माधवी / भाग 1 / खंड 4 / लमाबम कमल सिंह

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काँचीपुर

“देखो , काँची देवी की ये सन्तानें,

उनके ये मुर्झाए चेहरे!

माँ के अश्रु-जल के प्रभाव से,

बहुकाल से पितृ-परित्यक्त होने के कारण!"

बर्मा रोड पर दक्षिण की ओर जाते समय, बीच में अर्धचन्द्राकार-सा खड़ा एक पर्वत, नम्बुल् नदी की वक्राकार जल-धारा के तट, तलहटी में चन्द्रनदी, कालियदमन की छोटी धाराओं का मन्द प्रवाह और पूर्वी सीमा पर पुरानी परिखावाला एक स्थान दिखाई देता है - यह काँचीपुर है। यहीं कभी स्वर्णभूमि मणिपुर का राजमहल था। किसी काल में राजमहल होते हुए भी अब यह स्थान घने जंगल में पारिवर्तित हो गया है; बड़े लोगों और धनिकों का निवास-स्थान था, पर अब वन्य पशु-पक्षियों की आश्रय-स्थली बन गया है; निरन्तर शोरगुल भरा नगर था, अब टिड्डियों और झींगुरों के स्वरों से भरा मैदान हो गया है; मन्दिर, मंडप और भवनों की वह जगह अब घास से ढँका टीला बन गई है; बड़े-बड़े जलाशयों और कुँओं वाला वह स्थान अब तालाबों और खोहों से भरे ऊबड़-खाबड़ मैदान में बदल गया है।

बहुत सार-सँभाल करके उगाए हुए फल-फूलों के पौधे अब पक्षियों के बैठने और चरवाहों के विश्राम-स्थतल बन गए हैं। कहीं-कहीं भवनों के ढह जाने के अवशेषों और जगह-जगह बिखरी ईंटों के ढेर देखकर, बस इतना ही अनुमान होता है कि किसी समय यहाँ राजमहल था। निर्माण के आरम्भ के बारे में सोचना आनन्दमय होता है, लेकिन ढह जाने और पुराना पड़ जाने का विचार बहुत दुखमय होता है। पहले जहाँ जंगल था, उस जगह का विशाल प्रासाद में परिवर्तित होना, किसी दरिद्र का कुबरे की भाँति धनवान बन जाना-इससे कहीं कुछ भी हानि नहीं होती; किन्तु राजमहल का जंगल में परिवर्तित हो जाना, राजा का पद्च्युत होकर जंगलों में खो जाना, धनवान का दरिद्र हो जाना-कितना हृदयविदारक होता है!

इस प्रकार वीरान हुए, ढहे पड़े, जंगल में परिवर्तित काँचीपुर में वारुणी के दिन सुबह एक निराश युवती मल्लिका के पौधे के समीप बैठी अपने कमल-नयनों से आँसू बहा रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अभी-अभी खिला मल्लिका-पुष्प बिखरकर नीचे गिर पड़ा हो। हे पाठक! उरीरै को भुला दिया? यह युवती किसी निर्जन-स्थान पर सरोवर में अकेले खिले कमल के समान काँची की भूमि पर एकाकी खिलनेवाली उरीरै ही थी। “वारुणी-दर्शन को नहीं जा पाई” यह सोचकर दुखी थी, उसका कोई बड़ा या छोटा भाई नहीं है, वह अकेली है, ऐसा सोचने के कारण निराश थी उरीरै। मन का दुख यदि बाहर न आ पाए, तो उसकी मात्रा प्रति पल बढ़ती जाती है। हे पाठक! अपने अधीन किसी को कड़े शब्दों में डाटने पर अगर वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता तो कभी मत सोचना कि उसके हृदय पर दुख का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। यह भी मत सोचो कि चीख-चीखकर रोनेवाला आदमी ही अकेला दुखी होता है। आग की गर्मी से मुर्झाया पत्ता ओस की बूँदें पड़ने पर पुनः ताजा हो उठेगा, दूसरी ओर, नष्ट-अंकुर, हरे-भरे पेड़ के पत्ते जिस दिन मुर्झा जाएँगे, उस दिन उसका अन्त हो जाएगा। मनुष्य की विडम्बना है कि उसका अव्यक्त दुख कोई नहीं जान पाता-हम सोचते हैं कि ऐसा मनुष्य पत्थर की भाँति दुख का अनुभव ही नहीं करता।

उरीरै जब इसी प्रकार अपना दुख एकाकी ही सह रही थी, तब भुवन नाम का काँची, का एक युवक देव-दर्शन के लिए कुछ साथियों के साथ उरीरै के घर के प्रवेश-द्वार तक आया और वहीं खड़े होकर बरामदे में कपड़े बुन रही उरीरै की माँ को पुकारते हुए बोला, “चाची! उरीरै को देव-दर्शन के लिए नहीं भेजोगी? उसे भेजना है तो हम साथ ले जाएँगे।” थम्बाल (उरीरै की माँ) ने सोचा, “भुवन स्वभाव से दुश्चरित्र है, कैसे बेटी उसके साथ कर दे! दूसरी ओर देव-दर्शन को जाने के लिए व्याकुल आँखे से आँसू बहा रही बेटी को भी कैसे देखती रह जाए!” यही सब सोचते हुए बेटी के मन को टटोलने के लिए पूछा, “बेटी! तुम भुवन के साथ देव-दर्शन को जाओगी?” उरीरै को भी आशंका हुई कि भुवन बुरा आदमी है और कभी पहले भी उसने भुवन का देव-दर्शन को जाने के लिए कहना नहीं माना था। फिर भी, यह अवसर निकल गया तो वह वारुणी-दर्शन को कभी नहीं जा पाएगी, ऐसा सोचते हुए भला-बुरा सब ईश्वर पर छोड़कर उसने उत्तर दिया, “हाँ, जाऊँगी।” माँ ने बेटी को जाने की आज्ञा देकर भुवन के साथ कर दिया। चावल-तिल-फूल आदि पूजा की सामग्री पहले से तैयार कर रखनेवाली उरीरै पुनः मन में उत्साहित होकर भुवन के दल के साथ नोड्.माइजिड् की ओर चल पड़ी।

भुवन का मन फूला नहीं समाया। अपनी मनोकामना पूरी हो जाने के कारण कभी वह चलते-चलते गीत गाता था, तो कभी मृदंग बजाता था, सारे वातावरण में कोलाहल छा गया। रास्ते में एक सहेली द्वारा चुपचाप बताए जाने पर उरीरै को मालूम हो गया कि देव-दर्शन से लौटते समय भुवन उसे उठा ले जाएगा। शिकारी का जाल देख जैसे हिरणी टुकुर-टुकुर देखती है, वैसे ही निरुपाय उरीरै उस सम्भावित दुर्घटना के त्रासद विचार से अत्यधिक घबरा गई। चीड्.गोइ नदी में नहाकर इधर-उधर चलने-फिरने के शोर-शराबे के बीच उरीरै भुवन को छोड़कर तुरन्त पहाड़ पर चढ़ गई और घबराहट के मारे-जीवन में कभी भी न चढ़े पहाड़ की उस चढ़ाईवाले रास्ते पर, भागती चली गई। चढ़ाई के बीच वीरेन् का पल्लू पकड़कर पहाड़ पर चढ़नेवाली वह युवती उरीरै ही थी।