महाकाल का दर्शन / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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आखिर चलते-चलाते और रास्ते में अनेक कष्ट भोगते, क्योंकि खाने-पीने में प्राय: कष्ट होता था, हम हिंदुओं के द्वादशज्योतिर्लिगों में गिने जानेवाले बाबा महा कालेश्वर की पुरी उज्जैन में पहुँचे। जाड़ों के ही दिन थे। रास्ते में कई महीने से हमारे सिर के बाल नहीं बने थे। साथ ही, धूल पड़ने से सिर की अजीब दशा थी। हमें जरूरत थी कि कोई चतुर हजाम हमारा सिरमुंडन करे और हमें शांति दे। एक बूढ़ा नाई मिल ही तो गया। सिर पर पतली-सी पगड़ी बाँधे हुए। उसकी बात हमें भूलती नहीं। वैसा चतुर और कारीगर नाई हमें तो फिर नहीं मिला। पतले से छुरे से बात की बात में धूल मिट्टी से लदे हमारे सिर को उसने साफ कर दिया। छुरा भी उतना ही तेज और अच्छा था। सिर पर एक किनारे से दूसरे तक सर्रसर्र चलता था जैसे कोई बेफिक्र घास गढ़ता हो। हमने हजाम को भर पेट धन्यवाद दिया।

उज्जैन में क्षिप्रा नदी है जिसे सिप्रा भी कहते हैं। वह राजा भोज की पुरी भी मानी जाती है। हमने पुराने गढ़ आदि देखे। बाबा महाकालेश्वर शिव का दर्शन किया। वे बहुत ही छोटे-से मंदिर में उस समय थे। सिप्रा में स्नान करते, दर्शन करते और जूना महाकाल के मंदिर में रात में ठहरते थे। कहते हैं कि महाकाल दो है। आजकल नए महाकाल की ही प्रतिष्ठा और पूजा है। जूने (पुराने) महाकाल को अब लोगों ने छोड़-सा दिया है। उन्हीं के मंदिर में हम रहते थे। मंदिर सादे पत्थरों का था। बहुत पुराना नहीं मालूम होता था। हालाँकि जूना कहे जाने से तो उसे पुराना ही होना चाहिए था। हमें ठीक-ठीक स्मरण नहीं कि कितने दिन वहाँ ठहरे। लेकिन शायद पंद्रह दिन या ज्यादा ठहरे होंगे। फिर हम ऊब गए और आगे प्रस्थान करने की हमने सोची।

अब मथुरा पहुँचने का हमारा विचार हुआ और इसी दृष्टि से उज्जैन से निकल पड़े। आगे एक विचित्र घटना हुई। शाम के समय शायद उसी दिन या दूसरे दिन एक शहर में पहुँचे। खा-पी चुके थे ही और चौबीस घंटों में एक ही बार खाते थे। इसीलिए शहर के भीतर न जा कर बाहर ही एक मंदिर पर ठहरे। वहाँ एक पत्थरों की बनी गुफा थी। सोचा इसी में कुछ समय ठहरेंगे। शहर में भिक्षा एक बार करेंगे और यहीं अभ्यास करेंगे एकांत में। पास में ही कुछ हट कर एक लंबे तालाब के तट पर हमने राख की ढेरें देखीं। पूछने से पता चला कि जैनी लोग अपने मुर्दों को यों ही लकड़ी और उपलों के बीच में रख के जलाते और वहीं छोड़ देते हैं। राख को कहीं और नदी-नाले में नहीं बहाते।

अस्तु, दूसरे दिन खाने के समय जब हम शहर में गए तो अजीब बात हुई। चारों ओर जैनी लोग ही नजर आए। ब्राह्मण या हिंदू कहीं एकाध दीखे, सो भी गरीब। फलत: हमें किसी ने भी खाने को न पूछा। हमारे सब मनोरथों पर पानी फिर गया। लाचार हम वहाँ से रवाना हो गए और पक्की सड़क पकड़ कर पूर्व ओर बढ़े। तीसरे पहर एक और गाँव में हमने कुछ खाने की कोशिश की। मगर असफल रहे। फिर तो हमने उस दिन और यत्न करना छोड़ ही दिया।