महफ़िल / भैरवप्रसाद गुप्त

Gadya Kosh से
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कुशल-समाचार की बातें बहुत लम्बी नहीं हुआ करतीं। और इस मुहल्ले में रहनेवालों के पास अपने सुख-दुख के सिवा था ही क्या! दो क्षण को दो मिलते, तो राम-राम और कुशल-समाचार और फिर कृत्रिम मुस्कराहटें ऐसी, जैसे गाड़ी पास हो जाने का सिगनल। तुम अपनी राह, हम अपनी। दुनिया बहुत लम्बी-चौड़ी है, होगी। दुनिया में हज़ारों तरह की बातें हैं, होंगी। हमें उनसे क्या? आप भला, जग भला। हम किसी के यहाँ मिलने जायँ और चाय पिएँ, तो क्या यह शिष्टाचार नहीं कि वह भी हमारे यहाँ आये और हम भी उसे चाय पिलाएँ? नहीं, साहब, यह रोग हम पालते ही नहीं। न ऊधो का लेना, न माधो को देना। राम-राम, कुशल-समाचार। राह-रस्म बनी रहे, बहुत है।

लेकिन एक दिन इन कौओं के बीच मोर की तरह जाने कहाँ से एक ‘राजा साहब’ आ टपके और शेरोंवाली कोठी, (इसलिए कि उसके फाटक के दोनों खम्भों पर एक-एक पत्थर का शेर बैठाया गया था) जो बरसों से किसी झगड़े में पड़ आवारा गायों का थान बन चुकी थी, आबाद हो गयी। उस दिन सुबह जब लोग बाज़ार से सर-सामान लेने उधर से गुज़रे, तो कोठी के फाटक पर उन्होंने उस नये आदमी को आँखें फाडक़र देखा। बड़ी-बड़ी, रोबीली आँखें, फूले-फूले सुर्ख गाल, घनी, बिच्छू के डंक की तरह काली-काली मूँछें, प्रौढ़ आयु, लम्बा-तडंगा। पिण्डलियों तक सफ़ेद चम-चम रेशमी घुटन्ना और ठेहुनों तक वैसी ही गंजी। वह फाटक पर टहल रहा था। जिससे भी आँखें मिलीं, होंठों से आप ही नमस्कार निकल गया।

उस दिन घरों में और दफ़्तरों में उसी की चर्चा हो रही, अरे भाई, वह शेरोंवाली कोठी आबाद हो गयी! ...कैसा रोबीला आदमी है! ...मुझे तो लगा कि दो शेरों के बीच एक तीसरा शेर आ खड़ा हुआ हो! ...कोई बड़ा आदमी मालूम होता है! ...

और दो-तीन दिन में ही लोगों को उसके बारे में बहुत सारी बातें मालूम हो गयीं। ...जौनपुर जि़ले का कोई बहुत बड़ा ज़मींदार है। ...राजा साहब कहलाता है। ...ज़मींदारी टूट जाने के कारण यहाँ कोई बड़ा कार-बार करने के इरादे से आया है। ...उसके साथ दो लड़कियाँ और पाँच नौकर-नौकरानियाँ हैं। ...एक लडक़ी कालेज में पढ़ती है, दूसरी युनिवर्सिटी में! ...क्या शानदार कार है उसके पास! ...

और फिर लोगों ने पाया कि जितना ही वह बड़ा आदमी है, उतना ही मिलनसार भी! ...किसी ने बताया, साहब, आदमी हो तो ऐसा! सुबह मैं सब्ज़ी लेने जा रहा था! शेरोंवाली कोठी से गुज़रा, तो फाटक पर वह टहल रहा था। आँखें मिलीं, तो नमस्कार किया। फिर क्या था, साहब, बढक़र उसने मेरी सायकिल की हैण्डिल पकड़ ली। बोला, वाह साहब! यह दूर-दूर से ही नमस्कार आप लोग कब तक करते रहेंगे? कभी तशरीफ़ लाइए। हमें भी अपनों में ही एक समझिए। बोलिए, आज शाम को तशरीफ़ लाएँगे न? यहीं कहीं पास ही रहते होंगे? किस दफ़्तर में काम करते हैं? ...भाई, मैं तो दंग रह गया। मैं समझता था, बहुत बड़ा आदमी है, हम-सरीखों को क्यों मुँह लगाने लगा? लेकिन नहीं, साहब, एक ही आदमी मालूम पड़ता है!

और सुननेवालों ने कहा, बिलकुल यही, बिलकुल यही!

और देखते-देखते राजा साहब के यहाँ शाम की महफ़िल जमने लगी। ठण्डाई के साथ पान-सिगरेट। और राजा साहब के लखनौए ज़र्दे का तो लोगों को कुछ ऐसा चस्का लगा, कि घरवालियों की डाँट-फटकार भी बेमानी हो गयी। दफ़्तर से छूट, भागम-भाग घर आ सायकिल पटकी और राजा साहब के यहाँ हाजि़र! पीछे से औरत चिल्लाती रहे, कौन परवाह करता है!

राजा साहब की ज़बान पर हर आदमी का नाम ऐसे आ गया, जैसे वे सब-के-सब उनके ज़माने के परिचित हों। और लोगों ने पाया कि राजा साहब में इतनी खूबियाँ हैं, जितने आसमान में तारे।

एक दिन राजा साहब ने कहा, ‘‘भई, आदत भी क्या शै है!’’

लोग चौकन्ने होकर सुनने लगे।

राजा साहब ने महफ़िल पर एक नज़र डाली और आगे बढ़े, ‘‘अब हमारी आदत ये कि जब तक दस को खिला न लें, मुँह में कौर न पड़े; जब तक दस की महफ़िल में दस-पाँच बातें कह-सुन न लें, रात को नींद न आये। ...और अब तक़दीर का करना यह हुआ कि हमारी महफ़िल उजड़ गयी, वतन छूट गया और इस बेगानी जगह पर आ पड़े। ख़ाना ख़राब हो गया, नींद हराम हो गयी। ...लेकिन वो कहा है न, भगवान चींटी को चून देता है, तो हाथी को दून। साहबान! हम आप लोगों के शुक्रगुज़ार हैं कि आप लोगों ने हमारी महफ़िल फिर गुलज़ार कर दी!’’

‘‘अजी साहब, हम लोग क्या हैं!’’ लोग बोल उठे, ‘‘यह तो आपकी मेहरबानी है कि हमारी शामें रौशन हो गयीं!’’

और राजा साहब ने आवाज़ लगायी, ‘‘अबे ननकुआ! सिगरेट का दूसरा टिन ला!’’

जाड़े के दिन आये। शामें उदास होने लगीं। और राजा साहब ने देखा कि उनकी महफ़िल की रौनक़ भी कम होती जा रही है। उनकी समझ में न आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है। आदर-सत्कार में तो कोई कमी हुई नहीं। ठण्डाई की जगह अब चाय का प्रबन्ध रहता है। सिगरेट-पान की कमी नहीं। फिर भी महफ़िल नहीं जमती। इक्के-दुक्के लोग आ भी जाते हैं, तो उन्हें जल्दी ही भाग जाने की पड़ी रहती है।

शनिवार की शाम थी। आज महफ़िल कुछ जमी थी। राजा साहब ने पूछा, ‘‘भई, ये क्या बात है? ऐसी हमसे क्या ख़ ता हुई कि आप लोग...’’

‘‘नहीं-नहीं, साहब,’’ लोग बोल उठे, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं!’’

एक बोला, ‘‘आजकल दफ़्तर से लौटते शाम झुक जाती है।’’

दूसरा बोला, ‘‘मेरे पास, साहब, क्या बताऊँ, ऐसे कपड़े नहीं कि ...’’

तीसरा बोला, ‘‘मुझे तो, साहब, दफ़्तर से लौटकर बच्चों को सँभालना पड़ता है। महरी ने काम छोड़ दिया है। उन्हें ही अब घर-बासन भी करना पड़ता है। ...क्या बताएँ, कैसे नमकहराम हो गये हैं ये लोग! गर्मी-बरसात में हमें महरी की बिलकुल ज़रूरत नहीं रहती, तो ये लोग हाथ जोड़ते हैं, ‘बाबू, आप छुड़ा देंगे, तो हम का खाएँगे? यही तो हमारा सहारा है।’ और जाड़ा आया नहीं कि इनका दिमाग़ चढ़ जाता है। ये कम्बख़्त आँखें नहीं मिलाते, मोल सुनाते हैं! नमकहराम! ...’’

और जाने क्या हुआ कि राजा साहब अचानक अट्टहास कर उठे। लोग अचकचाकर उनकी ओर देखने लगे। लेकिन उनका अट्टहास रुकने का ही नाम न ले रहा था। और फिर लोगों को भी जाने क्या हुआ कि वे भी हँसने लगे।

साँस फूल गयी और खाँसी ने जब ज़ोर मारा, तो राजा साहब रुके। फिर देर तक खाँसते रहे, रुमाल से मुँह, नाक, आँखें पोछीं। फिर बोले, ‘‘साहब, माफ़ कीजिएगा। आपके साथ हमारी पूरी हमदर्दी है। हँसी आने की वजह दूसरी थी।’’

‘‘क्या वजह थी, साहब?’’ कई लोग बोल पड़े।

‘‘इनकी बात सुनकर हमें अपनी एक नौकरानी की याद आ गयी। आप लोग चाहें, तो सुनाएँ, बड़ी दिलचस्प बात है।’’

‘‘ज़रूर, ज़रूर सुनाइए, साहब!’’—सब चिल्ला पड़े।

और राजा साहब ने कहानी श्ुारू की, ‘‘हम दो भाई हैं। मैं बड़ा हूँ। मैं बीस भी पूरे नहीं कर पाया था कि अचानक पिताजी का देहान्त हो गया। उस समय मैं कालेज में पढ़ रहा था। हमारे कारिन्दा एक मुंशीजी थे, बड़े ही विश्वासपात्र और स्वामीभक्त। उनकी राय थी कि मैं पढऩा जारी रखूँ, वह सब सँभाल लेंगे। लेकिन माताजी इसके विरुद्घ थीं। उनका कहना था कि पढक़र क्या होगा, मैं ज़मींदारी सँभालूँ। ज़माना बड़ा खराब लगा है। किसका मन कब डोल जायगा, कौन जानता है? सो पढ़ाई छोडक़र मैं ज़मींदारी सँभालने लगा। फिर बड़ी धूम-धाम से मेरी शादी हुई। छोटा भाई मेरा बड़ा प्यारा था। उसे मैंने एम.ए. तक पढ़ाया। फिर विदेश भेजनेवाला था। लेकिन तभी उसके साथ एक काण्ड हो गया। इम्तिहान देकर वह घर आया था। रिश्ते में एक शादी पड़ी थी। वह नवेद पर गया, तो वहाँ बारात में नाचने आने वाली बनारस की एक मशहूर तवायफ़ पर दिल दे बैठा। बहुत दिनों के बाद जब हमें मालूम हुआ, तो हमने सर पीट लिया। माताजी, मुंशीजी और हमने उसे बहुत समझाया कि वह खानदान की नाक न कटाये, अपनी जि़न्दगी बरबाद न करे। लेकिन तब तक पानी सर से गुज़र चुका था। उसने किसी की बात पर कान न दिया। पन्द्रह दिन गाँव तो पन्द्रह दिन बनारस में उसका बीतता। तब माताजी ने उसकी शादी कर देने की ठान ली। पहले तो वह साफ़ इंकार कर गया। फिर इस शर्त पर मान गया कि वह तवायफ़ को रखेल बनाकर रख सकता है। माताजी से राय हुई, तो उन्होंने कहा, ख़ानदानऔर दान-दहेज का ख़ याल छोड़, बस इसकी कोशिश कर कि लडक़ी सुन्दर मिल जाय कि यह तवायफ़ का जादू भूल जाय। मैंने ख़ुद इसमें गहरी दिलचस्पी ली। भाई की जि़न्दगी का सवाल था। बीसियों लड़कियाँ मैंने देखीं। और आख़िर लडक़ी तो मिल गयी, लेकिन खानदान न मिला। फिर ख़ूब धूमधाम से शादी हुई। और जैसा हमने सोचा था, सच ही भाई तवायफ़ को भूल गया! ...इस उम्र की मुहब्बत!’’ और राजा साहब फिर अट्टहास कर उठे।

लेकिन लोगों ने अबकी हँसने में उनका साथ न दिया। एक बोला, ‘‘लेकिन आप तो कहानी अपनी किसी नौकरानी की कहनेवाले थे? यह...’’

‘‘आता हूँ, भई, आता हूँ!’’ राजा साहब ने आँखें पोंछकर कहा, ‘‘पहले कहानी की बुनियाद तो समझ लें। ...हाँ, तो हम कामयाब तो हो गये, लेकिन इससे एक बात पैदा हो गयी, और इसी बात ने हमारे ख़ानदान की जड़ खोदकर रख दी। उसकी बीवी साधारण ख़ानदान से आयी थी। वह मेरी बीवी से जलने लगी। या यों भी कह सकते हैं कि मेरी बीवी अपनी देवरानी को वह मान न दे सकी, जिसकी वह हक़दार थी, क्योंकि उसका खानदान उससे कहीं ऊँचा था। अब क्या था, घर में वह टण्टा शुरू हुआ कि आख़िर हममें अलग्योझा होकर रहा। माताजी बहुत दुखी हुईं। मुझे भी कम दुख न था। लेकिन दूसरा कोई चारा न था। अब सवाल उठा कि माताजी किसके साथ रहेंगी। वह हम दोनों को बराबर मानती थीं, फिर भी मैंने सोचा था कि वह हमारे साथ ही रहेंगी। कई दिनों तक वह चिन्ता में पड़ी रहीं। आख़िर उन्होंने एक दिन फ़ैसला सुना दिया कि वह दोनों के साथ रहेंगी, यानी किसी के साथ नहीं रहेंगी। उनका हिस्सा भी अलग कर दिया जाय। अलग्योझे का एक दिन मुकर्रर किया गया। नाना और हम दोनों के ससुर बुलाये गये। उन्होंने जो फ़ैसला कर दिया, हमने मान लिया। तीन क़िता मकान थे। एक-एक हम लोगों को मिल गया। दीवान एक ही था, तै हुआ कि वह सबका साझा रहे। जायदाद बराबर-बराबर बाँट दी गयी। ज़ेवरात जो जिसके जिस्म पर थे, बहाल रखे गये। नक़दी का सवाल उठा, तो माताजी ने कहा कि जब तक वह जीवित हैं, वह उन्हीं के पास रहेगी। मरते वक़्त वह उसका बाँट-बखरा लगा देंगी। यह हमें मान्य न था। लेकिन हमारे बुज़ुर्गों ने जब समझाया कि वह विधवा हैं, उनकी बात न मानी जायगी, तो जग हँसेगा, आख़िर वह क्या करेंगी रुपयों का, सब तुम्हीं लोगों का तो है, माँ से रार बेसहना अच्छा नहीं, तो हम मान गये।’’

‘‘चार साल तक सब ठीक-ठीक चलता रहा। मुंशीजी माताजी की जायदाद सँभालते थे। उनका कोई खर्चा न था। बस, रहतीं वह अपने मकान में थीं, खाना एक वक़्त हमारे यहाँ खातीं तो दूसरे वक़्त भाई के यहाँ। कपड़े भी हमीं देते। उनके पास सिर्फ़ एक नौकरानी थी। वही उनका सारा काम सँभालती। माताजी ज़्यादातर अपना समय पूजा-पाठ में बितातीं। कोई-न-कोई धार्मिक अनुष्ठान वह बराबर नाधे रहतीं। हम दोनों भाई अपनी-अपनी तरह उन्हें ख़ुश रखने की बराबर कोशिश करते।’’

‘‘जेठ का महीना था। एक दिन आधी रात के समय माताजी की नौकरानी ने हम-सब को जगाया। वह बहुत घबरायी हुई थी। उसने बताया कि माताजी ने उठकर पानी माँगा। वह पानी लेकर गयी, तो देखा, वह फिर लेट गयी थीं। उसने आवाज़ दी तब कोई जवाब नहीं। बस हँफर-हँफर हाँफ रही थीं। उसका माथा ठनका। उसने मुँह टटोलकर देखा, तो दाँत लगे हुए थे। और वह भागी-भागी हमारे पास आयी थी। हमने जाकर देखा, तो माताजी बेहोश पड़ी थीं। कई बार पानी छिडक़ने पर उन्होंने आँखें खोलीं, लेकिन फिर तुरन्त ही डूब गयीं। ऐसे ही रात बीत गयी। सुबह क़स्बे के अस्पताल का डाक्टर बुलाया गया। दवा उनके मुँह में जा ही नहीं रही थी। सुई की दवा के लिए आदमी शहर दौड़ाया गया। पुरोहितजी ने ग्रह बताया। गोदान कराकर वह दुर्गापाठ करने लगे। ब्राह्मणों और भिखारियों को अन्न-वस्त्र दान किया जाने लगा।’’

‘‘ठीक चौबीस घण्टे बाद वह होश में आयीं। डाक्टर ने बताया कि इनका दिल कमज़ोर है। हमें बराबर सावधान रहना चाहिए। मैं अलग से डाक्टर से मिला, तो उसने बताया, यह बड़ी मूज़ी बीमारी है। जाने कब दौरा आये और यह चल बसें।’’

‘‘भाई भी शायद उनसे अलग से मिला था। ...दानिशमन्दों के लिए इशारा काफ़ी है। आप लोग समझ गये होंगे कि अब हम दोनों भाई अपना-अपना दाँव खेलने लगे। माताजी के पास बड़ी गहरी रक़म थी। सारा पैतृक कोष उनके क़ब्ज़े में था। और अब हमारे दिलों में पाप बैठ गया था।’’

‘‘मैंने दूसरे ही दिन अपनी एक बूढ़ी नौकरानी को माताजी के पास तैनात कर दिया। यह सबसे ज़्यादा चालाक और विश्वासपात्र नौकरानी थी। उसे मैंने अच्छी तरह समझा दिया कि उसके दो काम हैं, एक तो यह कि वह पता लगाये कि रक़म कहाँ है, और दूसरा यह कि माताजी को कुछ ऐसा-वैसा हो तो सबसे पहले मुझे ख़ बर मिले। ...तीसरे दिन यह देखा गया कि भाई की भी एक नौकरानी माताजी के पास रहने लगी।’’

‘‘माताजी अब बहुत कम चलती-फिरतीं। रात-दिन अपने पलंग पर पड़ी रहतीं। यह पलंग उन्हें दहेज में मिला था। बहुत बड़ा और बड़ा शानदार। उस पर चार गावतकिये और आठ छोटे-छोटे रेशमी रुई के तकिये रहते थे।’’

‘‘तीन महीने के बाद उन्हें फिर दौरा आया। अबकी छत्तीस घण्टे वह बेहोश रहीं।’’

‘‘और दो महीने बाद जो फिर दौरा आया, तो माताजी हमेशा के लिए हमें छोड़ गयीं। सुबह भाई के घर रोने-धोने की आवाज़ सुनकर हमारी आँखें खुलीं। बात जब मालूम हुई, तो मुझे पहला धक्का यह लगा कि हमारी नौकरानी को क्या हुआ, उसने हमें ख़ बर क्यों न दी? भागम-भाग पहुँचा, तो देखा, माताजी अपने शयन-कक्ष में पलंग पर निष्प्राण पड़ी थीं और हमारी नौकरानी उनके पास ही फ़र्श पर बैठी सिसक रही थी। मारे ग़ुस्से के मैं जल रहा था। चीखकर बोला, ‘भगतिनिया, तूने हमें ख़ बर क्यों नहीं दी?’’

‘‘वह बिलखकर रो पड़ी और हाय-हाय करती बोली, ‘हम का करतीं, सरकार? छोटके बाबू हमार हाथ-गोड़ बाँध के, मुँह में लुग्गा ठूँस देले रहलन। सब माल-टाल लोग ढो चूकल हऽ तब जाके अभिहे थोड़े देर पहले तऽ हमके छोड़ल हऽ लोग। ...’ और उसने चारों ओर देखकर ऐसी आँख मारी कि मैं तो दंग रह गया। फिर उठकर खड़ी हुई और मेरे कान में फुसफुसाकर जो कहा, उससे मैं मान गया! फिर भी ग़ुस्सा बनाये रखना ज़रूरी समझ, बाहर निकलकर मैं चिल्लाने लगा, ‘बहुत अच्छा किया, इन्दर, बहुत अच्छा किया! तुझे हमने बेटे की तरह पाला, और तूने हमारा ही हक़ मार लिया! ...’

‘‘लोगों की भीड़ जमा हो गयी। माताजी के घर में उनके पलंग, बिस्तर और तकियों के सिवा कुछ भी नहीं था। मैं कहता था कि इन्दर सब उठा ले गया और इन्दर कहता था कि भैया सब उठा ले गये, उसे तो सुबह ही सब मालूम हुआ है। भगतिनिया की बात पर कोई विश्वास नहीं कर रहा था। मैं भी उसे ही डाँट रहा था, यह नमकहराम बैठी-बैठी ताकती रही और इन्दर सब माल-मता ढो ले गया और मैंने उस बूढ़ी को तीन-चार झापड़ भी रसीद कर दिये और उसी वक़्त उसे ढकेलकर घर से बाहर भी कर दिया! वह चकित होकर मेरी ओर ताक रही थी। मैंने सोचा था कि बाद में उसे समझा देंगे कि मसलहत इसी में थी।’’

‘‘सारे गाँव में थू-थू हो रहा था कि माँ की लाश घर में पड़ी है और बेटे माल-मता के लिए कुत्तों की तरह झगड़ रहे हैं। आख़िर मैंने ही सब्र किया और सब इन्तज़ाम करने में लग गया।’’

‘‘अर्थी बाहर निकली, तो तकिये मैंने अपने घर भिजवा दिये।’’

‘‘श्मशान से लौटकर आये, तो सुना कि भगतिनिया ने जाने क्या खा लिया है। उसकी हालत बहुत ख़ राब है। मैं अशौच में था, फिर भी लपककर उसके पास गया कि कहीं मेरी बात उसे लग न गयी हो। वह मरणासन्न पड़ी थी। लोगों ने कहा कि राजा साहब आये हैं, तो उसने आँखें खोलीं और आँसू भरकर बस, इतना कहा, ‘सरकार, हम नमकहराम नहीं!’ और आँखें मूँद लीं। आँसू की लकीरें उसके पिचके, नीले पड़े गालों पर खिंच गयीं। उतने लोगों के सामने मैं उसे कैसे समझाता कि, नहीं, वह नमकहराम नहीं, उस वक़्त की यही मसलहत थी कि...और वह मर गयी।’’

‘‘मर गई?’’ महफ़िल चीख़ उठी।

‘‘हाँ,’’ धीरे से राजा साहब बोले, ‘‘उसे मेरी बात ने मार डाला। वह नमकहराम नहीं, नमकहलाल थी। उसकी बात सच निकली थी। माताजी के तकियों में ही उनके सारे ज़ेवरात, मोहरें और नोटों के गड्डे थे।’’

‘‘ओह!’’ लोगों के मुँह से निकल गया, और जाने कैसी नज़रों से राजा साहब की ओर देखते लोग उठ खड़े हुए।

राजा साहब कहते रहे, ‘‘बैठिए, साहब, बैठिए!’’ लेकिन कोई रुका नहीं। महफ़िल उखड़ गयी। फाटक पर से लोगों के खँखारने और थूकने की आवाज़ें आयीं।

दूसरे दिन दफ़्तरों में राजा साहब की ही बातें होती रहीं—कैसा आदमी है! राम-राम! ...

और फिर शामें बेरौनक़ हो गयीं। तश्तरी में पड़े फल सूखते रहते हैं। कोई आता नहीं।

राजा साहब अब भी सुबह फाटक पर दो पत्थर के शेरों के बीच टहला करते हैं। लोग आते हैं, जाते हैं, लेकिन उनसे आँखें नहीं मिलाते, उनकी आँखें इस या उस पत्थर के शेर पर अटकी रहती हैं।