महेश पाँड़े / शिवपूजन सहाय

Gadya Kosh से
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मँझोला कद। गठीला बदन। रोबीली आँखें। शिला जैसी छाती। घनी भौंहें और मूँछें। मुग्दर की तरह पीन-प्रबल भुजदण्ड। बृकोदर भीम का पेट और सुदामा की गरीबी। तब भी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी का प्रथम चरण देखा था। लगभग सवा सौ साल की लम्बी ज़िन्दगी केवल पौरुष और पराक्रम के चमत्कार देखने-दिखाने में ही बीती।

गाँव के जेठ-रैयत धनी जमीन्दार सुरेश पाँड़े नम्बरी शौकीन। बैठक का बुलन्द चौतरा, टीकासन बराबर ऊँचा। उस पर एक हजार रुपये से कम का घोड़ा कभी न बँधा। कभी-कभी खुद घोड़ा फेरने-निकलते। मस्ताने घोड़े का रोम-रोम फड़कता रहता। खुलते ही मोर-सा नाचने लगता। कोड़ा तो कभी बरदाश्त ही न करता।

महेश पाँड़े को जो कुछ जुरता उसी से पेट पालते। जब कोई अच्छी चीज खाने की तबियत होती, सुरेश पाँडे़ के पास पहँुच जाते। उन्हें देखते ही, मालिक का इशारा समझ, इधर रईस झट जीन कस कर घोड़ा तैयार करता, उधर में घी का कड़ाह और दूध का हण्डा चढ़ जाता।

महेश पाँडे़ का प्रिय भोजन था मालपुआ, तस्मई मखाने की खीर, बेसन का लड्डू। पेट और जीभ में कभी पटरी न बैटती। पेटू और चटोर का बलबान होना दुलभ है। पर महेश पाँड़े को विधाता ने अपबाद बनाया।

सुरेश पाँड़े एक ही छलाँग में घोड़े की पीट पर रान जमा देते। महेश पाँड़े घोड़े की लगाम थाम साथ-साथ बतियाते चलते।

...‘चाचाजी, नदी-तीर के अखाड़े में नरेश और गोपाल भिड़े, मगर गोपाल करकस पड़ा, दो ही पकड़ में नरेश को आसमान दिखा दिया।’

...‘इस गाँव में बस भैरो काका ही असली किसान है। तड़के ही कुदाल लेकर ऊख का खेत गोड़ने निहुरते हैं तो दो घड़ी दिन चढ़े तक कमर सीधी नहीं करते।’

...‘जोधा लुहार की लुहसार में हाथ पर बड़ी निहाई उछालने की बाजी रामधन ने जीती है। वह गाँव में अच्छा पट्टा तैयार हो रहा है।’

...‘भुआल भाई ने तो कभी तन में अखाड़े की धूल नहीं रमायी, गाँव‘-भर के लैंगोटबन्द जवानों को चुनौती देकर पाँचों अँगुलियों के सहारे दुनाली बन्दुक और लोहबन्द लाठी उठा लेते हैं। यहाँ नहीं चाचाजी एक ही मुक्के से बेल ओर कैथे फोड़ना, दांतों से सुपारी तोड़ना, साँड़-भैंसे के सींग पकड़ कर नथवाना तो उनके बायें हाथ का खेल हैं।’

महेश पाँड़े की ऐसी ही बातें सुनते और ‘हूँ-हाँ’ करते घुड़सवार सुरेश पाँड़े बस्ती में बाहर निकल आते और अचानक कह उठते, ‘अच्छा महस, अपनी कथनी बंद करो, मैं तो अब चला।’

छूटते ही महेश पाँड़े भी बोल उठते, ‘तो चाचाजी में भी आपके पास ही हूँ।’

इधर सुरेश पाँड़े घोड़े को ऐड़ लगाते, उधर महेश पाँड़े घोड़े के साथ दौड़ पड़ते। हवा से बातें करता, तब भी महेश पाँड़े उसकी गर्दन के सामने ही बने रहते। डेढ़ कोस की सरपट दौड़ में महेश पाँड़े कभी घोड़े से एक पग भी पीछे न रहते।

गाँव से डेढ़ कोस दूर नदी के तीन पहुँच, घोड़ा पुचकारते ही ठिठक जाता। सुरेश पाँड़े शाबास बेटा कहकर उसकी गर्दन थपथपाते और महेश पाँड़े उसके अयाल पकड़ कर फिर उसी तरह गाँव-भर की बातें कहते चलते

‘चाचाजी छकौड़ी के पेट में मसम-छई समा गई है। उस दिन भुलोटन के बथान मेें जाँघ-भर लम्बे कटहल के सब कोये खाकर पचा गया और भुलोटन के नये मकान की दीवार पर, एक तरफ अकेले ही कन्धा लगाकर धरन चढ़ा दी, दूसरी तरफ गाँव-भर के मूँछ-उठान जवान लगे हुए थे, सब के दांत खट्टे हो गये।’

‘भलोटन भी बड़े जीवट का आदमी है चाचाजी, उस दिन अकलू के घर के अँधेरे कोने में बड़ा भारी गहुअन साँप निकला फेटा मारे, फन काढ़े फुफकारने लगा तो इकट्ठे हुए लोगों का कलेजा दहल गया। मगर भुलोटन के पहँुचते ही भीड़ छँट गई। वह झट मुट्ठी में गप-से उसका फन पकड़ कर बाहर खंच लाया और इसके मुँह को जमीन पर रगड़-रगड़ कर मार डाला। साँप ने उसकी बाँह में लिपट कर इतने जोर से कस दिया कि मरने के बाद भी टुकड़े-टुकड़े कर जाने पर ही बाँह की मुश्क छोड़ी।’

‘चाचाजी, आप तो दिन-रात मिरदंग-सितार बजा कर ही मस्त रहते हैं, गाँव की खोज-खबर कहाँ लेते हैं, हीरा का हाल सुना है? एक दिन उसके बड़े भाई ने एक पसेरी चना देकर खेत पर भेजा। बहाँ बोने के लिए हलवाहा पहर-भर दिन चढ़े तक नहीं पहुँचा। हीरा नहर में मुँह धोकर सब चना फाँक गया। इसी पर बड़े भाई ने उस अलग कर दिया है। खाली ऊसर और महुए के दो पेड़ उसके बाँटे पड़े हैं।’

इसी तरह की बातें करते हुए दोनों गाँव में पहुँच जाते। सुरेश पाँड़े अपने साथ ही महेश को नहलाते और खिलाते-पिलाते।

महेश पाँड़े की छककर खाने की वासना सुरेश पाँड़े के घर में ही तृप्त होती। कहीं और ठौर शायद ही उनकी गोटी जमती। पहले भर कठौता देख लेते सभी आसन जमाते। उन्हें हिया भर कोई चकाचक खिला दे, फिर जड़ से बाँस उखड़बा ले, कुएँ से मोट खिचवा ले, कीचड़ में धँसी बोझिल निकलवा ले, भुजाओं पर भेड़े की टक्कर लगवा ले, ऐसे-ऐसे और भी जो करतब देखना चाहे देख ले।

पर खाने-खिलाने वाले तो कभी के चले गये।