मसाला मनोरंजन गब्बर में सार्थकता / जयप्रकाश चौकसे

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मसाला मनोरंजन गब्बर में सार्थकता
प्रकाशन तिथि :09 मई 2015


अक्षय अभिनीत 'गब्बर इज बैक' में नायक एक मृत व्यक्ति को अस्पताल में भरती कर देता है और इलाज के नाम पर लूट मचाने वाले अस्पताल में उसका महंगा इलाज भी शुरू हो जाता है। नायक सारे प्रमाण एकत्रित करके उसे अस्पताल को बंद करवा देता है। इस तरह की घटना शायद एक जगह घटी है। सारे अस्पताल ऐसे नहीं होते। उसके मालिक नायक की खोज शूरू करके उसे दंडित करना चाहते हैं परंतु अपने सीसीटीवी पर नायक को देखकर कहते हैं कि इस व्यक्ति को मरे पांच साल हो चुके है, यह वापस कैसे आ गया गोयाकि प्रकरण प्रारंभ हुआ था मृत देह के इलाज की लूट से और आकर टिका एक 'मुर्दे' की वापसी पर। इस तरह के नाटकीय मोड़ से भरी यह फिल्म मल्टीप्लैक्स में जबर्दस्त व्यवसाय कर रही है परंतु एकल सिनेमा में अपेक्षाकृत कम व्यवसाय हो रहा है, क्योंकि एकल के दर्शकों को यह बात संभवत: खटक रही है कि अन्याय का शिकार नायक भ्रष्ट लोगों को मारता है परंतु यही नायक फिल्म के अंत में आत्म समर्पण करता है।

नायक अवाम को समझाता है कि उसने अन्याय के खिलाफ ही सही परन्तु कानून अपने हाथ में लेकर अनेक कत्ल किए हैं और देश के कानून के अनुरूप उसे फांसी होना चाहिए। वह एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वह शहादत स्वीकार करना चाहता है। बताया गया कि एकल के दर्शकों को नायक की यह शहादत पसंद नहीं आई। ठीक इसी तरह अवाम के सड़कों पर उतरकर भले आदमी के फांसी के खिलाफ विरोध का दृश्य शाहरुख की स्वयं निर्मित पहली फिल्म 'फिर भी दिल है हिंदुस्तानी' में भी था। उसमें भला आदमी भ्रष्ट नेता को दिन-दहाड़े सरेआम गोलियों से भून देता है और फिल्म का नायक पत्रकार उसे छुड़ाने का प्रयास कर रहा है तथा नायक की अपील पर अवाम सड़क पर उतर आया है।

दोनों ही फिल्मों में हत्याएं बुरे लोगों की हुई हैं परंतु कानून की नजर में यह अपराध है। दरअसल, हिंदुस्तानी सिनेमा में प्राय: नायक कानून अपने हाथ में लेता है और बुरे लोगों को दंडित करता है। एक फिल्म में नायक का संवाद है कि 'वह जहां खड़ा होता हैं, वहीं अदालत है और उसके शब्द ही कानून हैं' या इस तरह का संवाद भी है 'वह जहां खड़ा होता है, वहीं से कतार शुरू होती है।' ये तमाम फिल्में दरअसल व्यवस्था की सड़ांध की बात कर रही हैं परंतु अंदाज-ए-बया कुछ ऐसा भी ध्वनित होता है मानों ये फिल्में किसी अनाम तानाशाह के नाम लिखा खुला आमंत्रण है। गणतंत्र व्यवस्था में कुछ दोष भी हैं परंतु फिर भी यह अन्य व्यवस्थाओं से बेहतर है और तानाशाही तो छोटे जख्म से मरीज का ध्यान हटाने के लिए उसे बड़ा जख्म देने की तरह है। अवाम को इस तरह के धांसू संवाद बोलने वाले नायक पसंद हैं परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि वे तानाशाही या अराजकता पसंद करते हैं। दरअसल इस तरह की सोच की जड़ में हमारी अवतारवादी धारणा ह। हम ऐसा नायक चाहते हैं जो हमारे काम करें, हमारे लिए जिए और आवश्यकता पड़ने पर हमारे लिए मरे भी।

गणतंत्र व्यवस्था एक नायक पर आधारित नहीं है। इसकी सफलता के लिए सभी का जागरूक होना, स्वतंत्र विचार-शैली को मांजना गोयाकि नायक होने पर निर्भर करता है। इस अर्थ में यह भीड़-तंत्र नहीं है, जो हमने इसे बना दिया है। गब्बर के एक दृश्य में भ्रष्टाचार के सच्चे समाधान को स्पर्श किया गया है। वह दृश्य है, जिसमें नायक अपने सहयोगी को बताता है कि पकड़े गए भ्रष्ट लोगों में उसका अपना पिता भी है। नैतिक मूल्यों को समर्पित सहयोगी कहता है कि उसके पिता के साथ भी वही किया जाए, जो उनका दल अन्य भ्रष्ट लोगों के साथ करता है। नायक कहता है कि आज उसका उद्‌देश्य पूरा हो गया। भ्रष्टाचार से निदान के लिए आवश्यक है कि परिवार का ही कोई व्यक्ति अपने भ्रष्ट स्वजन के खिलाफ आवाज उठाए। यह गणतंत्रीय विचार है। यह नए प्रकार का 'गृहयुद्ध' है। खौफ बनाना कोई समाधान नहीं है। गब्बर का नायक खौफ के गलत रास्ते से सही रास्ते पर आता है। प्राय: व्यवस्थाएं खौफ बनाकर मनमानी करती है। गब्बर भी इसी रास्ते पर चलकर डर का वातावरण बनाता है परंतु जैसे हिंसा का जवाब हिंसा नहीं है, वैसे ही खौफ का जवाब खौफ नहीं है। भारतीय मसाला फिल्मों में भी सार्थकता के स्पर्श होते है