मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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वह मोहल्ला ऐसा था जो शहर से कोई चार किलो मीटर दूर होने के बावज़ूद हर तरह से तंगहाल था। बुनियादी जरूरतें भी मुहैया नहीं थीं। उल्टे, उसे अप्रत्याशित ख़तरों से निपटने के लिए, चाहे दिन हो या रात, मुस्तैद रहना पड़ता था। शहर रात को बिजली की रोशनी में नहाया रहता था और दिन में, पानी से आकंठ सिंचित रहता था।

लेकिन, इस हिंदू-बहुल मोहल्ले में लोगबाग़ रात को अंधेरों से और दिन में सूखे से जूळाने के आदी हो चुके थे। ऐसे ही मोहल्ले में सिर्फ़ एक आदम बसेरा था और वह भी इकलौते हिंदू का, जिसे यह मलाल था कि उसके पड़ोस के सभी हिंदू परिवार बाल-बच्चों समेत हिंदुस्तान कूच कर गए थे। उन्होंने जाते-जाते उससे लाख मिन्नतें की थी कि वह इन दरिंदों के बीच रहकर क्या करेगा। इन जिन्नातों ने तो उसके खेलते-खाते घर को तबाह कर डाला और उसे रोजी-रोटी तक के लिए मोहताज बना दिया।

पर, उसने साफ़ मना कर दिया कि वह आइंदा मादरे वतन को कभी भी तौबा नहीं करेगा।

जब उनके जाने के बाद मोहल्ला खाली हो गया और अगल-बगल के घर वीरान हो गए तो आवारा कुत्तों को वहाँ अपना अड्डा बनाने का अच्छा मौका मिला। ऐसे में, कुत्ते ही उसके पड़ोसी बन गए। रात को जब वे आपस में भौंकने लगते तो उसे एहसास होता कि वह किसी आदम बस्ती में न रहकर एक बीहड़ जंगल में रह रहा है जहाँ हर कोने में आदमख़ोर लकड़बघ्घों का डेरा है।

ऐसा नाख़ुशगवार माहौल कोई पाँच महीने तक बना रहा। उसे यह उम्मीद बिल्कुल नहीं थी कि उन घरों में कभी कोई आदम जात बसने की जुर्रत करेगा। पर, उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। एक सुबह काम पर जाते समय अचानक़ उसने देखा कि उसके आसपास के कोई सात-आठ मकानों में कुछ लोग सफ़ाई कर रहे हैं। शाम को दुकान से घर लौटते हुए उसने उन घरों में फ़िर अपनी खोजी नज़रें फेंकी। उसे बड़ी तसल्ली हुई कि उन घरों में कुछ लोग जम गए हैं। उसने पल भर को रुककर, बैसाखी पर अपनी दाढ़ टिकाते हुए सूखी मुस्कान के साथ आह भरी--"चलो, अब इंसानों के बीच रहेंगे, जानवरों के बीच नहीं।"

वह बैसाखी को दरवाजे के किनारे टिकाते हुए कमरे में दाख़िल हुआ--दीवार को दोनों हाथों से थामे हुए। उसकी पालतू बिल्ली लपककर उसकी गोद में चिपक गई। वह गिरते-गिरते सम्हला। बिल्ली को कुत्तों का ख़ौफ़ कम सता रहा था, क्योंकि उसे यह एहसास हो गया था कि पड़ोस के कुत्ते कहीं और नीड़ की तलाश में या आवारा सड़कों पर चले गए होंगे।

उसने लालटेन जलाई और बिल्ली को कुर्सी पर बैठाते हुए तिपाई के साथ लगी बेंच पर बैठ गया। वह आदतन कुछ देर तक सामने दीवार पर टंगे भारत के नक्शे को देखता रहा। उसने भारत के बाएं कंधे पर सवार पाकिस्तान के नक्शे पर मुँह बिचकाया। वह कुछ बड़बड़ाया। उसे एकबैक याद आया कि नक्शे को उसके बेटे राजू ने टांग रखा था। उसने पहली बार बड़े ध्यान से देखा कि दोनों देशों के बीच सीमा-रेखा को उसके बेटे ने खरोंचकर धूमिल-सा बना दिया है।

राजू की याद ने उसके भीतर के सूखे ज़ख़्म को गहराई से कुरेंद दिया। पर, उसके मन में बरसों से दुःख का बर्फ़ीला पहाड़ अटा होने के बावज़ूद उसकी आंखों ने आँसू का एक भी कतरा बहाने से इनकार कर दिया। चाहकर भी न रो पाना उसकी सबसे बड़ी बेबसी थी...बेशक! शारीरिक अक्षमता थी...

वह यानी हरिहर लालटेन लेकर कोठरी में आ गया। उसने चारपाई पर रखी राजू की तस्वीर को एक बार चूमा और वहीं लेट गया। लेकिन उसे यह बार-बार एहसास हो रहा था कि आज राजू के ख़्याल पर धूल की परत चढ़ती जा रही है और उसके सामने सुम्मी का चेहरा नाच रहा है। उसके चेहरे पर ळाुर्रियाँ रोने के अंदाज़ में फैल गईं--"उफ़्फ़! आज तो तुम्हारे शहादत का दिन है। जिन कमीनों ने तुमको मुळासे ज़ुदा किया, उनके वंश का नाश हो।" आँसुओं ने फिर उसका साथ देना गवारा नहीं किया।

सुम्मी यानी सुमिता जिसे कोई पंद्रह साल पहले, मंदिर से लौटते समय आवाम के कुछ शुभचिंतकों ने आवाम को ग़ैर-मज़हबदारों से महफ़ूज़ बनाने के नाम पर उसकी अस्मत लूटी और फिर, हलाख कर दिया। गुस्से से उसका चेहरा तपने लगा। चींकट कान गर्म होकर खुजलाने लगे। उसने दंतहीन मुँह से अपने होठों को जोर से चबाया और मुट्ठी भीचकर चारपाई पर कई बार पटका। मुट्ठी की धमक से छत से कुछ धूल ळाड़कर उसकी आँखों में चली गई। वह आँख रगड़ते हुए बिलबिला उठा। मुँह में धूल की कड़वाहट ने उसकी भूख और बढ़ा दी।

यह घटना सन 1975 की थी जबकि मोहल्ले में अमूमन तीस-पैंतीस हिंदू परिवार रह रहे थे। उसके साथ-साथ सुम्मी भी महाशिवरात्रि का व्रत थी। वह आसपास के जंगलों से शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए धतूरे, बेलपत्र, भांगपत्र, बैर, फूल वगैरह इकट्ठे करने के बाद बाजार से धूप, अगरबत्ती, कपूर, जैसी चीजें भी खरीद लाया। मुल्ला दुकानदारों से पूजा के सामान आदि खरीदना बड़ी टेढ़ी खीर होती है। उसे उनको बार-बार सफाई देनी पड़ी कि घर की कच्ची दीवारों के अंदर मरे हुए चूहों की बास को कम करने के लिए इन चीजों का इस्तेमाल करना पड़ता है। पर, उन्हें एक हिंदू की जुबान पर कहाँ यकीन होने वाला था। ख़ैर, दिन के कोई दस बजे, वे घर में स्थापित उस काँसे के शिवलिंग की विधिवत पूजा करने के बाद, जिसे कभी उसके पुरखों द्वारा दिल्ली के चाँदनी चौक से खरीदा गया था, नवाबगंज स्थित शिवाले पर जाने का मूड बनाने लगे। कोई आधे घंटे बाद, वे मच्छरदानी में सोते बच्चे के मुँह में दूध की बोतल डालकर बेफ़िक्र हो गए कि वह कम से कम एक घंटे तक तो सोता रहेगा ही जबकि इस बीच वे शिवजी का दर्शन भी करते आएंगे।

वे गली-कूचों से पगडंडियों के रास्ते शिवालय की ओर चल पड़े। दोनों ने रास्ते में ही तय कर लिया कि उनमें से कौन सबसे पहले शिवजी को अर्ध्य चढ़ाने जाएगा।

शिवालय की सीढ़ियों पर दस्तक देने से पहले ही वे ठिठक गए। दरमियाने डील-डौल वाले अक्खड़ किस्म के चुनिंदा दढ़ियल नौजवान वहाँ कुछ इस अंदाज़ में चहकदमी कर रहे थे, जैसेकि वे पहरेदारी कर रहे हों। चुनांचे, वे उन्हें देखकर किसी पतली गली की आड़ में छुप गए या कहीं चले गए। ऐसे में, हरिहर और सुम्मी को शिवजी की निर्विघ्न पूजा करने का अच्छा मौका मिला। उन्हें वहाँ छाई घुप्प ख़ामोशी पर कोई ख़ास ताज़्ज़ुब नहीं हो रहा था क्योंकि वे पहले भी यहाँ आ चुके थे। जैसाकि उनके बीच तय हो चुका था, पहले सुम्मी शिवालय के अंदर गई और हरिहर बाहर उसकी प्रतीक्षा करता रहा। चार-पाँच मिनट नहीं, पूरे दस मिनट के बाद जब वह बाहर आई तो हरिहर की बेचैनी दूर हुई। उसने आँखों ही आँखों में सुम्मी से शिकायत की--'आख़िर, इतनी देर क्यों लगा दी? मेरी तो जान ही निकल गई थी।' सुम्मी ने मुस्कराकर उसके हाथों में पूजावाली डलिया थमाई और गली के सुन्नसान नुक्कड़ पर जाकर खड़ी हो गई। हरिहर तेजी से अंदर गया और पूजा से यथाशीघ्र निपटकर बाहर आया। पर, उसे नुक्कड़ पर सुम्मी को न देखकर कोई ज़्यादा हड़बड़ी नहीं हुई। उसने सोचा कि वह शायद, चहलकदमी करते हुए घर की ओर रवाना हो चुकी होगी और रास्ते पर खड़े होते ही वह सामने नज़र आ जाएगी। वह बिल्ली जैसी चपलता से उछलता हुआ रास्ते पर आया। लेकिन, दूर-दूर तक सुम्मी नज़र नहीं आई। आखिर, किस रफ़्तार से सुम्मी गई होगी और वह भी बिना बताए, हरिहर को तो शिवालय में पूजा से निपटने में कोई दो-तीन मिनट से ज़्यादा नही लगे होंगे।

उसकी साँस अटक-सी गई। उसका दिल घबराहट से धड़क रहा था; लेकिन, उसका मन कह रहा था कि सुम्मी के साथ कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। वह शिवालय को जोड़ने वाली दूसरी तीनों गलियों में बारी-बारी से लपक-लपककर भागता रहा। उसे वे नौजवान भी कहीं नज़र नहीं आए जो उसे शिवालय पर दिखाई दिए थे। फिर, आधे घंटे बाद वह वापस शिवालय के सामने आकर खड़ा हो गया। कुछ पल प्रतीक्षा करता रहा कि संभवतः सुम्मी वापस आ ही जाएगी।

पर, ऐसा नहीं होना था। हरिहर रुआँसा हो गया। तभी, उसे अचानक कुछ सूळाा और वह सुम्मी-सुम्मी पुकारता हुआ घर की ओर चल पड़ा--लगभग भागते हुए। उसे लग रहा था कि शायद, सुम्मी घर में मौज़ूद होगी।

पर, घर में तो उसका नामो-निशान तक नहीं था। अलबत्ता राजू अभी भी मच्छरदानी में सो रहा था। उसने अफ़रातफ़री में अपने तीन-वर्षीय बेटे को गोद में उठाया और हिम्मत बटोरकर थाने की ओर चल पड़ा।

वहाँ लाख मिन्नतें करने, दाढ़ी छूने और घिघियाने और टुच्चे पुलिसवालों की ळिाड़कियाँ सुनने के बाद उसकी पत्नी की ग़ुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ हुई।

रात के साढ़े नौ बजे चुके थे। उसकी आँखें सूजकर लाल हो गई थीं। पड़ोसी उसे तसल्ली देकर जा चुके थे। बीवी के ग़ुम हो जाने के बाद अभी उसे उम्मीद थी कि वह जहाँ भी होगी महफ़ूज़ होगी और ज़ल्दी ही वापस आ जाएगी। वह बस! ज़िंदा हो, भले ही उसकी आबरू लुट चुकी हो। उसे सरेआम बेइज़्ज़त किया जा चुका हो। वह उससे कोई शिकायत नहीं करेगा। वह उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता है।

वह उसके साथ मुहब्बत में गुजारे बेशक़ीमती लमहे याद करते हुए बच्चे को तीसरी बार दूध में वैद्य रामदीन द्वारा दी गई दवा घोलकर पिला रहा था। उसे पिछली रात से ही बुखार आ रहा था और इसी वज़ह से वह दवा के नशे में लस्त पड़ा बेख़बर सो रहा था। एक-दो बार वह अम्मा-अम्मा पुकारकर उसकी थपकियों से आसानी से काबू में आ गया था। वर्ना, अम्मा की ग़ैर-मौज़ूदगी में...

तभी वह कोई आहट सुनकर दरवाज़े पर आ गया। उसने लालटेन की रोशनी तेज की। एक पुलिसवाले को खड़ा देख राहत की साँस ली--'जरूर उसकी सुम्मी के बारे में अच्छी ख़बर लाया होगा।' उसने आँख मीचकर भगवान शिव का ध्यान किया। पुलिसवाले ने अकड़बाज़ लहजे में सवाल किया--"क्या तूने ही सुभह थाने में बीवी की ग़ुमशुदगी की रपट लिखवाई थी?" "हाँ, म...म...मैंने ही..." वह हकलाकर रह गया।

"तेरी बीवी की लाश को सदर थाने में पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है। तूँ अलसुभह सात बजे थाने आकर उसकी लाश ले जाना..." पुलिसवाला नफ़रत से थूकते हुए तेज कदमों से लौट गया।

उसने जाते-जाते इस बात की भी परवाह नहीं की कि उसकी ख़बर सुनने के बाद हरिहर गश खाकर जमीन पर धड़ाम से गिर पड़ा है। उसे कई घंटों बाद होश तब आया जबकि राजू का रोना-बिलखना उसके कानों को बुरी तरह भेदने लगा।

उस वक़्त रात के दो बजे हुए थे। हरिहर एक बार शिव की मूर्ति के सामने खड़ा होकर भगवान से कुछ शिकायत करने वाला था। लेकिन तभी वह बच्चे की 'अम्मा-अम्मा' की पुकार सुनकर विचलित हो गया। उसने बच्चे को थपकी देकर सुलाते हुए चारपाई पर लिटाया और एक निर्णायक मूड में कुछ कपड़े और दूसरे सामान वग़ैरह एक बक्से में रखने लगा। उसे नींद नहीं आई। थाने में उसकी जवान बीवी की लाश रखी पड़ी हो और वह सोने का ख़याल ला सके। कैसे मुमकिन हो सकता है?

सुबह थाने पहुँचने के बाद उसका दिमाग़ थानेदार की फ़ाइनल जाँच रिपोर्ट सुनकर दंग रह गया।

"तेरी बीवी ने शिवालय के पीछे वाले कुएं में कूदकर ख़ुदकुशी की थी--उसकी लाश वहीं से बरामद हुई है," थानेदार ने उसे पोस्टमार्टम रिपोर्ट दिखाते हुए कहा।

"लेकिन, उसे तो ऐसा कोई ग़म नहीं था..." हरिहर का चेहरा उस ळाूठ रिपोर्ट से लाल हो गया। वह गोद में बच्चे को सम्हालते हुए वहाँ जमीन पर उस मुड़ी-तुड़ी गठरी को देखकर रुआँसा हो उठा जिसमें सुम्मी की मुड़ी-तुड़ी लाश पड़ी थी। थानेदार उसकी प्रतिक्रिया से उबल उठा, "हरामज़ादे! तेरी बेवफ़ाई और टार्चर से ऊबकर ही उसने..."

"लेकिन, हमदोनों में इतना मुहब्बत था कि कोई भी कभी ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं करता था। उसे टार्चर करने का तो सवाल ही नहीं उठता।" बेशक, हरिहर की दलील उसे कतई पसंद नहीं आई।

थानेदार रिज़वी ग़ुस्से में काफ़ूर होकर और कुर्सी को धड़ाम से पीछे धकेलते हुए चींख उठा, "तेरा कहने का मतलब क्या है? तूँ यहाँ दस्तख़त कर और लाश लेकर चलता बन, वर्ना..." वह लाश पर पैर से ठोकर मारते हुए आपे से बाहर हो रहा था। हरिहर का जी कर रहा था कि वह अपनी सुरक्षा के लिए अंदर करधनी से लटकती करौली निकालकर उस राक्षस के सीने में घुसेड़ दे। पर, वह सब्र का ज़हर पीकर लाश के साथ वापस घर लौट आया। उसने ख़ुद लाश को खोलकर अपनी पत्नी के ज़िस्म को उलटा-पलटा और उसकी बख़ूबी निग़रानी की। योनिमार्ग से लगातार ख़ून बह रहा था, गरदन की हड्डी टूटी हुई थी और कुएं में गिरने से उसके बदन पर जिस तरह की चोटें आनी चाहिए थी, वैसा कोई निशान मौज़ूद नहीं था। इसलिए, इस सच को सबूत की ज़रूरत नहीं थी कि सुम्मी का सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसकी बेरहमी से गला घोंटकर हत्या की गई थी।

शाम से पहले वह सुम्मी का अंतिम संस्कार करके निपट चुका था। तत्पश्चात, उसने घर पर आए अपने पड़ोसियों को अपना इरादा बताया, "मैंने इस मुल्क को आज और अभी छोड़ने का मन बना लिया है। मैं हिंदुस्तान जा रहा हूँ।"

पड़ोसियों ने उसे लाख समळााया-बुळााया कि जिस मादरे वतन की माटी में उसकी जान यानी सुम्मी का अंश मिला हुआ है, उसे छोड़कर वह सुकून से नहीं रह पाएगा। लेकिन, वह अपने फ़ैसले पर अडिग था।

हरिहर ने वतन से तौबा कर लिया था। उसको अपने बच्चे के साथ दिल्ली में पनाह लिए हुए कई साल बीत चुके थे। वह कम से कम दर्जनभर ळाुग्गी बस्तियों में रहने के लिए असफ़ल जुगाड़ बैठाकर उकता चुका था। पर, हर बस्ती में उसे शरणार्थी, रिफ़्यूज़ी, टेररिस्ट आदि का बदनाम तग़मा ओढ़कर निकलने पर मज़बूर होना पड़ता था। जब वह फुटपाथों या रेलवे प्लेटफार्मों की शरण में जाता तो पुलिस की ज़्यादतियाँ उसका स्थायी तौर पर हिंदुस्तान में बसने का मनोबल तोड़ देती। वे उससे भारतीय नागरिक होने का सर्टीफ़ीकेट मांगते, फिर उसके साथ पुलिसयाना बर्ताव करने लगते। पर, वह तो चोरमार्गों से भारत आया था, दोनों देशों की सरकारों की सहमति से नहीं। इस भावना के साथ आया था कि वह जाति से हिंदू और वह भी ब्राह्मण होने के नाते हिंदुस्तान में न केवल सुरक्षित नीड़ तलाश कर पाएगा बल्कि हिंदुस्तानियों के साथ अच्छी तरह खिल्थ-मिल्थ होकर उनकी हमदर्दी भी बटोर सकेगा। दूसरे, वहाँ तो भूख से जूळाने के साथ-साथ मौत के ख़ौफ़ से भी हर पल लड़ना पड़ता था। कम से कम हिंदुस्तान में मौत का डर तो उतना नहीं है। बस, आए दिन उसे पुलिस से दो-चार होना पड़ता है--ख़ामोशी के साथ उनकी भद्दी-भद्दी गालियाँ सुनते हुए और लात-डंडे खाते हुए। लिहाजा, पेट तो देर-सबेर भर ही जाता है।

उसे कई बार कुछ नेता चुनावों के दरमियान किसी ळाुग्गी बस्ती में रहने का ठिकाना इस वादे के साथ दे जाते कि जब वह चुनाव जीत जाएगा तो वह उसे बाक़ायदा यहाँ की नागरिकता दिला देगा। कुछ ऐसी ही उम्मीद में उसने कितने ही साल यहाँ गुजार दिए। पर, उसने अपनी हिम्मत को कभी टूटने नहीं दिया। वह कई बार दिल्ली स्थित हिंदू संगठनों के पास भी गया और अपना दुखड़ा सुनाया। वहाँ उस जैसे हिंदुओं पर ढाए जा रहे ज़ुल्मों का हृदयविदारक रोना रोया। फिर, अपनी जाति बताई और गोत्र भी। अपने उन ख़ानदानी पुरखों के नाम गिनाए जो अयोध्या और काशी जैसे नगरों के सम्मानित नागरिक थे। वह बस्तियों में गया और बुज़ुर्ग नागरिकों से फ़रियाद की कि मैं और मेरा बेटा हिंदू होने के नाते हिंदुस्तान में ही बसना चाहते हंैं। पर, किसी पर भी उनकी बात का यक़ीन नहीं होता! कोई उनका साथ देने को तैयार नहीं हुआ। उल्टे, कुछ लोग तो दोनों को घुसपैठिया समळा, उन्हें फ़ौरी तौर पर पुलिस को सौंपने पर भी आमादा हो गए। लेकिन, समय रहते वे उनका इरादा भाँपकर भाग निकले वर्ना...

हरिहर थक चुका था। उसके साथ उसकी बदक़िस्मती का हमसफ़र--राजू, यानी उसका बेटा अब बड़ा हो रहा था और उसकी बातों में सयानापन ज़ाहिर होने लगा था। उसे सारी बातें समळा में आने लगी थीं। कुछ दिनों से वह उसे बार-बार एक ही सबक देने लगा था कि--'बाबू! इससे अच्छा तो अपना ही देस है जहाँ अम्मा की रूह बसी हुई है।' फिर, वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगता--"बाबूजी! हमें इस देस में अब तक क्या मिला है? यहाँ भी लात खा रहे हैं, वहाँ भी लात ही खाएंगे। सो, अच्छा होगा कि हम फिर अपने वतन लौट चलें..."

हरिहर के कानों में भी खुजुली होने लगी--'राजू क्या ग़लत कह रहा है? यहाँ तो अपना कोई मुस्तकिल ठौर भी नहीं है। वहाँ तो अपना घर है, अपनी जान-पहचान के लोग भी हैं। वहाँ जाकर फिर से अपना धंधा करेंगे और पेट पालेंगे।' लेकिन, सीमा पार जाने के ख़याल-भर से उसका बदन थर-थर काँपने लगता।

परंतु, एक घटना ने उसके डर को काफ़ूर कर दिया। एक ठिठुरती रात को कुछ वहशी पुलिसवालों ने उन दोनों को दिल्ली रेलवे स्टेशन के पेशाबखाने के एक कोने में उस समय जमकर धुनाई की जबकि वे घातक ठंड को धता बता, सो रहे थे। वे दोनों दर्द से बिलबिलाते हुए अपनी कथरी छोड़ प्लेटफ़ार्म से बाहर की ओर भागे। हरिहर तो इतने समय से पुलिस की मार बर्दाश्त करने का दमख़म विकसित भी कर चुका था। पर, राजू का पहली बार पुलिस के डंडों से वास्ता पड़ा था। वह दहाड़ें मार-मारकर रोता हुआ भाग रहा था। जब वे किसी तरह भागते हुए पुलिसवालों की पहुँच से दूर निकल आए तो एक बस स्टैंड की बेंच पर बैठते हुए हरिहर फ़फ़क उठा--"हिंदुस्तान के बारे में मैंने ग़लतफ़हमी पाल रखी थी कि यहाँ चैन होगा और सुकून मिलेगा। पर, अब मेरा मोहभंग हो चुका है। यहाँ तो भूख है, यातना है, परायापन है। इससे खराब जमीन कहाँ की होगी? अब, यहाँ और रहना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है..."

उसने अपने पैरों की चोट सहलाते हुए राजू को खींचकर उठाया। वापस वतन जाने के इरादे ने रोते-बिलखते राजू में भी बेहद जोश पैदा कर दिया। वह पिटाई का दर्द भूलकर उठ खड़ा हुआ--"बाबूजी! हमें सच्चा सुकून वहीं मिलेगा जहाँ मेरी अम्मा की आत्मा मुळो दुलराने के लिए इधर-उधर बेताब-सी मँडरा रही है।"

कोई महीने भर की जी-तोड़ मशक्कत करने और तरक़ीब तलाशने के बाद एक रात वे लुक-छिपकर अपने वतन की सरहद में प्रवेश कर ही गए। अपने वतन की जमीन पर चलते हुए उन्हें बड़ा सुकून मिल रहा था। लिहाजा, वे तेज कदमों से बढ़ रहे थे कि तभी उन्हें अहसास हुआ कि उनका पीछा किया जा रहा है। इस पर, वे कोई दस मिनट तक ळााड़ियों में दुबके रहे। उसके बाद जब वे उठे तो बेतहाशा भागते हुए। जब उन्हें लगा कि वे मीलों पीछे सरहद को छोड़ चुके हैं और बस्तियों में प्रवेश कर चुके हैं तब उन्होंने अपने पैरों को राहत दी।

पर, उन्हें क्या पता कि उनका पीछा किया जा रहा है? अभी वे एक पेड़ की आड़ में अपनी हँफ़ाई पर काबू पाने की कोशिश कर ही रहे थे कि तभी एक सनसनाता कारतूस हरिहर के बाएँ पैर की जाँघ में आकर फ़ँस गया। वह इतनी जोर से चींखा कि आसपास के घोसलों में सोते परिंदे भी जागकर बेचैनी से चहचहाने लगे। हरिहर वहीं राजू के सीने पर अपना सिर रखकर उसे आँसुओं से भिंगोते हुए कराहने लगा।

राजू ने सोचा कि अगर वह कमजोर पड़ गया तो उसके बाप का मनोबल टूट गया। उसने उसके हौसले को बुलंद किया--"बाबूजी! कुछ नहीं हुआ है। घर पहुँचकर सब ठीक हो जाएगा।"

जैसे-तैसे ळााड़ियों में रात गुजारने के बाद जब सुबह हुई तो हरिहर ने कहा--"बेटे! ऐसा करो कि आज शाम तक हम अपने घर में दाख़िल हो जाएं!" फिर उसने अंगोछे से अपनी जाँघ के ज़ख़्म को कसकर बाँधा और राजू के कंधे का सहारा छोड़कर अपने पैरों पर ऐसे खड़ा हो गया जैसेकि जाँघ में गोली लगने की बात तो ळाूठी थी। असल बात यह है कि वे अब अपने देश वापस आ चुके हैं और ऐसी खुशी हर ग़म को दबा देती है।

राजू ने देखा कि उसका जाँबाज़ बाप अपनी जाँघ में गोली की टीस को दबाए हुए कितने जोश-ख़रोश से घर पहुँचने के लिए बेताब है। वतन पहुँचने की खुशी ने उसकी पीड़ा को अच्छी तरह दबा दिया था। यद्यपि वे बसों और रेलगाड़ियों में चैन से यात्रा नहीं कर पा रहे थे--क्योंकि टिकट खरीदने के लिए उनके पास एक भी धेला नहीं था लेकिन हरिहर बड़ी चालांकी से कन्डक्टरों की आँखों में धूल ळाोंककर बाल-बाल बचता जा रहा था। अन्यथा, उनकी हुलिया ऐसी थी कि पकड़े जाने पर उनको हिंदुस्तानी घुसपैठिया समळा, न जाने कितनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ती।

आख़िरकार, वे अपनी सुरक्षित जान लेकर कोई दस बजे रात को अपने घर के सामने खड़े हुए। जब हरिहर जनेऊ से बँधी चाभी निकाल रहा था कि तभी कुछ पड़ोसी भी वहाँ आ गए। घर में घुसते ही हरिहर को गशी-सी आने लगी क्योंकि जाँघ में फ़ँसे कारतूस की कसक तेज होने लगी थी। वह वहीं जमीन पर चित धराशायी हो गया। राजू ने पड़ोसियों को बताया, "बाबूजी की जाँघ में कल रात से ही एक गोली फ़ँसी हुई है।"

पड़ोस के वैद्य रामदीन ने जाँच के बाद बताया--"हरिहर के सारे बदन में गोली का ज़हर फैल चुका है। बचने की उम्मीद ना के बराबर है।"

राजू को तो जैसे साँप सूंघ गया। पर, पड़ोसियों ने उसका पर्याप्त ढाँढस बँधाया और उसे बहला-फ़ुसलाकर किसी पड़ोस के घर में खींच ले गए ताकि वह कुछ देर तक आराम से सोकर अपनी थकान मिटा सके। रामदीन ने मददग़ार पड़ोसियों को अंतिम फ़ैसला सुनाया--"हरिहर का पैर तत्काल काटकर ही उसकी जान बचाई जा सकती है।"

कोई एक बजे रात को रामदीन के घर में उपलब्ध चिकित्सीय सुविधाओं की सहायता से हरिहर का एक पैर काट दिया गया। पड़ोसियों ने तन-मन-धन से उसकी मदद की। सुबह जब राजू को लाकर उसके बाप के सिरहाने बैठाया गया तो उसको इतना कुछ होने पर भी बड़े सुकून का अहसास हो रहा था जबकि हरिहर को अभी तक होश नहीं आया था।

पड़ोस में हरिहर की वतन वापसी के चलते कई दिनों से बड़ी चहलपहल थी। उसका ज़ख़्म अभी तक हरा था। सभी हिंदू परिवार अपने-अपने इष्ट देवताओं से उसकी सलामती के लिए दुआएं मांग रहे थे। लिहाजा, राजू अपना वक़्त अपने उजड़े घर को ठीक-ठाक करने में लगा रहा था। उसने दीवारों पर कैलेंडर टांगे और बिखरे हुए सामानों को करीने से सजाया। कुछ इसी तरह से सुकून और चैन की तलाश चल रही थी कि एक दिन अचानक माहौल में सनसनी फ़ैल गई। चुनिंदा पुलिसवाले यह ऐलान करते हुए कि दो हिंदुस्तानी घुसपैठिए इस मोहल्ले में घुस आए हैं, लकड़बघ्घों की जैसी फ़ुर्ती से घर-घर की तलाशी लेने लगे। वैद्य रामदीन भाँप गया कि यह सब क़वायद हरिहर की धरपकड़ के लिए की जा रही है। इसलिए, उसने एहतियाती तौर पर हरिहर को एक तहखाने में डाल दिया लेकिन, राजू की ओर से बेफ़िक्र हो गया कि इस लड़के पर पुलिसवालों का क्या ध्यान जाएगा। मैं इसे अपना बेटा बताकर बचा लूँगा।

आख़िरकार, पुलिसवालों ने रामदीन के घर की तलाशी शुरू कर दी।

इंस्पेक्टर रिज़वी ने अपना पूरा ध्यान राजू पर टिका दिया।

"ये लौंडा तुम्हारा है?"

"जी-जी...हाँ..."अब तक अविवाहित रहे अधेड़ रामदीन ने सकारात्मक में सिर हिलाया। दरअसल, उसने आजीवन अविवाहित रहने की क़सम इसलिए खा रखी थी क्योंकि उसे तो अपना सारा जीवन बीमारों की ख़िदमत में गुजारना था।

"तुम्हारी बीवी नज़र नहीं आ रही है..." रिज़वी ने शक से उसे घूरकर देखा। रामदीन से कोई उत्तर नहीं बन सका।

रिज़वी फिर गरजा--"मैं पूछता हूँ कि तुम्हारी बीवी कहाँ है?"

वहाँ उपस्थित राजू ने पूरे भोलेपन से कहा--"चचा की शादी ही नहीं हुई है।"

"तो क्या तूँ किसी रंडी का लौंडा है?" रिज़वी ने राजू की गरदन को अपनी मुट्ठी में जकड़ते हुए पूछा। वह घिघियाकर रह गया। जब रामदीन बदहवास-सा खड़ा कुछ भी नहीं बोल सका तो रिज़वी राजू को घसीटता हुआ बाहर गली में आ गया।

"एक हरामज़ादा हिंदुस्तानी मिल गया। दूसरा भी यहीं कहीं छिपा होगा।" वह गली में गला फाड़कर चिल्ला रहा था।

"तुम वतनफ़रोशों! कान खोलकर सुन लो, अगर कल सुभह तक तुमने दूसरे घुसपैठिए को हमें सुपुर्द नहीं किया तो तुमलोगों की ख़ैर नहीं।"

रिज़वी दीवारों को धमकाते हुए राजू को उठा ले गया। किसी भी शख़्स की हिम्मत नहीं हुई कि वह घर से बाहर निकलकर रिज़वी के सामने विरोध-प्रदर्शन कर सके। राजू को बचाने के लिए कोई दलील दे सके या इंस्पेक्टर का किसी भी तरह से सामना कर सके। पड़ोसी तो समळा गए थे कि राजू का वही हश्र होगा, जो पहले मोहल्ले के कुछ जवान लड़कों का हो चुका है।

हरिहर बाएं पैर को खोकर उतना बेसहारा नहीं हुआ था, जितना राजू को खोकर। इंस्पेक्टर रिज़वी ने इस बात से साफ़ मना कर दिया कि उसने राजू जैसे शख़्स को कभी हाथ भी लगाया हो। इसलिए यह बात साफ़ थी कि राजू उसकी यातनाओं की भेंट चढ़ चुका है।

हरिहर के जीने की सारी आशाएं धूल-धूसरित हो चुकी थी। वह कई सालों तक थाने, कोतवाली, बड़े-बड़े आफ़िसों और मिनिस्ट्रियों के चक्कर लगा-लगाकर अपने बुढ़ापे को जार-जार करता रहा। ऊँचे ओहदों पर बैठे अफ़सरों और नेताओं के आगे घुटने टेकता रहा। पर, वही ढाक के तीन पात। राजू का कहीं अता-पता नहीं चला।

हरिहर के ऊपर इतने सारे ज़ुल्म मुसलमान पैदा न होने की सज़ा के रूप में ढाए जा रहे थे। अंततोगत्वा, वह हार मानकर अपनी बाकी ज़िंदगी फुटपाथों के किनारे बूट-पालिश करते हुए बिताने लगा। जिस गुमटी में वह हिंदुस्तान जाने से पहले चाय-पान की दुकान लगाया करता था, वापसी के बाद तो उसका कहीं अवशेष तक नहीं मिला। इसके अलावा, उसने जब भी शहर के इर्दगिर्द कोई नया रोज़ग़ार शुरू करने की ज़ोख़िम उठाई, उस पर क़ौम के रखवालों ने हर बार पानी फेर दिया। मरता क्या न करता? सो, उसने ऐसा काम शुरू किया जिससे किसी को कोई एतराज़ नहीं होने वाला था।

ऐसे ही सब कुछ लस्टम-पस्टम चल रहा था कि एक दिन उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई जबकि उसके पड़ोसी उसके पास आए।

रामदीन ने कहा--"भई! हम सभी चाहते हैं कि तुम भी हमारे साथ चलो..."

"कहाँ?" उसने अपने कान खड़े कर दिए।

"वहीं से जहाँ से तुमको वापस आना पड़ा था।"

रामदीन का प्रस्ताव सुनकर, बैसाख़ी पर खड़े हरिहर ने वहाँ मौज़ूद सभी की आँखों में बारी-बारी से ळााँका। रामदीन ने कहा--"तुम्हारा हिंदुस्तान जाने का ढंग सही नहीं था। हमलोग पूरे इंतज़ामात के साथ यहाँ से कूच कर रहे हैं। वहाँ हम मिलजुलकर कोई धंधा करेंगे, सुख-दुःख के संगी बनेंगे..."

उनके प्रस्ताव पर लंगड़ा हरिहर आग-बगूला हो उठा।

"अरे! तुमलोग अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जा रहे हो। हिंदुस्तान में तुम्हें कभी भी क़ुबूल नहीं किया जाएगा। वहाँ के नागरिक तुम्हें ळिाड़कियों से जार-जार कर देंगे। तुम चप्पा-चप्पा छान मारोगे, लेकिन तुम्हें कहीं कोई ठिकाना नहीं मिलेगा। गालियाँ सुन-सुनकर तुमलोग बहरे हो जाओगे। इस बात की गाँठ बाँध लो कि वहाँ तुम्हें रिफ़्यूज़ी कम, घुसपैठिया ज़्यादा समळाा जाएगा..."

रामदीन ने कहा--"हरिहर! फ़िज़ूल की बातें मत करो। हम कल सुबह यहाँ से रवाना होंगे। अगर चलना है तो चलो, वर्ना..."

उनके जाने के बाद भी हरिहर काफ़ी देर तक बड़बड़ाता रहा। वे समळा गए थे कि उनकी बातों का उस पर कोई असर नहीं होने वाला है। चुनांचे, रामदीन की पूरी इच्छा थी कि हरिहर उसके साथ हिंदुस्तान चले। आख़िर, वह इस मोहल्ले में अकेला हिंदू रह जाएगा और वह भी अपाहिज और बूढ़ा। इसलिए, दूसरे दिन सुबह जब मोहल्लेवाले समूह बनाकर हरिहर के घर के सामने से गुजर रहे थे तो रामदीन उसके दरवाजे पर दोबारा खड़ा हो गया। उस समय हरिहर अपनी बिल्ली को गोद में खिला रहा था। वह रामदीन को देख आपे से बाहर हो गया, "दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं। लौटके सारे बुद्धू यहीं आएंगे। मादरे वतन तुम्हें भी वापस बुला लेगी।"

उसकी दो-टूक बातें सुनने के बाद, रामदीन से कुछ भी कहते नहीं बना। वह आगे बढ़ चुके पड़ोसियों के साथ जा मिला। पर, उनके जाने के बाद हरिहर फूट-फूटकर रोता रहा--"कम से कम उन्होंने जाते-जाते मुळासे दुआ-सलाम तो किया होता!" लिहाजा, वे कभी लौटकर नहीं आए। हरिहर बरसों उनकी राह ताकता रह गया। जबकि उसे पूरा विश्वास था कि उनमें से हरेक व्यक्ति हिंदुस्तानी महानगरों की फुटपाथों पर कीड़ों की तरह रेंग-रेंगकर अपने आख़िरी पल की प्रतीक्षा कर रहा होगा।

मोहल्ले से कुत्तों के प्रवास के बाद वहाँ बसने वाले नागरिक पक्के वतनपरस्त थे। वे यदाकदा मज़लिस किया करते थे जिसमें यह मुद्दा अव्वल रहता था कि इस मोहल्ले को ग़ैर-मज़हबदारों से निज़ात दिलाया जाना चाहिए। एक दिन हरिहर के काम पर जाते ही वे उसके घर का ताला तोड़कर उसमें काबिज़ हो गए। उस शाम, हरिहर लौटकर नहीं आया। मालूम नहीं, वह कहाँ खप गया या खपा दिया गया? उसे शहर में भी कभी बूट-पालिश करते हुए नहीं देखा गया। अगले दिन, मोहल्लेवालों ने रिटायर्ड थानेदार रिज़वी की मौज़ूदगी में एक शानदार पार्टी दी।