मागुनी की बैलगाड़ी / गोदावरीश महापात्र / दिनेश कुमार माली

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गोदावरीश महापात्र का जन्म 10 जनवरी 1898 को बानपुर में हुआ था। सत्यवादी वन विद्यालय में पढ़े लिखे गोदावरीश महापात्र उत्कलमणि गोपबंधु और आचार्य हरिहर प्रेरित थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और पत्रकारिता के साथ जुड़े रहे, उन्होंने 'निआँखुण्टा' पत्रिका के संस्थापक संपादक थे। कहानीकार, कवि तथा पत्रकार लेखक, महापात्र केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत भी हुए। आधुनिक ओडिया साहित्य के निर्माण में उनके योगदान सराहनीय है। 5 नवंबर 1965 को उनका निधन हुआ, उनके कहानी संग्रह 'एबे मध्य बंचिछी', 'कांटा ओ फुल' ‘माटीर माया’, ‘गरीबर भगवान’,’पल्लीछाया’, ‘हठात भार्यालाभ’, ’असुंदरप्रेम’, ’मुं दिने मंत्री थीले’, ’नील मास्टरानी’, ’श्रुति संचयन’, ’मद दोकानर इतिहास’ तथा 'बंका ओ सीधा' आदि ओडिया साहित्य के अनमोल रत्न माने जाते हैं.


खलीकोट की दो लाख प्रजा को लेकर आना-जाना रोज लगा रहता था।कितने लोग संसार से विदा हो जाते हैं और कितने नए लोग इस संसार में प्रवेश करते हैं। अपने परिवार में डूबे हुए लोग कहाँ इस बात की खबर रख पाते हैं। परंतु जिस दिन मागुनी इस संसार को छोड़ कर हमेशा-हमेशा के लिए चला गया, उस दिन वह खबर पूरे खलीकोट के गाँव-गाँव तक फैल गई थी.। जिसने भी वह खबर सुनी एक पल के लिए मौन हो गया था और दुख से कहने लगा था, "मागुनी चल बसा? बेचारा आह ! चल बसा।"

मागुनी कौन है? खलीकोट का वह राजा नहीं था। यह बात सच थी। वह उस राज्य का कोई नेता नहीं था, यह बात हर कोई जानता था। वह कोई कार्यकर्ता नहीं था, यह बात सब जानते थे। उसके गले में किसी ने फूल माला नहीं पहनाई थी या उसने किसी के गले में फूल माला नहीं डाली थी। उसने कभी भीड़ को भावविह्वल होकर संबोधित नहीं किया था। उसके लिए किसीने कभी तालियाँ नहीं बजाई थी। उसने कभी मंदिर जाकर भगवान के सामने मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रार्थना नहीं की थी। उसने सिर्फ एक ही काम किया था। वह खून पसीना बहा कर जीवन पथ पर लगातार संघर्ष करता आया था। उसने वह संघर्ष देश के लिए नहीं, जाति के लिए नहीं सिर्फ अपने चार अंगुल पेट के लिए किया था। फिर भी मागुनी की मृत्यु की खबर सुनने के बाद हर किसी के मुँह से यही बात निकली थी, "हाय ! बेचारा चला गया।"

खलीकोट गढ़ में हर कोई मागुनी को जानता था। यहाँ तक कि दूर-दूर जंगलों के अंदर छोटे-छोटे गाँवों में भी उसका नाम जाना जाता था। मागुनी खलीकोट का कोई विशिष्ट आदमी नहीं था, वह तो सिर्फ बैलगाड़ी वाला था। दो बैल और वह, यह तीनों मिलकर एक संघ बन गए थे, जो कि दो लाख आदमियों के मन को छू जाता था।

हर दिन खलीकोट गढ़ में सूरज उदय होता है और अस्त होता है। घनघोर बारिश के दिनों में लोग सूरज को नहीं बल्कि मागुनी को देखकर समय पता कर लेते थे। माघ के महीने के जाड़ों में लोग जब कम्बल ओढ़कर अपने बरामदे में बैठे रहते थे तब मागुनी अपने चिर परिचित दो बैलों को बैलगाड़ी में जोतकर पहाड़ के किनारे गाना गाते हुए चलता चला जाता था। लोग कहते थे मागुनी उन लोगों के लिए घड़ी से कम नहीं है। बारिश के दिनों में बारिश हो न हो, गरमी के दिनों में धूप कम हो या न हो मगर मागुनी की बैलगाड़ी एक दिन के लिए बंद नहीं होती थी। वह कहता था, राजा के घर में एक जोड़ा मोटर कार जरूर है, मगर उसके जैसा इंजीनियर नहीं है उनकी देखभाल करने के लिए। उसकी बैलगाड़ी राजा की मोटरकार से ज्यादा बेहतर है। बारह सालों से उसके पुराने परिचित साथी कालिया और कसरा बैल की पीठ पर हाथ लगाने से वे इस तरह चल पड़ते मानो गाड़ी को स्टार्ट कर दिया हो। जब वह बैलगाड़ी के अंदर बैठकर गीत गाना शुरू कर देता था, "राम और लखन सोने के हिरण को मारने गए थे" उसकी मोटर चालू हो जाती थी। तब श्याम वन, गिरि कंदराओं में उसकी गति प्रतिध्वनित हो उठती थी। अर्द्ध निद्रा में सोई हुई मुर्गी और सुंभाटुआ उसे उत्तर देते थे। गाँव के रास्तों में घूमते हुए कुत्ते चौंक उठते और भौंकना शुरू कर देते थे। घड़घड़ शब्द करती हुई बैलगाड़ी स्टेशन की तरफ चली जाती थी।

पचास साल का मागुनी बारह साल से अपने साथी बैलगाड़ी में जब यात्रियों को लेकर जाता था, तब सत्तर-अस्सी साल से पहले की कहानी पानी की तरह उसके मुंह से बहने लगती थी। वह पहले- पहल अपने बारे में बताता था। उसके जब माँ-पिताजी थे, तब वह भी अपनी खटिया पर लेटे-लेटे सुख समृद्दि में जीवन जीता था। दिन में दो बार भरपेट खाना खाने को नसीब होता था और किसी एक औरत से मधुर मिलन की बात सोचकर सब दुख भूल जाता था। उसने अपने एक स्वप्नराज्य की रचना की थी। उस राज्य का वह राजा था। रानी बनाकर जिसको वह लाया था, उस रानी ने उसकी जिंदगी की सुहाना बना दिया था। उसके अधरों से वह रस-पान करता था। वह संसार को अपनी आँखों से देखता था। उसकी साँसों में वह एक अनोखी खुशबू का अनुभव करता था। परन्तु वह सपना ज्यादा दिनों तक नहीं चला। वह स्वप्नमयी रानी हँसते-हँसते इस दुनिया को छोड़कर चली गई। इधर दो बैलों को लेकर गाँव से स्टेशन, स्टेशन से गाँव दिन में दो बार आना- जाना करते हुए अगले जन्म में अपनी स्वप्नमयी को मिलने का प्रयास करता रहा। बैलगाड़ी चलाते समय वह इस बात को सुनाकर सबको रुला देता था और खुद भी अपने आँसुओं की दो बूंदे फटे हुए गमछे से पोंछ लेता था। फिर बैल की पीठ पर हाथ सहलाते हुए एक और कहानी कहने लगता था। लोगों का रास्ता पूरा हो जाता था लेकिन उसकी कहानी खत्म नहीं होती थी। वह कहता था, "मेरी बैलगाड़ी में कौन नहीं बैठा है? नहीं बैठे होंगे तो खलीकोट के राजा। मगर दिवान हो या मैनेजर, वकील या महाजन कहो, या फिर महात्मा गाँधी के भक्त कहो, सभी कोई मेरी बैलगाड़ी में बैठे हैं।" यह सब बात बोलते हुए वह भावुक हो जाता था कि बैल खड़े हो जाने से भी उन्हें चलने के लिए बाध्य नहीं करता था। जब उसे इस बात का ख्याल आता था तब वह कहता था कि जानवर भी उसकी बातें सुनने के लिए बेताब हैं।

मागुनी की बैलगाड़ी भले ही खलीकोट का इतिहास नहीं हो मगर इतिहास के कुछ पन्ने जरुर है। वह जैसे इतिहास के बारे में सुनाता था मानो वह इतिहास के सभी पात्रों को जानता हो। कितनी बाल विधवाएँ इस बैलगाड़ी में बैठकर ससुराल से मायके लौटी थी। कितनी सुहागिनें कुलवधुएँ मायके से ससुराल गई थी। कर वसूली नहीं होने पर जिस दिन मंडल गाँव का गदा रावल जेल गया था, उस दिन उनके घर का टूटा हुआ झाड़ू इस गाड़ी में डालकर राजमहल की कचहरी के सुपुर्द किया था। जिस दिन चंडालिया गाँव के मधु रथ नरहत्या अपराघ में पकड़े गए थे, उस दिन भी वह इस बैलगाड़ी में बैठकर गया था। इस गाड़ी में वकील बैठकर आए थे राजमहल में वकालत करने के लिए। इस गाड़ी में किसानों के हथकड़ी लगे हुए नेता बैठकर कचहरी गए हुए हैं। इस गाड़ी ने सुख भी देखा है तो दुख भी। आँसूओं से इस गाड़ी का सूखा पुआल गीला हुआ था। हँसी की आवाजों से यह गाड़ी काँपी थी। ये सब बातें कहते हुए मागुनी जब गाड़ी चलाता था जैसे कोई जीवंत इतिहास का वर्णन कर रहा हो। ऐसे पाँच दस इतिहास को एकत्र करने से ओड़िशा में और एक कोणार्क मंदिर की स्थापना हो जाती।

एक दिन मागुनी के कानों में यह खबर पहुँची कि उसकी गाड़ी में और लोग नहीं बैठेंगे क्योंकि सिंह के घर वालों ने एक मोटर बस खरीदने की योजना बनाई है। यह बात सुनकर उसने हँस-हँसकर आकाश को सिर पर ले लिया था। कहने लगा था, मोटर बस। वह क्या हाथ लगाने से मेरी बैलगाड़ी की तरह चलेगी? उसकी बातें सुनकर सब कोई हँसने लगे थे। परंतु उसने उस बात की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। देखते ही देखते दो-चार दिन के बाद खलीकोट गढ़ में मोटर बस आ गई। लोग कहने लगे कि अब मागुनी का व्यवसाय ठप्प हो जाएगा। एक साथ बीस आदमियों को लेकर एक घंटे में चालीस मील दूर जाना मागुनी की बैलगाड़ी से संभव होगा ?

यह बात सच थी। दैत्य दानव की तरह मोटर बस को देखकर मागुनी के मन में एक डर-सा पैदा हो गया। वह कोदाला सभा में जिस दिन गया था, रोते-रोते सोचने लगा था, कोई कह रहा था कि मशीनी चीजों के मुकाबले हाथ द्वारा तैयार की हुई चीजें अच्छी होती हैं। तब मोटर गाड़ी से मेरी बैलगाड़ी क्या अच्छी नहीं है? बहुत सारे आदमी इस सभा में उपस्थित हैं। ये लोग क्या मेरे दुख को नहीं समझ पाएँगे। कार्यकर्ता लोग अगर नहीं समझे तो मैं गाँधीजी के पास जाऊँगा। वे गरीबों के मित्र हैं। क्या वे कभी यह कहेंगे, मागुनी को मरने दे और सिंह का परिवार जिंदा रहे।

स्टेशन से गढ़ के लिए सिंह की बस प्रारंभ हो गई थी। मागुनी की बैलगाड़ी भी चलना प्रारंभ हो गई। देखते-देखते ही बस लोगों से भर गई, मगर बैलगाड़ी खाली। मागुनी आधी रात को ही बैलगाड़ी लेकर स्टेशन पर हाजिर हो जाता था फिर भी लोग बस में बैठना पसंद करते थे। उसने अपनी बैलगाड़ी में बोरे की गद्दी बनाकर बिछाई फिर भी लोग बस की तरफ भागते थे। किसी को हाथ पकड़कर लाने से भी लोग बस की तरफ देखने लगते थे। एक दिन गया। दूसरा दिन गया। कभी दोनों वक्त का खाना नसीब होता था, मगर अभी एक वक्त का भी मुश्किल था। वह पहले चावल खाकर आता था, मगर अब बांसी माँड़ पीकर आने लगा। धीरे-धीरे चूल्हा जलना भी बंद होने लगा। कालिया और कसरा बैलों के अस्थि-पंजर साफ़ नज़र आने लगे। वह दोनों को गले मिलकर रोने लगा. उसको देखने वाले पागल कहने लगे।

उसके बाद जिस दिन मागुनी की झोंपड़ी का दरवाजा तोड़कर गाँव वालों ने मागुनी की लाश निकाली। उन्होंने देखा फटी हुई गुदड़ी के नीचे एक छड़ी रखकर मागुनी ने सदैव के लिए आँखें भींच ली थी। श्मशान में आग धधकने लगी। आकाश में पंछी उस धुएँ को पार करते हुए उड़ने लगे। संसार के दो लाख लोग मागुनी की मृत्यु की खबर सुनकर कहने लगे, "आह ! मागुनी चल बसा।"