मां - बेटा संवाद / अशोक भाटिया

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सुबह

बेटा- मां, मैं डॉक्टर के पास गया था। वो कहता है कि...

बूढ़ी मां- (लाठी के सहारे चलती हुई) - पहले मुझे बैठने दे, खड़े होकर दिमाग काम नहीं करता।

बेटा- इसमें काम न करने की कौन-सी बात है? मेरे पास इतना वक्त नहीं है।

दोपहर

मां- चाय बनाने लगा है तो ये बर्तन मत ले। छोटे वाले एलमीनियम के पतीले में बना ले।

बेटा- किस में बनाऊं, यह मुझ पर छोड़ दो। बननी तो चाय ही है।

मां- मैंने इसी पतीले में रात को दूध गर्म करना है, इसलिए कहा है।

शाम

बेटा- माताजी, आप थोड़ी देर आराम कर लो। अभी माली काफी देर बाद आएगा।

मां- अगर मैं सो गई, तो उठकर ढंग से बात नहीं कर पाऊंगी।

बेटा- ये क्या बात हुई! पता नहीं आपने अपने को ऐसा क्यों बना रखा है।

रात

मां- दूध की पतीली छोटे वाले चूल्हे पर और हल्के सेंक पर रखियो।

बेटा- चाय बना रहा हूँ, साथ में सेंक फुल करके दूध भी उबाल दूंगा। कुछ तो मुझे भी पता होगा।

मां- तू नहीं जानता, दूध और बेटे देखते ही देखते हाथ से निकल जाते हैं।