माधवी / भाग 3 / खंड 2 / लमाबम कमल सिंह

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अंतिम मिलन

ग्रीष्म ऋतु के अन्तिम चरण में एक दिन शाम को दाढ़ी-मूँछवाला एक पथिक धीरे-धीरे काँचीपुर के रास्ते पर जा रहा था। मैली धोती, मैले कुर्ते के सिवाय कोई विशेष पोशाक नहीं थी, पीठ पर एक गठरी और हाथ में एक तलवार के अलावा उसके पास कोई विशेष सामान भी नहीं था। रास्ते के दोनों ओर उगे अनाज के हरे-भरे पौधों और नाले में बह रहे स्वच्छ जल को वह पथिक ध्यान से देख रहा था। उसके चेहरे को देखकर लगता था कि वह वर्षों बाद अपनी जन्मभूमि को देखकर प्रसन्न है। चलते-चलते वह काँची के मध्य पश्चिम की ओर जाने वाले मार्ग पर मुड़ गया। गाँव जितना समीप आता जाता था, उसका मन उतना ही व्याकुल होकर धैर्य खोता जा रहा था। पता नहीं क्यों, उसका हृदय बार-बार धड़कने लगा और मन बेचैन होने लगा। कुछ और आगे बढ़ने पर चारों और इधर-उधर देखते समय एक बड़ा-सा जलाशय, उसके पश्चिम में चम्पा का वृक्ष और उस वृक्ष से नैऋत-कोण की ओर एक जीर्ण झोंपड़ी दिखाई दी। लगता था कि वह झोंपड़ी वर्षों से बिना किसी बाशिन्दे के यूँ ही छोड़ दी गई है - उसे देखते ही उस व्यक्ति से अपने आँसू नहीं रोके जा सके, अपने आप गिरने लगे। आँगन तक आया तो उसने देखा-अर्से से सफाई न होने के कारण आँगन घास से भरा हुआ था और साँपों तथा मेंढकों की क्रीड़ा-स्थली बन गया था। झोंपड़ी की दीवार पर बड़ी-बड़ी दरारें थीं, जगह-जगह छेद भी थे और तुरई तथा कद्दू की बेलें दीवार के सहारे छप्पर पर चढ़ी हुई थीं। बरामदे पर चढ़ते ही जगह-जगह पत्ते, घास, कूड़ा-करकट आदि के ढ़ेर दिखाई दिए। द्वार बन्द था। उस व्यक्ति ने व्याकुल मन और धक्-धक् करते हृदय से काँपते स्वर में पूछा, “घर में कोई है?” किसी ने भी उत्तर नहीं दिया, जैसे खुले मैदान में बात कर रहा हो। उस व्यक्ति ने फिर 'उरीरै' कहकर पुकारा; इस बार भी किसी ने उत्तर नहीं दिया। मात्र उस खाली झोंपड़ी ने उसका अनुकरण कर प्रतिध्वनित किया, 'उरीरै'। वह व्यक्ति घबराते हुए द्वार पर लात मारकर घर के अन्दर चला आया। वहाँ की हालत देखकर वह और घबरा गया, सिर्फ चमड़ी से ढँके कंकाल की भाँति बहुत ही दुबली-पतली एक स्त्री अलाव की ओर पीठ किए लेटी थी, उस व्यक्ति ने सोचा कि कोई शव है। समीप जाकर देखा तो पता चला कि उस समय तक उसमें साँसें थीं। व्यक्ति ने उसे 'थम्बाल्' कहकर बार-बार पुकारा। बार-बार की पुकार सुनकर रोगिणी ने अपनी आँखें खोलीं ओर बहुत कष्ट से करवट बदलने का प्रयास किया, लेकिन नहीं बदल सकी। धीमे स्वर में टुकड़े-टुकड़े शब्दों में बोली, “कौन है यहाँ? थोड़ा-सा पानी दो, प्यास से गला सूख गया है, मैं मरी जा रही हूँ, थोड़ा-सा पानी देकर मेरे जलते हृदय को शान्त करो।” वह कष्ट भरी ध्वनि उस व्यक्ति के हृदय में तेज धारदार भाले की भाँति चुभ गई। इधर-उधर देखा, तो उस घर में एक भी बर्तन नहीं था। व्यक्ति ने तुरन्त बाहर निकल कर कमल के पत्ते में पानी भरा और रोगिणी के मुँह में धीरे-धीरे डाला। तब भी वह अपना मुँह खोले रही। उस व्यक्ति ने फिर पानी भरकर उसे पिलाया। रोगिणी ने पी लिया। फिर मन को थोड़ा शान्त करके बोली, “मेरे गले में एक भी बूँद पानी पड़े एक सप्ताह होने को है; मेरे पास कोई भी नहीं, मैं किससे पानी माँगूँ? कहीं तुम कोई काँचीवासी तो नहीं हो। दिन-रात का कर्ता विधाता तुम्हारा भला करे।” वह व्यक्ति समझ गया कि खाना न मिलने के कारण रोगिणी बहुत ही निर्बल हो गई है। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उस व्यक्ति ने पूछा, “तुम मुझे पहचानती हो?”

रोगिणी - “हाँ, पहचानती हूँ।”

पथिक - “तो मैं कौन हूँ?”

रोगिणी - “तुम स्वर्ग के दूत हो।”

पथिक - “मैं स्वर्ग का दूत नहीं हूँ। बहुत दिनों से निर्बल हो, इसलिए तुम्हारी बुद्धि भी निर्बल पड़ गई है। ध्यान से सोचो।”

रोगिणी - “सौ बार सोच लिया, तुम देव-दूत ही हो।

पथिक - “कैसे समझा?”

रोगिणी - “देव-दूत के अलावा यहाँ कौन आता। काँचीवासियों की बात तो छोड़ दो, कुत्ते-बिल्ली तक भी क्या भटकते हुए मेरे पास आ सकते हैं? भुवन का बाप अभी तक जीवित है।”

अन्तिम कुछ शब्द रोगिणी के मुँह से इतनी मार्मिकता से निकले कि सुनते ही पथिक सीधा होकर बैठा नहीं रह सका, उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। वह पल-भर में समझ गया कि इन सारे दुखों की जड़ भुवन का बाप ही है। वह जानता था कि एक-दो सवाल और करेगा, तो रोगिणी की अवस्थार और बिगड़ जाएगी, किन्तु वह अपनी जिज्ञासा को देर तक रोक कर नहीं रख सका। उसने फिर पूछा, “भुवन के बाप ने क्या किया है?” रोगिणी ने उत्तर दिया, “भुवन के बाप ने मुझे इतना सताया है कि मैं कैसे बताऊँ! पहले उसने अपने बेटे के लिए हमारी बेटी का हाथ माँगा, हमने नहीं माना। उसका प्रतिशोध लेने के लिए उसने हमारा घर जलवा दिया। तब से हम निर्धन होते गए, पति निर्धनता मिटाने के लिए पैसे कमाने परदेस चले गए और वहीं चल बसे।” इसके बाद वह आगे कुछ भी नहीं बोल सकी, आँसुओं से दोनों सूखे गाल भीग गए, साँसें रुक गईं, नाड़ी की धड़कन शिथिल पड़ गई।

पथिक का सन्देह सच निकला। इतने दिनों तक उसने सारा दुख अपने मन में छिपा कर रखा; कोई भी व्यक्ति उसके पास नहीं था, जिससे वह अपना दुख प्रकट कर सकती। अब पथिक को अपने पास पाया, तो निर्बल और बोलने में अशक्त होते हुए भी उसने एक-एक करके अनेक बातें कह डालीं और सहसा उसकी साँसें बन्द हो गईं|

उस व्यक्ति ने दौड़ कर जलाशय से पानी लाकर उसके सिर पर धीरे-धीरे डालना शुरू किया। रोगिणी को धीरे-धीरे होश आया। अन्तिम बात पूरी तरह प्रकट करते ही रोगिणी अपने प्राण त्याग देगी, उन कुछ शब्दों में शायद उसके जीवन की सारी आशा छिपी है, और शायद वे चन्द शब्द रोगिणी का मृत्यु-शर भी हों! उस व्यक्ति की जिज्ञासा भी वही थी। अनुमान से वह जान गया कि प्रकट किए जाने वाली बात बहुत ही खतरनाक होगी, और यह भी जान गया कि वह बात सिर्फ रोगिणी की ही मृत्यु-शर नहीं, उसका भी मुत्यृ-शर होगा। फिर भी वह जानना चाहता था। फाँसी पर लटका कर मार दिए जाने वाला व्यक्ति, जो सिर्फ रस्सी खींचने की प्रतीक्षा कर रहा हो, उसी की भाँति वह व्यकित उस बात की प्रतीक्षा करने लगा। एक ओर रोगिणी की अवस्था देखकर उसका हृदय टूटने को हुआ। उसके सामने यह संसार चक्कर काटने लगा, दिन को तारे दिखाई पड़ने लगे, थोड़ी देर के लिए ठीक से नहीं बैठ सका। तीव्र जिज्ञासा के चलते पागल-सा पूछ बैठा, “उसके बाद क्या हुआ?”

रोगिणी ने उत्तर दिया, “हे जगबन्धु! कैसे बताऊँ! हे स्वर्गदूत! तुम तो सब कुछ जानते हो। मेरे हृदय में छिपाकर रखी उरीरै को पकड़कर ले गए और उन्होंने उसकी जान ले ली। अब मेरी बेटी नहीं रही, मैं अकेली इस झोंपड़ी में - “ यह कहते हुए उरीरै को पुकार कर बिलखने लगी। उस व्यक्ति का शरीर थर-थर काँपने लगा, वह कीड़े-मकोड़े से लेकर संसार के समस्त जीवों को अपना शत्रु मानने लगा। अब वह अपने को छिपाकर नहीं रख सका, रोते-राते कहने लगा, “हे अभागिनी थम्बाल्! दुखभोगिनी! विरहिणी! सन्तान-वियोगिनी! मैं स्वर्ग का दूत नहीं हूँ, तुम्हारा पति, नवीनचन्द्र सिंह हूँ। तुम्हारी इस अवस्था को देखकर मैं बहुत व्यथित हूँ, अपनी बेटी उरीरै के बारे में सुनकर मेरे प्राण निकले जा रहे हैं, तुम और मैं एक साथ एक ही चिता पर मरेंगे। इतने पक्षपात भरे संसार में जीने का अर्थ नहीं रहा। एक बार उठकर बैठो, तुम्हारा सूखा मुख अन्तिम बार देख लूँ। जीवन की इस महाविदाई के समय एक बार अपनी छाती से चिपटा लूँ।”

जिसके मरने की खबर आ चुकी थी, बहुत दिनों बाद उसी पति का स्वर सुना तो मृत्यु के सामने पहुँची थम्बाल् रोमांचित हो उठी; वह समझ नहीं पाई कि यह स्वप्न है या जागरण; मन्द बुद्धि, मरणासन्न अवस्था के चलते कुछ भी निश्चय नहीं कर सकी। मन में सोचा, “मेरा अन्तिम समय निकट आ जाने के कारण मृत पति की आत्मा मुझे लेने आई है।” और वह बोली, “मेरे पति को मरे बहुत दिन हो गए, श्राद्ध-कर्म सम्पन्न हो चुका है। मेरी मृत्यु का समय आ जाने के कारण पति की प्रेत-मूर्ति मुझे लेने आई है! ठीक है, मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।” तब नवीन बोला, “थम्बाल्! मेरे हृदय में बसी थम्बाल! मेरी प्रेत-मूर्ति के धोखे में मत पड़ो। मैं सचमुच नवीन हूँ। परदेस में पैसा कमाने जाते समय रास्ते में डाकुओं ने मुझे पकड़कर पहाड़ों के बीच एक मरघट में कमर तक दफना दिया था और मेरे सारे पैसे छीनकर ले गए थे। वह सब भुवन के बाप की साजिश थी। डाकुओं के बीच एक जाना-पहचाना व्यक्ति था। मेरी मृत्यु का समाचार भी भुवन के बाप की ही चाल होगी।”

सोचते-सोचते नवीन अपना क्रोध नहीं दबा सका, पास पड़ी तलवार उठाकर दाँत किटकिटाए और प्रतिज्ञा की, “मुझे दुख पहुँचाने वाले, मेरी पत्नी को इतने सारे संकटों में डालने वाले, मेरी बेटी उरीरै की हत्या कराने वाले, भुवन के बाप के त्रिकोणी सिर के तीन टुकड़े करके प्रतिशोध लूँगा।” यह देख व्याकुल थम्बाल् भय से त्रस्त होकर बहुत घबराई, व्यग्र होकर गिरते-गिरते उठी और काँपते स्वर में बोली, “इतनी कठोर प्रतिज्ञा क्यों? ईश्वर के रहते मनुष्य, मनुष्य से क्यों प्रतिशोध लेगा? क्षमा और रक्षा के समान कोई और श्रेष्ठ धर्म नहीं होता।” यह कहते हुए वह पति के पाँवों पर गिर पड़ी। साँसें रूक गईं, आँखें बन्द हो गईं, नाड़ी की धड़कन भी रूक गई। आह! इस दुख-भरे संसार को त्यागकर शायद किसी आनन्दमय लोक में चली गई! पल-भर में उसके जीवन के दुख का अन्त हो गया।

अचानक हुई थम्बाल् की मृत्यु से नवीन पत्थर की मूर्ति के समान जहाँ बैठा था, वहीं बैठा रह गया। उसे लगा कि यह संसार सूर्य और चन्द्र की रोशनी से वंचित एक अन्धकारपूर्ण संसार है। अचानक आकाश के टूटकर नीचे गिरने और उससे उसका सिर दब जाने से भी अधिक कष्ट का अनुभव हुआ। थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहने के बाद वह उठा और झोंपड़ी को उजाड़कर सूखी लकड़ी और बाँस से एक अर्थी बनाई। उस अर्थी पर सती के पुण्य शरीर को रखा और उसे चिता पर चढ़ा दिया। मृत शरीर को ढँकने हेतु कोई कपड़ा न मिला तो उसने अपना कुर्ता उतारकर ढँक दिया। अग्नि को दान करते हुए उसने चिता को आग लगा दी। आग लगाने के बाद वह जलाशय के पास आ गया। इस संसार में कोई भी ऐसी चीज नहीं बची, जिसकी उसे चाह हो। जलाशय के किनारे बैठकर अपने कमाए हुए सारे पैसे उसमें फेंक दिए और बोला, “हे पैसे! तेरे लिए मैंने कितना कष्ट उठाया! तुझे पाने के लिए परदेस में रहा, पत्नी-वियोग पाया, बेटी बिछुड़ गई, अब तुझे रखना बेकार है। सौन्दर्य ही व्यर्थ है। सौन्दर्य के चलते बेटी उरीरै प्राण गवाँ बैठी।” यह कहते हुए वह जलाशय में कूद पड़ा और अपना सारा शरीर कीचड़ से पोत लिया। उसके बाद संन्यासी बनकर वहाँ से चला गया। चलते समय एक बार मुड़कर चिता की ओर देखा, चिता से निकला धुआँ सीधे स्वर्ग की ओर जा रहा था; कई दिनों के दुख-दर्द के पश्चात्, वह जगह श्मशान बन गई।