माधवी / भाग 2 / खंड 7 / लमाबम कमल सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काँची का कोकिल

“बिम्बाफल हो क्या बँसवाड़े के?

फूल की शाखा से लिपटे साँप हो क्या?

कीड़े हो क्या पके फल में लगनेवाले?

देर रात्रि में कूकनेवाले कोकिल हो क्या?”

शरद पूर्णिमा की उज्ज्वल रात्रि थी। पूर्णचन्द्र की ज्योत्स्ना ने इस धरा को धवल चादर की भाँति पूरी तरह ढँक लिया था। दूर के पहाड़ हलके बादलों ने ढँक लिए थे। रात्रि काफी गहरा गई थी। काँचीपुर के प्रत्येक घर में स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, युवक-युवती-सब-के-सब निद्रा की गोद में चले गए थे। हर जगह सन्नाटा छाया था। बीच-बीच में सूखे पत्तों के गिरने और करवट बदलने वाली चिड़ियों के अचानक चहचहाने के स्वर के सिवाय दूसरी कोई ध्वनि सुनाई नहीं पड़ रही थी। पशु-पक्षियों के बन्द शोरगुल, निर्जीव-से चुपचाप खड़े सारे पेड़-पौधे, नीरव रात्रि में सभी जीवों के नींद में पड़े होने के समय प्रेम-पीड़ा से ग्रस्त उरीरै एक जीर्ण-शीर्ण झोंपड़ी के भीतर बाँस की पट्टियों से बने पलंग पर बैठकर आँखों की कोरों से आँसू बहा रही थी। उस गहन रात्रि में विराट आकाश में चन्द्र-देव शायद तन्हाई में अकेले निकलकर इस बेचारी के लिए दुख प्रकट कर रहे थे! चाँदनी की किरणों के दीवार के छेद में से होकर अन्दर चले आने से आँसुओं से भीगे दोनों कपोल चमकने लगे। “वीरेन् को फिर कब देख सकूँगी” इसी विचार में वह डूबी रही और उसके हृदय-पटल पर “देर रात्रि के समय पोखरी के किनारेवाले चम्पा के पेड़ पर बैठकर कोई कोकिल कूके तो समझना कि वो मैं हूँ”, विछोह के समय कही गई यह अन्तिम बात बार-बार उभरने लगी। जन्म से उसने कोकिल को नहीं देखा, कूकते समय उसका स्वर कैसा होता है, यह भी उसने कभी नहीं सुना, फिर भी जब उसने जानने वाले लोगों से पूछा तो उनके बताने से कोकिल के रंग, रूप और स्वर के बारे में मन-ही-मन कल्पना करना शुरू किया और कोकिल उसे अपने मन का बहुत प्रिय पक्षी लगा, कोकिल के बारे में बात करना उसके दुख को कम करने का सहारा बन गया। मन में बार-बार सोचने के कारण कोकिल का रूप और सुर उसके मस्तिष्क में अंकित हो गए। ऐसा लगने लगा कि आँखें बन्द करते ही कोकिल उसके सामने इधर-उधर उड़ रहा हो।

इस प्रकार उसका मन कोकिल के विचारों में डूबा हुआ था, तभी अचानक घने पत्तों के बीच में से किसी पक्षी का मधुर स्वर 'कुहू' सुनाई पड़ा। नीरव रात्रि में वह स्वर विशाल आकाश में विलीन हो गया। पुनः ऊँचे सुर में घने पत्तों को प्रतिध्वनित करता हुआ 'कुहू' स्वर सुनाई पड़ा। उस स्वर को सुनते ही उसका सारा शरीर रोमांचित हो उठा। वह तुरन्त खड़ी हो गई और “इस रात्रि में मेरे हृदय को बींधकर बोलता जा रहा यह कौन पक्षी है?” कहते हुए अपना मुख-कमल टेढ़ा करके दीवार के छेद में से बाहर देखने लगी। इस बार फिर मन-मोहक स्वर 'कुहू' सुनाई पड़ा। उरीरै का मन बेचैन हो गया। वह सारा नारी सुलभ भय-संशय त्यागकर बाहर भाग निकली और उस कोकिल को पकड़ने के विचार से उस ओर दौड़ी, जहाँ उसकी कूक सुनाई पड़ी थी। हाय! वह कूक दोबारा नहीं सुनाई पड़ी।

क्या पता, वीरेन् की आत्मा कोकिल बनकर उड़ आई हो, या किसी पक्षी के बोलने को उरीरै का हृदय कोकिल समझ बैठा हो, या उरीरै का दुख बढ़ाने हेतु किसी अज्ञात नियति के चलते सचमुच ही कोकिल उड़ आई हो, उरीरै ने तो स्पष्ट रूप से ही 'कुहू' स्वर सुना था। उस समय उरीरै को जो दुख हुआ, वह उसके मन ने महसूस किया-किन्तु कौन जाने, भाषा की अपूर्णता हो, या पूर्णता हेते हुए भी उसका सहयोग न मिला हो, उरीरै का यह दुख वैसा चित्रित नहीं हो सका है, जैसा उसके मन ने महसूस किया था। पंखहीन की आकाश में पड़ने की इच्छा और अन्धे की प्राकृतिक सौन्दर्य देखने की लालसा के समान अवाक् होकर उरीरै के दुख को प्रकट करने का यह प्रयास व्यर्थ ही था।

प्रवेश-द्वार के पास एक बड़ा-सा लम्बा जलाशय था। उसके चारों ओर का घेरा लगभग आधा मील था। चारों ओर के बड़े-बड़े पेड़ों के कारण जलाशय भीम तमसाकार दिख रहा था। पश्चिमी किनारे पर खड़े चम्पा के विशाल वृक्ष की जलाशय की ओर झुकी एक बड़ी डाली पत्तों के बोझ से पानी को छू रही थी। लोग कहते थे कि इस जलाशय में अजगर है।

प्रेम-वियोग के दाह में बावली-सी, प्रियतम की कल्पना में डूबी मन्थर गति से चलने वाली और कोकिल पकड़ने की इच्छा से व्याकुल उरीरै जलाशय के किनारे तक चली गई। “प्रियतम ने चम्पा के इस वृक्ष की ओर उँगली से इशारा किया था” यह सोचकर ठंड भरी रात्रि होते हुए भी, चम्पा के नीचे बैठकर दर्द कम होगा, इस विचार से वहाँ जाकर बैठ गई। उसी समय वह पक्षी चम्पा की डाली पर दीर्घ स्वर में 'कुहू-कुहू' कूकने लगा। कूक सुनते ही उरीरै जैसे बहुत दिनों से खोए हुए वीरेन् को पुनः पा गई हो, आनन्दित होकर कमलकन्द जैसी कोमल अपनी दोनों बाँहें उठाकर कहने लगी, “आ जाओ कोकिल, एक बार नीचे उतर आओ; मेरी इसी पापी बाँह पर बैठकर बेधड़क कूको। तुम्हें अपने हृदय से चिपटाकर प्रियतम-वियोग की यह पीड़ा शान्त करूँगी; सोच लूँगी, मैंने प्रियतम की सेवा की है। आ जाओ, कोकिल, एक बार नीचे आओ!” निष्ठुर पक्षी ने अपने स्वर से भी अधिक कोमल वाणी में आँसू की बूँदों के साथ की गई प्रार्थना नहीं सुनी। मुँह खोलकर बेधड़क बार-बार कूकता रहा। देर तक प्रतीक्षा करने के बाद भी पक्षी के नीचे न आने से उरीरै ने मन-ही-मन पक्षी को पकड़ने की सोची। उसके मन को अत्यधिक दुख हुआ। चढ़ सकेगी या नहीं, इसका ख्याल किए बिना वह चम्पा के वृक्ष पर चढ़ने की कोशिश करने लगी। युवती थी, चढ़ना तो उसे आता नहीं था, इसलिए दो-तीन बार नीचे गिर पड़ी-फिर भी उसने कोशिश नहीं छोड़ी, अन्ततः बहुत डालियोंवाला वृक्ष होने के कारण धीरे-धीरे चढ़ते हुए वह एक घने पत्तों वाली डाली पर पहुँच गई। तब तक पक्षी का कूकना बन्द नहीं हुआ था, वह जी-भर ऊँचे स्वर में कूक रहा था। पाठक! शरद की पूर्ण चाँदनी में प्रेम-वियोग से बावली इस उरीरै का जरा ख्याल कीजिए। लता-वृक्ष से लिपटने लगी। बेमौसम चम्पा के वृक्ष पर फूल खिलने लगे। कोकिल आकर बैठ गया। एक क्षण के लिए वहाँ वसन्त का आगमन हो गया। जिस घने पत्तों वाले वृक्ष पर कोकिल आकर बैठ था, पल-भर के लिए फूल खिल गया था, उसी वृक्ष का प्रतिबिम्ब जलाशय के जल में पड़ा गया। क्षण-भर के लिए हवा की गति रुक गई। सारे पेड़-पौधे पल-भर बाद घटित होनेवाले दुख को पहचानकर चुपचाप खड़े रह गए। समस्त तारे प्रेम-वियोग की इस चरम पीड़ा को देखकर थर-थर काँपने लगे। चन्द्र-देव से यह दुख नहीं देखा गया, इसलिए वे पश्मिची पर्वत की ओट में चले गए।

पकड़ने के लिए ऊपर तक चढ़कर उरीरै के हाथ फैलाते ही वह पक्षी उड़ गया और जलाशय की ओर फैली डाली की फुगनी पर जा बैठा। पकड़ने की कल्पना से खुश थी, किंतु पक्षी के उड़ जाने के कारण उरीरै का मन निराशा से भर गया। उसने होंठ चबा लिए। कोमल और सुकुमार चेहरे ने पल-भर में क्रोधित रूप धारण कर लिया। अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहा। वह दोनों हाथ फैलाए डाली पर पक्षी की ओर भाग चली। आह! पक्षी नहीं पकड़ सकी, पैर फिसल जाने से जलाशय के बीचों-बीच गहरे जल में 'झम्' से गिर पड़ी। असहाय लहरें बार-बार किनारे से टकराने लगीं।