माओवादी अब हल चला रहे हैं / जयप्रकाश चौकसे

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माओवादी अब हल चला रहे हैं
प्रकाशन तिथि : 23 जुलाई 2020


कुछ दिन पूर्व ही माओवादी प्रकाश करताम ने प्रशासन के समक्ष आत्मसमर्पण किया है। गौरतलब है कि विगत कुछ वर्षों में 60 माओवादी आत्मसमर्पण कर चुके हैं। कभी-कभी इन आत्मसमर्पण करने वालों पर उनके पुराने साथियों ने आक्रमण किया है। छत्तीसगढ़, दंतेवाड़ा क्षेत्र में आत्मसमर्पण किए गए हैं, विगत कुछ वर्षों से छत्तीसगढ़ सरकार ने माओवादियों के आत्मसमर्पण के लिए सफल सार्थक पहल की है। कभी बंदूक चलाने वाले हाथों में अब हल है और वे खेती कर रहे हैं। दंतेवाड़ा प्रशासन ने उन्हें ट्रेक्टर भेट किया है। सराहनीय है कि भूले-भटकों की समाज में ससम्मान वापसी का मानवीय प्रयास किया जा रहा है। शास्वत सत्य है कि अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं। ज्ञातव्य है कि विगत सदी के छठे दशक में चंबल के डांकुओं ने भी आत्मसमर्पण किया था। अपराधियों के पुनर्वास पर शांताराम की फिल्म ‘दो आंखे बारह हाथ’ सर्वकालिक महान फिल्म है। डांकुओं के आत्मसमर्पण पर बनी राजकपूर की फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है।’ में ग्यारह गीत थे और पूरी फिल्म में कम संख्या में गोलियां चली हैं। अजीब इत्तेफाक है कि यूरोप के सिसली से रोजगार की तलाश में अमेरिका पहुंचे कुछ लोगों ने संगठित अपराध माफिया रचा। मध्यप्रदेश के चंबल से भी डांकू आए। सिसली व चंबल की जमीन में भले ही साम्य न हो, परंतु दोनों जगह भूल-भुलैया सा कुछ है। सच्चाई यह है कि अन्याय व शोषण से बागी पैदा होते हैं। तिगमांशू धूलिया की ‘पानसिंह तोमर’ के संवाद का आशय है कि डांकू ऊंचे पदों पर आसीन हो गए हैं और बागी हल चला रहे हैं। छत्तीसगढ़ में एक छोटा सा क्षेत्र है, जिसमें आज भी गोरे रंग के आदिवासी रहते हैं। इस प्रजाति की रक्षा के लिए पूरे क्षेत्र को कंटीले तारों से सीमाबद्ध किया गया है। इस जनजाति को सभ्यता से केवल नमक की आवश्यकता होती है। सरकारी कर्मचारी रात को जगह-जगह नमक के बोरे रख देते हैं। सुबह इन बोरों की जगह जनजातियों द्वारा शहद, फल व जड़ी बूटियां रखी होती हैं। उनका आत्मसम्मान उन्हें मुफ्त चीज की इजाजत नहीं देता। ज्ञातव्य है कि जनजातियों में शादी-ब्याह में कुछ भी खर्च नहीं किया जाता। महज, कुल्हड़ शराब, दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे के सिर पर डालते हैं, जिसे सल्फी कहते हैं, यह सल्फी जनजातियों द्वारा ही बनाई जाती है। संभवत: इस क्षेत्र का नाम कांकेर है। बस्तर का जनजाति बाहुल क्षेत्र दरअसल ज्ञान का विश्वविद्यालय है। तथाकथित सभ्य समाज को वहां से बहुत कुछ सीखना है। काश! कोई गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, इस क्षेत्र में गुरुकुल शांति निकेतन की रचना करता।

सभ्य समाज ने जनजातियों से केवल गोदना सीखा व इस गोदना के नकली रूप को मनचाही जगह चस्पा किया जा सकता है। कुछ लोग अपने शरीर पर इतना गोदना करवा लेते हैं कि उनके शरीर को किताब जैसा पढ़ सकते हैं। ज्ञातव्य है कि फिल्म ‘गजनी’ में नायक आमिर खान ने पूरे शरीर पर गोदना कराया था। उसे भूलने की बीमारी थी। शरीर पर गोदना उसे याद दिलाता है कि किस दोषी का कत्ल करना अभी बाकी है। उसकी प्रेमिका से 4 लोगों ने दुष्कर्म कर उसकी हत्या कर दी थी। अजब-गजब सत्य यह है कि किसी भी माओवादी ने माओ या कार्ल मार्क्स को नहीं पढ़ा। ये स्वत: रचित तथाकथित क्रांतिकारी हैं। गोविंद निहलानी की जया भादुड़ी अभिनीत फिल्म ‘हजार चौरासी की मां’ एक कथित नस्लवादी की मां है। भारत के बंगाल व कुछ प्रांतो में कानू सान्याल के नेतृत्व में नक्लसवादी आंदोलन प्रारंभ हुआ था। कहा यह भी जाता है कि किसी दौर में मिथुन चक्रवर्ती भी नक्सलवाद से जुड़े थे। मृणाल सेन की ‘मृगया’ में अभिनय करके मिथुन ‘डिस्को डांसर’ बने। साम्यवादी विचारों से प्रभावित युवा मिथुन ने फिल्मों में अभिनय करते हुए एक पांच सितारा होटल बनाई। यह भारत महान प्रयोगशाला है कि वामपंथी भी पूंजीवादी बन जाता है। गजब तेरी लीला कि कुछ माओवादी किसान बन गए और पीढ़ियों के किसान आत्महत्या करने के लिए बाध्य हैं।