मराठी भाषा में बनी 'अस्तु' महान फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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मराठी भाषा में बनी 'अस्तु' महान फिल्म
प्रकाशन तिथि :18 जुलाई 2016


सुमित्रा भावे और सुनील सुकथनकर की मोहन आगाशे और ईरावती हर्षे अभिनीत मराठी भाषा में बनी फिल्म 'अस्तु' देखने का शुभावसर शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर ने प्रदर्शन पूर्व शो में उपलब्ध कराया। थके-हारे और अलसाए से इच्छा और अनिच्छा के बीच उलझे मन से फिल्म देखने गया और फिल्म के प्रभाव ने निरोग करके जोश से भर दिया। इस तरह फिल्म को औषधि के रूप में समझने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इसके साथ ही उम्र के पड़ाव पर लुढ़कते हुए यह भी जान लिया कि उम्र और स्मृति का हिरण कैसे छलांगे लगाता है। वह आपको रहस्य और विस्मय के अंधेरे जंगलों से बाहर निकाल सकता है। इसके साथ ही अवचेतन में यह भी कौंधा कि श्रीराम स्वर्ण हिरण का पीछा करने गए थे और उसी समय सीता का अपहरण हुआ। हिरण मात्र आखेट की वस्तु नहीं है। वह कुछ और भी है।

मुद्‌दे की बात यह है कि फिल्म का केंद्रीय पात्र कभी-कभी विस्मृति के मायावी संसार में गुम हो जाता है और उसे तलाश करने निकली उसकी पुत्री इसी यात्रा में स्वयं को भी समझने में समर्थ होती है। इसी घटना के कारण नायिका की छोटी बहन, जो सारा जीवन उत्तरदायित्व से बचती रही है और विलायत होकर अाने के गर्व में डूबी है, वह भी अपनी बड़ी बहन से तकरार करके बेहतर समझ और दृष्टि पाती है। दोनों बहनों के विवाद का दृश्य विलक्षण बन पड़ा है। इस दृश्य में इरावती हर्ष सुशुप्त अवस्था में रह रहे ज्वालामुखी के फटने की तरह प्रस्तुत हुई है। मनुष्य के ज्वालामुखी से लावे की तरह अश्रु बहते हैं। लावा और अश्रु दोनों ही से बहुत कुछ मिलता है। फिल्म में घनीभूत जमी भावना के पिघलकर बहने और बहा ले जाने की शक्ति है।

फिल्म में प्रारंभ से अंत तक एक हाथी प्रस्तुत हुआ है। अंग्रेजी भाषा में अमिट स्मृति को 'एलीफेंट्स मेमोरी' कहा गया है। अत: हाथी एक रूपक बनकर प्रस्तुत हुआ है। फिल्म में हाथी के सहारे पलने वाला परिवार भी है। अतिथि ईश्वर समान होता है, भारत के इस पुराने संस्कार का भी समावेश किया गया है। गरीब स्त्री स्वयं अपने परिवार को दो रोटी बमुश्किल खिला पाती है परंतु अतिथि को वह भरपेट खाना देती है। उसे इसका दु:ख भी है परंतु वह यह मान लेती है कि यह अतिथि स्वयं ईश्वर ही है। जब पुत्री पिता को खोज लेती है तब पिता उस गरीब स्त्री को मां कहकर संबोधित करता है। यह बहुत ही मर्मस्पर्शी दृश्य है। यह फिल्म रिश्तों में दर्द और रिश्तों से मिले सुख दोनों को ही गहरे ढंग से प्रस्तुत करती है। फिल्म आपके दिल में छुपे बेहतर इंसान को बाहर लाने में मदद करती है। हम सभी के भीतर अच्छाई और बुराई दोनों हमेशा द्वंद्व की दशा में बनी रहती है। हृदय के कुरुक्षेत्र में यह युद्ध हमेशा बना रहता है। भावना प्रधान फिल्म इस युद्ध में आपकी सहायता करती हैं।

सभी कलाकारों ने पात्रों में पूरी तरह डूबकर अभिनय किया है। मोहन अागाशे अत्यंत अनुभवी कलाकार हैं। एक दौर में वे पुणे फिल्म संस्थान में अभिनय का प्रशिक्षण भी देते थे। वे अपने आप में चलते-फिरते अभिनय संस्थान ही हैं। मोहन आगाशे नामक वसीयत की कर्ता के रूप में इरावती हर्षे साधिकार प्रस्तुत हुई है। तमाम नए कलाकारों को इस फिल्म में किए गए अभिनय को पाठ्यक्रम मानकर इसका अध्ययन करना चाहिए।

फिल्म के लेखक और निर्देशक ने इन प्रतिभाशाली लोगों को अपने फिल्म आकल्पन मंें बखूबी ढाला है। अपने माध्यम पर निर्देशक का संपूर्ण नियंत्रण है। उसने एक कुशल सारथी की तरह इस प्रतिभा रथ को हांका है। केंद्रीय पात्र संस्कृत का अध्यापन कर रहा है और स्मृति खो जाने के दौर में भी उसके मुंह से संस्कृत के श्लोक निकलते हैं, क्योंकि संस्कृत उसके व्यक्तित्व में इस तरह समाहित है कि उसे अलग नहीं किया जा सकता। बूढ़ों को बच्चों की तरह रखना चाहिए। बुढ़ापा दूसरा बचपन होता है। एक मायने में फिल्म संस्कृत को भी अादरांजलि की तरह प्रस्तुत है।