महात्मा गांधी का भाषा चिन्तन / सुधेश

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महात्मा गांधी अपनी प़कृति में आदर्श वादी पर अपने चिन्तन में व्यावहारिक थे। इस लिए उन्हें एक व्यावहारिक चिन्तक और विचारक माना जा सकता है। उन के आदर्श थे स्वराज्य, समता मूलक समाज, सादा जीवन, घरेलू उद्योगों का विस्तार, जिसे स्वदेशी आन्दोलन के दौरान बल मिला। सत्य निष्ठा, अहिंसा और स्वराज्य उन के चिन्तन के मूलाधार थे, जिन के आधार पर गांधीवाद की मूर्त्ति गढ़ी गई। इस प़कार गांधीवाद एक दर्शन बना दिया गया, जब कि गांधी जी ने किसी दार्शनिक की भाँति एक नियमित स्वतन्त्र दर्शन अथवा गांधी वाद का दावा नहीं किया।

अधिक से अधिक उन्हें एक व्यावहारिक चिन्तक कहा जा सकता है, जिस ने भाषा, साहित्य, राजनीति, अर्थ नीति और जीवन के अनेक प़श्नों पर अपनी स्वतन्त्र राय व्यक्त की। इस निबन्ध में मैं उन के भाषाचिन्तन पर विचार करना चाहता हूँ। भाषा चिन्तन भाषावैज्ञानिक, और साहित्यकार और दार्शनिक भी करता है, पर महात्मा गांधी एक भाषावैज्ञानिक नहीं थे। फिर भी भारत की भाषा समस्या पर विचार करते हुए उन्होंने उस हिन्दी को देश की राष्ट्र्भाषा बताया जिस का विकास वे हिन्दुस्तानी के रूप में करना चाहते थे। हिन्दी का इतिहास देखा जाए तो पता चलेगा कि वह अनेक कालों में अनेक नामों से पुकारी गई। जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में उसे भाखा कहा। सरहपा के ज़माने में भी वह भाखा कही जाती थी (लगभग नौवीं शती तक)। उसे हिन्दुई, हिन्दवी और रेख्ता , खड़ी बोली और हिन्दुस्तानी भी कहा गया। गांधी जी हिन्दुस्तानी के समर्थक थे। परउस हिन्दुस्तानी का स्वरूप कैसा है, यह भी देखना होगा।

हिन्दुस्तानी से महात्मा गांधी का आशय उस भाषा से था, जिस में हिन्दी और उर्दू के अनेक त्त्त्वों का मिंश्रण हो। हिन्दी के तत्वों में संस्कृत, प़ाकृत, अपभ़ंश, तद्भव और देशज शब्दों के साथ अनेक बोलियों उपबोलियोंके के शब्द, मुहावरे आदि के साथ प़चलित उर्दू, फ़ारसी, तुर्की, अंग़ेज़ी के शब्द भी शामिल हैं, पर वह अनिवार्य रूप से देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू के तत्वों में फ़ारसी, अरबी शब्दों, मुहावरों, रूपकों, प़तीकों आदि का बाहुल्य है, यद्यपि उस में हिन्दी संस्कृत के अनेक अपभ़ष्ट रूप़, शब्द आदि गौण रूप से शामिल हैं, पर वह अनिवार्य रूप से फ़ारसी लिपि में (जो मूलत: अरबी लिपि है) लिखी जाती है। हिन्दुस्तानी में हिन्दी और उर्दू के समान तत्वों का मिश्रण अभीष्ट है। पर अनेक विद्वानों और निहित स्वार्थ में लिप्त लोगों ने हिन्दुस्तानी के स्वरूप की अपनी अपनी और अलग व्याख्याएँ कीं। महात्मागांधी उन सीमित दृष्टि वालों में शामिल नहीं थे। वे हिन्दी और उर्दू को मिला कर एक संयुक्त भाषा को हिन्दुस्तानी नाम देते थे और मानते थे कि हिन्दुस्तानी देवनागरी लिपि और अरबी लिपि दोनों में लिखी जा सकती है। उनके ऐसा सोचने का एक पक्का आधार यह था कि हिन्दी और उर्दू बोलचाल के स्तर पर और आम हिन्दुस्तानियों और सामान्य जनता की बोलचाल के स्तर पर लगभग एक जैसी है। अन्तर है तो सिर्फ इतना कि हिन्दी वाले संस्कृत शब्दों की छोंक लगा देते हैं और उर्दू वाले अपनी भाषा में फ़ारसी, अरबी शब्दों की छोंक लगा देते हैं, जब कि दोनों खड़ी बोली बोलते हैं।

गांधी जी मानते थे कि जब हिन्दू और मुसलमान और भारत की बहुसंख्यक जनता मिली जुली भाषा बोलती है, जिसे वे हिन्दुस्तानी नाम देते थे, तो उसे दोनों लिपियोंअर्थात देवनागरी और अरबी लिपियों में लिखा जा सकता है। गांधी जी की हिन्दुस्तानी की लिपि एक नहीं थी बल्कि दो लिपियाँ थीं। इस पर कुछ भाषावैज्ञानिक आपत्ति कर सकते हैं, बल्कि आप़त्तियां की गईं, और कहा गया कि एक भाषा का उस की लिपि से अनिवार्य सम्बन्ध है अर्थात एक भाषा की एक ही लिपि हो सकती है। इस तर्क से हिन्दुस्तानी की लिपि देवनागरी ही हो सकती थी, क्योंकि जिसे काल विशेष में हिन्दुस्तानी कहने का चलन बढ़ा वह हिन्दी ही थी और हिन्दी ही है। स्वयं उर्दू का जन्म हिन्दी प़देशों में हुआ, चाहे उस का विकास बाद में अहिन्दी भाषी प़देंशों, जैसे पंजाब, सिन्ध, कश्मीर, दक्षिंण भारत की कुछ तेलुगु भाषी रियासतों में हुआ। दक्षिणी रियासतों में प्रचलन के कारण उसे दक्खिनी या तकनी नाम मिला, जिस पर हिन्दीं और उर्दू दोनों के प्रेमी अपना दावा करते हैं।

यह भी कहा जा सकता है कि महात्मा गांधी एक भाषावैज्ञानिक नहीं थे। इस लिए उन की हिन्दुस्तानी की वकालत अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक है। इसी कारण बाद में उसे नकार दिया गया और छोड़ दिया गया।

हिन्दुस्तानी केवल महात्मा गांधी का आविष्कार नहीं है , क्योंकि उन से पहले उन्नीसवीं शताब्दी के उत्त्तरार्ध में राजा शिव प़साद सितारेहिन्द ऐसी मिली जुली या मिश्रित हिन्दी के लिए आन्दोलन कर चुके थे। इस मिलीजुली हिन्दी में उर्दू, फ़ारसी, अरबी शब्दों से लदी हिन्दी की वकालत की गई थी जिस मेंबेगम सीता, बादशाह राम, हज़रत कृष्ण, हज़रत शिवाजी महाराज जैसे प़योग जायज़ थे। सितारेहिन्द इस मिलीजुली हिन्दी को हिन्दुस्तानी नहीं कहते थे बल्कि हिन्दी ही समझते और कहते थे। उन की इस हिन्दी का विरोध उन के समकालीन भारतेन्दु हरिश्चन्द़ ने किया, जिन का उपनाम भारतेन्दु राजा शिव प़साद सितारेहिन्द का जवाब था।

सितारेहिन्द ने हिन्दुस्तानी का नाम लिये बिना हिन्दी के झण्डे के नीचे हिन्दुओं और मुसलमानों को एक भाषा के मंच पर लाने की कोशिश की, जैसे महात्मा गांधी ने हिन्दुस्तानी के झण्डे़ के नीचे हिन्दी और उर्दू प्रेमियों को एक मंच पर लाने की कोशिश की। वस्तुत: हिन्दुस्तानी को व्यापक मान्यता न मिलने का कारण उस का इतिहास है।

सन १९८०० के लगभग कलकत्ता के फ़ोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के बाद अंग़ेज़ी शासकों ने विलियम गिलक़िस्ट को यह काम सौंपा कि वह भाषा के आधार पर हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट के बीज बोये। उस कालेज में ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्मचारियों को हिन्दी और हिन्दुस्तानी दो भाषाओं के रूप में गिलक़िस्ट के नेतृत्व में पढ़ाई जाती थीं। गिलक़िस्ट ने अंग़ेज़ी में एक पुस्तक Hindustani Grammar लिखी जिस में उर्दू को हिन्दुस्तानी के रूप में व्यांख्यायित और सिद्ध किया गया और उस का सम्बन्ध मुसलमानों से जोड़ा गया। हिन्दी का सम्बन्ध हिन्दुओं से जोड़ दिया गया। प्रकारान्तर से उन्होंने उर्दू को हिन्दुस्तानी नाम दिया और हिन्दी को इसे अलग बताया और खूब प़चारित किया।

लेकिन महात्मा गांधी की हिन्दुस्तानी विलियम गिलक़िस्ट की हिन्दुस्तानी विषयक अवधारणा से एक दम भिन्न थी। महात्मा गांधी सितारेहिन्द की तरह हिन्दी ओर उर्दू का मिश्रण तो चाहते थे, पर उसे हिन्दुस्तानी नाम देते थे, पर विलियम गिलक़िस्ट एक भाषा के दो रूपों के आधार पर एक भाषा के विभाजन की नींव रख रहे थे। पहले अंग़ेजों ने भाषा का विभाजन किया, सन १९४७ में देश का विभाजन कर दिया।

महात्मा गांधी देश विभाजन के ख़िलाफ़ थे, इसी प़कार वे भारत की भाषा के विभाजन के ख़िलाफ़ थे। तभी तो उन्होंने हिन्दुस्तानी का झण्डा उठाया, वर्धा में तालीमेी संघ की स्थापना की, और मद़ास में हिन्दी प़चार सभा की स्थापना की। भाषागत विभाजन के विरुद्ध उन्होंने हिन्दुस्तानी का नारा उठाया। सरल हिन्दी और सरल उर्दू का मिश्रित रूप ही हिन्दुस्तानी का स्वरूप था।

हिन्दुस्तानी भाषा पर गहरी चोट सन १९४७ में देशविभाजन ने की। उर्दू प्रेमी (चाहे वे संख्या में कितने हों ) देश विभाजन के लिए आन्दोलन कर रह थे। इसी कारण कुछ लोगों ने कहा कि देंशविभाजन के अनेक कारंणों में से एक कारंण उर्दू भाषा है (मैं इस से सहमत नहीं हूँ)। जो हिन्दुस्तानी उर्दू के रूप में प़चलित हो चुकी थी देश विभाजनय् बाद अपनी प्रासंगिकता खो बैठी। महात्मा गांधी का भाषा चिन्तन बेकार गया और विलियम गिलक़िस्ट की कूटनीति विजयी हुई।