महरी / प्रेमचंद

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

-1-

भगवान् भला करे लल्लूजी की माँ का, जिनके बल पर हर प्रकार का आराम है। अन्यथा डाकखाने की नौकरी जहाँ सात-आठ घंटे की हाजिरी और कभी दफ्तर को देर न हो, यह चमत्कार नहीं तो और क्या है? घरबार का सारा काम सदा स्वयं ही समय पर हो जाता, हमारी गाड़ी कभी ‘लेट’ होती ही नहीं। घर की सभी चूलें घड़ी के पुर्जों की भाँति सदा अपनी-अपनी जगह पर ठीक रहती हैं। यह सब लल्लूजी की माँ का जादू है। यदि मुझे किसी छुट्टी के दिन दफ्तर जाना पड़ जाय तो रो पडूँ लेकिन वे बेचारी हैं कि उनको न इतवार से मतलब है, न ही बड़े दिन से। काम है कि प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है। मेरा घमण्ड वेतन के साथ-साथ बढ़ता जाता है लेकिन वे उफ तक नहीं करतीं। घर में प्रभु की कृपा से चार बच्चे हैं, उनके ही काम से एक औरत को अवकाश मिलना कठिन है, फिर पता नहीं वे अन्य कामों के लिए किस प्रकार समय निकाल लेती हैं। मेरे व्यक्तिगत सुख के सभी काम वे स्वयं ही करती हैं। जाड़े में सुबह-सुबह गर्म पानी मौजूद, हजामत का सामान अपनी जगह तैयार, पूजा के बर्तन साफ, पालिश किए हुए जूते, अर्थात् कहीं से उँगली रखने का कोई अवसर न मिलता। इस पर मजा यह कि इन बातों में कुछ खर्च नहीं होता। एक जमाना था कि मुझे बीस रुपये मासिक मिलते थे। उस समय देसी जूते और साधारण से चारखाने के कोट पर गुजर होती थी। अब परमात्मा की कृपा से सौ रुपये मासिक मिलते हैं तो पालिशदार जूता और रेशमी कोट से कम नहीं चाहिए। वे बेचारी हैं कि जिस प्रकार पहले रहती थीं, उसी प्रकार आज भी गुजर करती हैं। केवल दूसरे साल एक गहना और कार्तिकी के दिन त्रिवेणी स्नान, बस इसी में प्रसन्न हैं। इधर हम लोग हैं कि प्रत्येक वर्ष वेतन-वृद्धि होती है लेकिन धन्यवाद के स्थान पर सदा उलाहना-उपालम्भ ही मुँह पर रहता है और हर समय पोस्टल एसोसिएशन की पुकार कि वार्षिक वेतन-वृद्धि में बढ़ोतरी और दफ्तर के कार्य का समय कम रखा जाय और कोई भी अधिकारी आँख उठाकर न देख सके। मैं जो दाल-चावल खाता हूँ, वही वे भी खाती हैं। ईश्वर की देन है कि उन्हें सन्तोष रहता है और मुझे असन्तोष और अधीरता।

-2-

मैं पूरा का पूरा वेतन लल्लूजी की माँ के हाथ में ही दे देता हूँ और मुझे वह सुख-सुविधा मिलती है जो तीन सौ रुपये के अफसर को भी नसीब न हो। अतिथि भी प्रसन्न रहते हैं और सभी सम्बन्धी भी सन्तुष्ट हैं। सच पूछिए तो जितना काम वे करती हैं वह सौ रुपये से अधिक का होता है। साहब लोग अपने बच्चों के लिए पन्द्रह-बीस रुपये मासिक पर आया रखते हैं लेकिन उनको वह आराम और प्यार नसीब नहीं होता जो मेरे बच्चों को है। यदि मैं एक बावर्ची रखूँ तो कम से कम दस रुपये मासिक और भोजन देने पर भी इतना अच्छा खाना नहीं बना सकता। इस पर मजा यह कि सदा खर्च में किफायत दृष्टि में रहती है। यदि मैं पन्द्रह रुपये मासिक पर अपने लिए एक बैरा रखूँ तो भी वह इतनी देखभाल और रख-रखाव नहीं कर सकेगा। फिर बच्चों के कपड़ों की सिलाई ही दस-पन्द्रह रुपये मासिक की हो जाती है। झाड़ू-बर्तन की नौकरानी ही दस-पाँच रुपये मासिक ले जाती। अर्थात् चाहे जो हिसाब लगाइए, यदि मेरा लगभग समस्त वेतन भी नौकरों को भेंट कर दिया जाय तो भी इतना आराम नसीब नहीं हो सकता, जितना कि इस भागवान के रहने से उपलब्ध है।

-3-

इसे अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव समझिए या अखबार पढ़ने अथवा बड़े-बड़े नेताओं के भाषणों का परिणाम, प्रायः मेरे मन में आता है कि अपने जीवन-साथी से इतनी मेहनत कराना भारी अत्याचार है और वास्तव में एक औरत का इस सीमा तक काम करना अन्याय है, लेकिन वह बेचारी अपने मुँह से कुछ नहीं कहती। सम्भवतः उनके मन में कभी विचार ही नहीं आता है। मेरे मन में कभी-कभी उफान सा उठता है कि एक महरी या नौकरानी रख दूँ तो शायद उन्हें कुछ आराम मिले। वास्तव में बहुत स्वार्थीपन की बात है कि मैं तो बाबू बना हुआ हर प्रकार का आराम उठाऊँ और घर की देवीनौकरानी की भाँति दिन-भर काम ही करती रहे। लेकिन जब कभी देवीजी से इसकी चर्चा होती है तो वे सदा हँसकर टाल देती हैं -

"क्यों बेकार में खर्च बढ़ाओगे? मैं कुछ पढ़ी-लिखी तो हूँ नहीं जो दिन-भर पलंग पर लेटी रहूँ, या सुबह-शाम पार्क की सैर को जाऊँ। जिस तरह काम चलता है, चलने दो।" यदि मैं दबाव देता हूँ तो वे कहने लगती हैं - "मैं तो मना नहीं करती, महरी रख लो।"

मेरे समय से पहले तो सदा एक नौकरानी घर में रही, मुझे वही समय याद आता है। बुढ़िया नौली के बाद घर में कोई नौकरानी नहीं रही। भगवान् भला करे, उसकी कमर झुक गई थी लेकिन मरते दम तक अकेली ही सारा काम करती रही। सदा सेवा ही की, स्वयं कभी बीमारी तक में भी कोई सेवा न ली। उस पर मजा यह कि केवल एक रुपया वेतन और खाने पर, और वह उम्र भर का वेतन भी मरने पर घर में ही छोड़ मरी। माँ से अधिक सेवा करने वाली, दुःख-दर्द बाँटने वाली! अब ऐसे नौकर कहाँ मिलते हैं। क्या समय था, अत्यल्प वेतनों पर भी लोग सम्पन्न थे। इसके प्रतिकूल आजकल वह समय है कि आय और व्यय, दोनों में वृद्धि, उस पर भी हर समय असन्तोष। पहले प्रत्येक वस्तु सस्ती थी। लट्ठा और उत्तम मलमल चार आने गज, अच्छी मिठाई पाँच-छह आने सेर। अब खर्च दोगुना हो गया है मगर वह बात ढूँढ़े नहीं मिलती। भगवान् करे वह समय एक बार तो पुनः आ जाय, चाहे थोड़े ही समय के लिए हो लेकिन एक बार तो ‘टके सेर भाजी और टके सेर खा जा’ बिक जाय।

-4-

अब मैंने किसी आवश्यकता के कारण नहीं और न किसी के कहने पर बल्कि अपनी इच्छा से, फैशन की दृष्टि से एक महरी रखने का संकल्प कर लिया, लेकिन यह संकल्प रास नहीं आया। हर बार नयी मुसीबतों से दो-चार होना पड़ा और आराम तो एक ओर, चिन्ता ही चिन्ता रही। प्रतिदिन बर्तनों और कपड़ों का गुम होना आरम्भ हुआ। खर्चे अत्यधिक बढ़ गए। यदि पहले दस-पन्द्रह रुपये के घी में काम चल जाता था तो अब पच्चीस का लगने लगा। नौकरानी है कि हर समय अपने पिछले स्वामी की बड़ाई का गीत गाती रहती है, "वहाँ यह होता था वह होता था, इस प्रकार घी पतनालों में बहाया जाता था, दूध से बर्तन धुलते थे, यह मिलता था वह मिलता था।"

अर्थात् आराम कम और खर्च अधिक हो गया, हर समय की बकझक ऊपर से।

-5-

पहली नौकरानी जो मिली उसकी अवस्था बीस-बाईस वर्ष की रही होगी। आप उसे रूपसी नहीं कह सकते हैं लेकिन शिष्ट अवश्य थी और उसकी आँखों में एक प्रकार की चमक भी थी। यद्यपि कोई विशेष बात नहीं हुई लेकिन देवीजी को शिकायत ही रही। वह कहतीं कि मैं अब दफ्तर देर से जाता और शीघ्र लौट आता हूँ। लेकिन मैं पूरे समय तक दफ्तर में ही रहता। डाकखाने की नौकरी में देरी और जल्दी कैसी। दूसरी शिकायत यह हुई कि मैं जमना (नौकरानी का नाम) की ओर बहुत देखता हूँ, हर समय उसी से बातें करता रहता हूँ, लेकिन मुझे कोई असामान्य बात नहीं लगी। लेकिन जब शिकायत बढ़ते-बढ़ते कष्ट और शोक तक जा पहुँची तो मैंने अन्ततः उसे नौकरी से निकाल दिया। इसके पश्चात् मैंने ढूँढ़कर एक बुढ़िया रखी ताकि घर में किसी प्रकार का सन्देह उत्पन्न न हो और आवश्यकता भी पूरी हो जाय, लेकिन यह प्रयोग भी असफल रहा। बुढ़िया से न तो पानी से भरा कोई बर्तन ही उठता है, न पलंग ही उठा सकती है। वह तो हड्डियों और खाल का एक थैला-भर थी और सच पूछिए तो उसे स्वयं ही एक सेवक की आवश्यकता थी। बहरहाल लल्लूजी की माँ को उससे कोई आराम नहीं मिला। उन्हें पहले जितना काम करना पड़ता था, अब भी उतना ही करना पड़ता था। लेकिन बीच में मैं बेवकूफ बना। संक्षेप में यह कि अन्ततः उसे भी नौकरी से निकाल दिया और अब एक मध्यम आयु वाली की खोज आरम्भ हुई। सर्विस सीकिंग एजेन्सी के माध्यम से एक चालीस वर्षीया नौकरानी की खोज हुई। उससे पहले अनेक सेविकाएँ आईं और चली गईं। कोई काम का विवरण पूछती और काम बताया जाता तो यह कहती हुई उलटे पाँवों चली जाती कि काम तो दो नौकरों का है और वेतन एक का भी नहीं। इस पर जब दूसरी महरी आई तो मैंने कहा कि काम तो कुछ नहीं है, केवल पलंग बिछाकर पड़े रहना होगा। वह भी चली गई। विचित्र दशा है। यदि काम लेता हूँ तो नौकर नहीं रहता। यदि कहता हूँ कि कोई काम नहीं तो भी कोई परिणाम नहीं निकलता। खैर, हफ्ते-पखवाड़े की खोज के पश्चात् एक और मिली कि जिस पर न किसी प्रकार के सन्देह हो सकते थे और जो कामचोर भी नहीं थी। हर प्रकार से, अपनी बुद्धि से भली प्रकार सोच-विचार कर उसे नौकर रखा।

-6-

थोड़े समय में पता चला कि यह औरत जब चाहती अच्छा काम करती और जब न चाहती तो कुछ न करती। ऊपर से यह कि जब जी में आता धृष्टता का व्यवहार करती। एक दिन की घटना सुनिए - देवीजी ने थाली में मिट्टी और मिट्टी में पंजे का निशान देखा तो उससे पूछा, "चम्पा, यह थाली तो बहुत मैली है।" चम्पा बोली, "ये तो साफ पंजे और उँगलियों के निशान हैं। मैं ही क्या, सभी देख सकते हैं। मगर ये मेरी नहीं हैं, हुमा (यह मेरी बड़ी लड़की का नाम है) की होंगी। लड़के तो इस घर में मिट्टी से खेला ही करते हैं।"

देवी, "अरी चम्पा, क्यों इतना झूठ बोलती है। लड़की के इतनी बड़ी उँगलियाँ कहाँ। बेकार बातें बनाती है और बच्चों को बदनाम करती है।"

चम्पा, "मैं तो बात बनाती हूँ मगर झूठ तो तुम ही बोला करती हो।"

देवी, "जबान संभालकर बात कर। यह महीना पूरा हो ले तो हम तुझे बर्खास्त कर देंगे।"

चम्पा, "तुम क्या बर्खास्त करोगी, मैं खुद ही थोड़े दिनों में नौकरी छोड़ने वाली हूँ। केवल अपना सुभीता देख रही थी। मेरा आदमी हैरान है कि मैं इतने दिनों यहाँ कैसे रही। वे तो शुरू से ही इस घर के खिलाफ थे। यहाँ किसी नौकर का गुजारा हो ही नहीं सकता। सब चीजों पर ताले और मुहरें लगी हैं। सूखी तनख्वाह ही तनख्वाह है। यह बात तो साफ है कि यहाँ कभी कोई नौकर नहीं रहा है।"

जब मैं शाम को दफ्तर से आया तो मुझे यह बात पता चली। मैंने यह कहकर टाल दिया कि तुमको नौकर नहीं रखना है तो निकाल दो। जो मैंने लल्लूजी की माँ के साथ किया, उस अन्याय पर मुझे बाद में बहुत पश्चात्ताप हुआ। खैर, उस समय तो यह बात आई गई हो गई और मैंने चम्पा को समझा दिया। और फिर कुछ दिनों तक काम चलता रहा।

-7-

एक दिन की बात सुनिये। देवीजी ने दस बार चम्पा-चम्पा पुकारा। वह नीचे थी लेकिन बोली नहीं। चम्पा सुनती है लेकिन बोलती नहीं। तब देवीजी नीचे आईं और उससे कहा, "तुझे पचास आवाजें दीं, तूने जवाब न दिया।"

चम्पा, "अरे बीबी! रहने दो, क्यों झूठ बोलती हो। तुमने दस बार ही तो पुकारा और पचास बार कहती हो। तुमने ही तो कहा था कि महीना बन्द हो जाय तो हम निकाल देंगे, और आज पहली तारीख है। अब मैं क्यों बोलूँ।"

देवीजी गुस्से से आग होकर चली आईं। चम्पा उत्तर देने में बिजली, बेचारी पर्दे में रहने वाली देवीजी चुप होकर मेरे कारण गुस्सा पी जाती और मुझसे कुछ न कहतीं। मेरा कमरा भली प्रकार साफ न होता और यदि वे कुछ कहतीं तो वह कहती कि कौन बड़ा साफ कमरा है। एक दिन चम्पा ने चीनी मिट्टी के गुलदान तोड़ डाले। देवीजी ने पूछा तो कहा, "लड़कों ने तोड़े हैं।"

देवीजी, "लड़के इनको कभी नहीं छूते।"

चम्पा, "तो साहब मैंने ही तोड़े। मुझे कब कहा था कि गुलदान न तोड़ें। शीशे के बर्तनों को कहा था, सो आज तक एक भी नहीं टूटा है। जो काम करेगा उससे टूट-फूट भी होगी। गुलदान पुराने तो थे। आपको नौकर नहीं रखना है, बेकार झूठे आरोप लगाती हैं।"

जब शाम को मैं पहुँचा तो कहा, "हाँ सरकार, खता हो गई। साफ करने पर एक दूसरे पर गिर गया और टूट गए।"

मैं यथासम्भव प्रसन्न रहने का प्रयत्न करता हूँ। क्या करूँ, दिन-भर दफ्तर की हाय-हाय, शाम से घर की परेशानियाँ। एक दिन मैंने कहा कि, "चम्पा, मेरे जूते में एक कील निकल आई है, उसको किसी चीज से ठोक दे।"

वह चुप रही। शायद मन में यह सोचती रही होगी कि जिस समय नौकर रखा था उस समय यह नहीं कहा था कि यह काम भी उसी के जिम्मे होगा। शायद इसी विचार से उसने उसमें हाथ तक नहीं लगाया। मुझे सुबह को कील वैसी ही मिली तो मैंने उससे पूछा कि तूने कल शाम को जो कील दबाई थी वह रात में फिर निकल आई। तो वह उत्तर देती है, "बाबू, जूते पुराने हैं, कहाँ तक चलें। इनको बदल डालो और अच्छे दाम के जूते ले लो कि कुछ चलें।"

इस भाँति जब मेरा नाक में दम आ गया तो मैंने उसे निकाल दिया और फिर कोई महरी न रखी। इस प्रकार खोया हुआ चैन आप ही आप मिल गया। सच है, अब नौकरों का समय नहीं रहा, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपना सर्वश्रेष्ठ नौकर है।

[प्रेमचंद के छद्म नाम ‘बम्बूक’ के लेखकीय नामोल्लेख के अन्तर्गत एक कहानी ‘जमाना’ के नवम्बर 1936 के अंक में भी ‘महरी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी जो किसी भी प्रेमचंद-विशेषज्ञ के संज्ञान में नहीं आ सकी। इस दुर्लभ कहानी में प्रेमचंद जहाँ एक ओर सहज एवं स्वाभाविक हास्य की सृष्टि करने में पूर्णता के साथ सफल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इसके द्वारा स्वावलम्बी होने की प्रबल प्रेरणा भी देते हैं। और, इस दृष्टि से यह प्रेमचंद की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहानी है।]