महान कलाकार परेश रावल : हिज मास्टर्स वॉयस / जयप्रकाश चौकसे

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महान कलाकार परेश रावल : हिज मास्टर्स वॉयस
प्रकाशन तिथि :24 मई 2017


गुजरात से चुने गए सांसद परेश रावल ने अनेक फिल्मों और नाटकों में अभिनय किया है। वे लगभग चार दशक से सक्रिय हैं। उन्होंने गंभीर भूमिकाओं के साथ ही 'मालामाल वीकली' जैसी हास्य फिल्मों में अभिनय किया है। वे कभी किसी ढांचे में नहीं बंधे। उन्होंने कुछ नाटकों को निर्देशित भी किया है। वे नसीरुदीन शाह और ओम पुरी के समकालीन और हमसफर रहे हैं। सलीम खान की सिफारिश पर 'नाम' में उन्होंने एक छोटी भूमिका अभिनीत की थी। यह भी खबर रही है कि उन्होंने गुजरात जाकर श्री नरेंद्र मोदी को सार्वजनिक सभाओं में भाषण देने की कला सीखने में मदद दी थी। यह काफी पहले की धारणा है। सारांश यह है कि वे पूरी तरह समर्पित एवं रचे रमे कलाकार रहे हैं।

समय चक्र पूरी तरह घूम चुका है। वह दौर गुजर गया जब उन्होंने शिखर नट सम्राट को भाषण कला सिखाई थी। अब उनकी सोची बातों को परेश रावल अभिव्यक्त करने लगे हैं। ऐसा कई बार होता है कि गुरु गुड़ रह जाते हैं और चेला शकर हो जाता है। हाल ही में मीडिया में चर्चित है कि परेश रावल ने अरुंधती रॉय को जीप से बांधकर कश्मीर में घुमाने की बात की है और आजकल के रवैये के अनुरूप शीघ्र ही इस बात के खंडन के समाचार आएंगे। वह भी बला की मासूमियत के साथ कि उनके कहने का मतलब कुछ और था। आजकल बोलने के पहले नहीं, बाद में विचार करने की प्रक्रिया स्थापित हो चुकी है। अगर ऐसे लोगों के हाथ में रिवॉल्वर हो तो वे पहले गोली मारेंगे फिर पूछेंगे 'बता तेरा कसूर क्या है?' अत: कोई सबूत आवश्यक नहीं।

कुछ लोग हैं जो सचमुच यकीन करते हैं कि 'जहां खड़े हैं, वही अदालत है' और हर कतार वहीं से शुरू होती है जहां वे खड़े हैं। वैचारिक कट्‌टरता और उसमें निहित हिंसा सर्वत्र व्याप्त है। हाल ही में एक सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ है कि अब एक ही परिवार में पुत्र पिता के खिलाफ खड़ा है, बहन भाई का विरोध कर रही है और पत्नी पति से किसी बात पर सहमत नहीं है। विगत तीन वर्षों में यही हासिल हुआ है कि अलग किस्म के गृहयुद्ध का श्रीगणेश हो गया है। स्वतंत्र सोच और मौलिक विचार को खत्म करने की जो साजिश 1926 में रची गई थी, वह अब सच बनकर सामने आ रही है। अंग्रेजों ने भारत को बांटकर उस पर राज किया था। इन लोगों ने हुकूमते बरतानिया का कभी विरोध नहीं किया। 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया। उन्होंने अंग्रेजों से ही सीखा कि लोगों को विभाजित करके कैसे राज करते हैं। इस तरह अंग्रेज सोच आज भी कायम है परन्तु अपने इस अवतार में उन्होंने देशभक्ति का नया शगूफा छोड़ दिया है। लार्ड मैकाले को सही साबित करने पर हम लोग आमादा हैं। यह कैसे हुआ कि महज दो सौ साल राज करके, वे पांच हजार वर्ष पुरानी संस्कृति के 'स्थायी' विचार हो गए हैं गोया कि उनका 'मुखड़ा' इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग अपने 'अंतरे' भूल गए हैं।

राजकपूर, गुरुदत्त, राज खोसला यह बात भलीभांति जानते हैं। आज मीडिया में राजकपूर और गुरुदत्त कायम हैं परन्तु राज खोसला भूला दिए गए हैं जबकि उन्होंने विविध फिल्में रचीं। 'वह कौन थी' बनाने वाले ने 'मेरा गांव मेरा देश' रची जो बुनावट व भावना की सघनता में 'शोले' से अधिक बड़ी फिल्म है।

एक किस्सा यह है कि 'संगम' की यूरोप में की गई शूटिंग के समय राजेंद्र कुमार रोज राजकपूर को नींद से जगाने जाते थे। वे आदी थे अपनी रचना प्रक्रिया के कि अलसभोर तक शूटिंग करना और दोपहर में जागना। राजेंद्र कुमार ने उन्हें बार-बार जगाने की कोशिश और दोपहर होने जा रही है- ये कहा, परन्तु राजकपूर उन्हें झूठा बोलकर दूसरी करवट ले लेते थे। राजेंद्र कुमार ने झल्लाकर कहा कि वे सच बोल रहे हैं और 'झूठ बोल रहे हैं तो कव्वा काटे।' दरअसल यह बात बोलते समय वे खिड़की से बाहर कुछ कव्वों को देख रहे थे।

इस छोटी सी घटना के कोई दस वर्ष पश्चात राजकपूर 'बॉबी' के अपने एक गीत पर विचार कर रहे थे और उन्होंने मुखड़े को आकर्षक बनाने के लिए रचा 'झूठ बोले कव्वा काटे, काले कव्वे से डरियो, मैं माइके चली जाऊंगी, तू देखता रहियो।' गीत के मुखड़े के प्रति यह प्रेम हमारी विचार प्रक्रिया का प्रतीक है। अंतरों पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता और हुक्मरा यह बात भलीभांति जानते हैं, इसलिए वे विकास के मुखड़े को दोहराते रहते हैं और असमानता, अन्याय को अंतरे की तरह उन्होंने गौण कर दिया है। अवाम भी मुखड़े में मस्त हुआ जा रहा है। अत: कोई आश्चर्य नहीं कि एक महान कलाकार अब केवल 'हिज मास्टर्स वॉइस' बनकर रह गया है। चटकारे लेकर भांग की पकौड़ी खाई जा रही है। याद आती है राज शेखर की तनु वेड्स मनु के लिए लिखी पंक्तियां 'खाकर अफीम रंगरेज पूछे यह रंग का कारोबार क्या है, कौन से पानी में तूने कौन सा रंग मिलाया है...'।