महेश भट्‌ट क्यों समाप्त ज्वालामुखी हो गए / जयप्रकाश चौकसे

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महेश भट्‌ट क्यों समाप्त ज्वालामुखी हो गए
प्रकाशन तिथि :24 अगस्त 2015


बाईस वर्ष की आलिया भट्‌ट ने करण जौहर की 'स्टूडेंट' अभिनीत करके लोकप्रियता अर्जित की और इम्तियाज अली की 'हाईवे' में अभिनय की स्नातक डिग्री प्राप्त की। उन्होंने 'हाईवे' अभिनीत नहीं की होती तो लंबे समय तक 'स्टूडेंट' ही बनी रहतीं, क्योंकि करण के उस अजीबोगरीब मदरसे में छात्र कभी शर्ट नहीं पहनते और छात्राएं लघुत्तम स्कर्ट पहनती हैं और कभी कोई कक्षा में नहीं जाता तथा प्राचार्य समलैंगिक हैं। इम्तियाज अली की 'हाईवे' भारत के विकास मॉडल का आईना थी, जहां एक नवधनाड्य अपनी आठ वर्षीय रिश्तेदार के साथ दुष्कर्म करता है और परिवार के सदस्य खामोश हैं, क्योंकि उनकी सम्पदा का आधार ही वह 'पहुंचेला' नवधनाड्य है। यह युवा उस हाईवे पर अपहरण कर ली जाती है, जिसका दूसरा छोर भूख और गरीबी से त्रस्त गांवों से गुजरता है। अपहरणकर्ता और अपहरण की गई कन्या के मन उस अभाव और मजबूरी के सेतु पर मिलते हैं, जो तथाकथित विकास के दो स्वरूप हैं।

इस भूमिका को आलिया भट्‌ट ने जीवंत कर दिया। आज आलिया भट्‌ट के पास अनेक भव्य फिल्मों के प्रस्ताव हैं, परन्तु उसने अपने पिता महेश भट्‌ट से कहा कि वे उसे किसी फिल्म में निर्देशित करें। ज्ञातव्य है कि 'सारांश' और 'अर्थ' जैसी सार्थक फिल्में बनाने वाले महेश भट्‌ट को निर्देशन छोड़े अरसा हो गया और शराब, सिगरेट भी छोड़े कई दशक हो गए। उन्होंने अपने बड़े परिवार के सभी सदस्यों का आर्थिक भार वहन करने के लिए विशेष फिल्म्स के लिए कम बजट की सनसनीखेज फिल्में उभरते कलाकारों के साथ बनाई। उनके भाई मुकेश भट्‌ट के किफायत के आदर्श के कारण 'विशेष फिल्म्स' मुनाफा कमाने वाली भव्य संस्था हो गई है। महेश भट्‌ट कलापक्ष देखते हैं, मुकेश भट्‌ट व्यापार पक्ष।

बहरहाल, महेश भट्‌ट ने अपनी लाड़ली पुत्री आलिया से कहा कि अब उनके भीतर का ज्वालामुखी समाप्त हो गया है, अत: निर्देशन नहीं कर सकते। उनके इस सार गर्भित वाक्य पर पूरी किताब ही लिखी जा सकती है और स्वयं महेश भट्‌ट ही इसे लिखने के अधिकारी भी हैं। सृजनशील व्यक्ति के हृदय में आग होनी चाहिए। स्मरण कीजिए दुष्यंत कुमार की इस आशय की पंक्ति कि 'आग मेरे सीने में न सही, तेरे सीने में ही हो, जहां कहीं भी हो धधकती रहनी चाहिए'। ये शब्द दुष्यंत कुमार के आशय भर को स्पष्ट करते हैं, हूबहू वैसे नहीं हैं। स्मृति का अधकुचला सांप कुछ यूं ही रेंगता है। कोई आश्चर्य नहीं कि राजकपूर की बाईस की वय में बनाई पहली फिल्म का नाम ही 'आग' था जो एक तरह से उनका सिनेमाई मैनिफेस्टो था। उनकी हर फिल्म में 'आग' मौजूद है और आग में ही बाद में बनाई सारी फिल्मों के संकेत समाए हुए हैं। यहां तक कि 'खाली-खाली कुर्सियां' (जोकर व आवारा) भी मौजूद हैं और जालों से भरा बंद पड़ा थियेटर भी है और यह वादा भी है कि 'पिताजी, मैं थियेटर (सिनेमा) को उस ऊंचाई पर ले जाऊंगा जहां आप उस पर गर्व कर सकें'। बहरहाल, महेश भट्‌ट अपने जीवन में किन-किन गलियों से गुजरे हैं, केवल वे ही जानते हैं। उन गलियों में किसी मकान में अपने शरीर का मांस बेचकर पापी पेट की भूख मिटाने वाली मजबूर औरतें भी थीं और कहीं सेक्स से समाधि तक का सफर बताने वाले कई फाइव स्टार गुरु भी थे। उम्र का बड़ा हिस्सा उन गलियों से गुजरने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि मंजिल भी उन्हीं संकरी गलियों में कहीं पसरी पड़ी थी, उनमें एक सड़क भी थी, जिसमें कई मंजिलें भी थीं और यू.जी. कृष्णमूर्ति भी वहीं से गुजरने पर मिले हैं। महेश भट्‌ट का जीवन अब तक अलिखित पटकथा है और उस पर बनने वाली फिल्म भी उनके सीने में ही कहीं दफन है। जब ऊपर वाला महानिर्देशक 'साउंड, लाइट्स, कैमरा' बोलेगा तब वह अब तक अनअभिव्यक्त फिल्म बनेगी।

आज हमारे देश में सारे ज्वालामुखी सुशुप्त अवस्था में कैसे पहुंच गए, उनका लावा कहां चला गया, सदियों से जो आग धधक रही थी, अब कैसे उनके जीवन को बुझा हुआ तंदूर बना चुकी है, 'सांझा तंदूर' किथे चला गया? हमारे वृक्षविहीन पहाड़ों के नीचे अब कोई आग नहीं, सिकुड़ती सूखती नदियां कैसे स्वयं प्यास बन गई? कबीर का 'ये मुर्दों का गांव' इन पहाड़ों से लौटी खोखली-सी आवाज क्यों रह गई। संभवत: अनंत श्रोताओं की घनघोर उदासीनता ने ही ज्वालामुखी से आ समाप्त कर दी।