माधवी / भाग 2 / खंड 11 / लमाबम कमल सिंह
माधवी का हृदय परिवर्तन
माधवी कई दिन से दिखाई नहीं पड़ी। पहले हमने उसे प्रेम से अपरिचित एक युवती के रूप में देखा था। सच में तो, वह ऐसी नहीं थी। ऐसा नहीं कि वह धीरेन् से प्रेम नहीं करती थी। वह प्रथम मिलन में ही अपना जीवन धीरेन् को समर्पित कर चुकी थी, फिर भी उसे युवकों के चंचल हृदय से बहुत घबराहट होती है। उसे ऐसा भी विश्वास था कि युवकों का प्रेम हृदय से नहीं, आँखों से उत्पन्न होता है। लड़कियाँ अपने स्वभाव के अनुसार मन में प्रेम अंकुरित होते हुए भी मुँह से यही कहती हैं कि वे प्रेम नही करतीं; देखने की इच्छा होते हुए भी अनिच्छा प्रकट करती हैं, क्योंकि मुश्किल से प्राप्त वस्तुएँ बहुमूल्य होती हैं। इसलिए माधवी धीरेन् के सामने अपना उतना प्रेम प्रकट नहीं करती, जबकि अपने हृदय में उसने धीरेन् को कसकर बाँध रखा है। उसके पागल हृदय में प्रेम-रोग प्रविष्ट हो गया है। जब निकट थे, तब दूरत्व था और दूर होने लगे तो सामीप्य की आकांक्षा होने लगी - शायद यही प्रेम की प्रकृति है। लम्बे अर्से तक धीरेन् से न मिल पाने की कल्पना से उसका दुख पहले से सौ गुना बढ़ गया उसका प्रेम भी पहले की अपेक्षा सौ गुना बढ़ गया। परिहास में की गई उसकी सारी बातें अब विषैले सर्प की भाँति उसके मस्तिष्क में घुसकर काटने लगीं। माधवी ने सोचा, “प्रेम का एक अलग संसार है, यदि कोई इस संसार में पदार्पण करता है, तो उसके लिए सभी बहुमूल्य वस्तुएँ मूल्यवान नहीं होतीं, सभी स्वादिष्ट भोज्य स्वादिष्ट नहीं होते-बल्कि जिससे वह प्रेम करता है, उससे सम्बन्धित वस्तु मूल्यहीन होते हुए भी मूल्यवान, अस्वादिष्ट होते हुए भी स्वादिष्ट, कुरूप होते हुए भी सुरूप होती है। समझ गई हूँ-यदि प्रेम किसी एक ही वस्तु पर केन्द्रित रहता है तो ढक्कनदार सन्दूक में बन्द रखने की भाँति बहुत पीड़ादायक होता है। अपना यह प्रेम किसी एक व्यक्ति पर केन्द्रित न रख कर, समस्त संसार में बिखेर सकूँ, तो सारा दुख मिट जाएगा। मुझे विश्वास नहीं होता कि इतने सारे दुख को अपने हृदय में समेटकर मैं धीरेन् के आने तक जी सकूँगी। इस दुख को मिटाने के लिए मैं हैबोक्-पर्वत की किसी कन्दरा में जाकर ईश्वर की आराधना करती रहूँगी, साथ ही संकट में पड़े यात्रियों की सहायता करूँगी।”
“इस संसार में मनुष्य-जात में जन्म लेकर मात्र भरपेट भोजन करके और सुन्दर वस्त्र पहनकर जीना व्यर्थ है। परोपकार श्रेष्ठकर्म है। इस श्रेष्ठ कर्म के लिए स्वार्थ त्याग करना पड़ता है, शर्म-हया त्यागनी चाहिए, दूसरों की शत्रुता से नहीं डरना चाहिए - लोगों की डाँट-फटकार को प्रशंसा मानना चाहिए, लोगों द्वारा अपनी पिटाई प्रेम से सहलाने के बराबर ही सोचनी चाहिए। हे ईश्वर! अबला नारी-जात में जन्मी मुझे, समुद्र जैसे गम्भीर एवं उदार स्वार्थ त्याग की एक बूँद भर ले सकने की शक्ति दोगे? समाज का कुछ लाभ करने का साहस प्रदान करोगे? हे दयामय! तन से निर्बल, मन से भी निर्बल, अन्धविश्वास के आवरण में लिपटकर जन्मी मुझे, अन्धविश्वास से ढँके इस अन्धकारपूर्ण समाज को स्वार्थ त्याग का थोड़ा प्रकाश दिखाने की शक्ति दो।
यह सब विचारते हुए माधवी ने मन-ही-मन अकेले हैबोक् पर्वत की कन्दरा में भगवान की आराधना करने का संकल्प कर लिया। पहले वेशभूषा और अलंकरणों के बारे में मन को नियन्त्रित करना शुरू किया। युवती सुलभ तड़क-भड़क की चाह त्याग कर गेरूए वस्त्र पहनने शुरू किए। उसके बाद खान-पान के बारे में अपने मन को नियन्त्रित किया। तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन त्याग कर सिर्फ चावल और नमक से पेट भरना शुरू किया। इस प्रकार पहाड़ी-कन्दरा में संन्यासिनी बनकर तपस्या करने लगी। कुछ सुनसान जगह होने के कारण डाकू अलग-थलग अकेले यात्रा करनेवाले यात्रियों का सामान लूट ले जाते थे। अब माधवी बाल बिखराए, जीभ फैलाए, हाथ में तलवार लिए चिल्लाते हुए दौड़ी चली आती थी। इस प्रकार उसने संकट में पड़े यात्रियों को डाकुओं से बचाया। उरीरै को बचानेवाली भी वही थी। उसके बाद 'हैबोक् की देवी प्रकट होती है' 'हियाङ् अथौबा निकलता है' आदि कहते हुए डाकू तक वहाँ जाने से कतराने लगे और उपद्रव भी घट गया।
धन्य है माधवी, तुम्हारी यह योजना! एक सौ आठ पँखुड़ियों वाले कमल की भाँति कोमल अपने हृदय में वज्र जैसा कठोर यह स्वभाव भी छिपा रखा है। रुई के भीतर कीड़े का होना आश्चर्य की बात नहीं, सीप में मोती का होना आश्चर्य का विषय नहीं, काग पौधे के भीतर गाँठ का होना, मरुभूमि में मरुद्यान का होना, समुद्र की गहराई में पर्वत का होना असम्भव नहीं, किन्तु अबोध, मानिनी, हठी और अपनी जन्मभूमि से कहीं बाहर न निकलने वाली माधवी, तुम्हारी योजना और विचारधारा विस्मय भरी है।
मैतै जाति का दुर्भाग्य यह है कि स्वार्थ त्याग करने वाले लोगों की संख्या बहुत ही कम है। स्वार्थ त्याग का ऊँचा और घने पत्तों वाला वह अमर-औषध-वृक्ष देखना हो तो मणिपुर के ऊँचे पर्वतों पर चढ़कर बड़ी-बड़ी नदियों वाली भारत की विस्तृत समतल भूमि पर दृष्टिपात करना होगा; तब देखोगे अनेक बड़े वृक्षों का अपनी शाखाएँ फैलाकर अपनी छाँव में अनेक दीन-दुखियों को विश्राम कराना! दाने-दाने को मोहताज दरिद्रों को अपने फल खिलाना! आँधी और तूफान को भी रोककर अपनी छाँव में लोगों को आश्रय देना! अनेक वृक्ष निर्बल लोगों को अपने ऊपर बिठाकर चारों ओर की हलचल दिखाते हैं, कई वृक्ष समाज की सँकरी झील में डूबकर मरनेवाले लोगों को नाव बनकर शान्ति के विशाल समुद्र की ओर ले जाते हैं। मैतै की जमीन पर कहीं कोई बड़ा-सा वृक्ष उग भी जाए तो वह पर्वत से ऊँचा नहीं हो सकता और दूर समुद्र से आकर भारत की समतल भूमि पर बहने वाली शीतल वायु मैतै की धरती तक नहीं पहुँच सकती।