मर्यादित स्त्री छवि को तोड़ती कहानीकार लवलीन / पूर्णिमा मौर्या

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पूर्णिमा मौर्या »

जनवादी महिला समिति से सम्बद्ध एक सक्रिय कार्यकर्त्रा, पत्रकार और रचनाकार लवलीन (1958-2009) के दो कहानी संग्रह ‘सलिल सागर कमीशन आया बनाम समाज सेवा जारी है’ (1997) और ‘चक्रवात’ (1999) प्रकाशित हैं। ‘स्वभाव से ही बागी’ लवलीन अपनी कहानियों के माध्यम से गैरबराबरी पर आधारित भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना का विरोध करती रहीं। वे उन प्रचलित प्रतिमानों के खिलाफ़ लगातार बग़ावत करती रहीं जो चेतना को कुन्द करते हैं। अपनी कहानियों के माध्यम से समाज के उन ‘खोखले आदर्शों’ की पहचान करती रहीं जो आर्थिक, सामाजिक, लैंगिक गैरबराबरी को खाद-पानी पहुँचाते हैं, ‘खोखली नैतिकता’ में उलझा कर ‘मुक्तिपथ’ की बाधा बनते हैं या फिर ‘आज़ादी की मृगमरीचिका’ में उलझाकर पुनः कैद में ढकेल देते हैं। उनकी कहानियों में ‘चेतना’ और ‘छद्म चेतना’ की बारीकी मिलती है।

कहानी संग्रह ‘चक्रवात’ की बात की जाए तो इसमें कुल बारह कहानियाँ हैं। तीन कहानियों में भ्रष्टाचार और अन्य राजनैतिक मुद्दे हैं। ‘उसके सुख का सपना’ गरीबी और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एक बच्चे के प्रतिरोध की कहानी है। ‘बजरंग के जाने का मतलब’ सामाजिक परिवर्तन में ‘अगुवा नेता’ के जरूरत की पड़ताल है तो ‘राज्यादेश’ कहानी ‘राजनीतिक व्यंग’ है; जिसमें राज्य की दमनकारी नीतियों का पर्दाफाश बहुत मार्मिक अन्दाज में हुआ है। बाकी की नौ कहानियाँ ‘प्रेम से पहले’, ‘छिनालें’, ‘रास्ता आसान नहीं’, ‘नहीं..यह नहीं..मुकाम!’, ‘गलत समय की हॅंसी’, ‘चक्रवात’, ‘एक और स्मिता’, ‘सिर्फ हमारे दिल में’ तथा ‘दो ध्रुवों के बीच’ मध्यवर्गीय स्त्री के बहाने स्त्रीमुक्ति और उससे जुड़े तमाम मुद्दों को उठाती हैं। इसे आधार बनाए तो कहा जा सकता है कि उनकी ज़्यादातर कहानियाँ समाज में स्त्री की स्थिति और उसकी मुक्ति के सवालों से टकराती-जूझती हैं। उन्होंने निजी जीवनानुभवों को सामाजिक चेतना के साथ बड़ी आत्मीयता से कहानी में बुना है। उनकी कहानियाँ आत्मीय हैं पर नितांत आत्मपरक नहीं हैं। वे निजी अनुभवों को अपनी कहानी में इस खूबी से रखती हैं कि पाठक को वे अनुभव, पात्र, परिस्थितियाँ, बातें, वातावरण अपने आस-पास का खूब देखा-परखा, जाना-सुना लगने लगता है। पाठक जब लेखक के निजी अनुभव से जुड़ाव महसूस करने लगता है तो वह रचना से भी अपनाइयत महसूस करता है और उसके मर्म तक आसानी से पहुंच जाता है।

लवलीन स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में आए बदलावों को लेकर काफी सजग हैं। वे भली-भांति जानती थीं कि भारतीय सामाजिक, संरचना में स्त्री को हर समय, हर जगह कमतर ही आँका जाता है। फिर चाहे वो स्त्री किसी भी जाति, धर्म, वर्ग की हो। उन्होंनें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को अलग-अलग कोणों से देखा-परखा, जो सही लगा वही लिखा। उन्होंने कहानी में ‘सेक्स सीन’ चित्रित किए; तथाकथित अकेली, बदनाम स्त्रियों को कहानी का पात्र बनाया, ‘मर्यादित स्त्री छवि’ को तोड़ा, लीक से हटकर चलीं इसीलिए उन्हें ‘बोल्ड लेखिका’ कहा गया। शायद यही बोल्डनेस थी जिसके चलते उनका निजी जीवन भी प्रभावित हुआ। जिस रूप में उनके जीवन का अन्त हुआ कहीं न कहीं वह भी इसी स्थिति-परिस्थिति का परिणाम था। मधुलता अरोरा को दिए एक साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि ‘बोल्ड लेखिका’ होने के नाते क्या उन्हें कोई कीमत चुकानी पड़ी, तो जवाब में वे कहती हैं ‘‘मुझे इसकी खासी कीमत चुकानी पड़ी है। स्त्री की स्वायत्तता उसके निजी संबंधों की बलि पर ही संभव है।’’ आज भी निडर और बोल्ड स्त्री को समाज आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता। लेखन हो या जीवन स्त्री के हर कदम पर समाज की निगाहें होती हैं। घोषित-अघोषित कुछ नियम होते हैं जिन्हें नज़रअन्दाज करने की कीमत चुकानी ही पड़ती हैं।

लवलीन अपनी कहानियों में ज़्यादातर मध्यवर्गीय स्त्री चरित्र बुनती हैं, जो नौकरीपेशा हैं, उनकी अपनी पहचान है, वे आत्मनिर्भर हैं और यह भी है कि ज़्यादातर तलाकशुदा हैं या अकेली रहती हैं, कहने को ‘आज़ाद’ हैं; पर सही मायने में आज भी मुक्ति से कोसों दूर हैं। स्त्री मुक्ति की पक्षधर रचनाकार लवलीन तथाकथित चरित्रहीन, बदनाम स्त्री पात्रों को उनकी समस्त कमियों-कमजोरियों के साथ कहानी में चित्रित करती हैं। ऐसे समय में जहाँ मुख्यधारा का ‘टिपिकल स्त्री विमर्श’ गुडीगुडी बतियाता हो, अपना दामन बचाता हो, ऐसे पात्रों, घटनाओं, स्थितियों का चयन एक किस्म का ‘डेंजर जोन’ है। डेयरिंग लवलीन इस ‘डेंजर जोन‘ में हमें ले जाती हैं, जो अदेखा-अजाना है, उसे दिखाती हैं।

उनकी एक कहानी ‘रास्ता आसान नहीं’ ऐसी ही दास्तां है। कहानी की मुख्य चरित्र अनुपमा बैंक ऑफीसर है। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। तलाकशुदा है और अकेले रहती है इसलिए ‘‘लोगों की जुगुप्साओं, दमित इच्छाओं और बतरस का केन्द्र थी। कालोनी के पुरुशों के लिए वह एक चीज़ थी। उनकी अपनी घरनियों से अलग एक स्त्री जिसके बारे में कुछ भी सोचा और कहा जा सकता है। वह उनकी प्राइवेट फैंटेसियों की शूरवीर नायिका थी।’’ उसके बारे में तमाम तरह की अफवाहें कालोनी में फैली थीं। एक शादीशुदा पुरुष से उसके अंतरंग संबंध थे। मुहल्ले का गुंडा बलदेव एक रात शराब पीकर अनुपमा के घुसना चाहता है। उसे लगता है अनुपमा अगर एक से सम्बन्ध रख सकती है तो उसका भी हक बनता है। उसके ये इरादे पूरे नहीं होते तो वह अनुपमा के दरवाजे पर खूब हंगामा करता है। उसे धंधा करने वाली कहता है। महिला समिति से जुड़ी एक पड़ोसी महिला अनुपमा को बलदेव के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट करने की सलाह देती है तो बलदेव के साथ अनुपमा के साथ वह पुरुष भी घबरा जाता है। वह अपनी उपस्थिति सबसे छुपाना चाहता है। “अनुपमा जिसकी खातिर बदनामी और संकट झेल रही थी, वह इस मौके पर अपना दामन बचा रहा था। स्त्री प्रेम में सर्वांग समर्पित होती हैं वह अपने आप को दाँव पर लगा देती है।...और पुरुष मौकापरस्त शिकारी की तरह व्यवहार करता है। भक्षण किया और भाग छूटा।’’ कुछ दिनों बाद सब सामान्य हो जाता है। उस पुरुष की जगह अब बलदेव अनुपमा के घर आने लगा था। इसकी सफाई देते हुए जब अनुपमा कहती है ‘‘मेरा तो उनसे भाई जैसा रिश्ता है। अब आगे का रास्ता देखने के लिए प्रयोग तो करने ही पड़ते हैं। जिन्दगी भर अकेला कौन रह सकता है।’ ’ तो कहानी की वाचक कहती हैं ‘‘प्रयोग के नाम पर वह एक और छलावे को निमंत्रण दे बैठी थी। वैचारिक दृश्टि से रिक्त स्वतन्त्र महिलाओं का यही हश्र होता है, एक चंगुल से निकल कर दूसरे चंगुल में फँस जाती हैं। अलगाव की सजा झेल रही थी क्योंकि तलाकशुदा थी। जिजीविषा उसे जिलाये रखे है। मन और देह की आग आहुतियाँ माँगती है। लेकिन रास्ता आसान नहीं है।’’

स्त्री अगर पुरुष की सुरक्षा के बिना अकेले रहने का निर्णय करे तो ये सचमुच आसान नहीं। गिद्ध नज़रे गढ़ाए, उसे नोच खाने वाले हमेशा मौके की फिराक़ में रहते हैं। ऐसे में अगर वह अपनी शारीरिक-मानसिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए किसी पुरुष से नजदीकी बढ़ाए तब तो समाज उसके अस्तित्व और अस्मिता की धज्जियाँ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। ऐसे में स्त्री ही कलंकित-प्रताड़ित की जाती है। समाज से बहिष्कृत की जाती है। भागीदार पुरुष नहीं। बलदेव जैसे लोगों से समझौता करना सही रास्ता नहीं कहा जा सकता लेकिन हमारा समाज ‘अनुपमा जैसी स्त्रियों’ को ऐसे समझौते करने पर मजबूर करता है। शायद अनुपमा किसी छलावे में नहीं थी। वह अकेले रहती है। घर आने वाले पुरुष की जगह अब बलदेव ने ले ली है। मतलब ये प्यार का मामला नहीं सेक्स का मामला था। उसे पुरुष दोस्त इसीलिए चाहिए जिससे वह अपनी दैहिक जरूरतों को पूरा कर सके। ये उसका निजी मामला है। इसके लिए अगर वह ‘विवाह संस्था का लाइसेंस’ नहीं लेती तो इसके कई कारण हो सकते हैं। हो सकता है वह अपनी शादी का हश्र देखने के बाद फिर से इस तरह के बन्धन में बंधना नहीं चाहती हो या पुरुष ऐसी स्त्री को भोगना तो चाहता हो पर शादी नहीं करना चाहता हो।

इसका उत्तर हमें ‘प्रेम से पहले’ कहानी में मिलता है। यह भी तलाकशुदा स्त्री की कहानी है। जो एक पुरुष की तरफ आकर्शित होती है लेकिन प्रेम से पहले डर हावी होता है। वह ‘‘असमंजस में थी। भीतर से उठती चेतावनियाँ। तुम...फिर खतरा उठा रही हो। दांव पर लगा रही हो अपनी स्वतंत्रता...निजता। वह बहरी बनी हुई थी और प्रतीक्षा के आकुल तनाव में थी।’’ वह जीवन फिर से शुरू करना चाहती है। अकेला रहना आसान नहीं है। पुरुष जब कहता है ‘‘खैर तुम तो आज़ाद हो, ‘फ्री बर्ड’।’’ तो वह उसे समझा नहीं पाती कि ‘इस आज़ादी की अपनी गुलामी है। पुराने अनुभव और फिर अन्तरंग संबंधों में जो जकड़न होती है। एक बार भुगतकर आजाद होने के बाद भी आज़ाद होने नहीं देती।’ वह स्त्री को नियन्त्रित और शासित करने के ‘मेनहुड ओरियंटेशन’ से आज़ादी चाहती थी। जो फिलहाल सम्भव नहीं इसलिए ‘प्रेम की दुर्घटना खंडित हो गई’ या स्थगित हो गई? इसी आज़ादी की चाह में अनुपमा अकेले रहने का निर्णय लेती है लेकिन क्या सचमुच आज़ाद हो पाई? ‘प्रेम से पहले’ कहानी की पात्र और अनुपमा दोनों स्त्रियाँ आज़ादी की चाह में ‘आज़ादी की कैद’ भुगत रही हैं।

भारतीय समाज में स्त्री को देखने के मोटे तौर पर दो नजरिए प्रचलित हैं; एक ‘देवी’ और दूसरा ’छिनाल’। ‘देवी’ बनने से इन्कार करने वाली स्त्री को भारतीय समाज में अलिखित कानून के तहत अक्सर ‘छिनाल’ मान लिया जाता हैं क्योंकि हमारा समाज आज भी स्त्री को अपने जैसा ‘मनुष्य’ नहीं मान पाया है। विडम्बना है कि स्त्री को समाज ‘देवी’ माने या ‘छिनाल’ दोनों ही स्थितियों में उसके हिस्से शारीरिक मानसिक शोशण, अपमान, प्रताड़ना और अकेलापन ही आता है। ‘देवी’ बनी स्त्री को कुछ भी महसूस करने, बोलने, सोचने की मनाही है, बेजान मूर्ति की तरह। खुलकर हँसना, ठहाके लगाना, बिंदास बोलना, दोस्त बनाना, घूमना-फिरना, निर्णय लेना या फिर गलतियाँ करना जैसे मानवीय व्यवहार भी स्त्रियों के सन्दर्भ में समान्य नहीं रह जाते। ऐसे में सिगरेट-शराब पीने वाली और पुरुष मित्रों के साथ घूमने वाली, अश्लील मजाक करने वाली, सेक्स की इच्छा रखने वाली या सेक्स के लिए मना करने वाली स्त्रियों के बारे में तो कहना ही क्या, वे तो घोषित ‘छिनालें’ हैं। ये सारे काम जहाँ पुरुशों को ‘मर्द’ बनाते हैं वहीं स्त्री को ‘छिनाल’। देवी और छिनाल के खांचे में देखी गई स्त्री के लिए मुक्ति के मायने क्या हैं? ‘छिनालें’ कहानी इसी विशय के इर्द-गिर्द बुनी गई है।

इस कहानी में वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, समाज कल्याण विभाग में मंत्री और ब्यूटीशियन जैसे अलग अलग पेशों से जुड़ी औरतों का ‘जमावड़ा’ साथी महिला के घर पर होता है। दारू पार्टी होती है। समाज के सामने ये स्त्रियाँ ‘अलस घरेलूपन’ के बजाय ‘व्यावसायिक चौकन्नेपन’ के साथ नाटकीय भव्यता ओढ़े अपने अच्छे-बुरे अनुभवों को छिपाए रहती हैं। ‘वे जानती हैं, बाहर आकर उन्हें अंधे रस्मों-रिवाज की कायनात में पटक दिया जाना है। सजा भी मुकर्रर हो सकती है।’ इसलिए वे आसानी से नहीं खुलतीं। आत्सम्मान की बलि पर सफल हुई या सफलता को बरकरार रखे ये औरतें जब खुलती हैं तो हंसी-मजाक के बीच ‘तनाव और उत्तेजना की भाप में सुगबुगाती सभी अपनी औपचारिक काया को छोड़कर निर्वस्त्र हो नंगी आत्मा के साथ जिरह करती हैं।’ इस क्रम में मध्यमर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय समाज का असली चेहरा उजागर होने लगता है। ‘मुक्त स्त्री’ का भ्रम देती ये स्त्रियाँ आज़ादी के लिए छटपटाती नज़र आती हैं।

‘छिनालें’ कहानी की निशा ‘‘बेहद गरीब परिवार से थी। कैरियर की शुरुआत स्टेनो के रूप में की थी। नौकरी बनाये रखने की मजबूरी में मालिकों को खुश किया था। अन्ततः दस साल बाद एक अधेड़ मालिक को, कहते हैं ब्लैकमेल कर ब्याह रचाकर उच्चवर्ग में प्रवेश पाया था और सम्मान की जिंदगी प्राप्त की थी। उसने सोचा कि उसने सदा के लिए शोशण के दुश्चक्र से मुक्ति प्राप्त कर ली है लेकिन अब उसे छिपे तौर पर हर आसामी से डील करना पड़ता था, जो उसके उद्योगपति पति के बिजनेस में इज़ाफा कर सके। उसके दिन-रात इसी सोशलाइजेशन में बीतते थे। धधकती हुई-सी वह हमेशा जली-कटी बातें करती थी।’

लाभ की आशा में चुपचाप यौन उत्पीड़न सहना या देह को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर सफलता प्राप्त करने की आशा करना ‘मर्दवादी समाज’ के गन्दे और विकृत हौसलों को बढ़ावा देना है। स्त्री को हमेशा भोग की वस्तु समझने वाली मानसिकता को इससे बल मिलता है और पुरुष अहं को संतुष्टि। सफलता की आशा रखने वाली हर स्त्री से वह ऐसे समझौते की माँग करने लगता है। सफलता का यही पैमाना बना दिया जाता। किसी भी परिस्थिति में किया गया इस तरह का कोई भी समझौता तात्कालिक लाभ देता भले दिखाई दे लेकिन उसके दीर्घकालिक परिणाम हमेशा खतरनाक ही होंगे। निशा ‘मर्दवादी समाज’ को शायद कम करके आँक रही थी। उसे लगा था कि निम्न वर्ग से उच्च वर्ग में शिफ्ट होने मात्र से सब बदल जाएगा लेकिन ऐसा होता नहीं है। इससे समाज के मूल चरित्र में कोई बदलाव नहीं होता है बल्कि कई बार व्यक्ति ही ‘सत्ता का चरित्र’ अख्तियार कर लेता है।

सफलता पाने के मार्ग में कदम-कदम पर समझौता करने वाले तथाकथित सफल होने के बाद भी अपने चरित्र में कोई सार्थक बदलाव नहीं कर पाते। सफलता पाने के लिए अपनी ‘सींग-पूंछ कटवा चुके’ ये लोग बिना रीढ़ के प्राणी की तरह अपना पूरा जीवन गुजार देते हैं या फिर सत्ता में आते हीं‘सत्ता का चरित्र’ अख्तियार कर दूसरों का शोशण करने लगते हैं फिर चाहे वो स्त्री ही क्यों न हो। एक तरफ निशा है तो दूसरी ओर ‘छिनालें’ कहानी की कुलदीप। वो महिला विकास कार्यक्रम की सम्बद्ध अधिकारी है। अपने ड्राइवर का शारीरिक शोशण करती है। वो कहती है ‘‘मुझे देखो ऑफिस में बॉस हूँ और उतनी ही अक्रामक, प्रतिस्पर्धा भरी और अपने मातहतों के साथ हिंसक हूँ, जितने पुरुष हमारे साथ। मैं तो शायद औरत भी नहीं बची हॅूं, पुरुष बन गई हॅूं।’’ यही सत्ता का मूल चरित्र है, जहाँ हमारी अस्मिताएं सिर्फ उत्पीड़ित और उत्पीड़क की होती हैं।

लवलीन के लेखन में अन्तर्वस्तु की नवइय्यत ही नहीं, टेकनिक का नयापन भी खूब मिलता है। कहानी कहने का नयापन वर्जित क्षेत्रों को विशय बनाने के क्रम सृजित हुआ है। वे ‘ह्यूमन सायकॉलाजी’ के आधार पर मानव मन की गहराईयों समझने-समझाने की कोशिश करती नज़र आती हैं। स्त्री-पुरुष मित्रता की पड़ताल करती ‘चक्रवात’ कहानी की टेकनिक अनूठी है। एक ही घटना को दो नज़रिए से पेश किया गया है। एक बार स्त्री नजरिए से और दूसरी बार पुरुष नजरिए से। इस कहानी के पात्र कीर्ति और रणजीत दोनों दोस्त थे। ‘न इससे कुछ कम, न इससे कुछ ज़्यादा’। दोनों शादीशुदा हैं। कीर्ति रणजीत से मिलने उसके घर आती है। पत्नी बाजार गई है। ऐसे में दोनों के बीच शारीरिक संबंध बनते हैं। स्त्री पुरुष की मित्रता, यौनाकर्शण, विवाहेतर सेक्स संबंध आदि को कई कोणों से जाँचती यह लम्बी कहानी है। ‘नहीं..यह नहीं..मुकाम!’ भी इसी विशय पर है। इस कहानी में अरुणा जिस दिन मित्र सुकान्त की ‘आँखों में अपनत्व की जगह उसे पा लेने की हिंसक चमक’ देखती है समझ जाती है कि ‘पुरुष से मैत्री एक दिन प्राप्ति की माँग बनकर सामने आ खड़ी होती है।’ अरुणा सुकान्त की माँग को नकारते हुए उससे मिलना बन्द कर देती है। उसे अपराधबोध होता है कि वह मित्रता से अनायास ही उन दोनों की गृहस्थी में घुसपैठ कर गई। जैसा कि हमेशा होता आया है, हर बार स्त्री को ही अपराधबोध होता है, भले ही अपराधी पुरुष हो या परिस्थितियाँ। उत्तेजना के आवेग में बह चुकी कीर्ति को पछतावा होता है लेकिन रणजीत को नहीं। दोनों कहानियों में ‘प्राप्ति की माँग’ पुरुष करता है पर पछतावा और अपराधबोध स्त्री को होता है। मधु अरोरा को दिए साक्षात्कार में लवलीन कहती हैं-’पुरुष जब दोस्ती/प्रेम करता है, वह औसत पुरुष ही होता है, मनुष्य नहीं। वह अपनी कल्पनाएं, फैन्टेन्सियों और यौनिकता से तथा सामाजिक दबाव के कारण इतना कुंठित होता है कि स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों का सहज विकास संभव ही नहीं हो पाता।’’

लवलीन की कथाभाषा के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि वहाँ स्त्रियोचित सुघड़ता, मानवीय संवेदनशीलता और ममतातयी निश्छल सरलता है। बहुत सधे अन्दाज़ में वे स्त्री दुनिया के शब्दों का प्रयोग करतीं हैं, जिससे दृश्य का प्रभावान्विति बढ़ जाती है। ‘‘घुप्प घनेरी रात है। बंधी गाँठ सी गुमसुम। आकाश काले कड़ाह से धरती पर आ औंधाया है। खिड़की से आसमान का जितना टुकड़ा आँखों की हद में आता है उसमें चाँद नहीं है।’’ स्त्री अनुभव की दुनियाँ में ‘कड़ाह’, ‘धरती’, ‘खिड़की’, ‘आसमान’, ‘चाँद’ का विशेष महत्व है, इनके सार्थक प्रयोग देखे जा सकते हैं।

‘कहानी के फ़लक’ रचनाकार आलोचक अरुण प्रकाश काव्यात्मक कथाभाषा के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं। ‘बहुधा कहानी में काव्यात्मक भाषा का उपयोग कहानी के प्रवाह को बाधित ही करता है। काव्यात्मक भाषा की उपयोगिता इस बात निर्भर करती है कि वह दृश्य वर्णन में कितनी आवश्यक हैं।’ इसको ध्यान में रखते हुए देखें तो यह सही है कि लवलीन की कथाभाषा कहीं-कहीं काव्यात्मकता का अतिरिक्त पुट लिए हुए दिखाई देती है उदाहरणार्थ-‘‘प्रतीक्षा धैर्य की परीक्षा लेती रही। घर ‘कुंज कुटीर’ की पत्तियाँ नुचती रहीं। मधुकामिनी की पंखुरियाँ उंगलियों की क्रूरता से बिखरती रहीं। दांत तिनके चबाते रहे। खोजबीन कर लाया गया केवड़े का फूल गुलदान में पानी बदलने की राह तकते-तकते सूख कर झर गया। कमरा बेतरतीब ही रहा। कुछ न कुछ भूलने पर माँ की डाँटे खाई जाती रहीं। छात्र-छात्राएं कटखने कटाक्ष झेलते रहे। विभागाध्यक्ष से भिड़ंत होते-होते बची। जुमलों-हँसाइयों से मरहूम घर की चुप्पी माँ को सहमा गई। आँखों के सामने बार-बार तिरते चेहरे को भुलाने के लिए किताबों के पन्ने उलटे गए। आँखों में बोए सपनों के बीज रात के अंधेरे में अनिद्रित निद्रा में फूल बन फूटते रहें...बूटियाँ लहराती रहीं। रंगीनियाँ दिखाती-भरमाती रहीं।’’ यहाँ काव्यात्मक कथाभाषा का प्रवाह देखने लायक है। इसने दृश्य में प्रतीक्षा की तीव्रता को कई गुना बढ़ा दिया है। काव्यात्मकता यहाँ बाधा नहीं, ‘बूस्टर’ है। यह लवलीन की कथाभाषा की खासियत है। कुल मिलाकर लवलीन अपनी कहानियों के जरिए अन्तर्वस्तु और रूप के धरातल पर स्त्री मुक्ति विमर्श में सार्थक हस्तक्षेप करती हैं।