महामुक्ति / अनुलता राज नायर

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भटक रही थी वो रूह, उस भव्य शामियाने के ऊपर, जहाँ सभी के चेहरे गमज़दा थे और सबने उजले कपडे पहन रखे थे। एक शानदार मंच सजा था जिस पर उसकी एक बड़ी सी तस्वीर और तस्वीर पर ताज़े गुलाबों की माला थी और उसके आगे दीपक जल रहा था।

अनायास हंस पड़ी ललिता की रूह... जीते जी वो कभी एक फूल या गजरा न सजा पायी अपने बालों में। जाने कितने तीज-त्यौहार यूँ ही निकल गए, कोरे... बिना साज सिंगार किये.शायद ये सब उसे मौत के बाद ही नसीब होना था।

आज ललिता की आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ का आयोजन किया गया है, जिसमे उसके परिवार- जनों के अलावा साहित्य मण्डली के लोग भी शरीक हैं। सभी बारी बारी मंच पर आकर उसके गुणों का बखान कर रहे हैं और उसका असमय जाना साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्षति बता रहे हैं।

हैरान है वो अपनी ही उपलब्धियां सुन कर। जिसने सारी उम्र नर्म स्वर में कहा गया एक वाक्य न सुना हो उसके लिए तो ये अजूबा ही है। उसकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े जाने वालों की होड सी लगी है... जाने कहाँ थे ये लोग जब वो जिंदा थी। हमारे समाज की यही तो खासियत है, ढकोसलों से ऊपर आज तक नहीं उठ पाया। अपने दुखों का सार्वजनिक प्रदर्शन करना आदमी को आत्मसंतोष देता है या शायद कभी कभी किसी ग्लानि भाव से मुक्ति भी दिलाता है।

ललिता की रूह बेचैन हो गयी... तन तजने के बाद भी भारीपन अब तक नहीं गया था... क्यूँ मुक्त नहीं हुई वो ? किसी किसी को शायद मौत के बाद भी मुक्ति नहीं मिलती। जीते जी कुछ भी उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं हुआ... अपना पूरा जीवन उसने दूसरों के इशारों पर जिया। अब मौत के बाद तो उसे मुक्ति का अधिकार मिलना चाहिए था।

तभी मंच पर उसका पति मदन आया... ललिता का जी मिचलाने लगा... ज़िन्दा होती तो शायद दिल धड़कने भी लगता ज़ोरों से। मगर आशा के विपरीत मदन ने भी ललिता को सरस्वती का अवतार बता डाला... उसके मुख से अपनी प्रसंशा सुन कर भी ललिता को घृणा हो आई... पति का दोगला व्यवहार उस सहृदया को नागवार गुज़रा, मगर जब जीवित रहते हुए उसने कभी किसी बात का विरोध नहीं किया तो अब क्या करती। सिसक के रह गयी उसकी रूह...

ललिता जब ब्याह कर आई थी तो हर नवयौवना की तरह अपने आँचल में ढेरो ख्वाब टांक कर लायी थी... दहेज के साथ अरमानों की पोटलियां भी थी... और उसके पिता ने सौंप दिया उसको एक ऐसे पुरुष के हाथों जिसने उसका आँचल तार तार कर दिया... दहेज की पोटली तो सम्हाल ली गयी मगर अरमानों को कुचल कर फेक दिया गया।

ललिता एक मध्यमवर्गीय सुसंस्कृत परवार की बेटी थी। वो दो बहने थीं, जिन्हें शिक्षक माता-पिता ने बड़े स्नेह से पाला था। उनकी हर उपलब्धि पर माँ उन्हें एक पुस्तक उपहार में दिया करतीं जो उनके लिए किसी स्वर्णाभूषण से कम न थीं। दोनों बहननें सुन्दर, विनम्र, सुघड़ और संस्कारी थीं।

और ससुराल में माहौल एकदम उलट... यहाँ अखबार में चटपटी खबर पढ़ने के सिवा किसी को उसने पढते नहीं देखा, और तो और उसके पठन-पाठन पर भी उन्हें ऐतराज़ होता, ताना मारते हुए कहते -"माँ शारदा, पहले काम तो निपटा लो"... आहत मन से वो जुट जाती अपने काम में। घर में ससुर और पति के सिवा कोई था नहीं सो ज्यादा काम भी नहीं रहता था। अशिक्षित होने भर से क्या आदमी को पशुवत व्यवहार करने का अधिकार मिल जाता है ? ऐसे प्रश्न ललिता के मन में अकसर उठते रहते... मगर किससे मांगती उत्तर ??

आरम्भ में वो अपने अपमान को गटक नहीं पाती थी और मदन से जिरह करती... मगर मदन उसे "कुतर्क न कर" कह कर चुप करा देता... जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला हिसाब था यहाँ। सो धीरे धीरे उसने शिकायत करना भी छोड़ दिया... और खुद में मगन रहने लगी। मदन एक ऐसा पति था जो उसको न कभी हंसाता, न रिझाता न प्रेम जताता... बस इस्तेमाल करता... ललिता हांड-मांस की बनी गुडिया सी हो गयी थी... वक्त बेवक्त गुस्सा करना और उसके काम में मीन मेख निकालना बाप बेटा के स्वभाव में शामिल था... मगर जो भी तमाशा होता वो आमतौर पर घर की चारदीवारी के अंदर ही होता सो आस पड़ोस में उसकी इज्ज़त अभी बनी हुई थी। मध्यमवर्गीय लोग ही तो ख़याल करते हैं समाज का, पास-पड़ोस का... वरना निम्न और उच्चवर्गीय लोगों में कहाँ कोई लिहाज या पर्दा रहता हैं... ललिता लोगों से मेलजोल कम ही रखती थी, फिर भी जाने कैसे वो शांत और संतुष्ट दिखाई पड़ती थी। शायद भगवान ने उसको तरस खाकर ये वरदान दिया हो !

स्नेह का अभाव और वक्त-बेवक्त के ताने उसको तोड़ रहे थे भीतर ही भीतर , अकेले में वो अपने तार तार हुए मन को सीती रहती..और किसी तरह जीती रहती... कभी कभी सोचती, कौन जाने, इनके ऐसे व्यवहार की वजह से ही शायद उसकी सास असमय दुनिया छोड़ गयीं हों ?? काश वो जीवित होतीं तो एक स्त्री के होने से उसको कुछ सहारा मिलता... शायद उनका नारी मन उसकी पीड़ा को समझता। मगर जो चला गया उसको वापस तो लाया नहीं जा सकता... जीवन के पन्ने कभी पीछे पलटे जा सकते हैं भला ?

ऐसे ही माहौल में ललिता गर्भवती हुई। उसको लगा शायद अब दिन फिर जायेंगे, पितृत्व बदलाव अवश्य लाएगा मदन में , मगर उसके हाथों की लकीरें इतनी अच्छी न थीं... लिंग जांच के बाद उसका गर्भ गिरवा दिया गया... और ऐसा ३ सालों में २ बार हुआ... उनका कहना था कि उन्हें एक और ललिता नहीं चाहिए... कितना बोझा ढोयेंगे हम आखिर, उसके ससुर ने बुदबुदाया था उस रोज। ललिता का आहत मन चीख पड़ा था... मगर नक्कारखाने में तूती की तरह उसकी आवाज़ भी दीवारों से टकरा कर गुम हो गयी... वो कहना चाहती थी मुझे भी नहीं चाहिए बेटा... नहीं चाहिए एक और मदन। मगर उसका चाहना न चाहना मायने कहाँ रखता था... आखिर उसने एक बेटे को जन्म दिया। सूखी छाती निचोड़ कर ललिता बेटे को बड़ा करने लगी, इस आस में कि उसके अँधेरे जीवन में दिया बन टिमटिमायेगा उसका बेटा। वो अपना पूरा वक्त बेटे को देती, उसे अच्छी कहानियाँ सुनाती, दुनियादारी की सीख देती, मगर वो अकसर उसके हाथ ही न आता। भाग कर अपने दादा या बाप के पास चला जाता और वे उसको ही खदेड़ देते कि बच्चे को क्या प्रवचन देती रहती हो "सन्यासी बनाना है क्या"?

बबूल के बीज से कभी आम का पेड़ उगा है क्या ?

ललिता समझ गयी कि नीम से निम्बोली ही झरेगी, हरसिंगार नहीं...

पूत के पाँव पालने में दिखने लगते हैं सो इस कपूत के लक्षण भी १०-१२ साल से ही दिखने लगे। माँ को वो अपने पाँव की जूती समझता... पढ़ना लिखना छोड़ बारहवीं के बाद से ही बाप दादा के धंधे में लग गया। अब तीन तीन मर्दों के बीच ललिता स्वयं को बेहद असहाय महसूस करती... अपना दोष खोजती रहती मगर सिवा उसके नसीब के उसमें कुछ खोट न था। बेटी का दुःख उसके माता-पिता की असमय मृत्यु का कारण भी बना। अब इस दुनिया में एक बहन के सिवा उसका अपना कहने को कोई न था। बहन अकसर उसको ढाढस बंधाती, और प्रेरित करती लिखते रहने को। सबसे पहले ललिता ने एक छोटी सी कविता लिखी, जो उसके अपने मन के उद्गार थे।

आज मैं

तुमसे

अपना हक मांग रही हूँ।

इतने वर्षों

समर्पित रही, बिना किसी अपेक्षा के

बिना किसी आशा के...

कभी कुछ माँगा नहीं

और तुमने

बिना मांगे

दिया भी नहीं...

अब जाकर

ना जाने क्यूँ

मेरा स्त्री मन

विद्रोही हो चला है

बेटी/बहिन/बहू/पत्नी/माँ

इन सभी अधिकारों को

तुम्हे सौंप कर

एक स्त्री होने का हक

मांगती हूँ तुमसे...

कहो

क्या मंज़ूर है ये सौदा तुम्हे???

कविता उसकी बहन को इतनी पसंद आई कि उसने एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेजने की बात की। ललिता सरल स्वभाव की थी सो उसने अपने पति से इजाज़त मांगी। मगर मदन तो सरल नहीं था न... वो भड़क गया और चेतावनी दे डाली कि खबरदार जो रचना भेजी... बहुत उड़ रही हो... तुम्हारे पर क़तर दूंगा... जाने क्या क्या अनर्गल बक डाला उसने।

मगर इस दफा ललिता की बहन ने उसने लिए एक उपनाम चुना "गौरी" और रचना भेज दी। ललिता को उस रचना के लिए ढेरों बधाई पत्र और मानदेय भी मिला, जो उसकी बहन के पते पर आया। अब तो ललिता के मानों सचमुच पंख निकल आये..वो अकसर अपना लिखा भिन्न-भिन्न पत्रिकाओं में भेजती और प्रशंसा, मानदेय के साथ अभूतपूर्व संतुष्टि पाती... बरसों से सोयी उसके भीतर की कला और आत्मविश्वास अब जाग गया था।

एक बहुत बड़े प्रकाशक ने उसको उपन्यास लिखने का सुझाव दिया। रचनात्मकता की कोई कमी तो थी नहीं और उत्साह भी उबाल पर था। कुछ ही दिनो में उसने उपन्यास पूरा कर डाला और पुस्तक प्रकाशित होकर बाजार में भी आ गयी। ललिता ने एक बार फिर प्रयास किया कि मदन को बता कर विमोचन में जा सके मगर उसने साफ़ मना कर दिया। खूब लताड़ा भी... . साथ ही धमका भी दिया कि यहाँ अगर एक प्रति भी दिखी तो जला डालूँगा। ललिता कभी समझ नहीं पायी कि आखिर उसका गुनाह क्या था और उसकी इस प्रतिभा से मदन को क्या कष्ट था। शायद उसके अंदर की हीनभावना उससे ये सब करवा रही थी। ललिता सदा मौन का कवच पहने रहती और उसका मौन मुखर होता सिर्फ उसकी डायरी के पन्नों पर...

ललिता का उपन्यास बहुत ज्यादा पसंद किया गया। प्रकाशक तो मानो बावला सा हो गया था। दूसरे उपन्यास के लिए उतावला हुआ जा रहा था... ललिता भी बहुत खुश थी मगर परिवार का असहयोग उसको खाए जा रहा था। मन बीमार हो तो तन भी कब तक साथ देता... ललिता अकसर बीमार रहने लगी और जब भी वो अस्वस्थ महसूस करती या असमय लेट जाती तो पति या ससुर ताना मार देते कि सारी ऊर्जा पन्ने काले करने में क्यूँ गवां देती हो ! पति चीखता, एक घर का काम ही तो करने के लायक थीं वो नहीं कर सकती तो तुम्हें पालें क्यूँ ? ललिता को एहसास हो चला था कि इनके लिए मेरा कोई मोल नहीं,

सो एक दिन उसने सम्बंधित संस्थानों से संपर्क करके अपने नेत्र दान किये और अपनी देह भी मेडिकल कॉलेज को दान कर दी। ऐसा करके उसको बड़ा संतोष मिला, संभवतः ऐसा करने से उसके आहत स्वाभिमान को थोड़ा सुकून मिला होगा। शायद मौत भी उसके इसी कदम का इन्तज़ार कर रही थी। एक सुबह उसने इस नर्क से विदाई ले ली... मुक्त हो ली वो पल-पल की घुटन से।

सुबह आठ बजे तक ललिता उठी नहीं तो पति , ससुर, बेटा सभी चीखने लगे, मगर अब ललिता किसी की चीख पुकार सुनने वाली न थी... वो बहुत दूर चली गयी थी इन निर्मोहियों से...

अखबारों के माध्यम से ललिता का बहुत नाम हो गया था, सो खबर उस छोटे से शहर में आग की तरह फ़ैल गयी। लोगों का तांता लग गया मदन के घर। अंतिम संस्कार की तैयारियाँ होने लगी।

तभी ललिता के तकिये के नीचे से एक कागज का पुर्जा निकला। मदन ने पढ़ा तो उसे पता लगा कि उसकी स्वाभिमानी पत्नि ने अपने नेत्र के साथ देह भी दान कर दी है। मुखाग्नि का अधिकार भी छीन लिया था उसने। मदन ने दो पल को सोचा फिर कागज फाड़ के फेंक दिया और शवयात्रा निकालने की तैयारी में जुट गया। मौत के बाद भी वो ललिता को मनमर्जी करने कैसे दे सकताथा, आखिर वो पुरुष था।

पूरे साजो श्रृंगार के साथ ललिता की शवयात्रा निकली, और उसकी सुन्दर सी मासूम काया पंचतत्व में विलीन हो गयी... जाने कितने ग़मगीन चेहरे उसकी चिता को घेरे थे, मौत के बाद ही सही उसको कुछ सम्मान तो मिला।

आज उसकी तेरहवीं है... और उसकी रूह देख रही है अपने परिजनों को, अपने लिए दुखी होते। ललिता की रूह परेशान सी यहाँ वहाँ भटकती रही... पूरे कर्मकांड किये गए उसकी आत्मा की शान्ति के लिए। मदन और उसका बेटा हरिद्वार हो आये , उसकी अस्थियाँ गंगा जी में विसर्जित करने। पूजापाठ, प्रार्थना सभा क्या नहीं हुआ मगर ललिता की रूह को मुक्ति नहीं मिली... भटकती फिर रही थी वो... न जीते जी चैन था न मर कर चैन पाया उस बेचारी ने।

उसकी मौत को आज पूरा एक माह हो गया था.उसने देखा मदन सुबह सुबह उठ कर नहा धोकर कहीं निकल गया. ललिता की रूह उसका पीछा करने लगी...

मदन चलता चलता शहर के बाहर एक पुराने मंदिर की ड्योढ़ी पर बैठ गया। उसके हाथ में ललिता का लिखा हुआ उपन्यास था "महामुक्ति"। वो अपलक उसे देखता रहा फिर पढ़ने लगा वह आखरी पन्ना जहाँ ललिता ने चंद पंक्तियों में अपने उपन्यास का सार लिखा था..मदन के बुदबुदाते स्वर को सुन सकती थी ललिता की रूह... फिर रूह तो मन की आवाज़ भी सुन लेती हैं.

हे प्रभु!

मुक्ति दो मुझे

जीवन की आपधापी से

बावला कर दो मुझे

बिसरा दूँ सबको...

सूझे ना कुछ मुझे..

सिवा तेरे..

डाल दो बेडियाँ

मेरे पांव में..

कुछ अवरोध लगे

इस द्रुतगामी जीवन पर..

और दे दो मुझे तुम पंख...

कि मैं उड़ कर

पहुँच सकूँ तुम तक...

शांत करो ये अनबुझ क्षुधा

ये लालसा, मोह माया..

हे प्रभु!

मन चैतन्य कर दो..

मुझे अपने होने का

बोध करा दो..

मुझे मुक्त करा दो...

मदन की आँखों से आंसू झरने लगे... पुस्तक के भीतर मुँह छुपाकर वो रोने लगा...

हैरान थी ललिता की रूह... मदन की आँख में आंसू!! वो भी ललिता के लिए? मदन बहुत देर तक सिसकियाँ लेता रहा और फिर किताब को सीने से लगाये चला गया...

ललिता की रूह को एक अजीब सा हल्कापन महसूस हुआ... उसको लगा उसे कोई खींच रहा है ऊपर...

गुरुत्वाकर्षण से परे वो चली जा रही थी ऊपर... बहुत ऊपर... पा गयी थी वो "महामुक्ति"... आज देह के साथ उसकी आत्मा भी मुक्त हो गयी थी।

ढेरों कर्म-कांड, हवन कुंड की आहुतियाँ और गंगा जी का पानी उसकी आत्मा को मुक्त न कर सके थे, मगर मदन की आँख से गिरी दो बूंदों ने ललिता की आत्मा को शांत कर दिया... उसकी भटकन को राह दे दी। उसका जीवन भले व्यर्थ चला गया हो किन्तु उसकी मौत सार्थक हुई।