मसीहा / गीता पंडित

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यह एक वृद्ध आश्रम है। मैं एक पत्रकार हूँ। यहाँ की कवरेज करने अक्सर आती हूँ। आज चेनल ने विशेष रूप से अतीता का इंटरव्यू लेने भेजा है। मैं यहाँ पहले भी कई बार आ चुकी हूँ।

लेकिन यहाँ इन्तजार कभी खत्म नहीं होता।

' उम्र-ए दराज़ माँगकर लाये थे चार दिन

दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में'

बहादुर शाह ज़फ़र साहब का यह शेर बारम्बार याद आ रहा है।

और सच बात तो यह है कि आरज़ू और इंतज़ार इन दोनों के कंधों पर बैठकर ज़िंदगी सफर करती है। एक लाठी है तो दूसरा आँखें। आँखों से जब दिखाई ना दे और लाठी कंपन के कारण हाथों से फिसलने लगे तो कहीं भीतर से केवल कोई एक आरज़ू और किसी का बेसब्री से इंतज़ार देह के लिये लाठी और मन के लिये आँखें बन जाता है।

खाँसते-खाँसते दम तोडती श्वास भी जी उठती है।

ज्योति-हीन आँखों में सपने भर जाते हैं और निस्तेज देह एकाएक पीठ सीधीकर के खड़े होने की कोशिश करती है।

उम्र समय के विरुद्ध बिगुल बजाती है और बगावत का झंडा हाथों में उठाए धडकनों की पटरी पर तेजी से दौड़ने लगती है।

मैं पत्रकार होने के साथ-साथ लेखक भी हूँ इसलिये इनके दर्द को अच्छी तरह समझती हूँ।

जब भी कभी समय मिलता है मैं इन एकाकी श्वासों के संगीत को सुनने के लिए यहाँ चली आती हूँ।

मन में जल तरंग बज उठते हैं।

तब मैं न केवल सुन रही होती हूँ इस मधुर संगीत को अपितु देखती हूँ इंतज़ार में बिछी हुई मासूम आँखों में पिघलता हुआ मोम जो मेरी आँखों को पिघलाकर चश्मा बना देता है।

बहुत आसान है मेरे लिए किसी भी राजनेता का इंटरव्यू लेना लेकिन सहज नहीं है वृद्ध-आश्रम में आकर प्रश्न पूछना, फिर से इन्हें यादों के उसी दलदल में घसीटना जिसे ये भूलना चाहती हैं।

बहरहाल, एक पत्रकार होने के नाते साहस तो करना होगा इनकी ज़िंदगी में झाँकने का और आपको दिखाने व सुनाने का।

यूँ तो दिल्ली में वृद्ध आश्रमों की कमी नहीं लेकिन दिल्ली की पॉश कोलोनी का यह वृद्ध आश्रम विशेष है। और भी विशेष है इस वृद्ध आश्रम का यह कमरा जिसमें जानबूझकर चार ही बैड डाले गए हैं जबकि दूसरे कमरों में आठ या छ बैड लगे हैं।

यह स्पेशल कमरा है जो अतीता को दिया गया है जिसमें नसरीन, अनीसा और पुष्पा भी रहती है।

अब आप सोच रहे होंगे कि अतीता में ऐसी क्या ख़ास बात है जो वृद्ध आश्रम उन पर इतना महरबान है।

प्रश्न जायज है लेकिन अतीता यहाँ के लिए ख़ास ही नहीं विशेष है।

अतीता जिनका रंग गेंहुआ, घने सफेद ब्वाय कट बाल, आँखें बड़ी-बड़ी और धनुषाकार भौहें, भरा-भरा चेहरा सौम्य और आकर्षक जो मन को मोहता है। कद सामान्य से कुछ ज़्यादा, उम्र लगभग सतर के करीब होगी। देह छरहरी अभी भी कसी हुई। वह आम तौर पर कम बोलती हैं लेकिन समय पड़ने पर खूब बोलती हैं। ज़्यादा सुनती हैं और अधिक गुनती हैं।

यह पेशे से वकील हैं और शौक से एक लेखक और कवि। यूँ तो सुबह शाम वाक करती हैं योगा करती हैं मगर कुछ दैहिक और कुछ मन की बीमारियों के कारण देह से अशक्त होती जा रही हैं फिर भी दिन रात लेखन में संलग्न हैं और सभी की चहेती बन गयी हैं।

कभी वे दिल्ली में अकेली रहती थी। स्त्रियों पर विशेष रूप से लिखती रही हैं। वृद्ध आश्रम की महिलाओं पर लिखना चाहती थीं इसलिए कुछ समय के लिए यहाँ आकर रहीं लेकिन अब यहीं की होकर रह गईं।

पहले-पहल कानाफूसी भी होती थी कि एक धनवान स्त्री यहाँ कैसे और क्यों है?

अब सब उनसे अच्छी तरह परिचित हो गए हैं। सबकी होठों पर उनकी प्रशंसा के गीत हैं और आँखों में स्नेह व सम्मान।

यूँ तो दूसरे कमरों में और भी वृद्ध स्त्रियाँ हैं हर एक की अपनी अलग कहानी है। अलग दुःख दर्द और पीड़ा है लेकिन अतीता इन सभी से एकदम अलग हैं।

मैं देख रही हूँ, अतीता उदास हैं। अपने बैड पर बैठी कुछ सोच रही हैं। पास में डायरी एक पेन और चश्मा रखा है। साथ में एक अधखुली पुस्तक उल्टी करके रखी हुई है जो कुछ देर पहले तक पढ़ रही होंगी। साइड में एप्पल का लेपटोप रखा है।

अक्सर वह पढ़ती हुई या लिखती हुई दिखाई देती है लेकिन आज जाने कहाँ गुम है।

मैं धीमे से अतीता के पास जाती हूँ वह मुझे जानती हैं क्योंकि मैं पहले भी कई बार उनसे मिल चुकी हूँ।

"नमस्ते आंटी"

उन्होंने धीरे से दृष्टि उठायी और बोलीं ...

"ओह! पत्रकार महोदया! तो तुम फिर आ गयीं।"

" हाँ आंटी

आपसे मिलकर और बात करके मुझे बहुत अच्छा लगता है इसलिए बार-बार आती हूँ। "

"हमें भी तुमसे मिलकर अच्छा लगता है।"

मैं मुस्करा दी और फिर पूछा

"आप कैसी हैं?"

" अरे भई, हमें क्या होने वाला है।

देख लो बिलकुल तंदरुस्त दिखाई दे रहे हैं।

आओ,

वह चेयर खींचकर बैठो मेरे पास।

अच्छा, अब कहो। "

"आपसे कुछ बातें करनी हैं जो हमारा चैनल प्रसारित करेगा, बस उसी के सिलसिले में।"

"हाँ, कल चैनल वालों का फोन आया था।"

वह पलभर के लिए खामोश हो गयीं। फिर मुस्कराते हुए मेरी आँखों में झाँकते हुए बोलीं।

" ठीक है।

पूछो जो पूछना चाहती हो। "

"अगर आप तैयार हैं तो शुरू करें।"

"हाँ जरूर, बस ज़रा अपना चश्मा लगा लूं जिससे समय की आँख में पैनी दृष्टि से झाँक सकूं।"

यह कहकर उन्होंने अपना चश्मा पहन लिया और बैड पर ही कमर पीछे लगाकर आराम से बैठ गयीं।

वह सहज थीं क्योंकि ऐसे इंटरव्यू वह पहले भी कई बार दे चुकी थीं लेकिन तब वे अपने घर में रहती थीं। आज की और तब की स्थिति में जमीन आसमान का अंतर आ चुका था।

उन्होंने हल्के गुलाबी कलर का गाउन पहना हुआ है जो उनकी गरिमा में चार चाँद लगा रहा है। मैं उनका गाउन जो घुटनों तक उठा हुआ था, उसे पैरों के पास तक लाती हूँ।

वे फिर मुस्कराती हैं और कहती हैं

"जानती हो मुझे गुलाबी रंग बहुत पसंद है।"

मैं भी धीरे से मुस्काती हूँ और वहीं पास में पड़ी कुर्सी खींचकर उन्हीं के पास बैठ जाती हूँ।

"" ओके... तो इंटरव्यू शुरू करते हैं।

अतीता जी आपकी साहित्यिक यात्रा के विषय में बहुत सारी बातें हम पिछले प्रोग्राम्स में कर चुके हैं। आज विशेष रूप से हम उस अतीता को जानना चाहते हैं जो अतीता असल में है यानी अतीता के जीवन का सफरनामा और बात करेंगे वृद्ध आश्रमों की।

तो आपसे शुरुवात करते हैं।

आपका जन्म कहाँ हुआ? क्या आप दिल्ली की ही रहने वाली हैं? "

यह बड़ी दर्दभरी कहानी है। हम लाहौर के रहने वाले हैं। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के विभाजन ने हमारा सब कुछ छीन लिया। पूरे परिवार को जमीन जायदाद और बसे बसाए बिजनेस को छोडकर उस समय भागना पड़ा जब मेरी माँ प्रेग्नेंट थीं और लास्ट स्टेज में थीं। किसी तरह दिल्ली तक पहुँच पायीं और मैं सडक पर ही पैदा हो गयी। तब से दिल्ली में हूँ। "

"आप लेखक और कवि होने के साथ-साथ पेशे से वकील भी हैं। दिल्ली हाई कोर्ट की जज भी रही हैं। आपने विशेष रूप से स्त्रियों को लेकर अपनी लड़ाई लड़ी है। इसके पीछे कोई राज है या यूँ ही बस?"

"हम्म्म्म," क्षणिक सन्नाटे के बाद वह बोलीं,

"राज वाज तो कुछ नहीं है। हाँ! मैं भुक्त भोगी हूँ। स्त्री होने की पीड़ा से बहुत अच्छी तरह परिचित हूँ।"

"भुक्त भोगी? ज़रा खुलकर कहिये ना।"

" पिता की बीमारी के कारण मेरा विवाह जल्दी कर दिया गया। ससुराल वाले एक तरफ पढी-लिखी लडकी चाहते थे तो दूसरी तरफ घर के अंदर दबी ढकी रहने वाली चाबी की गुडिया। मैंने जब इसका विरोध किया तो बात तलाक तक पंहुच गयी। और मैं विवाह के पहले हफ्ते में ही ससुराल छोड़कर आ गयी।

उस समय में तलाकशुदा स्त्री की कैसी दुर्गति हो सकती है और कितना संघर्ष करना पड़ सकता है। समाज से लड़ना। परिवार से लड़ना और फिर मैं तो वकील भी थी तो वकालत के साथ-साथ स्वयं को भी संभालना तुम समझ सकती हो कितना तकलीफ देह रहा होगा।

बस यहीं से अपने संघर्ष के साथ स्त्री के संघर्ष को समझने की कला ने जन्म लिया। "

" जी...

पत्रकार होने से पहले मैं भी एक स्त्री हूँ

और इस पीड़ा को अच्छी तरह समझती हूँ।

क्या आपने दूसरा विवाह किया?

अगर नहीं... तो क्या कभी दूसरा विवाह करने का ख्याल मन में आया? "

" नहीं...

उस समय समाज में स्त्री के लिए दूसरे विवाह की बात सोचना भी पाप था और फिर मन भी नहीं था। एक विवाह करके ही इतना भुगत चुकी थी कि कभी पुरुष का ख्याल तक मन में नहीं आया। "

"संतान और परिवार के बिना अकेलेपन और उदासी का सामना कैसे किया।"

" वकालत तो मैं कर ही रही थी ऊपर से स्त्रियों की समस्याओं में अपने को इतना उलझा दिया कि रात-दिन का अंतर भूल गयी।

मुझे पढने और लिखने का भी शौक है। समय मिलते ही मन पसंद पुस्तकों में डूब जाती, डायरी लिखना और कहानी तथा कवितायें यहाँ तक की सात उपन्यास भी लिखे और ये आठवाँ अब तैयार है जो यहाँ इन सबकी समस्याओं का सफरनामा बन गया है।

'आँखिन देखी पीर बावरी'

मैंने अपनी लड़ाई के साथ-साथ उन स्त्रियों की लड़ाई भी लड़ी जिनके पास न तो पैसा था और न ही कोई सहारा। जो पढी-लिखी भी नहीं थी। जिनकी रीढ़ की हड्डी सामाज और परिवार ने तोड़ दी थी या वह जिन्हें बाँझ कहकर या बदचलन कहकर घर से निकाल दिया गया था या पति ने दूसरा विवाह कर लिया था। "

"आपने ऐसी स्त्रियों के लिए क्या और कैसे किया?"

सबसे पहले तो मैं मानसिक धारातल पर बैक बोन बनकर उनके साथ खड़ी हुई। वकील होने के नाते उन्हें न केवल इन्साफ दिलाया बल्कि उन्हें आत्म-सम्मान से जीने की राह भी दिखाई। उनकी टूटी हुई कमर को सीधा किया और तनकर चलने का साहस भी उनमें भरा।

"जी"

" स्त्री होने के नाते तुम भी जानतीं होगी कि किस्म-किस्म के दुःख हैं स्त्री के साथ। मैंने उन्हें बड़े ध्यान से देखा और समझा। एक तरफ मैंने उनकी समस्याओं को लिखकर समाज तक पहुँचाया तो दूसरी तरफ उनकी हर समस्या को अपनी समस्या समझकर सुलझाने का प्रयास भी किया।

तुम जानती हो ना हमारे यहाँ जन्म से ही लडकी पराया धन समझकर पाली पोसी जाती है। जहाँ जन्म लेती है वहीं की सम्पत्ति से बेदखल की जाती है। ससुराल से अर्थी निकलने की बात विवाह के समय विदा करते हुए पोटली में बाँधकर सौगात में दी जाती है।

और विवाह के पश्चात यदि ससुराल भी पराई हो जाए तो वह कहाँ जाए? जब अपना घर जहाँ उसने जन्म लिया वही अपना ना हो सका तो पराया घर अपना कैसे होगा? मैं यह सब जानती थी इसीलिये स्वयं आगे बढकर पीड़ित स्त्रियों की सहायता करती रही।

उन्हें आर्थिक रूप से सबल बनाने के प्रयास करती रही। "

" मेरे कानों में एक गीत बजने लगा

'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो'

आप समर्थ हैं। रूपये-पैसे की कोई कमी नहीं है। आपके पास नौकर-चाकर की भी कमी नहीं। फिर यहाँ वृद्ध आश्रम में क्यों और कैसे? "

"अरे भई! मैं भी तो वृद्धा हूँ क्या मुझे यहाँ रहने का अधिकार नहीं है?"

" हाहा हाहा,

क्यूँ नहीं। "

मैंने हँसकर कहा।

"अभी से वृद्धा आप तो एकदम जवान हैं लेकिन क्या कुछ और भी है जो आपके यहाँ रहने की वजह है।"

" हाँ...

हुआ यूँ कि मैं वृद्ध आश्रम में रहने वाली स्त्रियों पर एक उपन्यास लिखना चाहती थी इसलिए जब मैं इनसे मिली तो मैंने देखा ये तो सभी टूटी-फूटी अपने अतीत और आज पर रोती हुई रुद्दालियाँ है जो जमाने के सताई हुई अपनी ही मृत्यु का बेसब्री से इंतज़ार करती हुई अपने पर ही रो रही हैं।

मुझे असहैय्य पीड़ा हुई। और मैं सोच में पड़ गयी कि इनको फिर से हँसाने के लिए मैं क्या कर सकती हूँ।

साथ ही इनमें आत्मविश्वास भरकर इनको बेहतर ज़िंदगी देने के सपने भी देखने लगी लेकिन बूढ़ी हड्डियों में इतनी ताकत नहीं थी कि बार-बार यहाँ आ सकूं इसलिए इनके साथ रहने चली आयी ताकि इनकी परेशानियों से, इनकी मन: स्थिति से अच्छी तरह परिचित होकर इनकी सहायता कर सकूं।

उपन्यास तो पूरा होने वाला है लेकिन अब जाने का मन नहीं है।

अकेले रहते-रहते मुझे भी ऊब-सी होने लगी है। निडर होते हुए भी आजकल वृद्ध लोगों की दिन दहाड़े हत्या के समाचार भी उद्विग्न करते हैं। तुम तो पत्रकार हो अच्छी तरह जानती हो। मेरा वृद्ध आश्रम में होने का यह भी एक कारण है। "

"ऐसा और क्या है यहाँ जिसे आप सुधारने में लगी हुई हैं और जिसके लिए आपने अपने सारे ऐशो-आराम भी त्याग दिये? क्या आप अपने सपने सच कर पा रही हैं?"

" हाँ मेरा सपना साकार हो रहा है।

रहकर देखो इनके साथ तब समझ पाओगी कि ज़िंदगी यहाँ बिखरी पड़ी है। जब भी मैं उनसे बात करती हूँ या उनके नजदीक जाती हूँ तो हर एक स्त्री अपने आप में महा-ग्रन्थ की तरह खुल जाती है।

तुम विश्वास नहीं करोगी उनमें इतना टेलेंट भरा पड़ा है जिसका कभी उपयोग ही नहीं हुआ। वे केवल चूल्हा-चक्की संभालने, बच्चे पैदा करने और पुरुष के सम्भोग का कारण मात्र रहीं। परिवार का बोझ उठाती रहीं लेकिन परिवार उनका बोझ न उठा सका।

उनकी पीड़ा। उनका दु: ख आत्मसात करके देखो। तमाम उम्र हँसी-खुशी से परिवार के प्रति समर्पित रहने के बाद भी अंत समय में वे आज अकेली, एकाकी, निरीह जीवन जीने लिए अभिशप्त हैं।

उनमें जीने की कैसी लालसा है।

प्रेम का परिमार्जित असली स्वरूप देखना हो तो देखो इन्हें।

पढो इन्हें और हो सके तो गढ़ो इन्हें।

तुम पत्रकार हो कहो इनकी पीड़ा बारम्बार ताकि क़र्ज़ में डूबा ये समाज उनके कर्ज़ से मुक्ति पा सके और घर के दरवाज़े खोल सके और वृद्ध-आश्रमों की ज़रूरत ही समाप्त हो जाए।

चैनलों को या कहूँ मीडिया को अपनी सार्थकता का अंदाजा होना चाहिए। वे आइना हैं जिसमें समाज का असली चेहरा अवश्य दिखाई देना चाहिए। "

" हिन्दी की वरिष्ठ लेखिका और हिन्दी अकादमी की अध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा ने फेसबुक स्टेट्स में कहा है कि

'हमारे गाँव में वृद्धाश्रम का ज़िक्र नहीं होता। मैंने जितने भी गाँव अभी तक देखे हैं, वहाँ वृद्धाश्रम नज़र नहीं आये। मैं शहर में भी वृद्धाश्रम देखना नहीं चाहती क्योंकि ये मुझे बूढों के लिये मरने से पहले का नरक लगते हैं। पिता और संतान के सम्बंधों का क्रूरतम रूप ... बूढों के ईगो और औलाद की घृणा के रसायन का नतीजा!'

आप इस विषय पर क्या कहना चाहेंगी? "

" मैत्रेयी जी की बात से सहमत हूँ और उनकी पीड़ा को भी अच्छी तरह से समझती हूँ लेकिन जब तक समाज नहीं बदलता, परिवार नहीं बदलता तब तक इन वृद्ध आश्रमों की आवश्यकता बराबर बनी रहेगी।

सोचो ज़रा, अगर वृद्ध आश्रम भी ना हों तो ये बूढ़ी स्त्रियाँ या बूढ़े पुरुष कहाँ जाएँ। इस आपाधापी भरे समय में जहाँ रिश्ते बेमानी हो गए हैं और प्यार के अर्थ निरर्थक हो गए हैं। जहाँ स्वार्थ का बोलबाला है और वैयक्तिक ज़रूरतों पर जोर दिया जा रहा है वहाँ इनका होना सुकून का बायस है। "

"क्या यह केवल महिलाओं के लिए है?"

"नहीं ऐसा नहीं है। इस आश्रम के दो भाग हैं। जहाँ तुम बैठी हो यह केवल उन स्त्रियों के लिए है जो अकेली और बेसहारा बेबस बूढ़ी और लाचार हैं। इसके दूसरे भाग में वृद्ध स्त्री-पुरुष या केवल वृद्ध पुरुष हैं। मैं यहाँ पर दोनों की समस्याओं का निदान करने की कोशिश करती रहती हूँ।" "

जब आप यहाँ आयीं तब इन स्त्रियों की दशा कैसी थी? "

" आश्रम की दशा स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत खराब थी इसलिए बीमारियाँ भी अधिक फैली हुई थीं।

यहाँ स्त्रियों में बड़ी निराशा थी। वे जीने की कामना छोड़ बैठी थीं इसलिए अपनी भी साफ–सफाई का या ओढ़ने-पहनने का मन नहीं होता था।

पैसे की कमी थी। जब से मैं आयी हूँ सब कुछ बदल गया है। मैंने उनमें फिर से जीने की ललक पैदा की है।

अधिकतर स्त्रियाँ बीमार थीं क्योंकि मन से दुखी थीं। मोह में थीं। उन्हें फिर से सपने दिखाए हैं अब वे खुश हैं और जो कुछ वे अपने समय में नहीं कर पायीं आज यहाँ खुलकर कर रही हैं यानी जी रही हैं अपने लिए। "

" कैसे?

थोड़ा विस्तार से कहें। "

"उधर देखो ज़रा नसरीन, पुष्पा या अनीसा कितनी प्रसन्न नजर आ रही हैं।"

मैंने दृष्टि उठाकर उधर देखा जिधर अतीता मेम ने इशारा किया था।

वह फिर कहने लगीं

" वहाँ दूसरे नं के बेड पर नसरीन नाम की वृद्धा हैं। आँखे अंदर को धँसी हुईं, कटाक्ष करती सफेद घनी भौहें, गौरा रंग, सुतवां नाक, धूप की ओढ़नी ओढ़े हुए सफेद कंधों पर झूलते बाल, ढीले से गाउन में ढीली पड़ी देह, ढीले पड़े चेहरे पर ढलकी-सी त्वचा आज भी जैसे समय की खूबसूरत कहानी बांचती-सी लग रही हैं।

उनके हाथ में गिटार है और बेड पर बैठकर किसी राग को धीमे-धीमे गुनगुना रही हैं। रागहीन ज़िंदगी में रागिनी के दर्शन करने हों तो नसरीन से अवश्य मिलकर जाना। उनके दो बेटे हैं विदेश में। कोई मिलने नहीं आता। हाँ! पैसा आ जाता है। "

"ओह"

" तीसरे बेड पर वह अनीसा हैं थोड़ी कमर झुक गयी है लेकिन आज भी संगमरमर-सी गौरी हैं।

समय ने उसके साथ बहुत बुरा किया। तीन शादियाँ और तीन तलाक का बोझ सहते-सहते वह टूट गईं। नि: संतान है। अब उसका कोई नहीं।

शुरू से ही नृत्य से प्रेम करती थी। घर और मजहब में इजाजत नहीं थी इसलिए चोरी-छिपे टी.वी. पर देख-देखकर सीख गयी और आज बड़े मन से धीर-धीरे ठुमकती रहती है। बेड पर बैठे-बैठे मुद्राएँ बनाती है और खुश रहने का प्रयास करती है।

वो यहाँ खुश है क्योंकि यहाँ का मजहब प्रेम है। "

"और चौथे बीएड पर कौन हैं?"

" चौथे बेड पर पुष्पा हैं। इनकी कहानी भी अजीब है। बी.ए, पास करते ही किसी डॉक्टर के साथ इनका विवाह हो गया जब ये केवल अट्ठारह बरस की थीं। और अधिक पढ़ना चाहती थीं लेकिन माता पिता ने स्वीकृति नहीं दी और अच्छा लड़का व अच्छा घरबार देखकर तुरंत अपने सर से बोझ झटक दिया।

तब ये केवल चौबीस वर्ष की थीं, पति को पीलिया हुआ और उनकी मृत्यु हो गयी। तब इनके पास तीन साल की बेटी और छ: माह का बेटा था। इनके पिता इन्हें वापिस घर ले गए। वहाँ उन्होंने बी. एड किया और अध्यापन की नौकरी में लग गयीं।

लेकिन परिवार ने मिलकर जोर-ज़बरदस्ती पति के छोटे भाई के साथ फिर से विवाह करवा दिया मगर उसने कभी भी इन्हें खुश नहीं रखा। पहले से इनके दो बच्चों के होते हुए वह अपने बच्चे चाहता था जिसके लिए पुष्पा मानसिक रूप से तैयार नहीं थीं और नौकरी भी नयी-नयी थी। वह नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थी इसलिए कुछ समय बाद ये उससे अलग हो गयीं।

अकेले ही दोनों बच्चों को काबिल बनाया। आज बेटा विवाहित है और विदेश में है। माँ की सेवा करने के लिए उसके पास समय और साधन दोनों की कमी है इसलिए एक दिन अपना पता ठिकाना या फोन नं बिना दिए इन्हें वृद्ध आश्रम के बाहर छोडकर वह हमेशा के लिए यहाँ से चला गया।

बेटी चाहकर भी नहीं मिल पाती क्योंकि माँ का वृद्ध-आश्रम में होना उसकी ससुराल वालों को तौहीन लगता है। अपने परिवार से छिपकर वह तीन साल में केवल एक बार मिलने आई है।

आप ही देखिये कितनी प्रसन्न दिखाई दे रही हैं। यह जो मेरी साइड टेबल पर सजा हुआ गुलदस्ता देख रही हैं इसी ने बनाया है। प्रतिदन सुबह-सुबह ये ताजे-ताजे फूल यहाँ रख जाती है। बड़ी प्यारी और मासूम-सी है। इससे बात करके देखना किसी दिन तुम भी चहक उठोगी। "

मैं आश्चर्य चकित थी कि अपने-अपने परिवार से दूर यहाँ इतनी प्रसन्न कैसे रह पा रही हैं? मैं देख रही थी और अतीता की बात भी बड़े ध्यान से सुन रही थी।

"और कौन-कौन हैं यहाँ?"

" दूसरे कमरों में और भी हैं जिनके बीच में धर्म जाति या ऊँच नीच की दीवार नहीं। सभी एक परिवार की तरह मिलकर रहती हैं और मिलकर कार्य करती हैं।

यहाँ सत्ता का गंदा खेल नहीं जो लोगों को धर्म और जाति के नाम पर बांटता है बल्कि प्रेम का साम्राज्य है।

हर वर्ग हर तबके की स्त्रियाँ हैं यहाँ। मुन्नी, खालिदा बिब्बो सुनीता धन्नो ममता कविता रेशमा किस-किस के नाम गिनवाऊँ।

अपनों से पीड़ित अपनों के मोह में लिप्त दिन रात आंसू बहाती थीं और अपनों का कभी ना ख़त्म होने वाला इंतजार करती थीं लेकिन मेरे आने से आज सब बदल गया है।

इंतजार अभी भी है लेकिन आँखों में मिलन के सपने भरे हैं जो उन्हें जीने के लिए उकसाते हैं। अब वे मृत्यु की कामना नहीं करतीं अपितु कुछ समय जीने के लिए मांगती हैं।

वे अपने से प्रेम करना सीख गयी हैं।

मुझे बहुत मानती हैं मैं यहाँ सबकी दीदी हूँ इसलिये मेरी बात कान लगाकर सुनती हैं और कोशिश करती हैं वैसा ही करने की जैसा मैं कहती हूँ। कभी भी उदास होती हैं तो मेरे पास आकर बैठ जाती हैं। मुझसे अपना मन बांटती हैं।

तुम्हें पता है हम देह की भाषा के जानकार लोग हैं इसलिए स्त्री की देह के लिए चाणक्य नीति अपनाते हैं कैसे भी साम दाम दंड भेद से हासिल करने की युक्ति गढ़ते हैं जिसके लिए शकुनी से पासे फेंकते हैं।

लेकिन तुम ये जानती हो कि मन तो अछूता रह जाता है और वही हर परेशानी का, हर दुःख और पीड़ा का सबब है।

जब वे अपने मन की बात मुझसे करती हैं तो मैं भूल जाती हूँ कि मैं भी अकेली हूँ। मैं उनकी पीड़ा में बराबर की साझीदार होकर सुख पाती हूँ। "

" यहाँ दो बैड की जगह खाली क्यों है?

यह कमरा भी नया बना हुआ प्रतीत हो रहा है। "

"हाँ! सही कहती हो। इस कमरे में दो बेड और आ सकते थे लेकिन मुझसे मिलने वालों की भीड़ लगी रहती है इसलिए यहाँ यह जगह छोड़ दी गयी है। यह इस आश्रम का सबसे बड़ा कमरा है और नया बनाया गया है विशेष रूप से मेरे लिए और जिसे मैं अपने साथ रखना चाहूँ उसके लिए।"

मैंने प्रश्न-वाचक निगाह से उन्हें देखा और कहा

" ऐसा क्यूँ और कैसे?

पैसा कहाँ से आया? "

" यह एक प्राइवेट वृद्ध आश्रम है। मैंने इसे काफी सारा पैसा डोनेट किया और यहाँ रहने की इच्छा के साथ ही एक कमरा और बनाने का प्रस्ताव भी रखा। जगह तो थी ही इसलिए सब सहज रूप से हो गया।

मैं चाहती तो नया वृद्ध आश्रम बनवा सकती थी लेकिन मैंने उस उलझन में न पड़कर इनकी दशा सुधारने का संकल्प किया। और भी कई आश्रमों को आर्थिक साहयता देकर वहाँ की दशा में सुधार लाने की कोशिश कर रही हूँ। "

"अब पैसे की बात चली है तो मैं ये कहूंगी कि आप तो अच्छी-खासी अमीर स्त्री हैं तो उसका और किस तरह से उपयोग कर रही हैं।"

"जहाँ तक पैसे की बात है। मैंने पैसा बहुत कमाया। खर्च करने वाला तो कोई था नहीं। इसलिए अपना काफी पैसा मैंने इस वृद्ध आश्रम के नाम कर दिया जिससे जो ये वृद्ध स्त्रियाँ जो खुशी तब ना पा सकीं कम से कम अब पा लें और कुछ चैरीटी के दुसरे कार्यों में लगा दिया।"

"यहाँ आप कैसे जीवन यापन करेंगी? यहाँ नौकर-चाकरों की कमी आपको महसूस नहीं होती?"

" मैं झूठ नहीं बोलूंगी होती है कभी-कभी लेकिन सभी मेरा बहुत ध्यान रखते हैं। अनीसा मुझे कुछ भी करने नहीं देती। कहती है बस तुम तो लिखो और सबकी समस्याएँ सुलझाओ इसलिए मुझे अपनी चिंता नहीं।

यह आश्रम मेरा अपना घर है और ये सब मेरा अपना परिवार। बची कुची ज़िंदगी इन्हीं के साथ बीत जायेगी। मैं खुश हूँ और मैं उनकी खुशियाँ अपनी आँखों से देखना चाहती हूँ इसलिए यहीं रहूंगी इन्हीं के साथ इनकी तरह। "

मैं सोच रही थी कि इन वृद्ध आश्रमों के दरवाज़े भी अगर इनके लिए न खुले होते और अतीता जैसी कोई हस्ती यहाँ सहारा बनकर ना आयी होती तो ये भी बनारस के घाटों पर उन विधवाओं की तरह कहीं भटकती हुई होतीं जो हर पल केवल मृत्यु की कामना करती हैं।

जहाँ रंग बेरंगी हो जाते हैं। जहाँ अपने पराये हो जाते हैं और दो जून की रोटी के लिए हाथ में कटोरा आ जाता है और किसी समय घर की इज्जत कहे जाने वाले वृद्ध दर-दर की ठोकरें खानें पर विवश हो जाते हैं।

इस इंटरव्यू के दौरान मैं महसूस करती रही कि अतीता वृद्ध आश्रम के लिए मसीहा बनकर आयी हैं।

काश! ऐसे ही मसीहा और भी हों।