माधवराव सप्रे का महत्व / मैनेजर पांडेय

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यह मानी हुई बात है कि दुनिया भर में उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष संस्कृति के मोर्चे पर भी होता रहा है। साहित्य और दूसरी कलाओं में एक ऐसी देशी विश्व दृष्टि के विकास की कोशिश होती रही है जो उपनिवेशवाद की वर्चस्ववादी विश्व दृष्टि का मुकाबला कर सके। इसी प्रक्रिया में नवजागरण की शुरुआत होती है। हिंदी नवजागरण के निर्माता हिंदी के साहित्यकार थे। वे बंगाल और महाराष्ट्र के नवजागरण के नायकों की तरह मुख्य रूप से समाज सुधारक नहीं थे। बंगाल और महाराष्ट्र के नवजागरण को गति और दिशा देने वाले अनेक बुद्धिजीवी साहित्यकार भी थे। उनकी भूमिका नवजागरण की प्रक्रिया को व्यापक बनाने की थी, जबकि हिंदी के साहित्यकार हिंदी नवजागरण के जनक थे। उनकी नवजागरण की चेतना उनकी साहित्यिक कृतियों में व्यक्त हुई थी, इसलिए वह वैसी सुनिश्चित, स्पष्ट और तेजस्वी नहीं थी जैसी बांग्ला और मराठी नवजारगण की चेतना थी।

हिंदी में नवजागरण की चेतना का जो विकास हुआ उसका एक स्रोत बंगाल का नवजागरण था तो दूसरा महाराष्ट्र का। इन दोनों क्षेत्रों में नवजागरण की चेतना का जन्म पहले हुआ था। हिंदी नवजागरण के एक निर्माता भारतेंदु हरिश्चंद्र का बंगाल के नवजागरण से गहरा संबंध था, तो दूसरे निर्माता महावीर प्रसाद द्विवेदी का महाराष्ट्र के नवजागरण से। इन दोनों के संबंधों के पर्याप्त प्रमाण उनके लेखन में मौजूद हैं।

हिंदी नवजागरण के निर्माता केवल साहित्यकार न थे। वे सभी साहित्यकार के साथ साथ जागरूक पत्रकार भी थे, इसलिए वे अपने समय और समाज के सामने खड़ी चुनौतियों और समस्याओं के बारे में गम्भीरता से सोचने और लिखने वाले आधुनिक बुद्धिजीवी थे। उन्होंने अपने समाज के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर लिखा है। ऐसे बुद्धिजीवी केवल हिंदी नवजागरण में ही नहीं, देश के अन्य भागों के नवजागरणों में भी दिखाई देते हैं। भारतीय नवजागरण की प्रक्रिया से एक समग्रतापरक सोच का विकास हुआ था जिसकी अभिव्यक्ति नवजागरण के प्रतिनिधि बुद्धिजीवियों के चिंतन और लेखन में मिलती है।

भारतीय नवजागरण के प्रभाव से विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं के बुद्धिजीवियों की चेतना में व्यापकता आई। उनकी समझ के दायरे में स्थानीयता के साथ साथ भारतीयता के बोध का समावेश हुआ। वे अपने समाज की दुर्दशा के बारे में सजग हुए, पर साथ ही संपूर्ण भारतीय समाज की दुर्गति के बारे में सोचते हुए। वे अपने समाज में मौजूद तरह तरह की पराधीनताओं से मुक्ति के साथ ही पूरे देश की मुक्ति के बारे में भी चिंतित हुए। बंगाल और महाराष्ट्र के नवजागरणों में पहले स्थानीय चिंताएँ प्रबल थीं, बंगाल में 'बंग चेतना' प्रमुख थी और महाराष्ट्र में 'महाराष्ट्र धर्म' पर जोर था, लेकिन बाद में भारतीयता की भावना का विकास हुआ। हिंदी में आरंभ से ही भारत की दुर्दशा का बोध प्रमुख रूप से लेखकों के चिंतन और लेखन की दिशा तय कर रहा था।

भारतीय नवजागरण के समय कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी सामने आए जो अपनी भाषा और अपने क्षेत्र के बदले उस भाषा और क्षेत्र के जागरण के लिए प्रयत्नशील रहे जिसे उन्होंने अपना बनाया और माना। ऐसे दो बुद्धिजीवी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। एक हैं सखाराम गणेश देउस्कर और दूसरे माधवराव सप्रे। दोनों मूल रूप से मराठी हैं। देउस्कर ने 1904 में 'देशेर कथा' नाम की पुस्तक लिख कर बंगाल नजजागरण को विशेष शक्ति दी। यह पुस्तक हिंदी में 'देश की बात' नाम से छपी हुई है। माधव राव सप्रे ने हिंदी में पत्रकारिता और लेखन का काम करते हुए हिंदी नवजागरण को विशेष गति तथा शक्ति दी।

माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना, हिंदी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, उनकी राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने 11, सितंबर 1926 के 'कर्मवीर' में लिखा था - 'पिछले पच्चीस वर्षों तक पं. माधवराव सप्रे जी हिंदी के एक आधार स्तंभ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।'

ऐसे लेखक और समाजसेवक को आज का हिंदी का साहित्य संसार लगभग भूल गया है। अब न उनकी किताबें मिलती हैं, और न उनकी चर्चा होती है। केवल देवी प्रसाद वर्मा ने उनके कुछ निबंध संग्रहों के संपादन और प्रकाशन का काम किया है और एक कहानी संग्रह भी छपवाया है। भोपाल का 'माधवराव सप्रे संग्रहालय' उनकी स्मृति को जीवित रखने के लिए प्रयत्नशील है।

माधवराव सप्रे भारतेंदु युग के लेखकों की तरह पत्रकार साहित्यकार थे। पत्रकार होने के नाते उनमें अपने समाज और राष्ट्र की ज्वलंत समस्याओं के बारे में असाधारण जागरूकता थी और अपनी समझ का सच कहने का अपूर्व साहस भी था। उस साहस के कारण ही 'हिंदी केसरी' साप्ताहिक के संपादन काल में उनको अंग्रेजी राज की दमन नीति का सामना करना पड़ा। 22 अगस्त 1908 को सप्रे जी गिरफ्तार किए गए। इसके बाद उनकी एक पुस्तिका 'स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट' पर प्रतिबंध लगा दिया गया। वह पुस्तिका 1906 में छपी थी। सरकार की दमन नीति को ध्यान में रख कर ही माधवराव सप्रे अनेक नामों से विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखा करते थे। वे जिन नामों से लिखते थे, वे हैं - माधवराव सप्रे, माधवदास रामदासी, त्रिमूर्ति शर्मा, त्रिविक्रम शर्मा आदि।

सप्रे जी का लेखन काल बहुत लंबा नहीं है, वह 1900 से 1920 तक फैला हुआ है। उनके निबंध इस काल की अधिसंख्य प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। विशेष रूप से सरस्वती, मर्यादा, प्रभा, विद्यार्थी, अभ्युदय, ज्ञानशक्ति, ललिता, श्रीशारदा, विज्ञान, हितकारिणी, हिंदी चित्रमय जगत आदि अनेक पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे। इनके अलावा छत्तीसगढ़ मित्र, हिंदी ग्रंथमाला, हिंदी केसरी तथा कर्मवीर के भी वे नियमित लेखक थे। उनका बहुत सारा लेखन अब भी पत्रिकाओं में ही पड़ा है, जिनकी खोज और संग्रह का काम बाकी है। उनके निबंधों को पढ़ने पर मालूम होता है कि उनके ज्ञान का दायरा कितना व्यापक था। उन्होंने राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और विज्ञान से संबंधित विषयों पर जो निबंध लिखे हैं वे उस समय के हिंदी गद्य की स्थिति को देखते हुए आश्चर्यजनक लगते हैं। माधवराव सप्रे हिंदी के उन थोड़े से लेखकों में है, जिन्होंने हिंदी को समाजविज्ञान के विषयों और मुद्दों पर चिंतन और लेखन की भाषा बनाने का सफल प्रयत्न किया।

सप्रे जी मूलतः मराठी भाषी थे। उनके पूर्वज महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र से आकर मध्यप्रदेश में बस गए थे। मध्यप्रदेश के दमोह जिले के पथरिया गाँव में 1871 के 19 जून को माधवराव सप्रे का जन्म हुआ था। हिंदी प्रदेश में पैदा होने के कारण उन्होंने हिंदी को अपनाया और जीवन भर उसकी सेवा की। उनका परिवार आर्थिक अभावों का शिकार था, इसलिए उनका छात्र जीवन छात्रवृत्ति के सहारे चला। वे छात्र जीवन समाप्त होने के बाद स्वतंत्रतापूर्वक साहित्य, समाज और राष्ट्र की सेवा करना चाहते थे। इसलिए सरकारी नौकरी न करने की प्रतिज्ञा की और जीवन भर उसका निर्वाह भी किया। उन्होंने दो बार मौका मिलने पर भी सरकारी नौकरी ठुकरा दी। उनका जीवन बहुत लंबा नहीं था। कुल पचपन वर्ष की आयु में 23 अप्रैल, 1926 को उनका देहांत हुआ। उनका पूरा जीवन संघर्ष और साधना का अटूट सिलसिला है। आर्थिक तंगी में जीते हुए भी उन्होंने अनेक मोर्चों पर संघर्ष किया। वे पत्रिकाओं के प्रकाशन, स्वाधीनता की चेतना के प्रसार, समाज में नए विचारों के संचार और समाजसेवी संस्थाओं के निर्माण के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे।

साहित्य और राजनीति में अपने जीवन का लक्ष्य निश्चित करते समय सप्रे जी के प्रेरणास्रोत थे। मराठी के प्रसिद्ध लेखक और विचारक विष्णु शास्त्री चिपलूणकर और लोकमान्य तिलक। विष्णु शास्त्री चिपलूणकर से उन्हें जानदार भाषा में निर्भीक होकर अपने विचार व्यक्त करने की प्रेरणा मिली और तिलक से उन्होंने उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक दृष्टिकोण प्राप्त किया। सप्रे जी की पत्रकारिता, उनकी राजनीतिक दृष्टि और राजनीति में सक्रियता पर तिलक का गहरा प्रभाव था। 1905 के दिसंबर में बनारस में कांग्रेस का जो अधिवेशन हुआ था उसमें सप्रे जी नागपुर से प्रतिनिधि बन कर शामिल हुए थे और वहाँ तिलक से मिले भी थे। 1906 में सप्रे जी की 'स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट' नाम की जो पुस्तिका छपी थी वह तिलक की मराठी पत्रिका 'केसरी' में छपे लेखों पर आधारित थी। यही नहीं, हिंदी क्षेत्र में तिलक के विचारों के प्रचार प्रसार के लिए सप्रे जी ने 1907 में 'हिंदी केसरी' नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया जिसका घोषित उद्देश्य था - 'राजनैतिक दासत्व से मुक्त होकर स्वराज्य प्राप्त करना'। हिंदी क्षेत्र में 1907 तक स्वाधीनता आंदोलन के लक्ष्य के रूप में स्वराज्य प्राप्ति की खुलेआम घोषणा करने वाले लोग बहुत कम थे। ऐसे दुर्लभ लोगों में से एक थे माधवराव सप्रे।

माधवराव सप्रे मानते थे कि स्वाधीनता आंदोलन, मध्यप्रदेश के समाज और हिंदी भाषा तथा साहित्य की सेवा पत्रकारिता के माध्यम से ही की जा सकती है, इसलिए उन्होंने 1900 ई. में 'छत्तीसगढ़ मित्र' नाम की पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। पत्रिका का पहला अंक जनवरी, 1900 में निकला। छत्तीसगढ़ मित्र विचारप्रधान पत्रिका थी। यद्यपि उसमें समाचार, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य लेख और वैचारिक निबंध छपते थे, लेकिन वह अपने समालोचनात्मक लेखों के लिए विशेष रूप से विख्यात हुई। इसीलिए कामता प्रसाद गुरु ने कहा था कि 'हिंदी में समालोचना का प्रारंभ और प्रचार 'छत्तीसगढ़ मित्र' ने ही किया।' हिंदी समालोचना के विकास में छत्तीसगढ़ मित्र और सप्रे जी, योगदान की चर्चा हम बाद में करेंगे। उस समय की हिंदी पत्रकारिता की दुनिया में 'छत्तीसगढ़ मित्र' का व्यापक रूप से स्वागत हुआ, हिंदी के अनेक लेखक उससे जुड़े, लेकिन पत्रिका की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए दिसंबर, 1902 में उसका अंतिम अंक निकला और पत्रिका बंद हो गई।

सप्रे जी कठिनाइयों से डरने और हार मानने वाले व्यक्ति नहीं थे। 'छत्तीसगढ़ मित्र' के बंद होने के बाद वे अपने राजनीतिक और सामाजिक उद्देश्यों को मूर्त रूप देने की तैयारी करने लगे। उस समय मराठी में निबंधमाला और ग्रंथमाला नाम की पुस्तकें निकल रही थीं और सामाजिक जागृति फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थीं। सप्रे जी ने 1905 में नागपुर में हिंदी ग्रंथ प्रकाशन मंडली की स्थापना की, जिसकी देखरेख में हिंदी रंगमाला का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। हिंदी ग्रंथमाला का पहला अंक मई, 1906 में निकला, जिसके विज्ञापन के अनुसार भारतवर्ष का इतिहास, अन्य देशों के इतिहास, देशी तथा विदेशी प्रसिद्ध स्त्री पुरुषों के जीवन चरित्र, ऐतिहासिक नाटक, उपन्यास और आख्यायिका, भारतवर्ष की वर्तमान राजनीति, विज्ञान और समालोचना आदि से संबंधित पुस्तकों का प्रकाशन होना था। इसी ग्रंथमाला के अंतर्गत 1906 में सप्रे जी की पुस्तिका 'स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट' का प्रकाशन हुआ जिसमें स्वदेशी आंदोलन का महत्व और बॉयकाट का अर्थ स्पष्ट करते हुए अंग्रेजी राज द्वारा भारत के शोषण और लूट का विस्तार से विवेचन है। इस पुस्तिका में सप्रे जी की यह स्पष्ट राय है कि 'जब तक इस देश में स्वराज्य स्थापित न हो जाएगा तब तक अन्य विषयों में सुधार करने का यत्न सफल न होगा।' वे यह भी मानते थे कि एक दिन स्वराज्य जरूर स्थापित होगा, क्योंकि दुनिया के इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जो इस बात को सिद्ध करता हो कि किसी एक राष्ट्र ने (किसी एक जाति ने) अन्य राष्ट्र को (अन्य जाति को) दासत्व की श्रृंखला में ऐसा जकड़ कर बांधा कि वह बंधन कभी ढीला हुआ ही नहीं। ऐसी किताब को सरकार जनता के बीच कैसे रहने देती। इसीलिए उसने संभवतः 1909 में उस पर पाबंदी लगा दी।

'स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट' को पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि 1906 तक सप्रे जी की राजनीतिक चेतना पर तिलक की विचारधारा का गहरा असर हो चुका था। वे तिलक के उपनिवेशवाद विरोधी और राष्ट्रीयतावादी विचारों का हिंदी क्षेत्र में प्रचार करना चाहते थे। इसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर उन्होंने 'हिंदी केसरी' नामक साप्ताहिक निकालने की योजना बनाई। वे चाहते थे कि महाराष्ट्र में जो काम 'मराठी केसरी' के माध्यम से हो रहा था, हिंदी क्षेत्र में 'हिंदी केसरी' करे। 13 अप्रैल, 1907 को 'हिंदी केसरी' का पहला अंक निकला। 'हिंदी केसरी' में स्वदेशी के प्रचार, विदेशी के बहिष्कार, स्वराज्य की जरूरत पर जोर और आत्मगौरव के बोध से संबंधित समाचार और विचार छपने लगे। उसमें निर्भीकता से विभिन्न आंदोलनों, आंदोलनकारियों और क्रांतिकारियों का समर्थन होता था। उस पत्रिका में मौलिक लेखों के साथ साथ मराठी केसरी में छपे लेखों के अनुवाद भी प्रकाशित होते थे। 'हिंदी केसरी' की लोकप्रियता जैसे जैसे बढ़ रही थी वैसे वैसे सरकार का रोष भी बढ़ रहा था। आखिरकार 22 अगस्त, 1908 को देशसेवक प्रेस और 'हिंदी केसरी' के संपादकों के घरों की तलाशी ली गई और पत्रिका के दोनों संपादक कोल्हटकर और सप्रे गिरफ्तार कर लिए गए। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में राजद्रोह का यह पहला मुकदमा था। सप्रे जी का स्वास्थ्य पहले ही से खराब था। लगभग तीन महीने के जेल जीवन के दौरान उनका स्वास्थ्य और बिगड़ा। इसी बीच उनके मित्र माफी माँग कर जेल से छूटने की उनको सलाह देते रहे, लेकिन सप्रे जी माफी माँगने को तैयार न थे। बाद में, जब सप्रे के बड़े भाई बाबूराव ने यह धमकी दी, कि अगर मेरा भाई माफी माँग कर हवालात से बाहर नहीं आता तो 'मैं आत्महत्या कर लूँगा', तब सप्रे जी बेचैन और विचलित हो गए। उन्होंने क्षमापत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। यह घटना उनके लिए राजनीतिक आत्महत्या के समान थी। उनकी रिहाई के बाद 14 नवंबर, 1908 को 'हिंदी केसरी' का जो अंक निकला उसमें लिखा था कि 'माफी माँग कर सप्रे जी ने अपने राजनीतिक सार्वजनिक जीवन का सत्यानाश कर लिया।' माफी माँग कर जेल से छूटने के बाद सप्रे जी लंबे समय तक लज्जा, ग्लानि, संताप, पश्चाताप और आत्मधिक्कार की मनोदशा में रहे। इसी मनोदशा में वे एक वर्ष तक अज्ञातवास में थे और भीख माँग कर जीवन निर्वाह करते थे। अज्ञातवास के दौरान उन्होंने सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लिया और वे हनुमानगढ़ के रामदासी मठ में रहने लगे। इसी समय उन्होंने समर्थ रामदास की प्रसिद्ध पुस्तक 'दासबोध' का पहले अध्ययन किया और बाद में अनुवाद भी।

अज्ञातवास से बाहर निकलने के बाद सप्रे जी पहले जैसी राजनीतिक सक्रियता की ओर तो नहीं लौटे, लेकिन उन्होंने नवजागरण की प्रक्रिया को व्यापक बनाने के लिए दूसरे ढंग से काम करना शुरू किया। नवजागरण एक स्तर पर नए ज्ञान के उदय की प्रक्रिया भी है। उसका एक रूप ज्ञान की पुरानी परंपरा की नई व्याख्या की मदद से उसके नए बोध में प्रकट होता है। सप्रे जी ने यह काम अनुवाद के माध्यम से किया। उन्होंने सबसे पहले दासबोध का अनुवाद किया। इस पुस्तक के हिंदी अनुवाद का काम 1910 में पूरा हुआ और 1912 में हिंदी दासबोध का प्रकाशन हुआ। मराठी के दासबोध का बहुत महत्व है। श्री विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े ने रामदास पर लिखे एक लंबे निबंध में दासबोध का विस्तृत विवेचन किया। सप्रे जी ने दासबोध पर जो निबंध लिखा उस पर राजवाड़े के निबंध का गहरा असर है। माधवराव सप्रे ने दूसरा महत्वपूर्ण अनुवाद किया था तिलक के गीता रहस्य का, जो 1915 में पूरा हुआ और 1916 में छपा। तिलक के गीता रहस्य का भारत की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है, लेकिन हिंदी में उसका अनुवाद सबसे पहले हुआ था। हिंदी में सप्रे जी के अनुवाद के अब तक पच्चीस से अधिक संस्करण निकल चुके हैं। हिंदी की ज्ञान परंपरा के विकास पर गीता रहस्य के प्रभाव का व्यापक असर पड़ा।

सप्रे जी का तीसरा महत्वपूर्ण अनुवाद है, 'महाभारत मीमांसा'। यह चिंतामणी विनायक वैद्य द्वारा लिखित 'महाभारत के उपसंहार' नामक मराठी ग्रंथ का अनुवाद है। 'महाभारत मीमांसा' का प्रकाशन 1920 में हुआ। अपने अन्य अनुवादों की तरह इस अनुवाद के साथ भी सप्रे जी ने महाभारत के रचयिता, महाभारत के काल, उसके रचना विधान और महत्व का विस्तार से विवेचन किया, जिसको पढ़ने पर मालूम होता है कि सप्रे जी का संस्कृत का ज्ञान कितना गहरा था।

नवजागरण की केंद्रीय विशेषता है स्वाधीनता की चेतना। भारतीय नवजागरण में यह चेतना अनेक रूपों में व्यक्त हुई है। उसका सबसे व्यापक रूप उपनिवेशवाद विरोधी भावना के जागरण में दिखाई देता है। उसी का दूसरा रूप आत्मालोचन की प्रवृत्ति के विकास में भी मिलता है। यह आत्मालोचन की प्रवृत्ति भारतीय समाज, संस्कृति और साहित्य के अतीत के पुनर्मूल्यांकन की जरूरत और अतीत के बोध तथा बोझ में अंतर की समझ और उस बोझ से मुक्ति की आकांक्षा में प्रकट होती है। आत्मालोचन की प्रवृत्ति का लक्ष्य भी उपनिवेशवाद विरोधी चेतना को अधिक तेजस्वी और सत्य संपन्न बनाना ही है। माधवराव सप्रे के चिंतन और लेखन में ये विशेषताएँ मौजूद हैं।

हम पहले कह चुके हैं नवजागरण ज्ञान की एक समग्रतापरक प्रक्रिया है जिसमें ज्ञान के विभिन्न रूपों के विकास का समावेश होता है। उसमें विज्ञानों और समाजविज्ञानों के साथ साथ कला और साहित्य के नए रूपों, मूल्यों, प्रवृत्तियों और चिंताओं का उदय संभव होता है। इसी से नवजागरण की ज्ञानात्मक पहचान बनती है। बंगाल के नवजागरण का दायरा हिंदी नवजागरण से अधिक व्यापक है, क्योंकि उसमें प्राकृतिक विज्ञानों और समाजविज्ञानों के साथ साथ कला और साहित्य में नए नए आविष्कार हुए, नवीन खोजों, दृष्टिकोणों, मूल्यों और सर्जनात्मक प्रवृत्तियों का विकास हुआ जबकि हिंदी नवजागरण साहित्य और समाज विज्ञानों तक सीमित है। माधराव सप्रे का चिंतन और लखेन एक ओर राजनीति, समाज, अर्थशास्त्रा और इतिहास से जुड़ा हुआ है तो दूसरी ओर साहित्य की समालोचना और कहानी लेखन से। सप्रे जी के जीवन में उनके सोच विचार को मूर्त और समग्र रूप में प्रस्तुत करने वाली कोई किताब नहीं छपी; या तो मराठी से अनुवाद की किताबें छपीं या 'स्वदेशी आंदोलन और बॉयकॉट' नामक पुस्तिका। समाज, राजनीति, इतिहास और अर्थशास्त्रा संबंधी उनके निबंध उस काल की विभिन्न पत्रिकाओं में छपे थे जिनके आधार पर उनके विचारों का विवेचन किया जा सकता है।

बीसवी सदी के पहले दशक में देश में जो राजनीतिक आंदोलन और विचार सक्रिय थे, उनसे सप्रे जी का गहरा जुड़ाव था। वे विचारों से तिलकपंथी थे और स्वदेशी आंदोलन के प्रबल समर्थक भी। उसी मानसिकता की देन है 'स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट' नाम की पुस्तिका। 1905 में बंगाल का जो विभाजन हुआ उसका बंगाल में और पूरे देश में जोरदार विरोध हुआ। उस विरोध का मूर्त रूप था − स्वदेशी आंदोलन। सप्रे जी की राय में 'बंगाल प्रांत के दो टुकड़े इसलिए किए गए कि उस प्रांत के निवासियों की बढ़ती हुई एकता का नाश हो। उनकी जातीय अभिलाषाओं पर प्रतिबंध हो, जातीय कार्यों के लिए मिलजुल कर कार्य करने की शक्ति क्षीण हो जाए, शिक्षित लोगों का प्रभाव उनके देशभाइयों पर कम हो जाए और कलकत्ते का राजकीय महत्व घट जाए।' 1906 में सप्रे जी ने यह पुस्तक स्वदेशी आंदोलन को मजबूत बनाने के लिए लिखी थी, इसीलिए उन्होंने कहा था - 'यह समय ऐसा है कि अब हम लोगों को अपने दृढ़ निश्चय और ऐक्य भाव से अपना कार्य सिद्ध करना चाहिए, नहीं तो हमें अपने आंदोलन की पूर्व पद्धति पर मृग जल के समान विश्वास रख कर, केवल अपनी वाक्‌पटुता का प्रदर्शन करते हुए निरंतर दासत्व में रहना पड़ेगा।'

स्वदेशी आंदोलन का पूरक था बॉयकॉट अर्थात विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार। इंग्लैंड की बनी हुई वस्तुओं के बहिष्कार के अभाव में स्वदेशी आंदोलन अधूरा था। इसलिए सप्रे जी ने बहिष्कार की आवश्यकता और उपयोगिता का विस्तार से विवेचन किया था। उनके बहिष्कार के समर्थन को भावुकता का परिणाम न माना जाए, बल्कि उसे ऐतिहासिक अनिवार्यता समझा जाए, इसलिए उन्होंने आयरलैंड, अमेरिका, इटली, चीन और इंग्लैंड में बहिष्कार के इतिहास का विवेचन करते हुए यह विश्वास व्यक्त किया था - 'प्रजा कितनी भी दुर्बल हो। वह निःशस्त्र क्यों न हो यदि वह दृढ़निश्चय और ऐक्य भाव से कुछ करना चाहे तो सब कुछ साध्य हो सकता है। वह अन्यायी शासन कर्ताओं और अविचारी सत्ताधारियों को राह पर ला सकती हैं।' सप्रे जी का यह कथन तब जितना प्रेरणादायक था उतना ही आज भी सार्थक और जनता के काम का है।

स्वदेशी आंदोलन और बॉयकॉट में एक निबंध का शीर्षक है - 'अंग्रेजों ने हमारा व्यापार कैसे बरबाद किया'। इस किताब को पढ़ते हुए बार बार दादा भाई नौरोजी की पुस्तक 'पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया' की याद आती है और सखाराम गणेश देउस्कर की किताब 'देशेर कथा' की भी। सप्रे जी ने अपने निबंध में विस्तार से यह साबित किया है कि 18वीं और 19वीं सदी में अंग्रेजों ने किस तरह चालाकी, धूर्तता, जोर जबर्दस्ती और जुल्मो सितम के सहारे भारत के कुटीर उद्योग, कारीगरी और व्यापार को बर्बाद किया तथा उसे इंग्लैंड को हर किस्म का कच्चा माल देने वाला कृषि क्षेत्र बना दिया। आजकल इस देश में 1857 के महाविद्रोह के कारणों और परिणामों पर बहस हो रही है। उस बहस में अंग्रेजी राज की लूट और झूठ पर भी ध्यान दिया जाए तो महाविद्रोह का एक कारण समझ में आएगा। अंग्रेजों की लूट पर टिकी व्यापार नीति को ध्यान में रख कर ही स्वदेशी आंदोलन और बॉयकॉट को सप्रे जी ने एक प्रकार का व्यापार युद्ध कहा है। उन्होंने लिखा है - 'इस युद्ध में अस्त्र शस्त्रों की जरूरत नहीं, जरूरत हैं सिर्फ हमारे दृढ़ निश्चय, ऐक्य भाव और निःसीम देशभक्ति की। इस युद्ध में हमको जितनी सफलता प्राप्त होगी, उतना ही हमारे देश का कल्याण होगा।'

सितंबर, 1915 की मर्यादा पत्रिका में माधवराव सप्रे का एक निबंध छपा था - 'राष्ट्रीय जागृति की मीमांसा'। यद्यपि यह निबंध 'इंडियन रिव्यू' में 1912 के दिसंबर के अंक में प्रकाशित एक लेख पर आधारित था, लेकिन इसमें राष्ट्रीय जागृति के बारे में सप्रे जी की अपनी समझ भी व्यक्त हुई है। सप्रे जी राष्ट्रीय जागृति के लिए पहले पुनरुद्धार शब्द ठीक समझते है, पर बाद में पुनरुज्जीवन कहते हैं। मध्यकाल के हिंदू समाज की मानसिकता का विश्लेषण करते हुए वे लिखते हैं कि 'अपनी बुद्धि, शक्ति और युक्ति में अविश्वास के कारण उन्हें अपनी राष्ट्रीय उन्नति का कोई उपाय सूझ नहीं पड़ा तब वे अपनी प्राचीन संस्थाओं और प्रथाओं के पहले से अधिक संरक्षक (कंजरवेटिव) बन गए।' परिणामस्वरूप जाति प्रथा मजबूत हुई, रूढ़िवाद बढ़ा और विचारशीलता अवरुद्ध हो गई। सप्रे जी के अनुसार बाद में पश्चिमी शिक्षा और सभ्यता के साथ बुद्धि की स्वतंत्रता आई तो भारतीय समाज में नई हलचल पैदा हुई। उन्होंने लिखा है कि 'हमारे प्राचीन विचारों को ऐसे नूतन विचारों से सामना करना पड़ा जो हरदम क्यों और कैसे पूछा करते हैं, जो केवल शब्दों के आडंबर पर विश्वास करके चुप नहीं रह सकते और जो परीक्षा तथा निरीक्षण के सब सामान देकर लोगों को अपने सिद्धांतों की सत्यता सिद्ध करने के लिए पुकारा करते हैं।' इसी बौद्धिक वातावरण में नई राष्ट्रीय जागृति पैदा हुई। सप्रे जी के अनुसार इस नई राष्ट्रीय जागृति का प्रमुख लक्षण है स्वदेशीपन की भावना का विकास जिसके अंतर्गत तीन बातें मुख्य हैं, स्वदेश भक्ति, स्वदेश की दुर्दशा पर खेद और स्वदेशोद्धार का निश्चय। सप्रे जी ने यह भी लिखा है कि 'इस राष्ट्रीय जागृति से हमारे देश में राजनैतिक, औद्योगिक, सामाजिक और शिक्षा संबंधी अनेक आकांक्षाएँ उत्पन्न हुई हैं।'

भारतीय नवजागरण के कुछ ऐसे विचारक थे जो बाहरी पराधीनता के साथ ही भारतीय समाज में मौजूद अनेक प्रकार की पराधीनताओं के बारे में भी सजग थे। वे अंग्रेजी राज की पराधीनता के साथ साथ भारतीय समाज में दलितों और स्त्रियों की पराधीनता की भी आलोचना कर रहे थे। वे यह समझ रहे थे कि दलितों की पराधीनता और स्त्रियों की पराधीनता के कारण ही भारत में राष्ट्रीयता की भावना का विकास नहीं हो पा रहा है। सप्रे जी उन्हीं लोगों में से एक थे। वे मानते थे कि जातिवाद के कारण भारतीय समाज की प्रगति रुक गई और उसकी दुर्गति हुई। उन्होंने 'राष्ट्रीय जागृति की मीमांसा' में लिखा है कि 'जाति भेद के दृढ़ बंधनों के कारण लोगों की व्यक्ति विषयक स्वाधीनता नष्ट हो गई, संसार भर में होने वाला व्यापार रुक गया। ज्ञान का भंडार बंद कर दिया गया और यह देश अपनी राष्ट्रीय मृत्यु के मार्ग में लग गया।'

सप्रे जी की राय है कि भारत के पूर्ण जागरण और सर्वांगीण विकास के लिए जाति व्यवस्था की पराधीनता से दलितों की मुक्ति आवश्यक है। उन्होंने लिखा है कि 'इसमें संदेह नहीं कि यह विषय हमारे राष्ट्रीय विकास के लिए अत्यंत महत्व का है। हीन जाति के 'अछूत' लोगों की संख्या भारत की लोकसंख्या की एक बट्टे छः (अर्थात पाँच करोड़ से अधिक) है। सोचिए तो सही इतनी बड़ी लोक सख्या के प्रति 'दूर दूर, छीःछी, अलग रहो, अलग रहो' जैसे हीनता दर्शक उद्गार प्रगट करके हम लोगों ने राष्ट्र के श्रम विभाग की दृष्टि से अपने देश की कितनी हानि कर डाली है। यदि हिंदुस्तान की सर्वांगीण उन्नति होनी है तो यह सामाजिक अन्याय और दुराचार शीघ्र बंद किया जाना चाहिए।'

सप्रे जी जिस तरह भारतीय समाज में दलितों की पराधीनता के बारे में चिंतित थे उसी तरह स्त्रियों की पराधीनता के बारे में भी सोचते थे। उन्होंने फरवरी 1901 के 'छत्तीसगढ़ मित्र' में 'बालाबोधिनी' नाम की एक किताब की समीक्षा लिखी। यह किताब स्त्री शिक्षा के बारे में थी। सप्रे जी ने किताब की समीक्षा करते हुए भारतीय स्त्री की पराधीनता और स्वाधीनता संबंधी अपने विचार व्यक्त किए हैं। 'बालाबोधिनी' में एक जगह लिखा है कि 'स्वामी को गुरु जानना, स्वामी की भक्ति करना, स्वामी की सेवा सुश्रुषा करना, स्वामी को सर्वदा संतुष्ट करना स्त्रियों के ये चार काम हैं।' इस पर टिप्पणी करते हुए सप्रे जी व्यंग्य के साथ कहते हैं - 'वाह! स्त्रियों के कर्तव्य तो आपने खूब कहे, क्या यही स्त्रियों की योग्यता है? क्या यही उनके जन्म का उद्देश्य है? क्या यही उनके जन्म की सार्थकता है? हा! ऐसे ही पक्षपातों से स्त्रियों का सारा जन्म नष्ट हो गया।' इसी समीक्षा में सप्रे जी ने आगे लिखा है कि जो स्त्री सर्वथैव पुरुष के वश में न रहे उसे ग्रंथकार (बालाबोधिनी के लेखक) ने बड़ी दुर्गुणी माना है। इसके बाद सप्रे जी लिखते हैं - 'हम यह पूछते हैं कि पुरुष भी अपनी स्त्री के वश में क्यों न रहे। पहले तो यही बुरा है कि कोई व्यक्ति जबरदस्ती किसी दूसरे के वश में किया जाए। व्यक्ति स्वातंत्रय का नाश होते ही स्वाभाविक प्रेम का लोप हो जाता है।' सप्रे जी के इस कथन पर ध्यान दीजिए तो यह स्पष्ट होगा कि एक तो सप्रे जी हर तरह की पराधीनता के विरुद्ध हैं और दूसरे व्यक्ति स्वातंत्रय के प्रबल समर्थक भी। स्त्रियों की स्वतंत्रता के बारे में सप्रे जी के विचार न केवल अपने युग से बहुत आगे हैं, बल्कि आज के समय में भी पूरी तरह सार्थक हैं।

सप्रे जी की मुख्य चिंता भारतीय समाज की उन्नति है। वे मानते हैं कि उसके लिए स्त्री पुरुषों के बीच समानता का होना आवश्यक है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि 'जब तक समाज में स्त्री और पुरुष दोनों के अधिकार समान भाव के न होंगे तब तक समाज की उन्नति न होगी और स्त्री पुरुषों में स्वाभाविक प्रेम का बंधन न रहेगा।' आज भी हिंदी में 'बालाबोधिनी' जैसी पुस्तकें छपती हैं जो तरह तरह से स्त्रियों की पराधीनता की वकालत करती हैं और गौरवान्वित भी। गीता प्रेस, गोरखपुर से ऐसी अनेक किताबें छपी हैं। उनका कम पढ़ी लिखी स्त्रियों के बीच प्रचार होता है और प्रभाव भी पड़ता है। लेकिन उनकी सप्रे जी जैसी समीक्षाएँ नहीं लिखी जातीं।

सप्रे जी ने 1915 में एक लेख लिखा था 'स्त्रियाँ और राष्ट्र', जो 'मर्यादा' पत्रिका में छपा था। इस लेख के आरंभ में ही सप्रे जी कहते हैं कि 'राष्ट्र की उन्नति और अवनति स्त्रियों की उन्नति और अवनति पर अवलंबित है।' वे यह भी कहते हैं कि 'हम लोगों में राष्ट्रीयता के भाव की जागृति के साथ साथ स्त्रियों के विषय में भी विचार करने की इच्छा उत्पन्न हुई है।' उन्होंने भारतीय समाज में स्त्री की पराधीनता के इतिहास की छानबीन करते हुए यह लिखा है कि भारतीय स्त्रियाँ धीर धीरे पराधीन हुई हैं। वे यह भी मानते हैं कि भारत में और दूसरे देशों में भी स्त्री को पराधीन बनाने में धर्म की बहुत बड़ी भूमिका रही है। उन्होंने लिखा है कि 'प्रायः सब धर्मों की प्रवृत्ति सामाजिक विषयों पर नियम बनाने की ओर देख पड़ती है। इससे विवाह को धार्मिक विधि का स्वरूप प्राप्त हो गया और प्रत्येक स्त्री के लिए विवाह एक आवश्यक संस्कार बन गया। इसका यह परिणाम हुआ कि स्त्रियों की बहुत सी स्वाधीनता मर्यादित हो गई।' स्त्रियों की पराधीनता के प्रसंग में धर्म के अनिष्टकारी बंधन की बात करते हुए सप्रे जी ने लिखा है कि 'जिन राष्ट्रों में स्त्रियों की स्वाधीनता तथा उनके हक पर पूरा ध्यान दिया जाता है वे उन्नति के मार्ग में एक एक कदम आगे बढ़ते चले जाते हैं। और जो राष्ट्र इन बातों पर ध्यान नहीं देते वे निस्तेज और बलहीन होकर पराधीनता की कड़ी जंजीर में बंध जाते हैं।'

माधवराव सप्रे की राजनीतिक सजगता का ही विस्तार इतिहास में उनकी दिलचस्पी में दिखाई देता है। अंतोनियो ग्राम्शी ने लिखा है कि 'इतिहास हमेशा समकालीन होता है अर्थात राजनीतिक होता है।' भारतीय नवजागरण की एक विशेषता नई इतिहास दृष्टि का विकास भी है। उपनिवेशवाद किसी देश के भूगोल पर ही कब्जा नहीं करता, वह उस देश के इतिहास और इतिहास दृष्टि का भी औपनिवेशीकरण करता है और इसी प्रक्रिया में अधीनों की चेतना को तोड़मरोड़ कर अपने अनुकूल बनाता है। हेगेल ने 'इतिहास दर्शन' नामक पुस्तक में लिखा था कि 'हिंदुओं का कोई इतिहास नहीं, उनका ऐसा विकास नहीं हुआ है जो वास्तविक राजनीतिक स्थिति तक पहुँचता। उन्होंने विदेशियों पर विजय प्राप्त नहीं की है, बल्कि हर बार पराजित हुए है।' यही इतिहास दृष्टि भारत के बारे में यूरोपीय इतिहास लेखन को प्रभावित करती रही है। जाहिर है कि इस इतिहास दृष्टि से भारतीयों के मन में हीनता की भावना पैदा होती रही है जिससे मुक्ति स्वाधीनता की चेतना के विकास के लिए जरूरी थी।

भारत में उपनिवेशवाद विरोधी चेतना के जागरण के साथ ही नई इतिहास दृष्टि की जरूरत महसूस होने लगी। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही भारतीय समाज, संस्कृति और साहित्य के नए इतिहास लेखन के प्रयत्न शुरू हुए जिसे राष्ट्रवादी इतिहास लेखन कहा जाता है। ऐसे इतिहास लेखन का विकास भारत के विभिन्न क्षेत्रों की भाषाओं में हुआ। माधवराव सप्रे ने कोई इतिहास नहीं लिखा है, लेकिन उन्होंने इतिहास से संबंधित विभिन्न विषयों पर अनेक निबंध लिखे हैं। वे मानते हैं कि 'मनुष्य जाति की प्रगति के लिए इतिहास के समान और कोई शिक्षक नहीं है।' सप्रे जी इतिहास के किसी विषय पर लिखते समय अपने समय के भारतीय समाज के राजनीतिक संदर्भ को ध्यान में रखते हैं। उन्होंने 1907 में एक निबंध लिखा था - 'इटालियन देशभक्त मेजिनी'। जब सप्रे जी ने यह निबंध लिखा था तब स्वदेशी आंदोलन चल रहा था जिसमें बड़ी संख्या में युवा पीढ़ी के लोग शामिल हो रहे थे। उस समय यह बहस का विषय था कि नई पीढ़ी के लोगों को राजनीति में भाग लेना चाहिए कि नहीं। स्वयं सप्रे जी ने अपनी पुस्तक 'स्वदेशी आंदोलन और बॉयकॉट' में इस बात का जोरदार ढंग से समर्थन किया था कि छात्रों को राजनीति में भाग लेना चाहिए। सप्रे जी ने मेजिनी पर लिखे निबंध में यह स्पष्ट किया है कि इटली के राष्ट्रीय जागरण में गेरीवाल्डी को सक्रिय बनाने में मेजिनी की बहुत बड़ी भूमिका थी। उन्होंने यह भी लिखा है कि हिंदुस्तान की राजनीतिक स्थिति के लिए परदेशी इतिहास में से इटली के इतिहास से जैसा योग्य उदाहरण मिल सकता है वैसा किसी और देश के इतिहास से नहीं मिल सकता है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान मेजिनी और गेरीवाल्डी के संघर्षशील व्यक्तित्वों की लोकप्रियता देशव्यापी थी। उनके प्रेरणादायक जीवन चरित्र अनेक भारतीय भाषाओं में लिखे गए थे।

1913 में सप्रे जी ने 'यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें' शीर्षक से एक निबंधमाला लिखी थी जिसमें छः निबंध शामिल थे, ये सभी निबंध सरस्वती पत्रिका में छपे थे। इन निबंधों में ग्रीस एवम् रोम के साथ साथ इंग्लैंड की राज्यक्रांति, फ्रांस की राज्यक्रांति, यूरोप में पुनर्जागरण और यूरोप में धर्म के इतिहास का विवेचन था। ग्रीस से संबंधित निबंध के अंत में उन्होंने लिखा था कि 'यदि भिन्न भिन्न प्रांतों में रहने वाले भिन्न भाषा, भिन्न धर्म, रीति और रिवाज का अनुसरण करने वाले हमारे हिंदुस्तानी भाई ग्रीस के इतिहास से जागृत होकर आंतरिक विघ्नों को हटाने का प्रयत्न करें, पारस्परिक भेदभाव का त्याग करके स्वदेशाभिमानपूर्वक एकता की वृद्धि करने का प्रयत्न करें तो हमारी बहुत कुछ उन्नति हो सकती है।' इस तरह की बातें प्रत्येक निबंध में हैं। वे रोम के इतिहास से स्वार्थ त्याग सीखने को कहते है। तो इंग्लैंड की राज्यक्रांति से दृढ़निश्चय और कर्तव्यनिष्ठा। उन्होंने फ्रांस की राज्यक्रांति से विचारों की शक्ति में विश्वास करने की बात की है। इस तरह वे दूसरे देशों के इतिहासों से सीखते हुए भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को आगे बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं।

यूरोप के साम्राज्यवाद ने दुनिया को सभ्य बनाने के नाम पर अपना विस्तार किया था, जिसके परिणामस्वरूप उपनिवेशवाद के साथ पश्चिम की सभ्यता भी दुनिया में फैली। साम्राज्यवाद की विचारधारा का पिछले कुछ दशकों में जो अध्ययन हुआ है उसमें यह बताया गया है कि शिक्षा व्यवस्था में प्रगतिशील बुद्धि का उपयोग साम्राज्य को मजबूत बनाने के लिए किया गया था और बुद्धिवाद का उपयोग प्रभुत्व की स्थापना के लिए। पश्चिम के बुद्धिवाद ने प्रकृति, संस्कृति और समाज आदि के बारे में भारतीय धारणाओं को खारिज ही नहीं किया, बल्कि अपनी धारणाएँ भारतीय मानस पर आरोपित भी कीं। भारत में 1857 के विद्रोह के अनुभवों के कारण अंग्रेजी राज ने यह मान लिया कि भारतीय बर्बर हैं। इसलिए उनका सुधार नहीं, दमन जरूरी है। जब उपनिवेशवाद के शिकार देशों में राष्ट्रीय जागृति आई, स्वाधीनता की आकांक्षा पैदा हुई तब पश्चिमी सभ्यता की औपनिवेशिकता से मुक्ति की चिंता भी होने लगी। यही कारण है कि स्वाधीनता के लिए संघर्ष की प्रक्रिया में औपनिवेशिक सभ्यता से स्वदेशी सभ्यता के द्वंद्व की प्रवृत्तियाँ भी मिलती हैं। भारतीय नवजागरण में भी सभ्यताओं की यह टकराहट दिखाई देती है। माधवराव सप्रे इस टकराहट के बारे में सचेत हैं। उनका एक लंबा निबंध है - 'हमारे सामाजिक ह्रास के कुछ कारणों का विचार'। इस निबंध में जगह जगह पश्चिम की सभ्यता से भारत की सभ्यता के संबंध और संघर्ष की चेतना व्यक्त हुई है।

भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के साथ ही भारतीय बौद्धिकों में पश्चिमी सभ्यता की नकल की जो प्रवृत्ति बढ़ी उसकी चिंता और आलोचना भारतीय नवजागरण के निर्माताओं ने की है। सप्रे जी भी अनुकरण की प्रवृत्ति के बारे में चिंतित हैं। वे कहते हैं कि 'पश्चिम की विद्या और सभ्यता की कुंजी मिल जाने पर भी, सोचिए तो सही, हम पश्चिमी देशों के तत्ववेत्ताओं के सिद्धांतों का आकलन करने में कितने सफल हुए हैं। हम विदेशियों की सभ्यता का बाहरी अनुकरण करने से ही संतुष्ट हैं।' ऐसी चिंता बंगाल में थी और महाराष्ट्र में भी। माधवराव सप्रे पश्चिमी सभ्यता के उतने विरोधी नहीं हैं जितने अंधानुकरण के।

सप्रे जी को भारतीय सभ्यता की संकीर्णताओं की भी जानकारी है। वे उन संकीर्णताओं से भारतीय समाज को मुक्त देखना चाहते हैं। इसलिए कहते हैं कि 'हमारा यही कर्तव्य होना चाहिए कि इस देश के धर्म भेद, जाति भेद, उच्चता नीचता आदि कृत्रिम भेदों को शीघ्र ही नष्ट कर डालें... हमारे सुधार का हेतु यही है कि मनुष्य स्वयं अपनी स्वाभाविक योग्यता, अपने महत्व और अपने अधिकारों को जान ले और तदनुसार बर्ताव करने लगे। इस हेतु की सफलता तभी हो सकेगी जब हमारे समाज में प्राचीन तथा अनुचित भेदभाव, दुराग्रहों और भोलेपन का लोप हो जाएगा।' सप्रे जी भारतीय समाज को एक आधुनिक समाज और भारतीय मनुष्य को एक आधुनिक मनुष्य के रूप में देखना चाहते हैं। वे एक ऐसा समाज और ऐसा मनुष्य चाहते हैं जो भारतीय समाज की पुरानी संकीर्णताओं से मुक्त हो और पश्चिम के अंधानुकरण से भी, जो आधुनिक हो पर भारतीय भी हो।

माधवराव सप्रे हिंदी में अर्थशास्त्र संबंधी चिंतन की भाषा और परंपरा बनाने वाले व्यक्ति थे। बीसवीं सदी के पहले दशक में जब काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी में विज्ञानकोश बनाने का निश्चय किया तब राजनीतिक अर्थशास्त्र की शब्दावली के निर्माण के संपादक सप्रे जी बनाए गए। सप्रे जी के जीवनी लेखक गोविंदराव हार्डीकर के अनुसार सप्रे जी ने 1904 में अर्थशास्त्र की जो शब्दावली तैयार की उसमें अंग्रेजी के 1320 शब्दों के लिए हिंदी के 2115 शब्द निर्मित हुए। वह विज्ञानकोश 1906 में छपा। सप्रे जी के प्रयत्न से हिंदी में अर्थशास्त्र संबंधी लेखन का विकास हुआ। उन्होंने 1904 में इंग्लैंड की व्यापार नीति पर एक लंबा निबंध लिखा था। 'हड़ताल' पर उनका एक लेख 1907 की 'सरस्वती' में छपा था जिसमें हड़ताल का समर्थन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि 'प्रायः लोग हड़ताल की निंदा करते हैं और मजदूरों पर दोष लगाते है। परंतु स्मरण रहे कि यद्यपि हड़ताल से कारखाने वाले और मजदूरों का नुकसान होता है तथापि इसमें संदेह नहीं कि इसमें मजदूरों को अपने स्वत्व की रक्षा करने का पूरा अधिकार है।' सप्रे जी ने अर्थशास्त्र की एक किताब भी लिखी थी, जिससे वे संतुष्ट नहीं थे, इसलिए उसे प्रकाशित नहीं करवाया। महावीर प्रसाद द्विवेदी जब 'संपत्तिशास्त्र', नामक किताब लिख रहे थे तब सप्रे जी ने अपनी अप्रकाशित पुस्तक की पांडुलिपि उन्हें दे दी, जिससे द्विवेदी जी ने बहुत लाभ उठाया। द्विवेदी जी ने सप्रे जी की पुस्तक से 'संपत्तिशास्त्र' के लिए कहाँ क्या लिया है, यह स्वयं लिखा है। हिंदी में अर्थशास्त्रीय चिंतन की जो स्वदेशी परंपरा माधवराव सप्रे से शुरू होती है वह संपत्तिशास्त्र में अधिक व्यवस्थित बनती है और राधामोहन गोकुल जी की किताब 'देश का धन' (1910) और पारसनाथ द्विवेदी की 'देश की दशा' (1915) में आगे बढ़ती है।

अपने समय में माधवराव सप्रे हिंदी में पत्रकार के अलावा साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध थे, लेकिन हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में उनके नाम का उल्लेख तक नहीं मिलता है। वे निबंधकार के साथ ही कहानीकार थे और समालोचक भी। हिंदी कहानी के विकास में उनके योगदान को हिंदी जगत के सामने लाने का प्रयत्न देवी प्रसाद वर्मा ने किया। उन्होंने 'माधवराव सप्रे की कहानियाँ' का संपादन किया है और उसकी भूमिका लिख कर कहानीकार सप्रे जी की देन का मूल्यांकन भी किया है। कमलेश्वर द्वारा संपादित 'सारिका' में 'हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी' पर लंबी बहस चली थी जिसमें माधवराव सप्रे की कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी' को हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी कुछ आलोचकों ने माना था। इस बहस का एक नतीजा यह निकला कि कहानीकार के रूप में सप्रे जी की पर्याप्त चर्चा हुई।

'छत्तीसगढ़ मित्र' में 1900 से 1901 के बीच सप्रे जी की छह कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं। इनमें से दो 'सुभाषित रत्न' शीर्षक से छपी थीं। सुभाषित रत्न की कथाएँ जातक और हितोपदेश की कथाओं की परंपरा की याद दिलाती हैं। इनका उद्देश्य नैतिक शिक्षा देना है जो महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग की मुख्य प्रवृत्ति थी, लेकिन इनमें कुछ सुभाषित ऐसे भी हैं जिनके अभिप्राय की गूँज आज भी सार्थक है। उदाहरण के लिए सुभाषित रत्न-1 को देखिए -

कुठारमालिका दृष्ट्वा कम्पिताः सकला द्रुमाः। वृद्धस्तरुवाचेदं स्वजातिर्नैव दृश्यते॥

किसी समय एक माली बहुत सी कुल्हाड़ियाँ रस्सी में बाँध अपने बगीचे में गया। उसको देखते ही सब वृक्ष मारे डर के थर थर काँपने लगे। तब उनमें से एक पुराने झाड़ ने कहा - 'भाइयो! अभी से क्यों डरते हो! जब तक हम लोगों में से कोई भी बेंट, अर्थात कुल्हाड़ी का डंडा इन कुल्हाड़ियों में शामिल न होगा, तब तक उनसे हमारा नाश नहीं हो सकता।' सच है, स्वजातीय अथवा आत्मीयजन के विश्वासघात से ही नाश होता है, अन्यथा नहीं।

इस सुभाषित के अभिप्राय को ही काशीनाथ सिंह ने अपनी कहानी 'जंगल जातकम' में अत्यंत प्रभावशाली और कलात्मक रूप से पुनर्निर्मित किया है। संदर्भ के बदलने से कथा का अर्थ बदल गया है। सप्रे जी ने जब लिखा था तब देश में अंग्रेजी राज था। यह जानी पहचानी बात है कि अंग्रेजों ने भारतीयों की सहायता से ही भारत पर कब्जा किया था। यही नहीं, 1857 के युद्ध में भी देशभक्तों की हार की एक वजह देशद्रोहियों की गद्दारी थी। सुभाषित की कथा में जो भूमिका बेंट की है वही भूमिका अंग्रेजों की सहायता करने वाले भारतीयों की थी। काशीनाथ सिंह के 'जंगल जातकम' में आपातकाल के उन बेंटों की ओर संकेत है जो दमनकारी सत्ता के सहयोगी थे। उनके अनुसार 'बेंट वे बनते हैं जो जल्दी घुटने टेक देते हैं, चारों तरफ सिर हिलाते हैं और जिनमें स्थिरता तथा धैर्य नहीं है।' आज के भूमंडलीकरण के दौर में ऐसे बेंटों की भरमार दिखाई देती है। सुभाषित-2 की कथा आज की लघुकथा का पूर्व रूप है, जिसमें किसी न किसी असामाजिक मनोवृत्ति की मीमांसा होती है।

हिंदी में जब कहानी लिखने की शुरुआत हो रही थी तब लेखकों के सामने कथा के पाँच स्रोत मौजूद थे संस्कृत का कथा साहित्य, उर्दू में प्रचलित दास्तान और किस्से, लोककथा, बांग्ला की कहानियाँ और अंग्रेजी कथा साहित्य। सप्रे जी की कुल चार कहानियाँ हैं - एक पथिक का स्वप्न, सम्मान किसे कहते हैं?, आजम और एक टोकरी भर मिट्टी। इन कहानियों में से 'एक पथिक का स्वप्न' का शिल्प दास्तानों की परंपरा से जुड़ा है, लेकिन उसमें वस्तु वर्णन की जो पद्धति है उस पर संस्कृत के कथा साहित्य की छाप है। 'आजम' एक उपदेशपरक कहानी है जो गोल्डस्मिथ के एक निबंध पर आधारित है। 'सम्मान किसे कहते हैं' एक समकालीन संवेदना की कहानी है जिसमें एक स्तर पर स्वतंत्रता और परतंत्रता के भावों के बीच द्वंद्व है तो दूसरे स्तर पर स्वदेश प्रेम और देशद्रोह के बीच। कहानी के अंत में स्वतंत्रता और देशप्रेम की विजय होती है। 1900 में छपी इस कहानी का विकसित रूप प्रेमचंद की 'सोजे वतन' की कहानियों में मिलता है। सप्रे जी की अंतिम कहानी है 'एक टोकरी भर मिट्टी'। इस कहानी में संरचना की संक्षिप्तता के साथ प्रभाव की तीव्रता है। कहानी में सामाजिक अन्याय और अत्याचार का बोध है, पर साथ ही मनुष्य की अच्छाई में विश्वास भी है जिसके फलस्वरूप ऐसा हृदय परिवर्तन होता है जो प्रेमचंद की प्रारंभिक कहानियों की जानी पहचानी विशेषता है। 'एक टोकरी भर मिट्टी' के साथ अगर प्रेमचंद की कहानी 'विध्वंस' को पढ़ा जाए तो यह स्पष्ट होगा कि प्रेमचंद हिंदी कहानी की संवेदना और शिल्प को कहाँ से उठा कर कहाँ पहुँचाते हैं।

हिंदी कहानी के विकास में माधवराव सप्रे का जितना योगदान है उससे अधिक महत्वपूर्ण है हिंदी समालोचना के आरंभिक रूप के निर्माण में उनकी भूमिका। वे साहित्य के उत्थान के लिए समालोचना की उन्नति को बहुत आवश्यक मानते थे, इसलिए वे हिंदी समालोचना के विकास के बारे में चिंतित थे और प्रयत्नशील भी। वे चाहते थे कि हिंदी समालोचना के विकास के लिए नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से एक समालोचक समिति की स्थापना हो और नागरी समालोचक नाम की पत्रिका भी निकले। उनकी ये दोनों इच्छाएँ तो पूरी नहीं हुईं, लेकिन उन्होंने अपनी पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के माध्यम से समालोचना को ठोस रूप देने के लिए पर्याप्त प्रयत्न किया। 1900 से 1901 के बीच केवल दो वर्षों में 'छत्तीसगढ़ मित्र' में सप्रे जी की लिखी हुई लगभग 20 छोटी बड़ी समीक्षाएँ प्रकाशित हुईं। ये समीक्षाएँ केवल कविता और उपन्यास की नहीं हैं। इनमें ज्योतिष, व्याकरण और स्त्री शिक्षा से संबंधित पुस्तकों की भी समीक्षाएँ हैं। 'भाषाचंद्रिका' नाम की एक पत्रिका की भी समीक्षा सप्रे जी ने लिखी है। 'मर्यादा' के मार्च, 1916 के अंक में उन्होंने 'आक्सफोर्ड सर्वे ऑफ दी ब्रिटिश इंपायर' नाम की इतिहास की किताब की व्यंग्य विनोद से भरपूर जानदार भाषा में अत्यंत प्रभावशाली समीक्षा लिखी है। सप्रे जी की समीक्षाओं के विषयों की विविधता को देख कर लगता है कि उनकी दृष्टि में समालोचना केवल साहित्य तक सीमित न थी। वे समालोचना को वांङमय विमर्श मानते थे। इन समीक्षाओं से यह भी स्पष्ट है कि सप्रेजी हिंदी, मराठी, संस्कृत और अंग्रेजी खूब अच्छी तरह जानते थे, इसलिए उन्होंने अनुवाद की पुस्तकों की बहुत अच्छी समीक्षाएँ लिखी हैं।

'भारत गौरव' नाम की पुस्तक की समीक्षा करते हुए सप्रे जी ने समालोचना के संबंध में अपनी दृष्टि और समझ को इन शब्दों में व्यक्त किया है - 'समालोचक शब्द का अर्थ यद्यपि बहुत अच्छा है; परंतु साधारणतः कई लोग उससे बुरा अर्थ ही लेते हैं। कहते हैं कि किसी के छिद्र ढूँढ़ना और समालोचना करना एक बराबर है। चाहे जैसा हो, कोई भला कहे या बुरा, जो काम हाथ में लिया उसको अपनी बुद्धि के अनुसार ठीकठाक कर देना ही समालोचक का काम है। इस पर से कोई ऐसा न समझे कि समालोचक की कृति में कभी त्रुटि ही नहीं रहती। नहीं, समालोचक भी एक मनुष्य है और मनुष्य से प्रमाद हो जाना स्वाभाविक है। ...समालोचक का काम 'भारत मित्र' ने इस प्रकार लिखा है - जैसे जौहरी पार्थीव रत्नों की परख कर उनका मूल्य निर्धारित करता है उसी प्रकार साहित्य निष्णात विद्वान साहित्य के रत्नों की परीक्षा कर उनके गुण दोष दिखलाते और मूल्य बतलाते हैं। इस व्यापार को समालोचना कहते हैं।'

सप्रे जी ने सबसे अधिक कविता की किताबों की समीक्षा की है और कविता में भी सबसे अधिक श्रीधर पाठक की कविता की किताबों की। उस समय श्रीधर पाठक हिंदी के सर्वाधिक प्रयोगशील और लोकप्रिय कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली हिंदी दोनों में कविता लिखते थे। 'घन विजय' ब्रजभाषा की कविता पुस्तक है, जिसकी समीक्षा करते हुए सप्रे जी ने श्रीधर पाठक की प्रयोगशीलता की प्रशंसा के साथ ही उनकी सामाजिक संवेदनशीलता पर ध्यान देते हुए लिखा है कि - 'पाठक जी जैसे काव्य रचना की नूतन प्रणाली में अग्रसर हैं वैसे ही सामाजिक अन्याय के (प्रकट नहीं तो गुप्त) संशोधक भी होंगे।' इस समीक्षा में सप्रे जी के अंग्रेजी साहित्य के ज्ञान का भी परिचय मिलता है। उन्होंने वर्ड्‌सवर्थ और शैली के जगत बोध संबंधी दृष्टिकोणों की तुलना श्रीधर पाठक की विश्वदृष्टि से की है और लिखा है कि कवि के लिए मन के संतुलन, विचार शक्ति की स्थिरता और जीवन के प्रति आशावाद आवश्यक है। 'घन विजय' के साथ ही खड़ी बोली की कविता पुस्तक 'गुनवंत हेमंत' की भी समीक्षा की है जिसमें श्रीधर पाठक के प्रकृति वर्णन की चित्रमयता की तारीफ है।

सप्रे जी ने श्रीधर पाठक के 'जगत सचाई सार' की विस्तृत समीक्षा लिखी है। इस समीक्षा के आरंभ में ही उन्होंने जगत को मिथ्या मानने वाले दृष्टिकोण का खंडन किया है और लिखा है कि 'प्रत्येक विचारवान मनुष्य को चाहिए कि इस संसार को असार कह कर निरा आलसी न बने, वरन् उसमें से सारवस्तु का ग्रहण करने पर परमात्मा का उद्दिष्ट हेतु सफल करे। यही भाव दर्शाने के लिए श्रीधर पाठक ने 'जगत सचाई सार' नामक छोटी सी पुस्तक में इक्यावन पद्यों की रचना की है।' श्रीधर पाठक के प्रति आदर और आत्मीयता के बावजूद सप्रे जी ने उनकी काव्य भाषा के अनेक दोषों की ओर संकेत किया है। सप्रे जी कविता में शब्दों के आडंबर और कल्पना के उलझाव को पसंद नहीं करते थे, इसलिए लिखा है कि 'इस देश के कई कवि निरर्थक शब्दों के आडंबर और अतिश्योक्ति के काल्पनिक उलझाव में ही अपनी सब बुद्धि खर्च कर देते हैं।' सप्रे जी कविता में वस्तुजगत की सहज और मार्मिक अभिव्यक्ति चाहते थे। उन्होंने 'जगत सचाई सार' की जो समीक्षा लिखी है उसे ध्यान से पढ़ने पर स्पष्ट हो जाएगा कि वे आलोचना की जो राह बना रहे थे उसी पर बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल चलते दिखाई देते हैं।

श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी के कवि गोल्डस्मिथ की दो कविता पुस्तकों का कविता में ही अनुवाद किया था - 'डेजर्टेड विलेज' का 'उजाड़ ग्राम' और 'द हर्मिट' का 'एकांतवासी योगी' नाम से। इन दोनों अनुवादों की सप्रे जी ने लंबी समीक्षाएँ लिखी हैं। इन समीक्षाओं में दो बातों पर ध्यान दिया गया है - 'पहली यह कि भाषांतर मूल ग्रंथ के अनुरूप बना है कि नहीं, मूल ग्रंथ के संपूर्ण भाव अनुवाद में आए हैं वा नहीं। दूसरी बात यह कि स्वतंत्र रीति से यह ग्रंथ कैसा बना है।' कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज भी अगर किसी रचना के अनुवाद की समीक्षा करनी हो तो इन दोनों बातों पर ध्यान देना बहुत जरूरी होगा। 'एकातंवासी योगी' के बारे में सप्रे जी की राय है कि 'भाषांतरकर्ता ने अपनी स्वतंत्र कविता शक्ति पूर्ण रूप से स्थापित कर दी है। इसमें जो उत्तमोत्तम पद्य हैं उनमें से अधिकांश पंडित जी के स्वरचित हैं।' सप्रे जी ने 'उजाड़ ग्राम' के बारे में लिखा है कि श्रीधर पाठक का 'यह ग्रंथ हिंदी में उनकी अप्रतिम कुशलता, विस्तीर्ण प्रतिभा, आश्चर्यकारक कविता शक्ति और अद्भुत अनुवाद सामर्थ्य का चिर स्मारक बना रहेगा।'

बेहतर समालोचना तभी संभव होती है जब आलोचक अपने सोच का सच कहने का साहस रखता है। ऐसा साहस सप्रे जी की समालोचना में है। उन्होंने मिश्रबंधुओं के काव्य 'लव कुश चरित्र' की समीक्षा लिखी है। वह समीक्षा 'छत्तीसगढ़ मित्र' के पाँच अंकों में छपी थी और पैंतीस पृष्ठों की थी। कवि श्यामबिहारी मिश्र बनारस के डिप्टी कलेक्टर थे और सम्मानित साहित्यकार भी। उस किताब की 'समाचार पत्रों और सुप्रसिद्ध विद्वानों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा' भी की थी। यह सब सप्रे जी को पसंद नहीं था। इसलिए उन्होंने लिखा कि 'केवल प्रशंसा कर देना ही यदि समालोचना है तो अधिक लिखने की आश्यकता नहीं है।'

समीक्षा में सप्रे जी ने 'लव कुश चरित्र' के बारे में पहली आपत्ति यह की है कि यह रचना आधुनिक रुचि और मानसिकता के अनुकूल नहीं है। उन्होंने लिखा है कि 'यह तो 19वीं और 20वीं सदी का समय है। नूतन शिक्षा और नूतन विचार से लोगों की रुचि 16वीं सदी की अपेक्षा बहुत भिन्न हो गई है। 16वीं सदी में कवि जिस प्रकार के विषयों से अपने पाठकों का मनोरंजन कर सकता था उसी प्रकार के विषयों से वर्तमान समय में भी यदि आदर पाने का साहस करे तो यह केवल साहस ही कहलाएगा।' अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए सप्रे जी ने यह भी लिखा है कि 'हमारा मुख्य अभिप्राय यही है कि किसी भी विषय पर कविता बनाने के पहले देश, समय, स्थिति और पात्र का कुछ विचार अवश्य कर लेना चाहिए। जो इन बातों का पूर्ण रीति से विचार कर लेता है उसी की कविता सदैव लोकप्रिय होती है और वही राष्ट्रीय कवि कहलाने का दावा रख सकता है।'

'लव कुश चरित्र' को काव्य विवेक की कसौटी पर परखते हुए सप्रे जी ने लिखा है कि 'क्या लव कुश चरित्र के मर्मज्ञ पाठकों के मन में यह बात खटकती न होगी कि जिस परिमाण से विषय के नियत करने तथा ग्रंथ बनाने में शीघ्रता की गई है, उसी परिमाण से इस पुस्तक में कथा की विचित्रता, भाव की नूतनता, वर्णन की अनुपमता, स्वभाव का निरूपण और रस की हृदयंगमता आदि उत्तम काव्य गुणों का बहुत कुछ लोप हो गया है।'

सप्रे जी ने वाल्मीकि रामायण, जैमिनी पुराण, रामाश्वमेध आदि का उदाहरण सामने रखते हुए लिखा है कि 'लव कुश चरित्र' में एक तो मार्मिक प्रसंगों की पहचान नहीं है और दूसरे निराधार बातों का वर्णन है। उन्होंने इस काव्य में छंदों की अधिकता को केशवदास का अनुकरण कहा है और उसे रसबोध में बाधक माना है। समीक्षा के अंत में व्याकरण और भाषा संबंधी कुछ दोषों की ओर भी संकेत हैं। कुल मिला कर सप्रे जी की यह समीक्षा उनके निर्भ्रांत काव्य विवेक और निर्भीक होकर सच कहने के साहस का प्रमाण है। आजकल हिंदी में अनेक आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अधिकारी साहित्यकार हैं जिनको महान घोषित करने की नामी आलोचकों के बीच होड़ मची हुई है। इस स्थिति में सप्रे जी की आलोचना संबंधी सत्यनिष्ठा, स्वतंत्रता और निष्पक्षता आश्चर्यजनक है और स्पृहणीय भी।

सप्रे जी के सजग इतिहास विवेक का प्रमाण है 'भारत गौरवादर्श' की उनकी समीक्षा। 'भारत गौरवादर्श' उर्दू की एक किताब के एक भाग का अनुवाद है। अनुवादक का दावा है कि इसमें 'ऐतिहासिक प्रमाणों से भारतवर्ष का गौरव निरूपण' है, लेकिन किताब में भारत की कपोल कल्पित महानता का निराधार गुणगान है। इस किताब में एक जगह लिखा है कि व्यास जी ने संजय को एक दूरबीन दी थी कि यहाँ से कुरुक्षेत्र का वृत्तांत महाराज धृतराष्ट्र को बतलाते रहना। इस बात को प्रामाणिक बनाने के लिए महाभारत के एक श्लोक का हवाला तो दिया गया है लेकिन श्लोक को उद्धृत नहीं किया गया है। सप्रे जी ने उस श्लोक को उद्धृत करते हुए इस झूठ का खंडन किया है कि भारत में महाभारत काल में दूरबीन थी। इसके बाद सप्रे जी प्रश्न करते हैं कि 'क्या इसी प्रकार के पॉलिश चढ़ाए हुए चित्र से भारत का सत्य स्वरूप प्रकाशित हो जाएगा?' उन्होंने यह भी लिखा है कि 'यह बात तो इतिहास के अनुभव के बिलकुल विरुद्ध जान पड़ती है कि भारतवर्ष राजनीति, शिक्षा, सुशासन, गणित, ज्योतिष, भूगोल, शिल्प, रसायन आदि में संपूर्ण संसार का शिक्षणालय था, जिसने सब प्रकार के विषयों में पूर्ण उन्नति कर ली थी और उसके लिए कोई भी विषय सीखने को न बचा था और न किसी विषय में कुछ उन्नति करने को रह गई थी। यह निरूपण कवि के योग्य है; परंतु जो इतिहास के प्रमाणों पर चलना चाहते हैं वे इस प्रकार का निरूपण कदापि पसंद न करेंगे।' सप्रे जी की स्पष्ट राय है कि 'भारत गौरवादर्श जैसी पुस्तकें 'हमारे मन में हमारे पूर्वजों के संबंध में वृथाभिमान उत्पन्न कराती हैं।' आज भी इस देश में ऐसे लोग हैं जो भारत को जगत गुरु सिद्ध करने में लगे रहते हैं। उनके प्रयत्नों की वैसी ही आलोचना करना आवश्यक है जैसी सप्रे जी ने 'भारत गौरवादर्श' की की थी।

सप्रे जी ने सितंबर, 1902 में संस्कृत के प्रसिद्ध गद्यकार और आचार्य दंडी पर एक लंबा निबंध लिखा था। इसमें दंडी के समय के बारे में प्रचलित और संभावित विभिन्न मतों की छानबीन की गई है और 'दशकुमार चरित' का विस्तृत विश्लेषण भी किया गया है। यह निबंध सप्रे जी के संस्कृत साहित्य के व्यापक ज्ञान की गवाही देता है। इसमें कालिदास, भवभूति, सुबंधु और बाणभट्ट के काव्यों से दंडी के काव्य की जो तुलना की गई है उसमें तुलनात्मक आलोचना का आरंभिक रूप भी दिखलाई पड़ता है। पिछले कुछ दशकों से हिंदू भारत की खोज की जो प्रवृत्ति शुरू हुई है उसके अंतर्गत हिंदी साहित्य की विभिन्न नई पुरानी विधाओं के भारतीय मूल की खोज हो रही है। उपन्यास की भारतीयता की खोज करते हुए कुछ आलोचक 'दशकुमार चरित', 'वासवदत्ता' और 'कादम्बरी' को उपन्यास सिद्ध करने में लगे हुए हैं। माधवराव सप्रे ने दंडी पर लिखे निबंध में 'दशकुमार चरित' को उपन्यास मानने की मान्यता का खंडन करते हुए लिखा है कि 'इस ग्रंथ में न तो कोई संपूर्ण एक कथा ही है और न कवि ने उसका संविधानिक कथा सूत्र रचने की चतुराई दिखाने के लिए वैसा कुछ प्रयत्न ही किया है; न तो काव्य संप्रदायानुरूप भिन्न भिन्न रसों द्वारा श्रृंगारादि को यथाक्रम पुष्ट ही किया है और न बीच में देश कालादिकों के वर्णन ही लिखे हैं - सारांश इस ग्रंथ में उपन्यास के कोई भी लक्षण नहीं पाए जाते।'

जब माधवराव सप्रे ने हिंदी में समालोचना का स्वरूप निर्मित करने का प्रयत्न प्रारंभ किया था तब हिंदी आलोचना आरंभिक अवस्था में थी। भारतेंदु युग में बालकृष्ण भट्ट और चौधरी बदरीनारायण प्रेमधन ने उसका सूत्रपात किया था, लेकिन सप्रे जी के प्रयत्नों से वह विकसित हुई और उसमें व्यापकता आई। यह देख कर आश्चर्य होता है कि हिंदी साहित्य के किसी इतिहास में या हिंदी आलोचना के किसी इतिहास में सप्रे जी के समालोचना कर्म का कहीं कोई मूल्यांकन नहीं है, बल्कि समालोचक के रूप में उनके नाम तक का उल्लेख नहीं है। यह विस्मरण अनायास है या सायास? यह कहीं उस प्रवृत्ति का परिणाम तो नहीं है जिसे जी.एन. देवी सांस्कृतिक स्मृति लोप कहते हैं! जो भी हो, हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन और हिंदी आलोचना का इतिहास माधवराव सप्रे के प्रसंग में स्मृतिहीनता के शिकार हैं।