महाकवि नवाई की धरती पर हिन्दी का वृक्षारोपण / बुद्धिनाथ मिश्र

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26 जून की सुबह होटल तुरान में ज्यादा गहमागहमी थी, क्योंकि निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार आज ही चार सत्र चलने थे,जिनमें उद्घाटन, दो वैचारिक सत्र, कहानी पाठ और काव्य-पाठ सभी थे।उद्देश्य सभी की अस्मिता को समुचित महत्व देना था। बाकी चार दिन घूमना था-सरकारी शब्दों में, शैक्षिक भ्रमण।यही इस यात्रा की विशेषता है। क्योंकि यह संस्था सरकारी विलासिता की पोषक संस्था नहीं, भाषा और साहित्य के जाग्रत स्वयंसेवकों की संस्था है और स्वैच्छिक आधार पर ही सभी समान विचार वाले इसमें भाग लेते रहे हैं।मानस जी ने प्रारंभ में ही स्पष्ट कर दिया कि हमारी किसी विश्व हिन्दी सम्मेलन से होड़ नहीं है।हमारी यात्रा न तो शुद्ध साहित्यिक है, न पर्यटनात्मक। इसमें हम गौणतः भाषा-साहित्य-संस्कृति के प्रश्नों पर विचार करेंगे और मुख्यतः यहाँ के सार्वजनिक जीवन से जुड़ेंगे,सबसे मिलेंगे,जिससे सामान्य लोगों के अनुभवों और विचारों से हम अवगत हो सकें |

यह देखकर हमें अच्छा लगा कि उजबेक लोगों में भारतीयों के प्रति सहज प्रेम और आदर भाव है| वे, सम्भवतः सुदीर्घ सोवियत प्रभाव के कारण, अपने आक्रान्ता पूर्वजों के दम्भ से दूर हो चुके हैं और भारत को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। यहाँ के युवक-युवतियाँ और बच्चे भारतीय टोली को देखकर स्वयं आगे बढ़कर `नमस्ते ' करते हैं ,फोटो खिंचाते हैं और हिन्दी फ़िल्म का कोई ताज़ा गाना गाते हुए हमसे विदा लेते हैं। यहाँ की सफाई, यहाँ की प्राकृतिक हरीतिमा, सडकों-बाजारों का अनुशासन, बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय में धार्मिक उदारता और राष्ट्रभक्ति , विवाह में प्रेम संबंधों का वर्चस्व और सामान्य जन में आजादी का सर्वोपरि महत्व हमारे लिए प्रेरणादायक थे। होटल तुरान हालाँकि एक भारतीय का ही है,मगर इसमें पहली बार इतने भारतीय एक साथ आये थे।होटल के भीतर और बाहर,सभी जगह भारतीय रंग छिटक रहा था। सड़क, पार्क, जहाँ देखा, हम ही हम थे। होटल की लॉबी, लिफ़्ट, रेस्तराँ, स्विमिंग पूल--यत्र तत्र सर्वत्र।

सबेरे मौका देखकर मैं भी अकेले बाहर घूमने निकल गया। यहाँ रूस वाला अदृश्य परिबंध नहीं था। पासपोर्ट भी साथ रखने की जरूरत नहीं थी।स्थानीय लोगों से पूछने पर मालूम हुआ कि होटल के पास ही उज़्बेक साहित्य के संस्थापक अली-शिर नवाई का भव्य स्मारक है। मैं देखने चला गया। ताशकन्द में दो ही इतिहास-पुरुषों की भव्य प्रतिमाएँ हैं--अमीर तिमुर(तैमूर लंग) और अली-शिर नवाई की।मध्य एशिया के सबसे बड़े मध्यकालीन साहित्यकार नवाई का जन्म सन्‌ १४४१ में और मृत्यु सन्‌ १५०१ में हुआ। वे तुर्की मूल के थे और एक साथ ही राजनेता, दार्शनिक, भाषाविद, चित्रकार और सुकवि थे।वे चुगताई भाषा-साहित्य के महानतम स्तम्भ थे।अपने देश में उनके सम्मान का प्रमाण यही है कि उनके नाम पर नवाई प्रदेश, नवाई शहर, नवाई हवाई अड्डा और तमाम बैले थियेटर और ओपेरा बना दिये गये। पश्चिमोत्तर अफ़गानिस्तान के हिरात शहर में जन्मे अली-शिर नवाई ने अपना उपनाम ‘नवाई’ रखा था,जिसका फारसी में अर्थ है ‘मधुर’।पूरे उज़्बेकिस्तान में उनके नाम से सैकड़ों ओपेरा, थियेटर,साहित्यिक-सांकृतिक संस्थाएँ और सार्वजनिक उद्यान हैं। उनकी गज़लें इतनी लोकप्रिय हैं कि उन्हें आज उज़बेक लोकगीतों की श्रेणी में रखा जाता है ।उनकी रचनाओं का मंचन रंगकर्मियों का प्रिय विषय रहा है।किसी साहित्यकार का इतना मान-सम्मान भारत में किसी साहित्यकार को नहीं मिला,रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी नहीं। नवाई की विशाल प्रतिमा के समक्ष नतमस्तक खड़ा यह भारतीय कवि अपने को कितना बौना समझ रहा था!हमारा देश जिस मूर्खतंत्र के चंगुल में फँसा है,उसमें किसी भी साहित्यकार का सिर उठाकर चलना असम्भव है। आज हम उसी महान उज़्बेक साहित्यकार की धरती पर अपनी अभिशप्त हिन्दी भाषा का वृक्षारोपण कर रहे थे।पाँव के नीचे गीली धरती थी और सिर के ऊपर बरसनेवाले काले-घने बादल थे।इसी मौसम में तो अपने यहाँ वृक्षारोपण होता है!

हिन्दी संगोष्ठी होटल के भव्य सभागार में समय से शुरु हुई।इन्तज़ाम में लगे सभी होटल कर्मचारी उजबेक ही थे। कश्मीरी सेब की तरह गोरे लड़के-लड़कियाँ सुन्दर और सुडौल, कर्मठ और विनम्र,कुशल और सकारात्मक थे। वे पहली बार इतने लोगों को एक साथ हिन्दी बोलते सुन रहे थे।बहुत खुश थे,क्योंकि इसके प्रतिभागी बेमतलब धौंस जमानेवाले नहीं थे।मानस जी और उनकी टीम के लोग भी तनाव-रहित होकर मज़ा ले रहे थे,क्योंकि सभी काम योजना के अनुरूप कार्यान्वित हो रहे थे। उद्घाटन सत्र चार घंटे तक चला, जिसका मुख्य अतिथि मुझे और अध्यक्ष पद पर मारिशस में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट, भारतीय अध्ययन शाला की प्रमुख डॉ. रेशमी रामधुनी को बनाया गया था। अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. रेशमी रामधुनी ने कहा कि तकनीकी युग में उसी भाषा का अस्तित्व बना रहेगा जो मनुष्य की जरूरतों को पूरा करती हुई तकनीकी के साथ भी सह-अस्तित्व में रहेगी। हिंदी में अन्यान्य भाषाओं और बोलियों का महासागर बनने की असंदिग्ध क्षमता है, इसे समय भी सिद्ध करता आ रहा है।

उद्घाटन सत्र में सभी 130प्रतिभागियों ने अपना संक्षिप्त परिचय दिया और गाहे-बगाहे अपने उद्गार भी व्यक्त किये। तदनंतर, नागपुर के युवा आलोचक डॉ. प्रमोद शर्मा को प्रथम ‘निराला काव्य सम्मान’ प्रदान किया गया । पुरस्कार स्वरूप उन्हें 21,000 रुपये, प्रतीक चिन्ह आदि से अलंकृत किया गया । इसके अलावा संतोष श्रीवास्तव, मुम्बई को कथालेखन एवं अहफ़ाज़ रशीद, रायपुर को इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान के लिये सृजनगाथा सम्मान-2012 से अलंकृत किया गया।

इसके बाद एक साथ 28 साहित्यिक कृतियों का विमोचन हुआ,जिनमें कथा संग्रह,ग़ज़ल संग्रह, छन्दमुक्त विताओं के संग्रह,यात्रा संस्मरण जीवनी, नाटक,समीक्षा-ग्रन्थ, शोधग्रंथ, खंडकाव्य, व्यंग्य संग्रह सब कुछ थे,जो हिन्दी की उर्वरा शक्ति के प्रमाण हैं। मैने इनमें से कुछ पुस्तकें चुनकर एक टेबुल पर रख दिया था कि घर ले जाऊँगा,मगर साहित्यप्रेमियों ने यह मौका नहीं दिया,यह जानते हुए भी कि विमान में २० किलो से अधिक सामान नहीं ले जा सकते। इस मैराथनी उद्घाटन सत्र का सफल संचालन अशोक सिंघई ने किया ।

इसी सत्र में ‘अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन’ के गठन का प्रस्ताव पारित करते हुए डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र को सर्वसम्मति से प्रथम अध्यक्ष और डॉ. जयप्रकाश मानस को समन्वयक मनोनीत किया गया । इसके अलावा उपाध्यक्षों, विभिन्न राज्यों से उपाध्यक्षों और समन्वयकों तथा विभिन्न देशों से समन्यक चुना गया ।

सम्मेलन का दूसरा सत्र ‘आलोचना और उत्तर औपनिवेशक समय’ पर केन्द्रित रहा,जिसकी अध्यक्षता शंभु बादल ने की।मुख्य वक्ता प्रो. प्रमोद शर्मा (नागपुर),डॉ.धनंजय सिंह,डॉ. प्रमोदिनी हंसदा (दुमका) थे। इस सत्र का कुशल संचालन कहानीकार विवेक मिश्र ने किया। तीसरा खास सत्र था – ‘भाषा की संस्कृति और संस्कृति की भाषा’ पर। इस सत्र में १४ विद्वानों ने आलेखों का पाठ किया । सत्र का संचालन युवा कवि लालित्य ललित ने किया।इसी प्रकार कहानी सत्र में भारत के विभिन्न प्रान्तों के 12 कथाकारों की कहानियाँ प्रस्तुत की गयीं,जिन्हे श्रोताओं की भरपूर सराहना मिली। अंतिम सत्र ‘कविता समय’ में 50 से अधिक कवियों ने काव्यपाठ किया । संगोष्ठी में भारत के प्रतिनिधियों के अलावा ताशकंद शहर से भी बड़ी संख्या में साहित्यिक श्रोता उपस्थित थे ।

यहाँ यह जोड़ना भी जरूरी है कि अतिथियों और प्रतिभागियों की दिन भर की थकान उतारने के लिए संयोजकों ने एक भारतीय रेस्तराँ ‘रघु’ में भव्य रात्रिभोज का इन्तजाम किया था,जिसमें खूबसूरत उज़बेक नर्तकियों ने उज़बेक नृत्य के अलावा हिन्दी फ़िल्मों के ताज़े गानों पर नाचकर भारतीय दल को झूमने के लिए मजबूर कर दिया।