महाभारत का अभियुक्त / अंक 2 / राजेंद्र त्यागी

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अंक-दो

दृश्य-एक

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( नेपथ्य से अलग-अलग दिशा से शंख ध्वनियां आ रही हैं। तलवार से तलवार, ढाल से तलवार टकरा रहीं हैं। हाथी चिंघाड़ रहें हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं। साथ-साथ ही युद्ध के लिए एक-दूसरे को चेतावनी देने और हृदय विदारक मानव-चीत्कार भी रुक-रुक कर कानों में पड़ रहीं हैं। नेपथ्य में युद्ध चल रहा है। कुरुक्षेत्र के मैदान में महायुद्ध! मंच के पर्दे पर पड़ने वाला प्रकाश धीरे-धीरे हल्का होने लगता है। उसी गति से नेपथ्य से आने वाली विभिन्न प्रकार की आवाज भी शनै: शनै: धीमी पड़ती जाती हैं। युद्ध समाप्ति की ओर है। प्रकाश व आवाज की गति के साथ-साथ ही पर्दा उठता है। संध्याकाल का आगमन हो चला है। नेपथ्य से आने वाली ध्वनि पूरी तरह शान्त हो गई हैं। वातावरण पर नीरवता व्याप्त है। पर्दा भी शनै:-शनै: अपनी ऊंचाई छू लेता है और कुरुक्षेत्र के मैदान में अपने दीर्घ नाद से योद्धाओं में ऊर्जा व उत्साह का संचार करने वाले शंख अब मौन धारण कर इधर-उधर पड़े हैं। लक्ष्य-वेध करने वाले धनुष-बाण, तुणीर, तलवार, गदाएं और योद्धाओं की रक्षा करने वाली ढाल अब स्वयं घायल अवस्था में रणभूमि पर पड़ी हैं। कुछ काल पहले तक राजाओं के मस्तक पर सुसज्जिात स्वर्ण-मुकुट अब खण्डित होकर धर्मयुद्ध के योद्धाओं के शवों के चरणों की शोभा बढ़ा रहें हैं। चारों दिशाओं में मौत का सन्नाटा। इसके साथ ही जीर्ण-शीर्ण मगर राजषी वस्त्र धारण किए सुदीर्घ का मंच पर प्रवेश होता है। चेहरे पर थकान है, शरीर जगह-जगह से घायल है। सफेद लंबी दाढ़ी, कंधों तक लटके केश, किन्तु चेहरे पर पराजय, हताशा, निराशा व थकान के स्पष्ट चिह्न। हाव-भाव से वह विक्षिप्त-सा लगता है। मंच पर पड़े शवों को ध्यान से देखता है, शायद पहचानने का प्रयास कर रहा है। शव निहारने के पश्चात मुख आकाश की ओर उठाकर चीखने लगता है।)

सुदीर्घ (करुण चीख के साथ)  : मैं सुदीर्घ हूँ! ...हाँ, सुदीर्घ ! ...(एक क्षण की नीरवता और विक्षिप्त अट्टंहास के साथ पुन:)... हाँ! मैं सुदीर्घ हूँ! ...उस हस्तिनापुर को पुनर्जीवित करने आया हूँ! ...जिसकी रक्षा करते-करते भीष्म पितामह थक चुके हैं! ...(नेपथ्य की ओर संकेत करते हुए) ...वो देखो, शर-शय्या पर विश्राम कर रहे हैं! ...(तेज गति से एक-एक शव के पास जाकर पुन: अट्ठहास करते हुए)...यह देखो अटठारह अक्षौहिणी सेना! ...हस्तिनापुर के योद्धा, हस्तिनापुर की जनता! ...(पुन: अट्टहास)... सब के सब थक गए हैं! ...हस्तिनापुर की रक्षा के लिए संघर्ष करते-करते। ...( शांत भाव से) ...सभी विश्राम कर रहें हैं...! ...(विक्षिप्त भाव से जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों की ओर देखते हुए) ...क्योंकि, हस्तिनापुर सुरक्षित हो गया है! ...जिसकी सुरक्षा के लिए महारथी भीष्म ने प्रतिज्ञा की थी! ...जिसकी सुरक्षा के लिए कुरुक्षेत्र के इस मैदान में महायुद्ध का आयोजन किया गया था! ...हाँ, आयोजन! . ..(पुन: अट्टहास के साथ) ...राष्ट्र कोई भी हो, कोई भी हो सम्राट! ...प्रजा की यही नियति है! ...एक व्यक्ति! हाँ, केवल एक व्यक्ति के निहितार्थ प्रजा लहू-लुहान होती है! ...पराजित हो जाती है, प्रजा! ...और, विजयी कहलाता है, केवल एक व्यक्ति, केवल सम्राट! ...वही सत्ता का सुख-भोग करता है! .. .(आंखों में आँसू भर कर)... हाँ! यह धर्म युद्ध था ! ...हस्तिनापुर की रक्षा हेतु! ...हाँ, सत्ता प्राप्ति के लिए जब दो राजा परस्पर युद्ध करते हैं, तो वह धर्म युद्ध ही कहलाया जाता है! ...क्योकि, राजनीति और युद्ध में सब कुछ उचित है! ...साधन व साध्‍य भले ही धर्म विरुद्ध हों! ...हाँ, युद्ध धर्म युद्ध ही कहलाता है! ...'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे'..!

नेपथ्य से योद्धाओं के स्वर (करुण भाव से)  : विश्राम करने दो हमें, सन्त सुदीर्घ ! ...विश्राम करने दो! ...महायुद्ध...!

सुदीर्घ (मध्य ही में प्रश्नवाचक भाव से)  : ...क्या प्राप्त हुआ महायुद्ध से हस्तिनापुर को? ...प्रजा को? ...पाण्डु-पुत्र विजयी हुए! ...सत्तासीन होने की तैयारी कर रहे हैं! ...क्षत्रिय-धर्म का निर्वाह करते-करते धृतराष्ट्र-पुत्र को स्वर्ग को प्राप्त हो गया हैं! ...कृष्ण कहते हैं, युद्ध करना क्षत्रिय-धर्म है! ...विजयी होने पर राज्य की प्राप्ति होती है और वीरगति प्राप्त होने पर स्वर्ग का राज्य! ...(हँसते हुए)... दोनों को राज्य की प्राप्ति हो गई! ...भीष्म पितामह प्रसन्न हैं! ..उनकी प्रतिज्ञा पुरी हुई! ...अपना व्रत पालन करने में वे सफल हुए! ...हस्तिनापुर और उसकी प्रजा को क्या मिला? ...केवल लहू-लुहान शरीर और पराजय! ...न, कौरव पराजित हुए हैं और न ही पाण्डु-पुत्र! ...पराजित हुआ है तो केवल हस्तिनापुर! ...और हस्तिनापुर की प्रजा!

नेपथ्य से योद्धा (पूर्व भाव से)  : हस्तिनापुर की सुरक्षा भी तो निहित ही थी! ...इस युद्ध में, सुदीर्घ !

सुदीर्घ (विक्षिप्त भाव से योद्धाओं के शवों की ओर संकेत करते हुए)  : नहीं-नहीं, कदापि नहीं! ...तुम्हारा यह युद्ध हस्तिनापुर की सुरक्षा के लिए कदापि नहीं था! ...राज-परिवार की सत्तालोलुप्ता के लिए था! ...दो व्यक्तियों की दुराग्रह पूर्ति के लिए था! ...क्या कभी विचार किया है, इस विनाश का कारण। ...(रुक-रुक कर)... तुमने विचार किया होता, तो परस्पर संघर्ष न करते! ...संघर्ष करते भी तो सत्ता के भूखे परिवार के विरुद्ध! ...संघर्ष करते उस अधर्म के विरुद्ध, जिसे धर्म बताकर तुम्हें सम्मोहित किया गया था! ...और, हस्तिनापुर की सुरक्षा के नाम पर हस्तिनापुर को ही युद्ध की ज्वाला में ढकेल दिया गया...!

योद्धाओं के स्वर  : हाँ, हम जानते हैं, सन्त सुदीर्घ ! ...भली भाँति जानते हैं! ...युद्ध केवल दो व्यक्तियों के दुराग्रह का परिणाम ही होता है! ...यह युद्ध भी उसी दुराग्रह का परिणाम था! ...किन्तु राजा के आदेश का पालन करना प्रत्येक सैनिक का धर्म है! ...उसी धर्म का पालन किया है, हमने!

सुदीर्घ (क्षोभ व घृणा के साथ)  : क्या युद्ध टाला नहीं जा सकता था? ...हस्तिनापुर को लहू-लुहान होने से बचाया नहीं जा सकता था? बचाया जा सकता था! ...किन्तु ऐसा होने पर युधिष्ठिर को अपनी धर्मराज छवि तार-तार होने का भय था और भीष्म पितामह को प्रतिज्ञा बाधित होने का! ...सम्राट धृतराष्ट्र सत्ता और पुत्रमोह में अंधे थे! ...गांधारी ने भी पुत्रवती और पतिव्रता कहलाने के मोह में आँखों पर पट्टी बाँध ली थी! ...जब माता-पिता दोनों ही नेत्रहीन हों तो संतान से क्या अपेक्षा की जा सकती है? ...उसका क्या दोष? ...सभी किसी न किसी स्वार्थ हनन के भय से भयभीत थे! ....(पुन: एक क्षण के मौन के उपरांत)... हस्तिनापुर की दुर्दशा की चिंता किसी को न थी! ...उठो योद्धाओं उठो! ...कुरुक्षेत्र का यह रक्त रंजित युद्धस्थल खाली करो और मेरे साथ चलो! ...तुम्हारा हस्तिनापुर तुम्हें पुकार रहा है!

योद्धाओं के स्वर (निराशा भाव से)  : जाओ, सुदीर्घ यहाँ से जाओ! ...हम निद्रा में हैं! ...हमें विश्राम करने दो!

सुदीर्घ (निराशा के स्वर में)  : तो क्या मैं लौट जाऊँ? ...अकेला ही लौट जाऊँ? ...क्या राज्य के प्रति तुम्हारा कोई धर्म नहीं है?

योद्धाओं के स्वर (पूर्व भाव से)  : राज्य के प्रति क्या धर्म है? ...हम यह भी भलीभांति जानते हैं! ...किंतु हम सैनिक हैं! ...और, सैनिकों के लिए राजा ही राज्य है! ...उसका आदेश ही एक मात्र धर्म!

सुदीर्घ (पूर्व भाव से)  : तो क्या हस्तिनापुर राज्य और उसकी प्रजा की दुर्दशा करने वालों को दण्ड नहीं मिलना चाहिए?

योद्धाओं के स्वर  : अवश्य मिलनी चाहिए! ...जिससे पुन: किसी महायुद्ध का आयोजन न हो! ...किन्तु दूसरा युद्ध लड़ने के लिए अब हमारे तन में शक्ति शेष नहीं है! ...और, तुम्हारा साथ देंगे तो युद्ध अवश्यंभावी है!

सुदीर्घ (क्षुब्ध भाव से)  : मैं प्रतिशोध की अग्नि में तप रहा हूँ! ...ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? ...मैं तुम्हीं से पूछता हूँ!

योद्धाओं के स्वर  : महायुद्ध के कारण हस्तिनापुर राज्य की प्रजा भी पीड़ित है! ...उसके अंतर्मन में भी प्रतिशोध की चिंगारियाँ धहक रही हैं! ...उन्हें केवल ऐसे उचित नेतृत्व की आवश्यकता है! ...जो चिंगारियों को हवा दे सके! ...प्रजा यदि तुम्हारे साथ खड़ी हो जाती है, तो पुन: युद्ध होने की आशंका भी क्षीण ही रहेंगी! ...क्योंकि, इस युद्ध के उपरांत हस्तिनापुर सिँहासन में इतना आत्मबल शेष नहीं रहा है कि वह प्रजा का विद्रोह सहन कर सके! ...अत: लौट जाओ, सुदीर्घ ! ...तुम लौट जाओ! ...और, हमें विश्राम करने दो!

( कुरुक्षेत्र का मैदान छोड़ सुदीर्घ हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान पर पुन: नीरवता का आधिपत्य स्थापित हो जाता है)

- दृश्य-दो-

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( मंच पर हस्तिनापुर नगर के उजड़े-उजड़े-से विक्रय केंद्र का दृश्य। स्तब्ध-से नगरवासी दैनिक उपभोग की आवश्यक वस्तुओं के क्रय-विक्रय में व्यस्त हैं और कुछ परस्पर चर्चा करने में। बीच-बीच में अश्वारोही सैनिक दो-दो के समूह में इधर-उधर भ्रमण करते दिखलाई पड़ते हैं। उनके परिधान पर राजकीय चिह्न अंकित है। हाथ में तलवार, पीठ पर ढाल और कमर पर तूणीर के साथ धनुष-बाण सज्जिात हैं। सैनिकों के घोड़ों की टाप की आहट सुनकर नगरवासियों की दृष्टि उनकी ओर उठती हैं और तत्काल ही सहमे-सहमे से पुन: अपने-अपने कार्यो में व्यस्त होने का नाटक-सा करते हैं। इसी बीच मंच पर सुदीर्घ का प्रवेश होता है। सभी नगरवासी जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में विक्षिप्त-से दिखने वाले व्यक्ति को आश्चर्य व भय मिश्रित नेत्रों से निहारने लगते हैं। सुदीर्घ एक ऊंचे चबूतरे पर खड़ा हो कर नगरवासियों को समीप आने का संकेत करते हैं )

सुदीर्घ (ऊँचे स्वर में)  : मैं सुदीर्घ हूँ ! ...तुम्हारा सुदीर्घ ! ...आओ मेरे समीप आओ! ...मेरी बात सुनों!

( नगर में सन्त सुदीर्घ प्रकट हुए हैं, हवा की गति से यह संदेश संपूर्ण नगर में प्रचारित हो जाता है। क्रय-विक्रय कर्म में व्यस्त नगरवासी अपना-अपना काम छोड़ कुतूहलवश चबूतरे के चारो ओर एकत्रित हो जाते हैं। सुदीर्घ की दयनीय स्थिति देखकर नगरवासियों के मध्य चर्चा प्रारंभ हो जाती है।)

एक नागरिेक (दया भाव से)  : कोई विक्षिप्त-सा प्रतीत होता है! ...सन्त सुदीर्घ नहीं हो सकते!

एक अन्य नागरिक (दया भाव से)  : हाँऽऽऽ! कोई युद्ध पीड़ित-सा लगता है!

अन्य नागरिक (प्रश्नवाचक जिज्ञासा के साथ)  : संभवतया कोई सैनिक है?

एक अन्य (दया भाव का प्रदर्शन करते हुए)  : हाँ, अवश्य ही कोई वृद्ध सैनिक है!

एक और नागरिक (व्यंग्य भाव से)  : अवश्य ही युद्ध से पलायन कर यहां आया है! ...भगोड़ा सैनिक!

( व्यंग्य के साथ ही मंच पर अट्टहास गूँजने लगता है। इसी मध्य अश्वारोही सैनिकों का पुन: मंच पर प्रवेश। एक-एक कर सभी नागरिक वहाँ से चलने लगते हैं। सैनिक संशयपूर्ण दृष्टि से सुदीर्घ को निहारते हैं। आपस में विचार-विमर्श करते हैं और तत्काल ही आगे की ओर बढ़ जाते हैं। सैनिकों के ओझल हो जाने के उपरांत नागरिक पुन: वहाँ एकत्रित होने लगते हैं।)

एक वृद्ध व्यापारी (आश्चर्य भाव से)  : अरे! यह तो सन्त सुदीर्घ ही हैं!

एक अन्य (विस्मय के साथ)  : सन्त सुदीर्घ ! ...कैसे कह सकते हो?

दूसरा नागरिक (दृढ़ता के साथ)  : नहीं, नहीं! ...सन्त सुदीर्घ यहाँ क्यों? ...कदापि नहीं!

तीसरा नागरिक (संदेहात्मक भाव से)  : सन्त सुदीर्घ इस हाल में! ...इससे पूर्व तो हस्तिनापुर में किसी ने उनके दर्शन कभी नहीं किए! ...केवल नाम ही सुना था!

वृद्ध व्यापारी (आश्वस्त भाव के साथ)  : आश्चर्य तो मुझे भी है, वत्स! ...सुदीर्घ आचानक ही यहाँ क्यों! ...और, इस दशा में! ...किन्तु मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ, हैं सुदीर्घ ही!

अन्य नागरिक (संदेह व्यक्त करते हुए)  : आधार?

वृद्ध व्यापारी (आश्वस्त भाव के साथ)  : मैंने पूर्व में भी इनके दर्शन किए हैं! ...जब-जब हस्तिनापुर पर संकट के बादल मँडराए हैं! ...तब-तब सुदीर्घ प्रकट हुए हैं!

एक अन्य नागरिक (भयपूर्ण स्वर में)  : इसका तात्पर्य! ...युद्ध समाप्त होने के उपरांत भी...! अर्थात संकट अभी शेष है!

एक अन्य (भय भाव के साथ)  : संभवतया नवीन कोई संकट!

अन्य नागरिक (जिज्ञासा भाव के साथ)  : किन्तु, यह तो बताओ, वत्स! ...कि संकट की वह कौन सी घड़ी थी, इससे पूर्व भी जब सन्त हस्तिनापुर में प्रकट हुए थे!

वृद्ध व्यापारी (केश संवार कर स्मृति स्फूर्त करते हुए)  : तब-जब महाराज शान्तनु दाशराज-कन्या सत्यवती की प्रेमाग्नि में दग्ध थे! ...और, पुत्र देवव्रत प्रेमाकुल पिता के शोक से संतप्त! ...राजकाज अस्त-व्यस्त हो गया था! ...उस समय राजप्रासाद में प्रकट हुए थे!

अन्य नागरिक (नवीन जिज्ञासा के साथ)  : उसके उपरांत भी कभी?

वृद्ध व्यापारी (स्मरण मुद्रा के साथ)  : हाँ, हाँ! ...अवश्य ही! ...उसके उपरांत भी! ...युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व भी राज्यसभा में! ...सुना यह भी था कि द्रौपदी-चीरहरण की दुखद घटना के पश्चात भी सुदीर्घ प्रकट हुए थे! ...(क्षणिक मौन के उपरांत आश्वस्त भाव के साथ)...मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह भद्र पुरुष सुदीर्घ ही है!

( अनभिज्ञ भाव से नागरिकों का वार्तालाप सुनने के पश्चात सुदीर्घ सहसा ही बोलना प्रारंभ करते हैं)

सुदीर्घ (उच्च स्वर में)  : हाँ! ..मैं तुम्हारा सुदीर्घ ही हूँ! ...आओ मेरे ओर समीप आओ! ...और मेरी बात सुनों!

( उपस्थित नगरवासियों के मुख मंडल पर आश्चर्य व संदेह के मिश्रित भाव उतर आते हैं। संत सुदीर्घ प्रकट होने का समाचार दूर-दूर तक फैल जाता है और समाचार प्राप्त होते ही जनसमुदाय विक्रय केंद्र की ओर बढ़तने लगता है। नगरपार्षद सुवीर्य तक भी यह संदेश पहुँचता है और वह भी अपने कुतूहल पर नियंत्रण नहीं कर पाते, अत: अपने समर्थकों के साथ वह भी चबूतरे के पास पहुँच जाते हैं। राज्य के चारक भी सक्रिय हो जाते है।)

सुदीर्घ (पुन: उच्च स्वर में)  : ...मैं, तुम्हारा सुदीर्घ ! ...तुम से पूछने आया हूँ! ...धन-धान्य और सुख-वैभव से संपन्न इस राज्य को नर्क में परिवर्तित किसने किया? …तुम्हारा यह स्थिति किसी कारण से हुई है? …बताओ-बताओ, निर्भीक होकर बताओ!

( प्रश्न सुनकर वातावरण में ध्वनिहीनता-सी व्याप्त हो जाती है। नगरवासी आश्चर्य व जिज्ञासा भाव से एक-दूसरे की ओर देखने लगते हैं। एक क्षण के मौन के बाद परस्पर कानाफूसी शुरू होती है , शायद सुदीर्घ के प्रश्न का उत्तर देने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं , जो सुदीर्घ की बात समझ ही नहीं पाते हैं। नगरवासियों का ऐसा व्यवहार देख सुदीर्घ पुन: बोलते हैं)

सुदीर्घ (पूर्व भाव से)  : मौन क्यों हो! ...उत्तर क्यों नहीं देते? ...तुम्हारा सुदीर्घ पहली बार तुम्हारे सामने खड़ा है! ...पहली बार तुमसे कुछ पूछ रहा है! ...फिर यह मौन क्यों.्..?

एक वृद्ध नगरवासी (साहस जुटाते हुए)  : कुरूक्षेत्र- महायुद्ध के कारण!

सुदीर्घ  : युद्ध का कारण!

वृद्ध नागरिक (मुख पर भय व चिंता भाव के साथ)  : राज परिवार की पारस्परिक कलह के कारण!

सुदीर्घ  : किन्तु...! युद्ध के लिए उत्तरदायी कौन है? ...क्या कभी विचार किया है?

( उपस्थित सभी नगरवासी जिज्ञासा भाव से एक दूसरे का मुख निहारने लगते हैं। वृद्ध भी उत्तर देने का साहस नहीं जुटा पाता है। वातावरण में एक लंबी नीरवता पुन: व्याप्त हो जाती है। ...एक अंतराल के बाद नगर पार्षद सुवीर्य नीरवता भंग करते हैं।)

सुवीर्य (अपना परिचय देते हुए)  : मैं नगर पार्षद हूँ ...!

सुदीर्घ (मध्य ही में मुसकराते हुए)  : वृक्ष धरती को अपना परिचय दे रहा है! ...(अट्टहास के साथ)...वक्षस्थल पर पनपने वाला ऐसा कौन सा वृक्ष है! ...धरती जिससे परिचित नहीं! ...(सुवीर्य की ओर संकेत करते हुए) ... परिचाय की आवश्यकता नहीं है, वत्स! ...विचार व्यक्त करो!

( सुदीर्घ का कटाक्ष सुनकर उपस्थित जन अट्टहास करते हैं।)

सुवीर्य (संकोच के साथ)  : उत्तरदायित्व निर्धारित करने का अधिकार जनता के पास नहीं है! ...ऐसा करना धर्म विरुद्ध होगा!

सुवीर्य के समर्थक (दृढ़ता के साथ)  : हाँऽऽऽ! ...हाँ! ...माननीय नगर पार्षद जी का कहना उचित है!

( समर्थन प्राप्त होने पर सुवीर्य के मुख पर आत्म-विश्वास व गर्व के चिह्न उभर आते हैं।)

सुवीर्य (आत्म विश्वास के साथ)  : सिँहासन के लिए युद्ध करना राजधर्म है! ...क्षत्रिय धर्म है! ...युद्ध तो राजाओं के लिए द्यूत-क्रीड़ा के समान है! ...इसमें उत्तरदायित्व का प्रश्न ही कहाँ उत्पन्न होता है, आदरणीय?

सुदीर्घ (शांत भाव से)  : युद्ध का औचित्य क्या था? ...क्या उसे टाला नहीं जा सकता था? ...क्या युद्ध टाल कर हस्तिनापुर राज्य को दुर्गति से नहीं बचाया जा सकता था?

सुवीर्य के समर्थक (उसी दृढ़ता के साथ)  : यह साधारण युद्ध नहीं था, सन्त! ...धर्म युद्ध था! ...धर्म युद्ध। ...धर्म-रक्षा हेतु युद्ध अनिवार्य था! ...अत: औचित्य-अनौचित्य का प्रश्न कहाँ?

सुवीर्य (उपेक्षा भाव से उच्च स्वर में)  : माननीय! ...तुम्हारे स्वर से विद्रोह की गंध आ रही है! और, राज्य के प्रति विद्रोह धर्मानुकूल नहीं ...!

( मध्य ही में नगरवासियों की भीड़ के एक छोर से एक साथ कई स्वर गूंजते हैं)

नगरवासी (उच्च स्वर में)  : ...हाँ, हाँ, ...हाँऽऽऽ ...हाँ! ...राज्य के प्रति विद्रोह धर्मानुकूल नहीं है! ...अत: उत्तरदायित्व निर्धारण का प्रश्न ही अनुचित है!

( नगरवासियों द्वारा सुवीर्य का समर्थन करने के उपरांत क्षणभर के लिए मौन व्याप्त हो जाता है।)

सुवीर्य (उत्साह के साथ)

राज्य के प्रति विद्रोह करने का फल जानते हो, सुदीर्घ ? ...मृत्युदण्ड! ...हाँ, केवल मृत्युदण्ड! ... (क्षणिक विराम के उपरांत क्षुब्ध भाव से) ...अर्ध्‍द मृत्यु को तो हम प्राप्त हो ही चुके हैं! ...राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर अब हम पूर्ण
मृत्यु नहीं चाहते हैं, माननीय!

( प्रश्नवाचक नेत्रों से सुदीर्घ नगरवासियों को निहारते हैं और उनके मनोभावों का आकलन करने का प्रयास करते हैं। तत्पश्चात...)

सुदीर्घ (आक्रोश के स्वर में)  : हूँऽऽऽ! ..धर्मानुकूल नहीं! ...(मौन और फिर संयत स्वर में) ...दूसरों में भय का संचार करने वाले अथवा भयभीत मनुष्य ही बात-बात पर धर्म की दुहाई दिया करते हैं! ...और, तुम ऐसे ही भयभीत मनुष्य हो! ....स्मरण रखना! ...विवेकशील मनुष्य धर्म को भी विवेक की तुला पर तोल कर देखते हैं! ...और, ऐसे मनुष्य ही यथार्थ में धर्म का पालन करते हैं! ...अविवेकी जन नहीं! ...(क्षणिक मौन के

उपरांत सुवीर्य का तर्क दुहराते हुए) ...’अ‌र्ध्‍द मृत्यु को तो हम प्राप्त हो ही चुके है...!' ...(व्यंग्य भाव से)... अच्छा तो तुम अ‌र्ध्‍द मृत्यु को प्राप्त हो चुके हो? ...अर्थात! ...तुम अ‌र्ध्‍द जीवित हो! ...(क्षणिक मौन के उपरांत तीव्र गति से बोलते हुए)... नहीं, नहीं! ...यह तुम्हारा भ्रम है! ...क्योंकि, तुम्हारे आत्मबल का क्षय हो चुका है! ...शरीर से भले ही जीवित हो, किन्तु तुम्हारा आत्मबल पूर्णरूपेण मृत्यु को प्राप्त हो चुका है! ...आत्मबल का क्षय पूर्ण मृत्यु से भी अधिक दुखद होता है! ..तुम. जीवित शव के समान हो गए हो! ... (दीर्घ श्वांस के उपरांत शान्त भाव से)...मैं विद्रोह की ज्वाल में तुम्हें भस्म करने नहीं! ...अपितु जीवन प्रदान करने आया हूँ! ...तुम्हारा आत्मबल तुम्हें लौटाने आया हूँ! (सुदीर्घ के नेत्रों में अश्रु छलकने लगते हैं)

सुवीर्य (क्षोभ के साथ)  : उस जीवन का अर्थ क्या? ...जो राज्य के प्रति निष्ठावान न हो! ...और, वह कैसा आत्मबल? ...जो राज्यद्रोह के लिए प्रेरित करे?

सुदीर्घ (ग्लानि भाव से)  : भय के वशीभूत अपने तर्क का संबंध राज्य के साथ स्थापित कर निष्ठा जैसे पवित्र शब्द का अपमान न करो, वत्स! ...क्योंकि, तुम्हारी यह कथित निष्ठा सत्ता में बने रहने की लालसा मात्र है! ...इसे निष्ठा नहीं, चाटुकारिता कहते हैं! ...क्योंकि, उसमें स्वार्थ निहित है! ...(सुवीर्य को निहारते हुए)... तुम्हारी यह कथित निष्ठा राज्य के प्रति नहीं, केवल एक व्यक्ति के प्रति है! ...एक परिवार के प्रति है! ...मेरे स्वर से यदि विद्रोह की गंध आ रही है, तो वह भी राज्य के विरुद्ध नहीं! ...विद्रोह के स्वर व्यक्ति पूजा की भावना के प्रति हैं! ...राज्य की उपेक्षा कर परिवार विशेष के प्रति तुम्हारी कथित निष्ठा भाव के प्रति है! ...सत्ता लोलुप्ता के निहित स्वार्थ के विरुद्ध हैं!

सुवीर्य (व्यंग्य भाव से)  : सत्ता के प्रति निष्ठावान होना क्या अधर्म है?

सुदीर्घ (सहज भाव के साथ)  : नहीं, कदापि नहीं! ...सत्ता यदि निहित स्वार्थ से मुक्त हो, तभी! ...(क्षोभ व्यक्त करते हुए)...किन्तु, राष्ट्र व प्रजा की उपेक्षा कर सत्ताधीश यदि निहित स्वार्थ में डूबे हों तो उनके प्रति निष्ठा का औचित्य क्या? ...( सुदीर्घ जन समुदाय को निहारते हैं और तत्पश्चात सुवीर्य के मुख पर नेत्र केंद्रित कर सहज भाव के साथ आगे कहते हैं)...राष्ट्र और प्रजा के प्रति राजा का भी धर्म निर्धारित है! ...राजा यदि अपने धर्म का पालन नहीं करता है, तब ऐसी स्थिति में राजा के प्रति प्रजा-धर्म का क्या औचित्य?...( जन समुदाय मनोयोग और शान्त भाव के साथ सन्त सुदीर्घ के विचारों का श्रवण व उन पर मनन कर रहा है। विचार व्यक्त करते-करते सुदीर्घ क्षण प्रति क्षण जन-भावना का आकलन करते-करते पुन: ग्लानि भाव से) ...धर्म के नाम पर कब तक सत्ता के मोहरे बने रहोगे! ...धर्म को भी विवेक की कसौटी पर परखना सीखो, हस्तिनापुरवासियों! ...(उच्च स्वर में) ...रोको सत्ता की इस द्यूत क्रीड़ा को...!

सुवीर्य (पुन: व्यंग्य भाव से)  : किन्तु, श्रद्धेय! ...द्यूत क्रीड़ा तो राजाओं का प्रमुदन है! ...इसमें प्रजा की क्या हानि?

सुदीर्घ (उग्र भाव से)

यह कैसा प्रमुदन! ...जिसमें राज्य और राज्य की प्रजा को निजी सम्पत्ति मान लिया जाए? ...( क्रोध पर नियंत्रण करने का प्रयास कर दृष्टि पुन: सुवीर्य पर केंद्रित करते हुए)... सब कुछ जानते हुए भी अनजान न बनो, वत्स! ...नगर पार्षद हो!
...प्रजा का मार्गदर्शन करना तुम्हारा धर्म है! ... धर्मराज युधिष्ठिर ने द्यूत क्रीड़ा में क्या द्रौपदी व इंद्रप्रस्थ राज्य दाव पर लगाया था? …क्या वे द्रौपदी और इंद्रप्रस्थ राज्य हारे थे? …क्या कभी विचार किया है, वत्स सुवीर्य! ...नहीं-नहीं! ...वे न द्रौपदी हारे थे और न ही इंद्रप्रस्थ राज्य! उन्होने इन दोनों को दाव पर लगाया ही नहीं था, वत्स! ...दांव पर तो इंद्रप्रस्थ की प्रजा को लगाया था? ..और द्यूत क्रीड़ा में प्रजा के स्वाभिमान की ही हार हुई थी! ... (कहते-कहते सुदीर्घ के नेत्र पुन: अश्रु पूरित हो जाते हैं। एक क्षण के मौन के बाद)... तुम सत्ता की द्यूत क्रीड़ा के मोहरे मत बनो! ...सत्ता की द्यूत क्रीड़ा स्वयं रुक जाएगी! ...विनाश का यह चक्र स्वत: ही रुक जाएगा!

(दोनों हाथों से शीश पकड़ सुदीर्घ आकाश की ओर निहारने लगते हैं। तभी नगरवासियों की भीड़ से स्वर उठते हैं)

नगरवासी (जिज्ञासा भाव से)  : किन्तु राज्य के प्रति प्रजा का भी तो कोई धर्म है! ...उसका क्या होगा?

सुदीर्घ (शान्त भाव से)  : राज्य का अर्थ जानते हो? ...क्या राज्य का अर्थ केवल राजसिँहासन और उस पर विराजमान व्यक्ति ही है? ...नहीं, कदापि नहीं! ...राज्य का अर्थ केवल सिँहासन और उस पर विराजमान व्यक्ति ही नहीं होता! ...राजसिँहासन राज्य का प्रतीक है और उस पर विराजमान राजा राज्य- व्यवस्था का केवल मात्र संचालक!

सुवीर्य  : राजसिँहासन और राजा यदि राज्य नहीं हैं तो फिर राज्य क्या है?

सुदीर्घ (पूर्व भाव से)  : प्रश्न उचित है, माननीय नगर पार्षद! ...राज्य का अर्थ राज्य की प्रजा से है! ...निर्जन भू-भाग राज्य नहीं कहलाए जाते हैं, वत्स! ...और, निर्जन धरती पर न कोई राजसिँहासन होता है और न ही उस पर बैठने वाला कोई राजा! ...प्रजा के बिना राज्य की कल्पना ही असंभव है!

सुवीर्य (आश्चर्य व्यक्त करते हुए)  : राजसिँहासन और राजा के बिना व्यवस्था स्थापित कर राज्य का संचालन करना क्या संभव है, श्रद्धेय?

सुदीर्घ (गंभीर भाव से)

कदापि नहीं, वत्स! ...किन्तु यदि कोई राजा राजकीय व्यवस्था का उपयोग स्वहित में करने लगे अथवा उसे बाधित करने लगे, तो क्या उसके प्रति निष्ठा उचित है? ...' मोहाद्राजा स्वराष्ट्र या: कर्षयत्यनवेक्षया, सोऽचिराभ्द्रश्यते राज्याज्जीविताच्च सबान्ध्व:।' -मोह के वशीभूत जो राजा
कर्तव्य-अकर्तव्य के मध्य अंतर न कर प्रजा को कष्ट देता है, वह शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट होकर कुलसहित नष्ट हो जाता है! ...नहीं, नहीं! ...राज्य हित में ऐसे राजा का बहिष्कार ही उचित है! ...अन्यथा न राज्य बचेगा और न ही राजा!

नगरवासी (जिज्ञासा भाव से एक सुर में)  : आखिर आप चाहते क्या हैं, श्रद्धेय?

सुदीर्घ (शान्त भाव से)  : मैं वही चाहता हूँ, जो इस राज्य का प्रत्येक नागरिक चाहता है! ...राज्य में केवल सुख और शान्ति! ...और, किसी भी राज्य की सुख-शान्ति उसके नागरिकों की सुख-शान्ति में ही निहित है!

नगरवासी (पूर्व भाव से)  : किन्तु, हस्तिनापुर की प्रजा से क्या चाहते हो, आदरणीय?

सुदीर्घ (पूर्व भाव से)  : महायुद्ध के अभियुक्त का निर्धारण और जन-न्यायालय में उस पर अभियोग..!

(सुदीर्घ की इच्छा सुनकर नगरवासी हतप्रभ से रह जाते हैं, किन्तु सुदीर्घ के प्रस्‍ताव का विरोध करते हुए सुवीर्य और उनके समर्थक राज्य के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करते हैं।)

सुवीर्य और उसके समर्थक (विरोधी स्वर में उग्र भाव में)  : नहीं, नहीं! ...ऐसा कदापि नहीं हो सकता! ...ऐसा नहीं होने देंगे! क्योंकि...!

सुवीर्य (मध्य ही में हाथ उठाकर समर्थकों को शान्‍त करते हैं और उत्तेजित भाव से कहते हैं)  : ...क्योंकि! ...सिँहासन के प्रति निष्ठा जनता का धर्म है और वह उसके लिए वचनबद्ध है! ...(आदेशात्मक लहजे में).. चलो, भाइयों चलो! ...हमें वही करना है, जो धर्म कहता है! ...और, धर्म सिँहासन के विरुद्ध विद्रोह करने की अनुमति प्रदान नहीं करता है!

(सुवीर्य और उसके समर्थक सभा स्थल से चले जाते हैं, किंतु शेष नगरवासी शान्त भाव से वहीं खड़े रहते हैं)

सुदीर्घ (क्षुब्ध भाव से)  : प्रतिज्ञा-प्रतिज्ञा, धर्म! ...संपूर्ण राजपरिवार इस प्रतिज्ञा और धर्म...! (दोनों हाथों से शीश पकड़कर) ...नहीं, स्व-प्रतिष्ठा! ...राजपरिवार इन दोनों की ही सुरक्षा के लिए तो चिंतित रहा! ...(दीर्घ श्वांस लेकर)... भूल से ही ऐसा हो जाता यदि कभी! ...कि प्रतिज्ञा और स्व-प्रतिष्ठा से ऊपर उठ कर किसी ने राज्य हित में चिन्तन कर लिया होता, काश! ...प्रतिज्ञा और स्व-प्रतिष्ठा उनका धर्म न हो कर, राज्य और जन-हित कभी तो उनका धर्म हुआ होता! ...तो, हस्तिनापुर को महायुद्ध की ज्वाला के ताप में क्यों भस्म होना पड़ता?

( इसके साथ ही सुदीर्घ प्रार्थना की मुद्रा में दोनों हाथ व मुख आसमान की ओर कर लेते हैं। सुदीर्घ के सुझाव पर नगरवासी परस्पर चर्चा करने लगते हैं और एक अंतराल के उपरांत...।)

नगरवासियों का एक प्रतिनिधि (शान्त भाव से)  : यह तो ठीक है कि राज-परिवार की कलह और स्वार्थ ने ही हमें युद्ध की विभीषिका में ढकेला है, आदरणीय! ...यह भी समयानुकूल है कि उस पर अभियोग चलना ही चाहिए! ...किन्तु इस विषय पर विचार करने के लिए हमें एक दिन का समय चाहिए।

(सुदीर्घ एक क्षण मौन रहकर नगरवासियों की मानसिकता का आकलन करते हैं, तत्पश्चात)

सुदीर्घ (शान्त भाव से)  : उचित! ...अति उत्तम! ...मैं जो कुछ भी करने के लिए कर रहा हूँ! ...वह कोई साधारण कार्य नहीं है! ...उस पर विचार कर सर्व-सम्मति बनाना आवश्यक है! ...क्योंकि, मैं नहीं चाहता कि महायुद्ध के बाद अब राज्य को गृहयुद्ध की अगिन् में ढकेल दिया जाए! ...अत: विचार कर सर्वसम्मत ही होना श्रेयष्कर रहेगा! ... (क्षणिक विचार के उपरांत)... अच्छा! ...कल गोधूलि बेला में देवस्थानम पर पुन: भेंट होगी।

(सुदीर्घ का अभिवादन कर परस्पर चर्चा करते हुए सभी नगरवासी अपने-अपने आवास की ओर चले जाते हैं। सुदीर्घ भी सभा स्थल से गमन कर जाते हैं।)

-दृश्य तीन-

/

( मंच पर नगर पार्षद सुवीर्य के सभाकक्ष का दृश्य। कक्ष के एक ऊँचे आसन पर सुवीर्य राजषी वस्त्र धारण कर विराजमान हैं। उसके समर्थक सुवीर्य के आसन के दोनों ओर स्थित आसनों पर विराजमान हैं। सुवीर्य उपस्थित अपने समर्थकों के साथ सन्त सुदीर्घ के प्रस्ताव पर समर्थकों के साथ चर्चा करना प्रारंभ करते हैं।)

सुवीर्य (चिंतित भाव के साथ दोनों हथेलियों से अपने मुख रगड़ते हुए)  : हमें राजसिँहासन का साथ देना चाहिए अथवा सुदीर्घ का?

(वाणी को विराम देकर सुवीर्य उत्तर के लिए समर्थकों की ओर निहारते हैं। किन्तु, समर्थक उत्तर देने का साहस नहीं जुटा पाते हैं)

सुवीर्य (अधिकार पूर्ण वाणी में)  : प्रश्न पर तो हमें विचार करना ही होगा!

एक समर्थक (आसन से खड़े होकर ) : हम सिँहासन के प्रति वचनबद्ध हैं! ...अत: सुदीर्घ का नहीं राजपरिवार का साथ देना ही हितकर होगा!

दूसरा समर्थक (चाटुकारिता का प्रदर्शन करते हुए। नमस्कार मुद्रा में)  : राजसिँहासन, राजा, राज्य और प्रजा संबंधी सुदीर्घ की गूढ़ व्याख्या छलावा मात्र है, महाराज! ...अत: राजपरिवार का साथ देना ही उचित होगा, महाराज!

एक और समर्थक (पूर्व समर्थक का समर्थन करते हुए)  : राजसिँहासन और राजा के बिना राज्य का क्या अस्तित्व! ...अत: सुदीर्घ का विरोध और राजपरिवार का साथ देने में ही हम सभी का हित है, माननीय!

सुवीर्य (चिंतित भाव से)  : किन्तु, सुदीर्घ का मूल्यांकन कम कर देखना भी तो हमारी भूल होगी! ...हस्तिनापुर की प्रजा उनका बहुत सम्मान करती है! ...उनका विरोध करना भी सहज कार्य न होगा!

एक अन्य समर्थक (आसन के पास से ही चरण स्पर्श का संकेत करते हुए)  : सुदीर्घ के विद्रोही तेवरों की सूचना राजदरबार को देकर हमें चिन्ता मुक्त हो जाना चाहिए। ...विद्रोह से निपटना राजा का दायित्व है न कि हमारा!

एक और समर्थक (साष्टांग प्रणाम करते हुए)  : आप चिंता न करे महाराज! ...राजदरबार तक जाने की भी स्थिति उत्पन्न नहीं होगी! ...राजसिँहासन और राजा के प्रति प्रजा का क्या धर्म है! ...प्रजा इसे भलीभांति जानती है! ...प्रजा सुदीर्घ से स्वयं निपट लेगी! ...उनके मन से केवल धर्म का भय कम नहीं होना चाहिए!

विदर्भ (अभिवादन करते हुए)  : यह कैसे मान लिया जाए कि धर्म का भय जनता के मन-मस्तिष्क पर प्रभावी रहेगी ही? ...वे धर्म-भय से कभी मुक्त होंगे ही नहीं? ...महाराज, आपका कहना उचित ही है कि सुदीर्घ का मूल्यांकन कम कर आंकना उचित न होगा।

सुवीर्य (पूर्व भाव में)  : तो आपके कहने का आशय क्या यह है कि प्रजा को राजपरिवार के विरुद्ध संगठित करने में सुदीर्घ सफल हो जाएगें?

विदर्भ (दृढ़ता के साथ)  : नहीं, अभी मेरे कहने का यह आशय कदापि नहीं है! ...परन्तु, उपस्थित अन्य महानुभावों के समान मैं उनका मूल्यांकन स्वार्थ की तुला पर करने के पक्ष में नहीं हूँ!

सुवीर्य (चिंतित भाव से)  : स्पष्ट शब्दों में कहो! ...कूटनीति की भाषा बोल कर मेरी चिंता में और वृद्धि न करो, वत्स!

विदर्भ (दृढ़ता के साथ)  : इससे अधिक स्पष्ट और क्या होगा, महाराज? ...सुदीर्घ के सटीक तर्क और प्रभावशाली संवाद शैली पर ध्यान दीजिए, महाराज! ...यथार्थ में आपकी चिंता का कारण भी वही है! ...तो फिर कैसे कहा जा सकता है कि वह प्रजा को धर्म के भय से मुक्त करने में सफल नहीं हो पाएगें? ...और, राज्य की प्रजा उनका अनुसरण नहीं करेगी?

( विदर्भ की बात सुन कर सुवीर्य की चिंता में और वृद्धि हो जाती है। वह अपने नेत्र बंद कर चिंता में डूब जाते हैं। क्षण भर के अंतराल के उपरांत)

सुवीर्य (चिंतित भाव से)  : तो क्या...? ...(उपस्थित समर्थकों की दृष्टि सुवीर्य की ओर केंद्रित हो जाती है।)... हमारी तरह राज्य की प्रजा भी सुदीर्घ के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार कर रही होगी?

विदर्भ (आत्मविश्वास के साथ)  : क्यों नहीं महाराज! ...अवश्य ही! ...सभा-स्थल से हमारे चले आने के बाद नगरवासियों ने उसके प्रस्ताव पर विचार करने और आज गोधूलि बेला पर देवस्थानम स्थल पर भेंट करने का आश्वासन दिया है।

सुवीर्य (संदेह भाव से)  : क्या तुम पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हो कि नगरवासी आज वहाँ अवश्य एकत्रित होंगे?

विदर्भ (दृढ़ता के साथ)  : संदेह व्यर्थ है, महाराज!

सुवीर्य (पूर्व भाव से)  : तो फिर सूचना प्राप्त करने के लिए नगर में चारक भेजने की व्यवस्था की जाए?

विदर्भ (गर्व के साथ)  : पूर्व में ही व्यवस्था की जा चुकी है, महाराज! ...चारक सूचना लेकर आते ही होंगे!

सुवीर्य (पूर्व भाव से)  : प्रशंसनीय! ...तो किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पूर्व हमें चारकों की प्रतीक्षा करनी चाहिए!

( चारक-दल के आने का सभी उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करते-करते एक-दूसरे के साथ चर्चा में व्यस्त हो जाते हैं। किन्तु जैसे-जैसे प्रतीक्षा लंबी होती जा रही है , वैसे-वैसे सुवीर्य की चिंता में वृद्धि होती जाती है। आसन पर बैठे-बैठे ही वह कभी सभा-कक्ष की छत की ओर निहारते हैं , तो कभी दोनों हाथों से अपने चेहरा और कभी शीश रगड़ते हैं। कुछ ही क्षण के अंतराल के बाद चारक एक-एक कर सभा-कक्ष में प्रवेश करते हैं। चारकों को देखते ही व्याकुल सुवीर्य आसन से खड़े हो जाते हैं। चारक बारी-बारी से सुवीर्य का अभिवादन करते हैं। अधीर सुवीर्य अभिवादन स्वीकार करने की औपचारिकता पूरी किए बिना ही प्राप्त सूचना का विवरण जानने के लिए चारकों की ओर उत्सुकता से निहारते हैं)

सुवीर्य (जिज्ञासा से)  : कहो-कहो, वत्स! ...क्या सूचना है?

एक चारक (शांत भाव से अभिवादन करते हुए)  : नगरवासी अलग-अलग समूह में दिन भर सुदीर्घ के प्रस्ताव पर ही चिंतन-मनन करते रहे हैं, महाराज...!

सुवीर्य (उत्सुकता के साथ मध्य ही में)  : नहीं-नहीं! ...उनका निर्णय?

दूसरा चारक (अभिवादन करते हुए शांत भाव से)  : महाराज! ...नगरवासी आज गोधूलि बेला पर देवस्थानम स्थल पर एकत्रित होंगे और...!

सुवीर्य (चिंता और उत्सुकता के भाव के साथ पुन: मध्य ही में)  : और क्या...?

पहला चारक (पूर्व भाव से)  : महाराज! ...युद्ध की विभिषिका से पीड़ित नगरवासी सुदीर्घ के प्रस्ताव से सम्मत प्रतीत होते हैं...!

( चारक से सूचना प्राप्त कर सुवीर्य के मुख पर चिंता के साथ-साथ निराशा के भाव भी परिलक्षित होने लगते हैं।)

दूसरा चारक (सांत्वना के स्वर में)  : किन्तु, महाराज! ...प्रजा भी धर्म के भय से ग्रसित प्रतीत होती है! ...अत: प्रजा-धर्म की स्पष्ट व्याख्या से संतुष्ट होने के उपरांत ही वह अंतिम कोई निर्णय लेगी!

एक समर्थक (प्रसन्न मुद्रा में)  : मैने कहा था ना महाराज! ...प्रजा धर्म भीरू है! ...धर्म के भय से वह मुक्त नहीं हो पाएगी, अत: प्रजा सुदीर्घ के प्रस्ताव के प्रति सम्मति व्यक्त करेगी, यह असंभव प्रतीत...!

सुवीर्य (समर्थक को उपेक्षा भाव से निहारते हुए)  : विषय गंभीर है! ...निर्णय विवेक के आधार पर ही होना चाहिए! ...भावना के आधार पर नहीं!

विदर्भ (पूर्व समर्थक पर व्यंग्य करते हुए)  : श्रीमन! आप पर्वत को अंगुल से नापने की चेष्टा कर रहे हो! ...ऐसा करना ही हमारी भूल होगी! ...श्रीमन! मापदंड लंबाई के अनुकूल होना चाहिए! ...वरन, आकलन सत्य न होगा!

सुवीर्य (जिज्ञासा भाव से)  : अलंकारिक भाषा नहीं, महोदय! ...नीतिगत चर्चा स्पष्ट व सरल भाषा में करना ही उचित है!

विदर्भ (आश्वस्त भाव के साथ)  : स्पष्ट ही तो है, महाराज! ...जिस सुदीर्घ ने अपनी वाकपटुता और तर्कशक्ति के आधार पर प्रजा को युद्ध-उत्तरदायित्व-निर्धारण के प्रस्ताव पर विचार करने के लिए न केवल बाध्य कर दिया है! ...अपितु आंशिक रूप से उन्हें सम्मत भी कर लिया है! ...फिर यह अनुमान कैसे लगा लिया जाए कि वह सुदीर्घ उन्हें धर्म-भय से पूर्णरूपेण मुक्त करने में सफल नहीं हो पाएगा?

सुवीर्य (चिंतित भाव से)  : तो फिर, हमारी रणनीति क्या होनी चाहिए? ...कोई न कोई तो निर्णय लेना ही होगा?

विदर्भ (निश्चिंत भाव से)  : हाँ, महाराज! ...वायु की दशा-दिशा का आकलन कर निर्णय तो अभी तक हमें कर लेना चाहिए था! ...किन्तु नहीं! ...आज सांयकाल की देवस्थानम की सभा में भी एक बार पुन: वायु की दशा-दिशा और उसके वेग का आकलन करना ही उचित होगा!

सुवीर्य (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए)  : तो क्या हमें सांयकालीन सभा में सम्मलित होना चाहिए?

विदर्भ (आत्म विश्वास के साथ)  : नि:संदेह महाराज!

सुवीर्य (संदेह व्यक्त करते हुए)  : नगरवासी यदि सुदीर्घ के प्रस्ताव के प्रति समर्थन व्यक्त करते हैं, तो क्या...!

विदर्भ (पूर्व भाव से)  : तब हमें भी प्रस्ताव का समर्थन करना चाहिए! ...ऐसा करना ही हमारे लिए हितकर होगा, महाराज!

सुवीर्य (पूर्व भाव से)  : तो क्या हमें राजद्रोह में सम्मलित हो जाना चाहिए? ...क्या सिँहासन के प्रति हमारा कोई कर्तव्य नहीं है?

विदर्भ (शांत भाव से)  : ऐसा नहीं है, महाराज! ...मेरे कहने का यह आशय कदापि नहीं है! ...प्रजा यदि सुदीर्घ के प्रस्ताव के प्रति सहमति व्यक्त करती है! ...तो प्रजा का विद्रोह व्यक्ति विशेष के प्रति होगा! ...परिवार विशेष के प्रति हो सकता है! ...किन्तु सिँहासन के प्रति नहीं! ...हमारी निष्ठा सिँहासन के प्रति है, महाराज! ...व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं! ...जब द्रोह सिँहासन के प्रति होगा ही नहीं, तब उसे राजद्रोह की संज्ञा कैसे दी जा सकती है, महाराज!

एक समर्थक (व्यंग्य भाव से)  : महाश्य! आप तो सुदीर्घ की भाषा बोल रहें हैं! ...संदेह होता है कि आप कहीं सुदीर्घ के प्रवक्त तो नहीं...?

विदर्भ (शांत भाव से)  : प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि की सीमा में ही विचार करने के लिए बाध्य है! ...और, आप उसके अपवाद नहीं हैं, श्रीमान!

समर्थक (झुंझलाहट में)  : और आप?

विदर्भ (पूर्व भाव से)  : अवश्‍य, मैं भी! ...किन्तु मैं बुद्धि के साथ-साथ विवेक का भी उपयोग कर रहा हूँ, महोदय! ...अत: मैं सुदीर्घ के नहीं, अपने ही शब्दों में भविष्य की व्याख्या करने का प्रयास कर रहा हूँ! ...इसलिए, महोदय! ...मैं सुदीर्घ का नहीं, भविष्य का प्रवक्ता होने का प्रयास कर रहा हूँ...!

( सुवीर्य समर्थकों व विदर्भ के मध्य जारी वार्तालाप पर विराम लगाते हैं)

सुवीर्य (संदेह मिश्रित जिज्ञासा भाव से)  : ...और, सम्राट! ...जिसने हमें नगर पार्षद और आप सभी को नगर का सम्मानित नागरिक होने का सम्मान प्रदान किया है...?

विदर्भ (क्षमा याचना करते हुए , सहज भाव से)  : आदरणीय! ...सम्राट को लेकर संशय क्यों? ...संशयात्मक यह बुद्धि क्या यह सिद्ध नहीं कर रही है कि युद्ध के लिए हम स्वयं ही अपने सम्राट को उत्तरदायी स्वीकार कर चुके हैं! ...क्या इस पूर्वानुमान के भी मिथ्या होने की संभावना नहीं है? ...( विदर्भ ने सुवीर्य के मुख पर उतर आए भावों का आकलन किया सुवीर्य के मुख पर वितृष्णा के भाव थे। भाव आकलन करने के उपरांत) ...महाराज! सिँहासन प्रजा का है! ...सम्राट प्रजा से है और हमारे सम्मान का आधार भी प्रजा ही है! ...प्रजा पीड़ित है, महाराज! ...पीड़ित यदि विद्रोह करने पर उतर आए तो न सम्राट का अस्तित्व सुरक्षित रह पाएगा! ...और, तब न ही सम्राट द्वारा प्रदत्त अलंकरणों का कोई औचित्य शेष रह पाएगा!

सुवीर्य (संशय और चिंता के मध्य विचार मुद्रा में)  : उचित! ...साँय काल हम सभी देवस्थानम के लिए प्रस्थान करेंगे!

- दृश्य चार-

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( प्राकृतिक छटा के मध्य नगर की सीमा पर स्थित विस्तृत मैदान देवस्थानम , जहाँ हस्तिनापुर के नागरिक सामूहिक उत्सवों का आयोजन किया करते हैं। वार्षिकोत्सव के अवसर पर हस्तिनापुर सम्राट भी वहां उपस्थित होते हैं। गोधूलि बेला आ चुकी है और इसके साथ ही अलग-अलग समूह में एक दूसरे के साथ चर्चा करते हुए नागरिक वहाँ एकत्रित होने लगे हैं। नागरिकों की उपस्थिति धीरे-धीरे बढ़ने लगी है। नागरिकों के मुखों पर आत्म-विश्वास स्पष्ट झलक रहा है। कुछ क्षण के अंतराल के उपरांत ही सुदीर्घ भी वहां उपस्थित हो जाते हैं और देवस्थानम पर बने उसी विशाल मंच पर खड़े हो जाते हैं , वार्षिकोत्सव के अवसर पर जहाँ हस्तिनापुर सम्राट विराजमान होते हैं। सुदीर्घ अपने स्थान पर ही खड़े-खड़े एकत्रित नागरिकों का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं। नागरिक सुदीर्घ का अभिवादन करते हैं।)

नागरिक (सामूहिक रूप से)  : हमारे लिए क्या आदेश है, आदरणीय?

( आदेश की प्रतीक्षा में नागरिक सुदीर्घ की ओर निहारने लगते हैं। उसी समय क्षितिज की ओर से रथ आते दिखलाई पड़ते हैं। रथों पर सुवीर्य और उनके समर्थक आरूढ़ हैं। सुवीर्य और उनके समर्थक आज राजषी वस्त्र नहीं , साधारण वस्त्र धारण कर उपस्थित हुए हैं। मंच के समीप आते ही सभी साधरण नागरिकों के मध्य सम्मलित हो कर सुदीर्घ का अभिवादन करते हैं।)

सुदीर्घ (सहज भाव के साथ)  : पवित्र स्थली देवस्थानम आगमन पर आपका स्वागत है, श्रीमन सुवीर्य!

( सुदीर्घ के अभिवादन के कारण सुवीर्य के मुख पर ग्लानि भाव व्याप्त हो जाते हैं और वह प्रत्यक्षरूप में सुदीर्घ के अभिवादन का उत्तर देने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।)

सुदीर्घ (आत्मविश्वास के साथ)  : मैं यहाँ आदेश देने नहीं, आपसे आदेश प्राप्त करने आया हूँ! ...आपका निर्णय सुनने आया हूँ! ...(अल्प विराम के उपरांत) ... हाँ! परामर्श अवश्य दे सकता हूँ! ...और, यदि मेरा परामर्श आप स्वीकार करें तो! ...तब उसे कार्यरूप में परिणत करने के लिए केवल सहयोगी के रूप में आपका सहयोग करने के लिए भी तैयार हूँ! ...किन्तु, यह सब आपकी इच्छा पर निर्भर करता है!

( एक क्षण के लिए सभा स्थल पर निस्तब्धता व्याप्त हो जाती है और नागरिक एक-दूसरे का मुख निहारने लगते हैं। तत्काल ही कानाफूसी शुरू हो जाती है। अगले ही क्षण सामूहिक स्वर गूंजते हैं।)

नगरवासी (एक स्वर में)  : किन्तु...!

सुदीर्घ (मध्य ही में)  : ...किन्तु, प्रथम आपका सर्वसम्मत निर्णय!

नगरवासी (एक स्वर में)  : हम आपके प्रस्ताव से सहमत हैं, किन्तु...!

सुदीर्घ (मध्य ही में , शांत भाव से)  : ...किन्तु क्या? ...आपकी प्रत्येक किन्तु-परन्तु का समाधान करना मेरा दायित्व है! ...आप 'किन्तु' व्यक्त करें!

( सुदीर्घ के ' किन्तु क्या ' का उत्तर देने के लिए सभी नागरिक वरिष्ठ नागरिक देवदत्त की ओर निहारने लगते हैं। अपने साथियों का आशय समझ वह उनसे विचार-विमर्श करता है और उसके बाद मंच के समीप पहुँचता है)

देवदत्त (आत्म-विश्वास के साथ)  : धर्म...!

सुदीर्घ (आश्चर्य व्यक्त करते हुए)  : धर्म...!

देवदत्त (विनीत स्वर में)  : हाँ ! ...श्रद्धेय, धर्म! ...(क्षणिक अंतराल के उपरांत) ...सिँहासन के प्रति प्रजा का धर्म! ...राज्य के प्रति प्रजाधर्म!

सुदीर्घ (सहज भाव से)  : मैं तुम्हें धर्म से विलग करने नहीं आया हूँ! ...अपितु धर्म-मार्ग का अनुसरण करने के लिए ही प्रेरित करने आया हूँ!

देवदत्त (पूर्व भाव से)  : कौन सा धर्म, श्रद्धेय!

सुदीर्घ (पूर्व भाव से)  : जिस धर्म की शिक्षा कृष्ण ने अर्जुन को दी थी!

देवदत्त (जिज्ञासा भाव से)  : तो क्या हम जिस धर्म का पालन करने के लिए चिंतित हैं! ...वह धर्म नहीं है?

सुदीर्घ (मुस्कराते हुए)  : अवश्य! ...तुम कथित जिस धर्म-पालन के लिए चिंतित हो वह भय-प्रेरित धर्म है। ...(शान्त भाव से)... धर्म चिंता का हेतु नहीं, चिंता का निदान करता है! ...और, कथित जिस धर्म का पालन भय के वशीभूत किया जाए, उसे धर्म नहीं विवशता कहते हैं, माननीय! ...(दीर्घ नि:श्वास के उपरांत)... शासक द्वारा शासितों के लिए निर्मित धर्म! ...बलवांश्च यथा धर्मे लोके पश्यति पुरुर्ष। स धर्मो धर्मवेलयां भवत्याभिहत: पर:।। -शक्तिशाली पुरुष जिसे धर्म समझता है, धर्म विचार करते समय लोक उसी को धर्म-रूप में स्वीकार कर लेता है और शक्तिहीन का धर्म शक्तिशाली पुरुष के धर्म से दब जाता है। ... (क्षणिक मौन के उपरांत सहसा ही गंभीर मुद्रा में)... प्रत्येक शक्तिशाली व्यक्ति धर्म के नाम पर कुछ नियमों का विधान करता है! ...कारणत: प्रजा उस धर्म से भयभीत रहे और शासक जीवनपर्यत शक्तिशाली बना रहे! ...ऐसे ही कथित धर्म से तुम सभी भयभीत हो और चिंतित भी! ... (पुन: वाणी को क्षणिक विराम, और )... तुम्हारा धर्म न सिँहासन से संबद्ध है और न ही राज्य से! ...क्योंकि, तुम सिँहासन और उस पर विराजमान व्यक्ति को ही राज्य समझ बैठे हो! ...अत: तुम्हारा धर्म केवल व्यक्ति विशेष से संबद्ध है! ...व्यक्ति विशेष द्वारा संचालित, व्यक्ति विशेष को पोषित करने वाला धर्म! ...जिस धर्म को लेकर तुम चिंतित हो, वह शाश्वत नहीं है!

देवदत्त (आश्‍चर्य भाव से)  : शाश्वत! ...आपका आशय?

सुदीर्घ (शान्त भाव से)  : ...हाँ, शाश्वत! ...धर्म का प्रथम लक्षण! ...और, जो शाश्वत नहीं है, वह सत्य नहीं है! ...और, जो सत्य नहीं है, वह न शुभ होगा, न ही सुंदर और, न ही आनन्द का कारक! ...तद्, उसे किस आधार पर धर्म कह दिया जाए? …वत्स, देवदत्त! ...तुम्हारा कथित धर्म सत्य नहीं, असत्य पर आधारित है! ...अत: परिवर्तनशील है! ...वत्स! ऐसा धर्म देश, काल और व्यक्ति के अनुरूप परिवर्तित होता रहता है...!

देवदत्त (मध्य ही में जिज्ञासा व्यक्त करते हुए)  : ...आपके गूढ़ वचन हमारी बौद्धिक क्षमता से परे हैं! ...कथन स्पष्ट करने का कष्ट करें, आदरणीय!

सुदीर्घ (पूर्व भाव से)  : स्पष्ट ही तो है, माननीय! ...सिँहासन पर विराजमान प्रत्येक व्यक्ति स्वहित में ही धर्म की व्याख्या करता है! ...प्रतिकूल मूल्य अमान्य घोषित कर, धर्म के नाम पर स्वानुकूल नए प्रतिमान निर्मित करता है! ...व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित धर्म लोकहित में होगा? ...यह किस प्रकार संभाव है, प्रिय देवदत्त? ... ( दोनों हाथ विशेष मुद्रा में हवा में उठाते हुए )... यश्च नि:श्रेयसेन पुरुषं संयुनक्ति से धर्म: - मानवमात्र को कल्याण से जोड़ने वाला धर्म ही सत्य है!

देवदत्त (जिज्ञासा भाव से)  : कृष्ण-धर्म, श्रद्धेय!

सुदीर्घ  : कर्तव्य बोध! ...स्वधर्म!

देवदत्त  : स्वधर्म क्या कहता है? ...कर्तव्य क्या कह रहा है, आदरणीय?

सुदीर्घ  : व्यक्ति विशेष के प्रति कथित निष्ठा का त्याग कर राष्ट्र के प्रति निष्ठावान बनों! ...राजधर्म का पालन ही स्वधर्म है!

देवदत्त  : और, राजधर्म? ...श्रद्धेय?

सुदीर्घ (शान्त भाव से )  : राजधर्म पुकार-पुकार कर कह रहा है! ...उस व्यक्ति पर अभियोग चलाया जाए! ...जिसके कारण हस्तिनापुर राज्य और उसकी प्रजा को महायुद्ध की अग्नि का भीषण ताप सहन करने के लिए बाध्य होना पड़ा...!

( सुदीर्घ जैसे ही वाणी को विराम देते हैं। मंच पर नीरवता व्याप्त हो जाती है। प्रजा के मौन का अर्थ सुदीर्घ के विचार से असहमति समझ कर क्षणभर के लिए सुवीर्य के मुख पर हर्षभाव प्रकट हो जाते हैं , किन्तु जैसे ही नागरिकों के मध्य से सामूहिक जिज्ञासा युक्त प्रश्न उठता है। वैसे ही सुवीर्य के मुख मंडल से हर्षभाव लुप्त हो जाते हैं।)

सामूहिक आवाज  : वह कौन है? ...किस न्यायालय में उस पर अभियोग चलाया जाना चाहिए?

सुदीर्घ (सहज भाव से)  : अभियुक्त का निर्धारण आप स्वयं करेंगे और अभियोग भी आप ही के न्यायालय में चलाया जाएगा!

( सभा में पुन: निस्तब्धता का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। निस्तब्धता के मध्य नागरिक एक-दूसरे का मुख निहारते-निहारते परस्पर चर्चा करने लगते हैं। सुदीर्घ शांत भाव से नागरिकों के मनोभावों आकलन करने लगते हैं। इसी मध्य नगरपार्षद सुवीर्य अपने वरिष्ठ सहयोगी विदर्भ को मंच के एक ओर ले जाकर वर्तमान परिस्थिातियों पर विचार-विमर्श करने लगते हैं। विचार-विमर्श समाप्त होने के उपरांत विदर्भ तत्काल ही वरिष्ठ नागरिक देवदत्त के संपर्क में आते हैं और उन्हें सुवीर्य के विचारों से अवगत कराते हैं। तत्पश्चात देवदत्त उपस्थित अन्य नागरिकों के साथ विचार-विमर्श करने में व्यस्त हो जाते हैं।)

देवदत्त (आत्म विश्वास के साथ)  : आदरणीय! हस्तिनापुर की प्रजा पूर्ण समर्पण भाव के साथ आपके विचारों से सहमत हैं! ...समस्त जन मातृभामि के प्रति निष्ठावान होने की शपथ लेते हैं!

( इसके साथ ही देवदत्त सुदीर्घ के निकट जाते हैं और राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ दिलाने के लिए सुदीर्घ से आग्रह करते हैं)

सुदीर्घ (दीर्घ श्वांस के साथ)  : शपथ! ...शपथ तो उचित है! ...किन्तु राजपरिवार के समान उसका दरुपयोग तो नहीं होगा? ...(एक क्षण मौन के उपरांत आह भरते हुए) ...शासकों ने जब-जब शपथ का दुरुपयोग किया है, तब-तब उन राज्यों को कुरुक्षेत्र जैसे भीषण युद्ध का दंश सहन करना पड़ा है!

( नगरवासियों को शपथ दिलाने हेतु सुदीर्घ अपना दाहिना हाथ उठा कर शपथ के लिए राज्य के नागरिकों का आवाहन करता है। उसका अनुसरण करते हुए सभी नागरिक उसी स्थिति में अपने-अपने दाहिने हाथ उठाते हैं , किन्तु तत्क्षण उनका हाथ अपनी पूर्व स्थिति में आ जाता है। उनकी दृष्टि शपथ के लिए आकाश की ओर उठे सुवीर्य व उनके समर्थकों के हाथों पर पड़ती है।)

सुदीर्घ (सुवीर्य व उनके समर्थकों की ओर संकेत कर व्यंग्य मुद्रा में)  : नगर पार्षद महोदय! क्या आप व आपके समर्थक भी...?

सुवीर्य (मध्य ही में गंभीर भाव से)  : अवश्य, श्रद्धेय...!

सुदीर्घ  : हृदय से? ...अथवा विवशतावश?

सुवीर्य (पूर्व भाव से)  : नि:संदेह! ...हृदय से! ...(कटाक्ष करते हुए)... हम सभी हृदय से शपथ ग्रहण करने की इच्छा रखते हैं! ...क्या इसके लिए भी हृदय से शपथ लेनी होगी? ...(मुख आकाश की ओर कर गंभीर मुद्रा में)... हम सभी राजकीय सम्मान का त्याग कर यहाँ आम नागरिक की तरह उपस्थित हैं! ...अत: संशय का कोई कारण नहीं होना चाहिए, आदरणीय!

सुदीर्घ (गंभीर भाव के साथ)  : संशय नहीं नगर पार्षद सुवीर्य, सावधानी! ...जिस सम्मान के त्याग की बात कर रहे हो, वह राजकीय सम्मान का त्याग नहीं! ...राजा द्वारा प्रदत्त सम्मान का त्याग है, वत्स! ...राजकीय सम्मान राजा नहीं राज्य की प्रजा प्रदान करती है और उसके अधिकारी तुम अब हुए हो। ... (सुवीर्य की ओर संकेत कर भावुक मुद्रा में) ... आओ, वत्स! ...मेरे समीप आओ! ...हस्तिनापुर की प्रजा तुम्हें सम्मानित करने की इच्छा रखती है! ...(क्षणिक मौन के उपरांत)... शपथ! ...अब मैं नहीं! ...आप दिलाएंगे!

(नागरिक सुदीर्घ के प्रस्ताव का करतल ध्वनि से स्वागत करती है। आश्चर्य किन्तु हर्ष के साथ सुवीर्य उपस्थित नागरिकों को निहारते हैं और देवस्थानम के विशाल मंच पर सुदीर्घ के निकट खड़े हो जाते हैं। तत्पश्चात सुवीर्य दाहिना हाथ उठा कर सुदीर्घ द्वारा तैयार किया गया शपथ पत्र पढ़ते हैं। सभी नागरिक उसे देहराते हुए शपथ ग्रहण करते हैं।)

सुदीर्घ (शपथ ग्रहण के उपरांत)  : तो बताएं, महायुद्ध के लिए आप किसे उत्तरदायी मानते हैं?

(मंच पर पुन: नीरवता व्याप्त)

सुवीर्य (वरिष्ठ सहयोगी व नागरिकों के साथ विचार करने के उपरांत विनय भाव से)  : इसके लिए हमें कुछ और समय चाहिए, श्रद्धेय!

सुदीर्घ (प्रसन्न भाव से)  : उचित! ...(क्षणिक विचार करने के उपरांत)... तो क्या पूर्णिमा के दिन प्रात: देवस्थानम पर पुन: भेंट उचित रहेगी, वत्स, सुवीर्य?

सुवीर्य (आत्म-विश्वास के साथ)  : नि:संदेह, श्रद्धेय!

(उत्तरदायित्व निर्धारण विषय पर विचार-विमर्श करने के लिए सुवीर्य सभी नगरवासियों को अपने आवास पर आमंत्रित करते हैं और इसके साथ ही परस्पर चर्चा करते हुए समस्त नागरिक देवस्थानम से गमन कर जाते हैं।)