मरहम / गरिमा संजय दुबे

Gadya Kosh से
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पूरातत्व विभाग में हडकंप मचा हुआ था कोई ऐसा कैसे कर सकता है। ऐसी हिमाकत हुई भी कैसे। "कोई मुर्तियाँ चुराता, कहीं बेच देता तो बात समझ में आती है, पर अजीब मुर्खता कि बात कर रहा है रामसिंह, यह तो सरासर आपराधिक प्रकरण है, सांस्कृतिक धरोहर के साथ खिलवाड़ है, कितना मुश्किल है इन पत्थरों को सहेजना" ,। पूरातत्व विभाग के बड़े अधिकारी कश्यप जी के सामने जब यह मामला उजागर हुआ तो वे पहले तो चकित हुए फिर क्रोधित, तुरंत ड्राइवर को बुला साँची चलने को कहा, वहाँ के अधिकारि को उनके पी. ए. ने पहले ही ख़बर भिजवा दी थी। भोपाल से एक सवा घंटे में गाड़ी साँची पहुँच चुकी थी।

सीधे संग्रहालय पहुँचे, अधिकारी तनतने, भुने से खड़े थे और रामसिंह सर नीचा किये, कश्यप जी ने पहुँचते ही कहा-"दिखाओ क्या हुआ है"। अधिकारी उन्हें जब अंदर ले गए और रामसिंह की करामात दिखाई तो कश्यप जी भी दंग रह गए, मूर्तियों को देख कर, सर पकड़ कर बैठ गए—"अरे रामसिंह क्या और कैसे किया यह सब" वे चीखे। उनकी चीख से सारा संग्रहालय थर्रा गया राम सिंह पूर्ववत सर झुकाए खड़ा था। वे आये और उसका कन्धा पकड़ कर झकझोरते हुए कहा-"अब कौन जवाब देगा तुम्हारी इस हरकत का, कहीं प्रेस को ख़बर हो गई तो लेने के देने पड़ जायेंगे, तुम बीस साल से यहाँ काम कर रहे हो फिर, अच्छी खासी छवी है तुम्हारी फिर एन सेवानिवृति के पहले यह क्या किया? बोलो, बोलते क्यों नहीं"। उसका मौन देख कर माथे पर हाथ रख वे परेशानी में इधर उधर टहलने लगे। वहाँ के सुपर वाईज़र ने कहा-"सर मंत्रीजी को भी ख़बर तो करनी पड़ेगी, इतनी बड़ी बात कैसे ..."। वे बोले-"हाँ अभी तो तुम यह कमरा सील करवा दो, मैं साहब से बात करता हूँ और इसे कहीं जाने मत देना" रामसिंह की तरफ़ एक चुभती-सी नज़र डाल वे आफिस में घुस गए। बड़ी देर तक मंत्रीजी से बात चली, फिर वे ज़रूरी आदेश दे मंत्री जी से मिलने निकल पड़े।

वे रामसिंह को लम्बे अरसे से जानते थे। वहीँ के रहने वाले थे और लम्बे समय बाद अपने गृह नगर के पास पदोन्नति पा लौटे थे। आने पर सबसे पहले रामसिंह से ही सामना हुआ था। पिता का एक छोटा होटल था साँची के पास, पिता चाहते थे होटल व्यवसाय को ही उनका बेटा आगे बढ़ाये, लेकिन साँची के आसपास बिखरे इतिहास ने उनमे ऐसी जिज्ञासा भरी कि पूरातत्व और इतिहास को पढ़ने का निश्चय कर वे पूरातत्व विभाग में ही नौकरी पा गए। इस रामसिंह के पिता भी यही काम करते थे। किशोरावस्था में रामसिंह और कश्यपजी इन्हीं पत्थरों में घूमते रहते रामसिंह कहता-"बाबु तुम्हे कुछ सुनाई देता है, ये पत्थर कितना कुछ कहते हैं"। वे हंसते "भला पत्थर भी कुछ बोलते हैं" , पर रामसिंह तो मानो पत्थरों की भाषा जानता था उनसे बतियाता था। कश्यपजी उसे अपनी विज्ञान सम्मत बुद्धि से समझाते, इतिहास और पत्थरों का विज्ञान। पर बुद्धि और भावना का मेल बहुत सहज तो नहीं सो दोनों अपनी-अपनी तरह से पत्थरों को आंकते। वक़्त आगे बड़ा और कश्यप जी अपनी नौकरी के सिलसिले में देश भर और विदेश में घुमे, पूरातत्व पर उनकी रिसर्च ने उन्हें प्रसिद्धि और पैसा दोनों ही दिलवाया। छुट्टियों में साँची आते तो स्तूप देखने ज़रूर जाते। रामसिंह वहीँ संग्रहालय में नौकर हो गया था। कुछ सालो बाद उन्हें पता चला था कि एक दुर्घटना में उसका एक पैर और एक आँख चली गई थी। कार एक झटके से रुकी वे वर्तमान में लौटे और मंत्रीजी से मिलने पहुँचे। पूरी बात जानकार मंत्रीजी ने एक जांच कमिटी' बना कर जांच करने का आदेश दे दिया जिसके अध्यक्ष स्वयं कश्यपजी थे।

अगले दिन कुछ और अधिकारीयों को साथ ले वे साँची पहुँचे कमिटी को विस्तृत जांच कर रिपोर्ट सौपने को कहा गया था–"शर्मा जी रामसिंह को बुलाईये" वे बोले"।

रामसिंह अपनी बैसाखियों के सहारे धीरे-धीरे चलता हुआ वहाँ पहुँचा, आशा के विपरीत उसके चेहरे पर भय नहीं था बल्कि वहाँ एक सन्तुष्टी थी किसी काम को पूरा करने की।

उन्होंने रामसिंह से पुछा-"रामसिंह क्या तुम हमें बताओगे कि तुमने ऐसा क्यों किया, क्या तुम नहीं जानते कि पूरातत्व महत्त्व की वस्तुओं के साथ छेड़ छाड़ करना अपराध है बताओ तुमने ऐसा क्यों किया"।

रामसिंह कुछ देर चुप रहा फिर बोला–"मूर्तियों ने ही हमसे कहा था ऐसा करने को"।

उनके हाथ से पानी का गिलास गिरते-गिरते बचा, वे झुंझला उठे-"क्या बकवास करते हो, पत्थर भी कभी बोलते है" ?

"हाँ सर बोलते है कोईं सुनने वाला हो तो"-वह खोया-सा बोला।

दुसरे अधिकारी ने व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा-"अच्छा क्या कहते है यह पत्थर तुमसे" ?

"सबकी अपनी-अपनी कहानी है साहब आपकी हमारी तरह" वह उसी भाव से बोला।

कश्यपजी ने थोड़ी नरमी दिखाते हुए पूछा-"क्या पूरी बात बताओगे रामसिंह" ?

"हाँ हाँ साहब क्यों नहीं"-वह चहका, फिर उसने बताना शुरू किया बचपन इन पत्थरों के साथ ही बीता, माई बापू दिन भर खुदाई करते थे और हम इन पत्थरों से बतियाते और कोई तो होता नहीं था। सरकारी स्कूल से मेट्रिक किया और यहाँ नौकर हो गए, अंदर दिनभर मूर्तियों के बीच बैठ कर या तो उन्हें देखते या आने जाने वालों को, कभी-कभी रात की ड्यूटी भी कर लिया करते हैं साब जी। बैठे-बैठे हम सोचते साब कि ये मूर्तियाँ भी कितनी भाग्यशाली हैं, यहाँ इंसानों के रहने को घर नहीं और पत्थर होते हुए भी यह ए.-सी में रहती हैं, पर हमें क्या पता था कि ये भी बड़ी दुखी हैं। एक रात हमें यहाँ खटर पटर और लोगों के बोलने की आवाजे आने लगी, पहले मुझे लगा चोर है लेकिन देखा चौकीदार जाग रहा था, फिर यह आवाजे कैसी, हमने अंदर के एक कमरे में जहाँ हम दिन भर बैठा करते थे, झांक कर देखा तो क्या देखते हैं साहब, सारी मूर्तियाँ अपनी-अपनी जगह से उतर कर एक जगह इकठ्ठी हो गयी थी और अपना-अपना दुःख एक दुसरे को सुना रही थी, किसी का पैर नहीं था, किसी का हाथ नहीं था, किसी की नाक किसी का कान, किसी की आँख और किसी का पूरा का पूरा चेहरा ही बिगाड़ दिया गया था। जिन मूर्तियों के सर नहीं थे उनके धड़ अपने सर लगा कर खुश होना चाह रही थी लेकिन उनका दर्द था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था, वे रो-रो कर अपनी बर्बादी की कहानी कह रही थी, जैसे हमारा एक पैर और आँख नहीं है, वैसे ही इन मूर्तियों का भी कोई न कोई अंग बिगड़ा हुआ था। मूर्तियाँ कहती-"कैसे हर बदलते युग में एक दूसरे की संस्कृतियों के निशान मिटाने के लिए हमें तोड़ा गया, यह सोच कर कि पत्थर है दर्द नहीं होगा, पर दर्द होता है, किसे कहे कौन हमारा दर्द समझेगा, कौन हमारे जख्मों पर मरहम लगाएगा? , कह-कह कर मूर्तियाँ विलाप करने लगी, पहले मुझे लगा यह सपना है, पर आँख मसल-मसल कर देखने के बाद भी मुझे मुर्तिया रोती दीखी, सुबह होते-होते वे सब फिर अपनी-अपनी जगह पर जा कर लग गई" इतना कहकर रामसिंह चुप हो गया। सब एक दुसरे का मुँह देखने लगे। वह थोडा रुक कर बोला-"फिर तो यह रोज़ का काम हो गया साबजी, मैं रोज़ उनकी बाते सुनता और सोचता मेरा एक पैर नहीं है मुझे तकलीफ होती है, वैसे ही इन मूर्तियों को भी होती होगी। एक दिन मैंने मूर्तियों से बात करने की सोची, जब मूर्तियाँ अपनी बाते कर रही थी तो मैं वहाँ पहुँचा दबे पाँव, पर मुझे देख वे फिर मूर्तियाँ बन गयी, मैंने फिर भी उन्हें कहा मैं तुम्हे ठीक करूंगा... हाँ मैं तुम्हे ठीक करूंगा, मैंने देखा साब... मैंने देखा सब मूर्तियाँ एक साथ मुस्कुराई थी"। ।

शर्मा जी ने कश्यपजी के कान में कहा—"यह रोज़ मूर्तियों के पास जा-जा कर कुछ बोलता तो रहता है, हमने सोचा आदत है, बुदबुदाने की, माँ बाप ख़तम हो गए, शादी ब्याह हुआ नहीं। कोई बात करने वाला नहीं इसलिए मूर्तियों से ही बात करने लगा था"।

कश्यपजी ने रामसिंह से कहा–"तुम्हे लगता है कि तुम्हारी इस बकवास पर कोई विश्वास करेगा क्या पत्थर भी बोल सकते है" ?

"हाँ मैं बताता हूँ साब जी कैसे बोलते है आईये" , कहकर वह सबको लेकर उस कमरे में गया जहाँ वह बीस साल से बैठा रहता था, "देखिये क्या आप नहीं सुन पा रहे हैं, यह मूर्ति एक न्रत्यांगना कि है पर इसके पैर नहीं इसकी तड़फ देखिये..., ईधर आईये यह टूटा बर्तन और यह माँ की मूर्ति अपने बच्चे के लिए खाना बनाना चाहती है पर टूटे बर्तन में कैसे ... देखिये यह टूटे खिलौने किसी बच्चे के होंगे वह रो रहा है खिलौने के लिए... , यह धड़ जिसका सर नहीं है माँग रहा है अपनी पहचान..., यह सन्यासी इसके सारे मंदीर, मुर्तिया तोड़ दी गई व्याकुल है अपनी पूजा साधना के लिए... , राजा कि मूर्ति, शक्ति दंड तोड़ दिया गया शक्तिविहीन राजा... और यह बिन राजा का नगर टूटा फूटा..., किसान का टूटा हल... मन भर रोता किसान..., टूटे फूटे वाद्य यन्त्र... यह रोता कलाकार..., खंडित शस्त्र, बिना इनके सिपाही कैसे लड़ें, तो वह भी व्याकुल..., कटे सर वाले महिला पुरुष और बच्चे बयाँ कर रहे है हिंसा कि कहानी... और सबसे बड़ा दुःख इस मूर्तिकार का जिसने न जाने कितने बरस लगाकर यह मूर्तियाँ बनाई थी, पर सब की सब मिटा दी गई तोड़ दी गई... , तो ...तो इनकी तकलीफ मुझसे न देखी गई मैं मौका खोजने लगा इनके घावों पर मरहम लगाने का, और मुझे मौका मिल गया, जब इस कमरे का सीसीटीवी केमेरा खराब हो गया उस रात मैंने टूटे बर्तन की जगह नई हांड़ी रख दी, स्टोन सीलर और प्लास्टर ऑफ़ पेरिस से किसी की आँख..., किसी का कान, किसी की नाक और हाथ पैर धड़ जोड़ने की कोशिश करने लगा" रामसिंग रुका।

"तुम बेवकूफ हो, क्या यह बात पता नहीं चलती, हर दिन मूर्तियों की नम्बरिंग और इमेज की जांच होती है, जरा-सा भी अंतर तुरंत पहचान में आ जाता है, तुम तो उन्हें नया रूप देने लगे"-कश्यपजी चीखे।

"कोईं बिगड़ी चीज सुधारने में कैसा अपराध साबजी" रामसिंह कातर स्वर में बोला।

"इन खंडित मूर्तियों की ही क़ीमत है कटे पैर, टूटा हाथ, फूटी आँख की क़ीमत है"–कश्यपजी खीजकर बोले।

"हमारा भी एक पैर और एक आँख नहीं है साबजी पर हमारी तो कोई क़ीमत नहीं है" वह बोला।

छन्न से कुछ टूटा उनके अन्दर, "तुम क्या मूर्ति हो" ? इस बार स्वर कुछ धीमा था।

"नहीं इंसान हैं, पर टूटी मूर्ति, टूटे इंसान से ज़्यादा कीमती," वह हंसा।

जाने कैसी हँसी थी, पर कश्यपजी कुछ कह नहीं पाए मन अजीब-सा हो गया। कश्यप जी ने उसे जाने का कहकर अपने साथ आई विशेषज्ञों की टीम से मूर्तियों का परिक्षण करवाया, अधिक कुछ बिगड़ा नहीं था जो कुछ था वह कुछ रसायनों की मदद से ठीक हो सकता था। कश्यपजी बड़े प्रभावशाली अधिकारी थे, इसलिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर किसी बड़ी सजा से उन्होंने रामसिंह को बचा लिया। मानसिक हालत ठीक न होने का कारण लिख रामसिंह को दो महीने पहले ही सेवा निवृत करने का निर्णय लिया गया और दंड स्वरूप इन दो माह की तनख्वाह काटने का आदेश दिया गया। बाक़ी लोगों को रवाना कर वे आफिस में बैठे सोचने लगे-"कितना अंतर है उनमे और रामसिंह में, वे जीवन भर मूर्तियों पर रिसर्च करते रहे दुनिया जहाँ की मूर्तिकला, हजारों मूर्तियों पर काम किया है उन्होंने उन्हें खोजने का, सहेजने का पर उन पत्थरों ने उन्हें भी पत्थर बना दिया था, लेकिन रामसिंह न मूर्तियाँ बनाई, न सहेजी बस उनके बीच बैठ कर ही उनका हो गया। कितना फ़र्क़ होता है संवेदनाओं का। बड़ी अजीब बात है इंसान के क़त्ल की चर्चा तक नहीं, और जानवरों के शिकार पर बवाल, इंसान की सूरत बिगाड़ने, हाथ पाँव टूटने पर तत्परता नहीं और पत्थर की मूर्तियों के लिए ऐसी मुस्तेदी" सोचते-सोचते उनके चेहरे पर एक व्यंगात्मक मुस्कान आ गई। इस दुनिया में जहाँ इंसान-इंसान को रोज़ टुकड़ों-टुकड़ों में घाव दे रहा है, वहाँ बेजान पत्थर की मूर्तियों के घावों पर मरहम लगाने वाला पागल नहीं तो और क्या है? जाने के लिए बाहर निकले तो रामसिंह सामने खडा था, अपने जेब से दो महीने की तनख्वाह निकाल कर उसके जेब के हवाले कर उसको गले से लगा लिया और धीरे से बोले-"होटल में चौकीदारी का काम निकाला है तुम्हारे लिए" और निकल पड़े मन में संतोष ले कर कि आज उन्होंने भी एक भंजित मूर्ति के घावों पर मरहम लगा दिया है।