मस्ती और नशा / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती

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दूसरा उपाय मन की मस्ती है, पागलपन है, नशा है। चौबीसों घंटे बेहोश बनी रहती है। जिसे प्रेम का प्याला या शौक की शराब कहा है उसी का नशा दिन-रात बना रहता है। बाहरी संसार का खयाल कभी आता ही नहीं। असल में तो यह बात होती है हृदय में, दिल में। यह मस्ती मन का काम न होके दिल की ही चीज है। मन तो बड़ा ही नीच है, लंपट है। उसे तो किसी चीज में जबर्दस्ती बाँध रखना होता है। मगर दिल तो गंगा की धारा है, बहता दरिया है जिसका जल निर्मल है। उसी में यह मस्ती आती है, यह पागलपन होता है, यह नशा रहता है और वही मन को मजबूर कर देता है कि चुपचाप बैठ जाए, नटखटी या शैतानियत न करे। इसीलिए इसे मन की भी मस्ती कहा करते हैं। खतरनाक फोड़े के चीरने-फाड़ने के समय डॉक्टर लोग मनुष्य को क्लोरोफार्म के प्रभाव से बेहोश कर देते हैं; ताकि उसे चीर-फाड़ का पता ही न चले। उसका मन कहीं जाता नहीं - किसी चीज में बँधा जाता नहीं। किंतु निश्चेष्ट और निष्क्रिय हो जाता है, उसकी सारी हरकतें बंद हो जाती हैं, जैसे मुर्दा हो गया हो। यही बात मस्ती की दशा में भी मन की होती है। जब दिल अपने रंग में आता है और प्रेम के प्याले में लिपट जाता है तो गोया मन को क्लोरोफार्म दे दिया और वह मुर्दा बन जाता है। फिर तो कुछ भी कर नहीं सकता। दिल की इसी दशा को साम्यावस्था या साम्ययोग कहते हैं। मन की छूत का ऐसी दशा में न दिल पर असर होता है और न आगे वाला तूफान चालू होता है। जब डंक का ही असर न हो तो हायतोबा, चिल्लाहट और रोने-धोने या मरने का सवाल ही कहाँ?

इस दशा में भीतर की शांति ज्यों कि त्यों अखंड बनी रह जाती है। हृदय की गंभीरता (Serenity) नहीं टूटती और कोई खलबली मचने पाती नहीं। जब बाहरी चीजों का उस पर असर होता ही नहीं तो शांतिभंग हो कैसे? चट्टान से टकरा के जैसे लहरें लौट जाती हैं; छिन्न-भिन्न हो जाती हैं, ठीक यही हालत मन के द्वारा भीतर आनेवाले भौतिक पदार्थों की होती है। वे कुछ कर पाते नहीं। फलत: अपने-पराए, शत्रु-मित्र, हानि-लाभ, बुरे-भले का द्वन्द्व भीतर हो पाता नहीं। वहाँ तो सभी चीजें एक-सी ही रह जाती हैं। जब उनका असर ही नहीं हो पाता तो क्या कहा जाए कि कैसी हैं? इसीलिए उन्हें एक-सी कहते हैं। वे खुद एक-सी बन तो जाती हैं नहीं। मगर जब उनकी विभिन्नता का, उनके भले-बुरेपन का अनुभव होता ही नहीं तो, उन्हें समान, सम या तुल्य कहने में हर्ज हई क्या? यही बात गीता ने भी कही है। और जब भीतर असर हुआ ही नहीं तो बाहरी महाभारत की तो जड़ ही कट गई। वह तो भीतरी घमासान का ही प्रतिबिंब होता है न?

दूसरे अध्याय में सुख-दु:खादि परस्पर विरोधी जोड़ों - द्वन्द्वों - को सम करने की जो बात 'सुखदु:खे समेकृत्वा' (2। 38) आदि के जरिए कही गई है और 'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' (2। 48) में जो काम के बनने-बिगड़ने में एकरस - लापरवाह - बने रहने की बात कही गई है, वह यही मस्ती है। चौथे अध्याय के 'सम: सिद्धावसिद्धौ च' (22) में भी यही चीज पाई जाती है। छठे के 'लोहा, पत्थर, सोना को समान समझता है' - 'समलोष्ठाश्मकांचन:' (8) का भी यही अभिप्राय है। नवें में जो यह कहा है कि 'मैं तो सबके लिए समान हूँ, न मेरा शत्रु है न मित्र' - 'समोऽहंसर्वभूतेषु न मे द्वेषयोऽस्ति न प्रिय:' (29) वह भी इसी का चित्रण है। बारहवें में जो 'अहंता-ममता से शून्य, क्षमाशील और सुख-दु:ख में एकरस' - 'निर्ममो निरहंकार: सम-दु:खसुख: क्षमी' (13), कहा है तथा जो 'शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दु:ख में एक-सा लापरवाह रहे और किसी चीज में चिपके नहीं' - "सम: शत्रौ च मित्रो च तथा मानापमानयो:। शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित:" (18) कहा है, वह इसी चीज का विवरण है। चौदहवें के 24-25 श्लोकों में 'समदु:खसुख: स्वस्थ:' आदि जो कुछ कहा है वह भी यही चीज है। यहाँ जो 'स्वस्थ:' कहा है उसका अर्थ है 'अपने आपमें स्थिर रह जाना।' यह उसी मस्ती या पागलपन की दशा की ही तरफ इशारा है। अठारहवें अध्याय के 54वें श्लोक में भी इसी बात का एक स्वरूप खड़ा कर दिया है 'ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा' आदि शब्दों के द्वारा। यों तो जगह-जगह यही बात कही गई है; हालाँकि सर्वत्र सम शब्द नहीं पाया जाता।