माधवी / भाग 1 / खंड 6 / लमाबम कमल सिंह

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विपत्ति

वारुणी पर्व की सन्ध्या का समय था। टिमटिमाते तारों के कारण विशाल और खुले आकाश में थोड़ा-बहुत उजाला बिखरा हुआ था। मायावी अन्धकार संसार को निगलने हेतु जल्दी से उड़ आया। नोड्माइजिड् पर्वत पर बड़े-बड़े पेड़ काले-काले होकर भयंकर राक्षस की भाँति चुपचाप खड़ें थे। दिन में पहाड़ी पर इतनी भीड़ थी, लेकिन अब बिल्कुल शान्त ओर सुनसान। उस समय हिंस्त्र जानवरों का आंतक था, इसलिए सारे लोग तुरन्त लौट गए।

अचानक तेज हवा चलने लगी। खासकर पहाड़ पर हवा और भी तीव्र होती है। बगूलेदार हवा के एक-एक झोंके से पेड़-पौधों की चोटियाँ जैसे जमीन छूने को झुकी पड़ रही थीं, डालियों के आपस में टकराने और घने पत्तों के बीच हवा के बहने से जगह-जगह मर्मर की आवाजें निकलने लगीं। सूखी शाखाएँ टूटकर गिरने लगीं। पेड़ों पर बने नीड़ हवा द्वारा उड़ा दिए जाने के कारण पक्षीगण भयंकर स्वर में जोर-जोर से कोलाहल करने लगे। आश्रय के अभाव में हिरण इधर-उधर भाग-दौड़ मचाने लगे। सारी कन्दराएँ 'प्रोक्-प्रोक्', 'स्वाइ-स्वाइ' की सनसनाहट से भर गईं।

ऐसी कठिन विपत्ति के समय राजकुमार वीरेन्द्र सिंह उरीरै का हाथ थामें अँधेरे में पहाड़ से नीचे उतर रहा था। बवंडर के एक-एक वेगवान झोंके की मार से साँसें अवरूद्ध हो जाने के कारण बीच में दोनों एकाएक खड़े हो जाते थे, फिर टटोलते-फिसलते आगे बढ़ते थे। कहीं सी रास्ता नहीं था, एक कदम आगे बढ़ाते ही किसी पत्थर से ठोकर खाते थे, तो थोड़ा आगे बढ़ने पर किसी पेड़ से टकरा जाते थे। पर्वत-श्रेणियों से घिरा स्थान, कृष्ण-पक्ष की रात, जगह-जगह घने पत्तों वाले पेड़ों की कतारों और बेल-लताओं से उलझी जगह होने के कारण ऐसा लगा कि आँखें बन्द करके चल रहे हों। अलग-बगल दीवार-से खड़े सघन पहाड़ी ढलान थे। एक पैर फिसल कर कन्दरा में गिर जाते तो पल-भर में प्राणों का पता न चलता। पहाड़ी जमीन के छोटे-छोटे कंकड़ों और कटी हुई नुकीली खूबों द्वारा खरोंचे जाने के कारण पैरों में दर्द हो रहा था। इतने में आस-पास जंगली जानवरों के दहाड़ने की आवाज सुनाई पड़ने लगी; निकट ही नर-भक्षकों की बदबू आने लगी, जिधर भी देखो, अन्धकार के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था, सारा संसार अन्धकार के जाल से पूरी तरह ढँक गया था; पौधे, लताएँ, चट्टानें, पशु, पक्षी-सब अँधेरे में विलीन हो गए थे।

वीरेन् के माथे से पसीने की बूँदें चूने लगीं, घबराहट के कारण सारे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। क्या उसके मन में डर पैदा हो गया था? नहीं, कोई डर नहीं, लेकिन व्याकुलता अवश्य थी। वह अकेला होता तो किसी भी साधन से घर पहुँच सकता था, लेकिन उसे उरीरै की अत्यधिक चिन्ता थी, जिसे वह हाथ थामे ले जा रहा था। सोचने लगा, “अँधेरे में कहीं किसी जानवर ने मुझे छोड़ कर उरीरै के प्राण ले लिए तो, या कहीं कदम फिसल कर वह नीचे गिर गई तो क्या होगा। खैर, नियति को जो भी मंजूर हो, जहाँ उरीरै मरेगी, वहीं मैं भी मरूँगा।” ऐसा सोचकर धीरे-धीरे उतरने लगा। बिना खाए पहाड़ पर चढ़ने के कारण दिन चढ़े से ही उरीरै को काफी थकान महसूस हो रही थी और वह हर पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करती थी, लेकिन अब इस विपत्ति के समय पहाड़ी ढलान पर उतरते-उतरते उसे बेहोशी आने लगी। जब भुवन से भयभीत होकर, आगे जाने वाले सभी से आगे बढ़कर चढ़ाई वाले पहाड़ी रास्ते पर कड़ी धूप का सामना करते हुए दौड़ी आई थी, उस समय घबराहट के कारण उसे कष्ट महसूस नहीं हुआ था, लेकिन अब प्रियतम का सानिध्य पाने के बाद सौ गुना कष्ट अनुभव होने लगा। जैसे अबोध शिशु अपनी माँ की गोद में रहता है, तब उसे अपने सामने आने वाले भालू, बाघ, हाथी आदि जानवारों से किसी प्रकार का भय नहीं होता, उसी प्रकार वीरेन् के पास पहुँचते ही उसे जग में किसी प्रकार का भय नहीं रहा, दूसरी ओर उसमें ताकत नहीं रही, इसलिए वीरेन् कठिनाई में पड़ गया। उसकी कलाई पकड़कर वह दो-तीन कदम आगे बढ़ा कि फिर वह बेहोश हो गई। वीरेन् असमंजस में पड़ गया। तराई अभी कितनी दूर है, अँधेरे में कुछ भी नहीं समझ पा रहा था।

बड़ी मुश्किल से तराई पहुँचने के बाद वीरेन् ने चैन की हलकी सी साँस तो ली, लेकिन पूरी तरह पसीना भी नहीं पोंछ पाया था कि “पानी, पानी, थोड़ा-सा पानी दो, हलक सूख रहा है, प्यास के मारे मर जाऊँगी” कहते हुए उरीरै पुनः बेहोश हो गई। घनी झाड़ियों से घिरे निर्जन और पीछे भी कुछ न दिखाई पड़ने वाले उस स्थान पर जब उरीरै बेहोश हो गई, तो वीरेन् के दुख की सीमा न रही। ऐसी विपत्ति के समय उस खतरनाक जगह वह कहाँ से पानी खोजेगा, खोजने के लिए बेहोश पड़ी उरीरै को छोड़कर कैसे इधर-उधर जाएगा! वह उरीरै के सिर पर पंखा झलने लगा। उसी समय दखना-हवा के संग किसी पहाड़ी झरने से उठती कल-कल की ध्वनि बहुत नजदीक ही सुनाई पड़ी। उस ध्वनि को सुनकर यह अनुमान करते हुए कि किसी झरने का पानी बह रहा है, उरीरै को धीरे से पुकारते हुए कहा, “प्रिये, पास में पानी है, भरकर लाता हूँ, थोड़ी देर उठकर बैठो।” यह सुनकर उरीरै प्यास के ताप के कारण बहुत मुश्किल से उठी और वीरेन् के चार-पाँच कदम आगे बढ़ते ही “पीछे मुड़-मुड़ कर देखते रहना, हिंस्र जानवरों से भरे इस घने जंगल में मुझ अबला को अकेली छोड़कर जा रहे हो; तुम्हारी सूरत देखे बिना मरने के बजाय पानी के बिना मरना कहीं बेहतर है” कहते हुए वह फिर जमीन पर लुढ़क गई। वीरेन् ने सोचा, “समय गँवाने से कोई फायदा नहीं, जितनी जल्दी हो सके, पानी भरकर ले आऊँ, जितनी अधिक देर होगी, मुसीबत और अधिक बढ़ती जाएगी!” यह सोचते हुए वह तुरन्त कल-कल ध्वनि की ओर आगे बढ़ा, सोचा कि थोड़ी दूर जाकर वह जगह मिल जाएगी, किन्तु उसका कहीं अता-पता नहीं चला; पहले हवा के झोंके द्वारा ले आने के कारण वह ध्वनि बहुत नजदीक सुनाई पड़ी थी - लेकिन अब लग रहा था कि वह दूर होती जा रही है। जैसे मरुभूमि के बीच मरीचिका द्वारा प्यासे लोगों की आँखों को पानी का सरोवर दिखाते हुए उन्हें असीम विपत्ति में डाला जाता है, वैसे ही कल-कल का स्वर वीरेन् को सम्मोहित करके कुछ दूर ले गया। स्वप्न था या जागरण, नहीं समझ पाया। लौट जाए या आगे बढ़े, इसी उधेड़बुन में पड़कर थोड़ी देर जड़वत खड़ा रहा, आखिर उरीरै की उन बातों की बार-बार याद आने लगी। यह सोचकर कि इस सुनसान जगह पर इस प्रकार मूढ़ होकर नहीं रहना चाहिए, वह फिर आगे बढ़ा। आह! इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ते-बढ़ते अरीरै को बहुत पीछे छोड़ आया। एक ओर तो, पानी के बहने की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ रही थी, दूसरी ओर, उरीरै की दिशा में हिंस्र जानवर के दहाड़ने की आवाज सुनाई पड़ी। फिर भी वीरेन् निरन्तर आगे बढ़ता गया। थोड़ी दूर आगे बढ़ने के बाद उसने पाया कि पेड़-पौधों और बाँसों से घिरी एक अति सघन जगह है। पर्वत से बहते एक छोटे से झरने की ध्वनि ने दूर से सुनाई पड़ने वाले वीणा के स्वर की भाँति उस गहन रात्रि में वीरेन् के व्यथित हृदय को “दुखी मत होओ, दुखी मत होओ” कहकर मनाना शुरू किया और वह ध्वनि अँधेरे में, उस वन में, आकाश में विलीन हो गई। यह जानकर कि पानी अवश्य है, उस ध्वनि को लक्ष्य करके टटोलते हुए अन्धकार में आगे बढ़ा और बढ़ा और बड़ी मुश्किल से उस झरने के पास पहुँचा। उस झरने के किनारे किसी जानवर के पानी पीने की आवाज सुनाई पड़ती। मुड़कर देखा तो आग के गोले सी चमकती दो आँखें दिखाई दीं। वह समझ गया कि बाघ के सिवाय कोई और नहीं है। उसे देखते ही वीरेन् धक् से रह गया, उसके सिर के बाल खड़े हो गए। वह निर्णय नहीं कर पाया कि पानी भरे या न भरे!

“पानी के अभाव में उरीरै के मर जाने के बदले यह बाघ ही मुझे खाए” ऐसा सोचकर पानी भरने के लिए नीचे उतरा, लेकिन उसके पास बर्तन ही कहाँ था? उरीरै की तड़पन देखते ही पानी भरने के लिए यूँ ही उठा चला आया था, उसके पास बर्तन है या नहीं इसका ख्याल नहीं किया था, अब पानी में उतरने पर पता चला कि उसके पास कोई भी बर्तन नहीं था। सामने एक बड़ा-सा बाघ बिना पलकें झपकाए खड़ा था, अब वह बर्तन के बारे में सोचता रहेगा? एकाएक उसकी अक्लमन्दी ने काम किया, धोती का गुँजा पानी में डुबोया और दोनों हाथों में उसे सँभाले चलने के लिए मुड़ा। दोनों हाथ गुँजा सँभाले हुए थे, कुछ दूर चला तो पत्थर से ठोकर खाई, थोड़ा आगे बढ़ा तो काँटों में उलझ गया, जहाँ चुपचाप चलना चाहता था, वहाँ घबराहट के कारण आशंकित हो उठा। चलते-चलते पीछे से बाघ के पीछा करने की सरसराहट सुनाई पड़ी, वह भागते-भगाते कभी ठोकर खाकर गिर पड़ा तो कभी उठा, इस प्रकार किसी तरह आया, किन्तु राह भटक गया। आह! वह, वह जगह नहीं मिल पाई, जहाँ उरीरै रह गई थी। कुछ देर तक इधर-उधर भटकने के बाद वह पेड़ एकदम स्याह रूप में दिखाई पड़ा, जिसके नीचे उरीरै से वंचित वह पेड़ भंयकर रूपवाला बन गया और ऐसा संदेह होने लगा जैसे कोई राक्षस उरीरै को खा जाने के बाद वृक्ष का रूप धरण करके स्याह रंग में खड़ा हो। गहरा अन्धकार था। कहीं गलत जगह न आ पहुँचा हो, ऐसा सोचकर इधर-उधर देखते समय वह बड़ा-सा पत्थर भी पेड़ के नीचे ही पड़ा मिला, जिस पर सिर रखकर उरीरै लेटी थी। अपने आप पर विश्वास न करते हुए पेड़ के चारों ओर इधर-से-उधर चक्कर काटने लगा, तभी किसी चिकनी वस्तु पर उसका पैर पड़ गया। उठाकर देखा तो बगैर म्यान की एक तलवार मिली। पास ही एक बाघ भी एकदम काले रूप में बैठा देखा। “इस बाघ ने ही उरीरै के प्राण लिए होंगे, मानव-खून से मस्त होकर वह मेरी भी प्रतीक्षा कर रहा होगा, ठीक है, मुझे भी मार डालने दो, किन्तु राजवंश में पैदा हुआ मैं, हाथ में तलवार होते हुए भी इतनी आसानी से कैसे मर जाऊँ, मर्द भी हूँ, अपनी हिम्मत तो दिखाऊँ” यह कहते हुए उसने धोती अपनी जाँघ तक लपेट ली और वही बड़ा-सा पत्थर उठाकर बाघ की तरफ उछाल दिया। बाघ ने अपनी गरज से पहाड़ी-कन्दरा को कँपाते हुए अपने पंजे से उस पत्थर को आसानी से परे ढकेल दिया। वीरेन्द्र सिंह ने तुरन्त अपनी तलवारबाजी से अपने सारे शरीर को ढँक लिया; अत्यधिक क्रोध के कारण उस बाघ को मामूली-सी लोमड़ी समझ मन से डर हटा दिया। उस वक्त क्यों डर पैदा होता? मैतै जाति में उत्पन्न पुरुष जब दुश्मन से मुकाबला करता है तो कभी भी डरकर नहीं भाग जाता। और वीरेन्द्र तो राजवंश में जन्मा था। भारत में श्रेष्ठ राजवंश में जन्मे, उसकी रग-रग में राजवंश का खून था और उस खून से बड़े हुए वीरेन् के मन में कोई डर नहीं था। मुसीबत में पड़ने और दुश्मनों का मुकाबला करने में ही सन्तुष्टि पाना राजवंश का स्वभाव होता है। साहसी और वीर राजवंश में जन्मा वीरेन् हाथ में तलवार लिए और तलवारबाजी की कला से अपने शरीर को आच्छादित कर आग के गोले की भाँति बाघ पर टूट पड़ा। वहा! कैसे असफल होता, देखो-उस बड़े से बाघ का सिर धड़ से अलग हो गया।

पाठक! देखिए तो, जब पहाड़ पर दावाग्नि के पीछा करने पर एक आश्रयहीन युवती के मरने की नौबत आई, तब वीरेन् ने शारीरिक शक्ति का प्रयोग न कर सकने की परिस्थिति में अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग किया था, और अब शक्ति-प्रयोग का समय आते ही अपनी तलवारबाजी के कौशल का प्रयोग करते हुए उस बाघ को आसानी से मार डाला।

बाघ को मारने के बाद वीरेन् ने थोड़ी देर तक विश्राम किया। तब तक आकाश में फैले बादल छँट गए थे और तारों की झिलमिलाहट से कुछ-कुछ उजाला छा गया था।

मरना है तो साथ-साथ मरेंगे, ऐसा सोचकर साथ आई उरीरै के अचानक खो जाने से उस निर्जन स्थान पर अकेले बैठे वीरेन् को अत्यधिक दुख हुआ। जैसे एक ही डाली पर बैठे दो पक्षियों में से एक पकड़ लिया गया हो, एक ही डंठल पर साथ खिले दो फूलों में से एक को तोड़ दिया गया हो, अभी कुछ देर पहले प्यास से तड़पती उरीरै के अचानक गायब हो जाने से निराश होकर कहने लगा, “बाघ के द्वारा मुझे मारे जाने के बदले मैंने ही बाघ को मार डाला; हे तलवार, तू मामूली तलवार नहीं है, भगवान का वरदान है, मैंने तेरे सहारे बाघ को मार गिराया है। तुझे अर्पित करने हेतु मेरे पास कुछ भी नहीं है, इसलिए तू मेरे खून में डूबकर सन्तुष्ट हो जा। घबराई हुई अबला उरीरै स्वर्ग के रास्ते में हम-सफर के अभाव में अकेली ही तड़प रही होगी; मैं उसके पास चला जाऊँगा, आश्रय में आई किसी को बचा न सकनेवाला यह जीवन ही व्यर्थ है।” यह कहते हुए उसने अपनी गर्दन को लक्ष्य करके तलवार उठाई और जब गर्दन काटने को हुआ, तभी दक्षिण की तरफ से आती हवा के झोंकों के साथ सन्नाटा भंग करता एक नारी-स्वर, “मार डाला, मार डाला, मुझे बचाओ” बार-बार सुनाई पड़ा। वह नारी-स्वर वीरेन् के हृदय को नुकीले भाले की भाँति बेधने लगा। “पहले उसे बचाना चाहिए” सोचकर वीरेन् तलवार को बगल में छिपाकर उस ओर भागा, जहाँ से वह स्वर आ रहा था। कुछ दूर जाते ही चार-पाँच पुरुषों द्वारा एक युवती को पकड़कर ले जाते हुए देखा। वीरेन् तुरन्त उनका रास्ता रोककर दहाड़ा, “कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता, अगर किसी ने मनमानी की तो उसका सिर इस तलवार से काटकर रख दूँगा। सही सलामत लौटना चाहो तो इस लड़की को छोड़ दो।” यह बात सुनते ही वह युवती उन लोगों के चंगुल से निकलकर भाग आई और वीरेन् से लिपटकर बोली, “प्रियतम! जब तुम पानी लेने गए थे, तब ये निर्दय लोग मुझे पकड़कर यहाँ ले आए।” यह कहते हुए वह जल्दी-जल्दी साँसें लेने लगी। उरीरै को-जिसे मरा हुआ सोच लिया था, पुनः पा लेने से वीरेन् की खुशी का ठिकाना न रहा। तभी उन चार-पाँच पुरुषों ने 'नारी-चोर आ गया' कहते हुए साजिश के तहत लाई गई तलवार ढूँढ़ी, लेकिन वह वीरेन् के हाथ में थी। तलवार न मिलने से हाथ में एक-एक डंडा लेकर वीरेन् को घेर लिया। उरीरै की रक्षा करते हुए वीरेन् अपनी तलवारबाजी के बल पर चारों ओर घूमता रहा ओर उरीरै ने भी अपना दुख-दर्द भूलकर, यह सोचते हुए कि “प्रियतम की मदद करूँगी” कमर में फेंटा बाँध लिया। उसी वक्त हाथों में डंडे लिए लगभग दस लोगों का एक दल हाँफते हुए वहाँ आ पहुँचा। उनमें से एक अधेड़ पुरुष भागते हुए समीप आकर उरीरै का हाथ पकड़ते हुए बोला, “बेटी, एक लड़की के दावाग्नि में जल जाने की खबर से मेरा कलेजा मुँह को आ गया था कि मेरी बेटी ही जलकर मर गई! महादेव ने मेरी बेटी को बचा लिया।” और उसके बाद वे उरीरै को लेकर चले गए। जिस चीज की छीना-झपटी हो रही थी, उसी को किसी के द्वारा लेकर चले जाने के बाद वीरेन् और युवती को उठाने वाले उस दल में ही भुवन था। बाप के उरीरै को लेकर चले जाने के कारण जब वीरेन् हक्का-बक्का था, तभी भुवन ने उसके हाथ से तलवार छीन ली और बोला, “मेरे रास्ते में काँटे बोने वाले इस आदमी के प्राण ले लो।” यह कहते ही सबने वीरेन् को घेर लिया। वीरेन् किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उनके बीच खड़ा रह गया। उसी समय “मित्र, घबराओ नहीं, हम सब यहाँ हैं” कहते हुए झाड़ियों में से दो पुरुष आ निकले। उन्हें देखते ही भुवन का दल इस डर से कि बहुत से लोग आ गए हैं, अँधेरे में ही तितर-बितर हो गया। वीरेन् ने सामने अपने मित्र शशि को देखा। उसने पूछा, “शशि! इतनी देर तक तुम कहाँ थे? तुम्हारे साथ यह कौन है? मेरी छोटी बहन साथ नहीं आई, वह कहाँ चली गई?” शशि ने उत्तर दिया, “राजकुमार! जैसे मैं तुम्हारे लिए अपने प्राण तक देने को तैयार हूँ, वैसे ही यह मित्र मेरे लिए अपने प्राण न्योछावर करने को तैयार है। तुमने छोटी बहन के बारे में पूछा, मैं उसका क्या उत्तर दूँ। हमें छोड़कर चले जाने के बाद मैंने तुम्हें बहुत खोजा, किन्तु कहीं नहीं मिलने से तुरन्त देव-दर्शन करके पहाड़ से नीचे उतरते समय रास्ते में पाँच-छह युवकों ने मेरी पिटाई करके तुम्हारी छोटी बहन को पकड़ा और कहीं ले गए। जब मैं अचेतावस्था में पड़ा था, तब इसी मित्र ने मेरी सेवा-सुश्रूषा की और मैं उसी के सहारे नीचे उतर सका। मैं तुम्हारा स्वभाव अच्छी तरह जानता हूँ - उधर तुम पल्लू पकड़ने वाली उस युवती के पीछे छौड़ते रहे और इधर तुम्हारी छोटी बहन खो गई। पीछे छूट गई अपनी छोटी बहन तक का ख्याल किए बगैर तुम जब एक युवती के साथ अभिमान में डूबे जा रहे थे, तब एक डाकू-दल से भिड़कर कितनी मुसीबत में पड़ गए थे। समय पर हम नहीं पहुँचते तो तुम अपने प्राणों से हाथ धो बैठते। बाघ से मुकाबला कर उसे मार डालना, उसके बाद आत्महत्या का प्रयास हम सब कुछ छिपकर देखते आए हैं, उतने कायर तो नहीं हो, तुम्हारा तमाशा देखना काफी मनोरंजक रहा। राजवंश में पैदा हुए हो न, कुछ-न-कुछ कर ही दिखाते हो। जब तुम उठकर भाग गए, तब हम भी तुम्हारे पीछै दौड़े चले आए। तुम कहीं भी मुसीबत में पड़ो, तो हम तुम्हें बचाएँ, इसके लिए तुम्हारे पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। जिस समय तुम बाघ से भिड़ने को तैयार थे, उस समय हम पहाड़ के नीचे पहुँचे थे; उसके पहले क्या-क्या घटित हुआ, हम नहीं जानते।

“इन सबका विवरण पिताजी को विस्तार से बताऊँगा और तुम्हें उचित दंड दिलाऊँगा।” यह सुनते ही वीरेन् (आँखों से आँसू छलकाते हुए) बोला, “मित्र, मैं तुम्हारे पाँव पकड़ता हूँ, सब कुछ वैसा ही बताओगे तो पिताजी मुझे घर में नहीं घुसने देंगे; बताना कि हम दोनों की पिटाई करके ले गए हैं। अब तो मैं अपनी छोटी बहन का पता लगाकर ही रहूँगा। जब तक छोटी बहन का निश्चित अता-पता नहीं लग जाता, मैं घर वापस नहीं जाऊँगा। हे ईश्वर, कैसी विडम्बना है? लाड़-दुलार में पली मेरी छोटी बहन कितना दुख पा रही होगी।” यह कहते हुए वीरेन् की आँखों से आँसू की बूँदें गिरने लगीं। शशि बोला, “राजकुमार, शायद तुम बहुत दुखी हो, ज्यादा दुखी मत होओ, यह सब होनी है। रोने-धोने से कुछ भी लाभ नहीं होगा। घर चलें। संयोगवश तुम्हारी छोटी बहन को उठानेवाले कहीं रास्ते पर ही मिल जाएँ तो तुम्हें कितनी खुशी होगी!” वीरेन् ने उत्तर दिया, “मित्र, वह असम्भव है, फिर भी अगर कहीं मिल जाएँ तो मैं इतना खुश हूँगा कि अकेला ही उन सब लोगों के सिर फोड़ डालूँगा और उसी खुशी में अपनी बहन भी तुम्हें दे दूँगा।” यह बात सुनते ही शशि वीरेन् को दंडवत् प्रणाम करते हुए बोला, “मित्र के रूप में यहाँ जो खड़ी है, वह कोई पुरुष नहीं है, तुम्हारी छोटी बहन थम्बालसना ही है। शाम होने पर पहाड़ से नीचे उतरते समय जब भुवन के लोगों ने थम्बालसना को पकड़ने की कोशिश की तो आसपास के कुछ युवकों की मदद से मैंने उन्हें मार भगाया, और देर हो जाने पर-यह सोचकर कि अकेले एक लड़की को साथ ले चलना मुसीबत है, थम्बालसना को पुरुष की पोशाक पहनवाई। अब तो अपनी छोटी बहन को अपनी आँखों से देख लिया है! राजवंश में जन्मे हो, तुम्हें अपनी बात से मुकरना नहीं चाहिए।” पल-भर में दुख, सुख, लज्जा और हँसी के विलय से तिलमिलाकर गुद्धी खुजलाते हुए वीरेन् ने कहा, “अगर चोर ही चोर को पकड़े तो कौन करेगा न्याय?”