मसालों में डूबे मौलिकता के ख्वाब / जयप्रकाश चौकसे

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मसालों में डूबे मौलिकता के ख्वाब
प्रकाशन तिथि : 18 जनवरी 2013

फरहान अख्तर का ख्याल है कि 'डॉन' या 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' जैसी फिल्मों के नए संस्करण या भाग-2 इत्यादि बनाने के बदले उन्हें अब कुछ मौलिक करना चाहिए। यह एक अच्छा संकेत है कि फिल्म उद्योग में 'अगले भाग' 'नए संस्करण' जैसी टकसाल सोच के बाहर निकलने का ख्याल तो किसी को आया। संभव है कि राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'भाग मिल्खा भाग' करने के बाद फरहान को यह ख्याल आया हो। इस तरह के पुरानी हिट फिल्म के 'अगले भाग' दरअसल भारतीय सिनेमा को पीछे ले जा रहे हैं। मसाला फिल्में दर्शक पसंद करते हैं, परंतु नया तड़का लगाना तो आवश्यक है। विगत वर्ष 'विकी डोनर', 'पान सिंह तोमर', 'कहानी', 'शंघाई' तथा 'बर्फी' जैसी फिल्मों की सफलता रेखांकित करती है कि मसाला मनोरंजन के साथ ही दर्शक नई अवधारणा का भी स्वागत करते हैं। यही बात विगत सौ वर्षों से हो रही है कि विविध किस्म की फिल्में सफलता अर्जित करती रही हैं।

सिनेमा की मुख्यधारा के फिल्मकारों ने ही 'दुनिया ना माने', 'दो बीघा जमीन', 'आवारा', 'जागते रहो', 'दो आंखें बारह हाथ', 'गंगा जमना' जैसी फिल्में बनाई हैं। इनके साथ एमएस सथ्यु, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी और प्रकाश झा ने बहुत-सी सार्थक, सोद्देश्य फिल्में बनाई हैं और सच पूछो तो कोई सरहद नहीं है, जो फिल्मकारों को इस पार या उस पार खड़ा करे। महेश भट्ट की 'सारांश', 'नाम' या 'अर्थ' को आप क्या कहेंगे? वे अद्भुत फिल्में थीं और आप उन पर व्यावसायिक या समानांतर का ठप्पा नहीं लगा सकते। 'सारांश' मुंबई के मेट्रो में चालीस सप्ताह से अधिक चली है।

विगत कुछ वर्षों में यह लोकप्रिय बात हो गई है कि दर्शक को हास्य फिल्में पसंद हैं या एक्शन के साथ मौज-मस्ती की फिल्में सफल रही हैं। आज मराठी भाषा में बनी 'पालक-बालक' सफलता से दिखाई जा रही है और 'कहानी', 'पान सिंह तोमर' इत्यादि ने लोकप्रियता के मिथ को तोड़ दिया है। अनुराग बसु के साथ रणबीर कपूर जैसे 'वोकन अप किड' ने 'बर्फी' जैसी बेमिसाल फिल्म की और कमतरी के शिकार पात्रों की फिल्म ने भी सौ करोड़ का आंकड़ा पार किया। अगर 'सिंघम' या 'राउडी राठौर' ने यह आंकड़ा पार किया तो 'बर्फी' ने भी किया और 'कहानी' भी आंकड़े के आसपास पहुंचकर 'रन आउट' हो गई।

दरअसल मनोरंजन उद्योग की ताकत हमेशा उसमें नए को प्रस्तुत करना है। कुछ नए निर्देशकों ने भी कमाल किया है 'फंस गए रे ओबामा' में आर्थिक मंदी के कारण ही घटनाक्रम चलता है और अब उसका फिल्मकार अदालत को केंद्र में रखकर अपनी नई फिल्म प्रस्तुत करने जा रहा है। फिल्म की झलक देखकर ही उसकी ताजगी का अंदाजा हो रहा है। इसी तरह 'ए वेडनेसडे' के फिल्मकार नीरज पांडे और 'तेरे बिन लादेन' के अभिषेक शर्मा की नई फिल्में भी इसी वर्ष प्रदर्शित होने जा रही हैं।

फरहान अख्तर का ध्यान मौलिकता की ओर जा रहा है तो इसमें हैरानी वाली बात नहीं है। उसकी पहली फिल्म में भी ताजगी थी। अगर आप गुरुदत्त की 'बाजी', 'आर पार', 'सीआईडी' और 'मिस्टर एंड मिसेज 55' के सफर को देखें तो यह कल्पना करना कठिन हो जाता है कि यह व्यक्ति 'प्यासा' जैसी महान फिल्म की रचना करेगा। किसी भी व्यक्ति में छुपी संभावनाओं की कल्पना करना कठिन होता है। यह आश्चर्यचकित कर देना मनुष्य के स्वभाव में है।

दरअसल भारत की ऊर्जा को फिल्मकार ठीक से आंक नहीं पा रहे हैं। दर्शक तो साहसी फिल्मों को स्वीकार करता है। यह फिल्मकार का अपना बॉक्स ऑफिस भय है, जो उसे कुछ सोचने नहीं देता। वह अपनी कमतरी के लिए हमेशा मुखौटों की तलाश में रहता है। भारतीय जीवन के स्पंदन में कहानियां बिखरी पड़ी हैं। फिल्मकार अपने दायरे से बाहर निकले तो उसे कहानियां मिल जाएंगी। हर सफल फिल्मकार को कुछ लोग हमेशा घेरे रहते हैं। उसे अपने छोटे-से दायरे से बाहर लेखक नजर नहीं आते। सफलता के पीछे दौड़ते-दौड़ते फिल्मकार ही हांपने लगता है और अपनी उखड़ती सांसों को दर्शक की कमजोरी कहने लगता है। फिल्मकार किताबें नहीं पढ़ते, नए लोगों से नहीं मिलते और विदेशी फिल्में केवल इस दृष्टिकोण से देखते हैं कि क्या इसे चुराया जा सकता है, क्या इसका भारतीयकरण किया जा सकता है? फिल्मकार स्वयं के विकास के नजरिये से विदेशी फिल्में नहीं देखते।

क्रिस्टोर नोलन की 'इंसेप्शन' में अवचेतन में घुसपैठ की कहानी थी। उन्हें लगता है कि इसका भारतीयकरण नहीं किया जा सकता, जबकि महाभारत में ही गुरु देवाशीष तथा शिष्य विपुल की कथा (अनुशासन पर्व) में अवचेतन में प्रवेश की बात है। अत: उन्हें विदेशी कथाओं के भारतीयकरण का नहीं सोचना चाहिए, वरन भारत को ही फिल्म में प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिए। दुनिया के किसी भी देश ने अपनी जमीन और समाज की अवहेलना करके महान फिल्में नहीं रची हैं। अकिरा कुरोसावा ने महान फिल्में रचीं, क्योंकि जापान का इतिहास और संस्कृति उसकी रगों में दौड़ती हुई कैमरे के माध्यम से परदे पर उतरी। हमारा फिल्मकार तो अंडरवियर तक आयातित ब्रांड की पहनता है। उससे भारतीयता या महानता की बात करना ही अर्थहीन है।