महानगर की लघुकथाएँ / सुकेश साहनी

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अपनी बात को आगे बढ़ाने से पूर्व कुछ दिनों पहले महानगर दिल्ली में रहने वाले अपने कुछ मित्रें से हुई बातचीत का उल्लेख करना चाहूँगा। महानगर के मित्र इस बात पर नाखुश थे कि लेखक-पत्रकार महानगर में बुराई ही बुराई देखते हैं, महानगर की अच्छाई पर क्यों नहीं लिखते? वे अपनी बात के पक्ष में कई उदाहरण प्रस्तुत कर रहे थे।

"आपने कभी किसी महानगरवासी से कोई पता या रास्ता पूछा है?" मित्र ने मुझसे पूछ लिया।

"हाँ, कई बार।"

"कितनी बार आपको निराश होना पड़ा?" मित्र ने एकटक मेरी ओर देखते हुए आत्मविश्वास से पूछा-"अक्सर कहा जाता है कि महानगरवासी को किसी से बात तक करने की फुरसत नहीं होती है।"

मेरी आँखों के आगे अपने बम्बई एवं दिल्ली के अनुभव घूम गए. मुझे नहीं याद पड़़ता कि मैंने महानगर में किसी व्यक्ति से कोई पता पूछा हो और मुझे निराश होना पड़ा हो। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि महानगरवासी ने मुझे मेरे गंतव्य तक मार्गदर्शन देकर ही दम लिया। मित्रों की बात में दम था। अच्छाई ने सदैव ही बुराई पर जीत हासिल की है। यह अच्छाई ही है, जिसके कारण दुनिया अपनी धुरी पर कायम है और हम महाविनाश से बचे हुए हैं।

हमारे देश के महानगरों में रहने वाले आदमी का कितना प्रतिशत कंप्यूटर में बदल गया है? कहाँ-कहाँ उसकी आत्मा का लोप हो चुका है? किसी भी समाज को जीवित रखने के लिए अनिवार्य संवेदना एवं सहानुभूति की भावना की महानगरों में कितनी कमी हुई है? इन तमाम प्रश्नों की पड़ताल करती कुछ लघुकथाएँ इस संकलन में प्रस्तुत हैं। जिन कथाकारों ने महानगर की अच्छाई पर लिखा है, उनकी लघुकथाएँ महानगर के प्रदूषित दमघोंटू वातावरण में आक्सीजन का काम करती हैं, ये रचनाकार बधाई के पात्र हैं। सर्वप्रथम इन्हीं रचनाओं पर चर्चा करना भी उचित होगा।

महानगरों में भी मानव मूल्यों हेतु संघर्षरत लोगों की कमी नहीं है। जहाँ एक ओर महानगर में रहने वाले व्यक्ति सालों-साल अपने पड़ोसी से अनभिज्ञ रहते हैं, वहीं किसी भवन की दसवीं मंजिल पर रहने वाला व्यक्ति नोटिस बोर्ड पर पढ़ता है कि मिसेज़ मुखर्जी का एक सौ रुपये का नोट गुम हो गया है,

पाने वाला कमरा नम्बर पैंसठ में पहुँचा दे। नोटिस पढ़कर उसे दुःख होता है क्योंकि वह जानता है मिसेज़ मुखर्जी एक अनाथ और गरीब बुढिया हैं और अड़ोस-पड़ोस के छोटे-मोटे काम करके अपना भरण-पोषण करती हैं। वह अपनी जेब से श्रीमती मुखर्जी का खोया नोट देकर मदद करने की नीयत से उनका दरवाज़ा खटखटाता है। श्रीमती मुखर्जी उसे बताती हैं, मुझे मेरा पैसा मिल गया है। दूसरे माले वाले वैद्य साहब को मिला था। श्री रामअवतार तथा जनाब कुतुबुद्दीन ने भी उसे पाया था। शायद आपको भी मिला है। परन्तु आपसबको मिलने से पूर्व ही कोट की जेब में मिल गया था। कृपा करके पैसा मिलने की सूचना जल्दी से नोटिस बोर्ड पर टाँग दीजिए वर्ना कुछ और लोगोंको वह मिल जाएगा।

(अच्छे पड़ोसी: अज्ञात)

भौतिक प्रगति और शहरों के विकास ने व्यक्ति के पारस्परिक सम्बंधों को तेज़ी से प्रभावित किया है। भौतिक सुविधाओं की चाहत ने उसे मशीन बना दिया है। ऐसे मशीन बन चुके पति-पत्नी के आपसी सम्बंधों में विश्वास की कमी हुई है:

गिलास टूटा है। बोतल पड़ी है। गिलास भरा है। कुर्सियाँ खाली हैं। बैड है। दो प्राणी हैं। सन्नाटा है। दूरी है।

जहाँ आदमी ने स्वयं को अंधी दौड़ में शामिल होने से बचाया है, आपसी रिश्तों को महत्त्व दिया है, एक दूसरे के लिये समय निकाला है। पारस्परिक संवेदना को जीवित रखा है, वहाँ:

कुछ चपातियाँ हैं। एक कटोरी सब्ज़ी है। रस है। प्यार है। विश्वास है। ठहाकें हैं।

(रिश्ते: पृथ्वीराजअरोड़ा)

अर्थप्रधान महानगरीय सभ्यता में आदमी के लिये बिना पैसे के एक कदम भी चल पाना दूभर हो गया है। धूप, हवा और पानी जैसी चीजें अपने शुद्ध रूप में आम आदमी की पहुँच से बाहर हो गई हैं। बाबू मंसाराम को ज़ोरों की प्यास लगी है, पर उनकी जेब में मात्र एक अठन्नी है। चालीस पैसे का बस का टिकट लेना है, शेष दस पैसे से एक गिलास पानी ही पिया जा सकता है। वे टंकीवाले से एक गिलास पानी लेकर गटागट पी जाते हैं।

"और दूँ बाबू!" टंकीवाला बोला।

"नहीं भैया! बस—-बुझ ही गयी प्यास।" बाबू मंसाराम ने अतृप्ति का भाव लिये उसको अठन्नी देते हुए कहा।

"नहीं बाबू! इस टंकी पर फ्री में पानी मिलता है, रामलालकिशनलाल साड़ी वालों की तरफ से।" टंकीवाले ने अठन्नी लौटाते हुए कहा।

"अच्छा! कब से?" उनका मुँह खुला का खुला रह गया।

"आज ही से।" टंकीवाला विनम्रता से बोला।

"यह तो बड़ा पुण्य का काम है भैया।" बाबू मंसाराम ने श्रद्धाभाव से कहा-"ला, एक गिलास और पिला दे। कहते हुए उन्होंने अपना दायाँ हाथ आगे बढ़ा दिया।"

इस लघुकथा में लेखक ने जहाँ अर्थ केन्द्रित महानगर में कदम-कदम परस्वयं को मारते आदमी का चित्रण किया है, वहीं महानगरों में कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाओं की आवश्यकता एवं महत्त्व को भी उजागर किया है।

(अर्थ: कुमार नरेन्द्र)

महानगर की झूठी चमक-दमक के बीच जीवन की सादगी नष्ट होती जा रही है और रिश्तों का एकमात्र आधार पद, प्रतिष्ठा और धन रह गया है। झूठे अहं का शिकार अफसर दो वर्षों से गुनगुनी धूप के लिए तरस रहा है। महानगरीय विकास की दौड़ में स्थानाभाव के कारण निर्मित भवनों में किसी भी कोण से धूप भीतर नहीं पहुँचती है। लंचटाइम्स में दफ्रतर के सामने बने पार्क की हरी-भरी घास पर उसके मातहत सर्दियों की गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे हैं। अपने मातहतों के बीच घास पर बैठने की बात बड़़े अफसर के गले से नीचे नहीं उतर रही। उसे यह भी लगता है कि उसके पार्क में घुसते ही वहाँ हड़कम्प मच जाएगा, मातहत उठ खड़े होंगे और वह पार्क में अकेला रह जाएगा। पार्क में पहुँचकर उन्हें सुखद आश्चर्य होता है। उन्हें देखकर लोगों में हल्की-सी भी हलचल नहीं होती है। लोग उन्हें देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। लंच टाइम समाप्त होने पर अपने कमरे में पहुँचकर उन्हें वर्षों बाद, खोई हुई किसी प्रिय वस्तु के प्राप्त होने की सुखानुभूति होती है। लेखक ने बहुत सशक्त ढंग से महानगरों में रहने वाले उन असंख्य लोगों को धूप में लाने का प्रयास किया है जो जीवन पर्यन्त झूठे अहं, खोखे स्टेटसके कारण अपने अंधेरे बंध कमरों से बाहर नहीं निकलते हैं।

(धूप: सुभाष नीरव)

अर्थाभाव के कारण महानगर में जीते आदमी पारस्परिक संवेदना धीरे-धीरे शून्य होती जा रही है और वह मानसिक रूप से अपंग हो गया है। ऐसा व्यक्ति अंधे अथवा लंगड़े भिखारी को भीख में मिले रुपये-पैसे छीन भागने में शर्म महसूस नहीं करता। (बाज: कमल पुंजाणी, लंगड़ा: पवन

शर्मा) वहीं दोनों हाथों से लाचार व्यक्ति स्वाभिमान से जीने के लिए संघर्ष कर रहा है। वह फुटपाथ पर पुस्तकें बेचने का कार्य करता है। एक युवक को अपनी दुकान से पुस्तक चुराकर ले जाते देख कुछ नहीं करता और कहता है, चोरी हाथ वाले ही तो कर सकते हैं। कटे हुए दोनों हाथों वाला व्यक्ति समाज के वास्तविक अपाहिजों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराता है।

(हाथ वाले: महावीर प्रसाद जैन)

महानगर में दुर्घटनाएँ होना आम बात है। खून से लथपथ घायल आदमी सड़क पर पड़ा रहता है। भीड़ एक पल के लिए ठिठकती है और फिर आगे बढ़ जाती है। कौन पड़े इस पचड़े में! अशोक कुमार खन्ना की लघुकथाकर्त्तव्य में सड़क पर घायल पड़ा आदमी स्वयं हिम्मत कर गाड़ी रुकवाता है। टैक्सी ड्राइवर घायल आदमी को टैक्सी में घुसने में मदद करता है और फिर मीटर डाऊन करते हुए पूछता है, "आप इतने घायल हैं फिर भी—-"

" हाँ, हर नागरिक का फर्ज़ है कि घायल जान को बचाए. कहकर भीड़ पर बिना हिकारत की नज़र डाले वह बेहोश हो जाता है। लेखक ने घायल आदमी के माध्यम से प्रत्येक नागरिक को उसके कर्त्तव्य का अहसास कराया है।

महानगरों में शरीफ आदमी स्वयं को मिसफिट पाता है।

एक दिन मित्रें के दबाव से उसे शराब पीनी पड़ती है। उस दिन पानवाला, बस कंडक्टर, ड्राइवर और सभी उससे डर कर बहुत भद्रता से पेश आते हैं। उसके भीतर एक नया आदमी जन्म लेने लगता है। पर उसे इस नए जनमते आदमी से डर लगने लगता है और अगले दिन वह फिर दुनिया के जूते खाने वाला शरीफ आदमी बन जाता है। (मृतजन्मा: रमाकान्त)

महानगरीय सभ्यता की इस क्रूर मानसिकता के कारण अथवा आर्थिक दबावों से टूटकर कभी-कभी शरीफ आदमी भी अपराध करने पर विवश हो जाता है। ऐसे में दिग्भ्रमित व्यक्ति की वापसी सम्भव है क्योंकि उसके भीतर पारस्परिक संवेदना एवं सहानुभूति की कमी नहीं होती है-जेब कतरे को एक

व्यक्ति को जेब काटने पर निराशा हाथ लगती है—-कुल नौ रुपये। पर साथ ही एक पत्र भी है जोकि पुत्र द्वारा अपनी माँ को लिखा गया था, नौकरी छूट गई है, अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा। कुछ दिन बाद उस व्यक्ति को जेब कतरे का एक खत मिलता है।

भाई! नौ रुपये तुम्हारे और इकतालीस रुपये अपनी ओर से मिलाकर तुम्हारी माँ को मनीऑर्डर भेज दिया है। फिकर न करना। माँ तो सबकी एक जैसी होती है न! वह क्यों भूखी रहे?—-तुम्हारा जेबकतरा।

(जेब-कतरा: ज्ञानप्रकाश विवेक)

अर्थ प्रधान महानगरीय सभ्यता में सम्बंधों की शिथिलता पर केन्द्रित बहुत-सी लघुकथाएँ लिखी गई हैं। महानगर का आदमी केवल अपने विषय में सोचने लगा है। महानगर की अंधी दौड़ में उसके लिये अर्थ जुटाने का महत्त्व इतना बढ़ गया है कि वह अपने पिता को केवल इसलिए गाँव भेज देता है ताकि अपने एक कमरे को किराये पर चढ़ाकर तीन सौ रुपये कमा सके. पिता बेटे के कहे अनुसार गाँव नहीं जाता है। वह एक साईकिल वाले के यहाँ नौकरी करने लगता है और पुत्र के सम्मुख किरायेदार के रूप में उपस्थित होता है ताकि वहाँ रहकर अपने परिवार को फलता-फूलता देख सके. इस प्रकार लेखक ने अर्थ के कारण महानगर में ठण्डे होते सम्बंधों को चुनौती दी है और पुत्र को शर्मसार होते दिखाया है। (किराया: कमल चोपड़ा)

महानगरों के मायाजाल में फंसे आदमी पर अर्थ-पिशाच का शिकंजा कराता ही जा रहा है। नैतिक मान्यताओं और आदर्शों से जुड़ी पुरानी पीढ़ी को इन विविध आर्थिक दबावों के कारण नयी पीढ़ी के सम्मुख घुटने टेकने पड़े हैं-दस वर्ष पूर्व माँ ने उसे सिगरेट पीते हुए रंगे था, पिता ने उसे बेहद पीटा था और उसने भागकर महानगर बम्बई महानगर बम्बई में शरण ली थी।

भूखों मरना, मजदूरी करना, फुटपाथों पर सोना, राइस प्लेट से पेट भर लेना और आखिर में एक घटिया-सी नौकरी पा जाना—-दस वर्ष बाद वह घर लौटता है। पिता उसकी अगवानी के लिये बस अड्डे पर आते हैं। वह अपने पिता को देखता रह जाता है—-बूढ़ा चेहरा, शरीर में कंपन, भीगी आँखें, उम्र की थकान! वह घर में आकर अपना कमरा देखता है—-सब कुछ कितना व्यवस्थित! तभी माँ सिगरेट का पैकेट और माचिस मेज़ पर रखकर लौट जाती है। उसके दिल पर गहरा धक्का लगता है और उसकी नज़रें सिगरेट के पैकेट पर बर्फ की तरह जमी रह जाती हैं।

(परिवर्तन: जिज्ञेश बरसाणी)

महानगर की कुंठाग्रस्त एकरस ज़िन्दगी में नौकरी के सहारे जीने वाले आम आदमी के जीवन का चित्रण आदमी लघुकथा (धीरेन्द्र अस्थाना) से हुआ है। आर्थिक चुनौतियों के चक्रव्यूह में फंसे व्यक्ति की सारी शक्ति नौकरी पर आने-जाने और जीवन की मूल-भूत आवश्यकताओं को जुटाने में खपती जा रही है। अपने परिवेश में पूरी तरह कटा हुआ आदमी दफ्रतर से लौटते हुए तय करता है कि घर पहुँचकर तीन काम ज़रूर करेगा। पहला-अपने पिता के चौथे खत का जवाब देना, दूसरा-अपनी छह माह पूर्व लिखी किसी कहानी को फेयर करने का, तीसरा-और अंतिम काम अपनी पैण्ट कमीज को धो लेने का। साढ़े सात बजे वह भीड़ के द्वारा अपने मुहल्ले के स्टाप पर आलू की बोरी की तरह फेंक दिया जाता है। रास्ते के होटल में खाना खाने के बाद वह साढ़े आठ बजे तक अपने कमरे में पहुँच पाता है। कमरे में फर्श पर पड़ी चिट्ठियों को आराम से पढ़ने की नीयत से वह खाट पर अधलेटा हो जाता है।

'ओह!' खाट को पड़ते ही वह किसी सत्तर वर्षीय बूढ़े की तरह गनगनाता है और फिर पूरी तरह खाट पर पसर जाता है। बाहर बढ़ते शोर और दरवाजे़ पर पड़ती थापों से तंग आकर नींद में झूमता हुआ वह दरवाज़ा खोल देता है। इससे पहले कि वह कुछ पूछे, भीड़ चिढ़े हुए अंदाज़ में पूछती है, "क्या बात है, तुम इतनी ऊँची आवाज़ में क्यों रो रहे हो?" लेखक ने बहुत प्रभावशाली ढंग से महानगर की मशीनी ज़िन्दगी में पिसते आदमी के उस यथार्थ के दर्द को चित्रित किया है, जो उसे भीतर ही भीतर सालता रहता है।

उपमहानगरीय सभ्यता से अभिशप्त इंसान आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है। वैज्ञानिक उपलब्धियों ने व्यक्ति के लिये सुविधाओं के अनेक द्वार खोल दिए हैं। उसके जीवन का एक ही मकसद है-धन जुटाना। चाहे उसके लिए उसे कुछ भी करना पड़े। इस प्रकार पूर्णतया आर्थिक सुविधा सम्पन्न व्यक्ति में भी भय और असुरक्षा की भावनाएँ जन्म लेती हैं-जो सुख सुविधाएँ उसने बटोरी हैं, उनके छिन जाने का भय—-अपने स्टेटस से नीचे फिसल जाने की चिन्ता। यह भय और असुरक्षा की भावना उसे जीवन भर चैन नहीं लेने देती। वह जीवन भर पैसे के पीछे दौड़ता रहता है। इस दौड़ में धीरे-धीरे सारे सम्बंधों की उष्मा समाप्त हो जाती है।

(काला घोड़ा: सुकेश साहनी)

आर्थिक विपन्नता के कारण भी महानगर के चक्रव्यूह में फंसा आदमी अपने आप में सिमट जाता है। संवेदना और सहानुभूति की भावना की कमी हो जाती है। अपने बॉस के जनाजे़ में शामिल होने जाए व्यक्ति की नज़र बॉस की बेटी पर है। वह अपने निहित स्वार्थवश बॉस की मृत्यु पर बहुत खुश है और मातम के अवसर पर अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आता। जब उसे पता चलता है कि बॉस की मृत्यु ड्यूटी पर होने के कारण रिक्त हुआ पद बॉस के बेटे को दिया जा रहा है, तो वह दहाड़ें मारता हुआ बॉस के शव से लिपट जाता है।

(हमदर्द: गीता डोगरा 'मीनू' )

उपभोक्ता संस्कृति कीविषबेल ने महानगर के आदमी को पूरी तरह जकड़ लिया है। उनकी प्राथमिकताएँ पूर्णतया बदल गई हैं। महानगराें में सैकड़ों परिवार ऐसे मिल जाएँगे जिनके पास गैस का चूल्हा तो नहीं है, पर टी-वी-ज़रूर है। बहन की शादी के लिए आर्थिक मदद के समय माँ-बाप के आगे के आगे हाथ तंग होने का रोना-रोने वाला व्यक्ति वी-सी-आर-खरीद लेता है। बूढ़े पिता को केवल इसलिए गाँव भेज दिया जाता है ताकि कमरे को किराये पर चढ़कर धन कमाया जा सके.

(किराया: कमल चोपड़ा)

पिता बेटी की नौकरी के लिये प्रयासरत है, पर उनका विश्वास बेटी को इंटरव्यू की तैयारी कराने में नहीं है क्योंकि उन्होंने तैयारी कर ली है—-अधिकारी को प्लीज करने की।

(विश्वास: कमलेश भारतीय)

पुस्तक मेले में आये बड़े अफसर के पास पुस्तकें खरीदने के लिए अठारह हज़ार का बजट है, पर उनका, उनकी मेमसाहब और बेटी का टेस्ट हिन्दी बुक्स में नहीं है क्योंकि हिन्दी पुस्तकें सस्ती होती हैं, कौन सलेक्ट करे घण्टों! वे विदेशी प्रकाशक के स्टाल से बारह पुस्तकें सलेक्ट कर लेते हैं—बजट फिनिश्ड!

(खरीद: अरविंद ओझा)

महानगरों में बढ़ती हुई आबादी और तेज़ गति से दौड़ती ज़िन्दगी ने पर्यावरण को सबसे अधिक प्रदूषित किया है। बिगड़़ते प्राकृतिक संतुलन की ओर पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित हुआ है। महानगरों की अर्थकेन्द्रित एवं आत्मकेन्द्रित सोच ने सामाजिक, सांस्कृतिक राजनीतिक सभी क्षेत्रें में प्रदूषण

फैलाया है। अच्छे बुरे का अंतर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता जा रहा है। सम्बंधों का एकमात्र आधार धन रह गया है। समाज में नैतिकता का लबादाओढे़ व्यक्ति कब क्या हो जाएगा—-पता नहीं।

विद्या की बेटी लक्ष्मी के कैबरेडांसर हो जाने की खबर में मुहल्ले की औरते चार काम छोड़कर जमावड़ा लगाकर बैठ जाती हैं-

"लक्ष्मी का नाम लिलि हो गया है...ली-ली।"

"हाय! न लाज, न हया! होटल में नाचती है...मर्दों के सामने!"

"नाच भी कैसा, नंगा! कपड़े—-राम राम राम!"

"बिटी के बाबू बोल रहे थे कि ऐसे लोगों का मुहल्ले में रहना भी ठीक नहीं है।"

लेखक ने बहुत ही खूबसूरती से महानगरों की अर्थ-केन्द्रित सोच को रेखांकित किया है। वही औरतें विद्या से तरह-तरह की जानकारी लेकर अपना मत प्रकट करने लगती हैं-लक्ष्मी ने नाचना कब सीखा? कैसे सीखा? होटल वालों से कैसे सम्पर्क किया? बाल-वाल कटवाकर तो बहुत सुन्दर लगने लगी है, लक्ष्मी!—-लड़कियाँ दफ्रतरों में भी तो काम करती हैं, ठाठ हो रहे होंगे आजकल। ज़रा हमें भी तो बता न?—-हाँ, तेरी लाड़ली सरोज कह रही थी, मौसी से कहो न मुझे भी सिखा दे कैबरे—-!

बीच बाज़ार: रमेश बतरा)

महानगर में दोहरे जीवन जीने वाला व्यक्ति समाज में जितना आदर्शवादी होने का ढोंग करता है, अकेले में या अवसर मिलते ही वह अनैतिकता को गले लगाये दिखाई देता है। ऐसा व्यक्ति जब अपनी ही चाल के उच्छलन से आहत होता है तो उसकी बौखलाहट देखने लायक होती है।

(उच्छलन: सतीशराज पुष्करणा)

आज की फ़िल्मों ने भारतीय समाज को सबसे अधिक प्रदूषित किया है। महानगरों की अपरिपक्व युवा पीढ़ी स्वप्नजीवी हो गई है। महानगरीबम्बई की फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध में उलझने वाले युवक-युवतियों की कमी नहीं है। बम्बई पहुँचने पर फ़िल्म का डायरेक्टर नमिता को हाथों-हाथ लेता है। उसकी तारीफ के पुल बाँध देता है। कोल्डड्रिंक्स के बीच कहानीडिस्कस होती है, एक-एक घूँट के साथ नमिता पर नशा-सा छाने लगता है। महानगरों की सड़कों पर लगे अपने विभिन्न पोजे़ज़ वाले बडे़-बड़े होर्डिंग्स उसकी आँखों के आगे घूमने लगते हैं, वह प्रशंसकों की भीड़ में घिर जाती है। —-उसकी आँख होटल के एक कमरे में खुलती है, कपड़े अस्त-व्यस्त। उसके कई अश्लील फोटो सिलवटों से भरे बैड पर पड़े उसे मुँह चिढ़ाते दिखाई देते हैं।

(स्क्रीनटेस्ट: रामेश्वर काम्बोज 'हिंमाशु' )

राजनीति एवं राजनीतिज्ञों का समाज में बहुत महत्त्व है क्योंकि ये हमारे जीवन को ही प्रभावित नहीं करते बल्कि दिशा-निर्देश भी करते हैं। महानगरों में राजनीतिज्ञों की जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है, यहाँ उन्हें विश्वास जन समूह का प्रतिनिधित्व करना पड़ता है। आज राजनीति स्वार्थ सिद्धि का साधन हो गई है। चुनावों पर गुण्डों का अधिकार हो चला है। बस में गुण्डे सरेआम लोगों की जेबें काट रहे हैं। ड्राइवर-कंडक्टर यात्रियों की ज़बान इस तरह बंद करते हैं, शहर के गुण्डे हैं। इनसे रोज़-रोज़ कौन लड़ाई मोल ले। वे तीनों गुण्डे छाती चौड़ी किये विधान-सभा के सामने उतर जाते हैं। लोगों की खुसर-पुसर के बीच कोई ऊँची आवाज़ में कहता है, विधान सभा की ओर जाने वाला यही एक रास्ता है। लेखक ने बहुत ही सशक्त ढंग से महानगरों की राजनीति एवं राजनीतिज्ञों में गुण्डों की घुसपैठ को व्यक्त किया है।

(विधान सभा का मोड़: हीरालाल नागर)

महानगरों की भ्रष्ट व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती लघुकथाएँ भी लिखी गई हैं। पुलिस पर आम आदमी का विश्वास हटा है। गुण्डों और पुलिसवालों में कोई भेद नहीं रह गया है। (हादसा: महेश दर्पण, सुरक्षा: श्रीकान्त चौधरी, सवारी: राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी 'बन्धु' ) रिश्वतखोरी के कारण प्रशासन व्यवस्था पंगु हो गई है। नौकरशाही का आतंक महानगरों में इस कदर बढ़ गया है कि आम आदमी अपने को असुरक्षित महसूस करने लगा है। सरे आम गुण्डागर्दी होती है, गोलियाँ चलती हैं, बलात्कार होते हैं, दुर्घटनाएँ होती हैं। पुलिस घटनास्थल पर कभी भी समय से नहीं पहुँचती है। जहाँ हादसा होने वाला हो वहाँ तो पुलिस की उपस्थिति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।

(पेशबंदी: मण्टो)

महानगरों के शिक्षा संस्थान बूचड़खानों में तबदील हो गए हैं। स्कूल के विकास के नाम पर अभिभावकों से मोटी रकम वसूलना आम बात हो गई है। इसके लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। (वजन: सुरेश अवस्थी) इस तरह के शिक्षा संस्थान आदि फैशनेबिल भिखमंगों का निर्माण करें तो इसमें आश्चर्य क्या!

(शुरुआत: शशिप्रभा शास्त्री)

महानगरों में मानवीय अवमूल्यन एवं चारित्रिक पतन हुआ है। उस पर विभिन्न कोणों से प्रकाश डालती अनेक लघुकथाएँ लिखी गई हैं, , यथा-आशीर्वाद: पल्लव, कमीशन: यशपालवैद, आग: भारत भूषण, लंगड़ा: पवन शर्मा, देववाणी: पुनत्तिल कुंजब्दल्ला, बीसवीं सदी का आदमी: भारत यायावर।