नहीं होता,सबके कर्तव्य उसके प्रति होते हैं। और उस रात हम लोग गाड़ी पर चढ़े ,तो साथ में रिमों कागज था। मुक्तिबोध ने हठ करके पूरी कवितायेँ,अधूरी कवितायें, तैयार पाण्डुलिपियाँ सब लदवा लीं। बोले, “यह सब मेरे साथ जायेगा। एकाध हफ्ते बाद मैं कुछ काम करने लायक हो जाऊँगा ,तो कवितायें पूरी करूँगा, नयी लिखूँगा और पाण्डुलिपियाँ दुरस्त करूँगा। अपने से अस्पताल में बेकार पडा़ नहीं रहा जायेगा,पार्टनर! और हाँ…,वह पासबुक रख ली है न?” पर उन कागजों पर मुक्तिबोध का न फिर हाथ चल सका और न वे एक चेक काट सके। जिंदगी बिना कविता संग्रह देख और बिना चेक काटे गुजर गयी।