माधवी / भाग 3 / खंड 8 / लमाबम कमल सिंह

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तलहटी का दृश्य

शाम की मन्द-मन्द बहती हवा। घास के लहराते नए पत्ते। डूबते सूर्य की सुनहरी किरणों में चमकती फुनगियाँ। ऐसे समय वीरेन् अपने बचपन की अध्ययन - स्थली को देखने की इच्छा से उस तलहटी की ओर निकल आया। हैबोक पर्वत पर खेलना, शशि द्वारा उसे चौंका जाना, फूलों की बेलों के बीच उरीरै और माधवी से मुलाकात-बहुत दिनों के बाद यह सब याद करके उसका मन अत्यधिक व्याकुल हुआ। अर्से पूर्व घटित घटनाएँ एक बार घूमा कोई दूरस्थ स्थान, एक बार चढ़ी दूरस्थ पहाड़ी चोटी, तन्हाई में एक ही बार मिला मित्र-यह सब स्मरण आने पर मन में दुख और हूक उत्पन्न होते हैं - वैसे ही भाव के उदय होने से वीरेन् के मन को भी अत्यधिक पीड़ा हुई।

वीरेन् ने सोचा, “बचपन के दिन कितने सुन्दर थे! डूबते सूर्य की सुनहरी किरणों में चमकती फुनगियाँ, उद्यान में भागना, झील में डुबकी लगाना, लताओं के बीच छिपते-छिपाते खेलना कितना आनन्ददायक था! झील से कमलिनी और कमलगट्टे तोड़ना और पर्वतीय पेड़ों से पके फल ढूँढ़कर खाना स्वादिष्ट लगता था! उद्यान से फूल चुनकर डोली सजाने में वह कितना कुशल था! अब भी पहलेवाला वही उद्यान है; झील वन, पेड़-पौधे फूल, फल पहले की भाँति ही हैं, किन्तु मेरे मन में किसी को भी देखने की इच्छा नहीं है, कुछ खाने की भी इच्छा नहीं। चारों ओर असंख्य वस्तुओं के होते हुए भी आँखों के सामने सुनसान ही दिख रहा है। यह उद्यान मेरे लिए उद्यान नहीं रहा, मरघट बन गया है; यह विस्तृत मैदान, मैदान नहीं रहा, मरुस्थल बन गया है; फूलों की सुगन्ध से भरा यह पवन भी शीतल पवन नहीं रहा; मरुस्थल का तप्त-पवन बन गया है। यह फल भी खाने योग्य नहीं रहे, विषयुक्त फल बन गए हैं। अरे, यह सब क्या हो रहा है? प्रकृति ही मेरी शत्रु बन गई है? जिस चीज को भी देखता हूँ, वही मुझे दुख दे रही है। समझ गया, यह सब यौवन के विचारों का प्रभाव है, यौवन का यह समय बहुत खतरनाक होता है।

सन्ध्या होनेवाली थी। पर्वत की चोटी ने सूर्य को ढँक लिया और तलहटी पर श्याम-परछाई छाने लगी। बैल, घोड़े, बकरे आदि घरेलू पशु चरना छोड़कर घर की ओर जाने लगे। पूर्ण प्रफुल्लित कमल कमलिनी की पँखुड़ियाँ धीरे-धीरे बन्द होने लगी। पहाडों पर फल ढूँढ़कर खानेवाला पक्षीवृन्द भी पंक्तियों में उड़ने लगा।

वीरेन् मन में द्वन्द्व लिए दिशाहीन होकर यूँ ही चलते-चलते रास मंडल के किनारे पहुँच गया। उसने वहाँ कुछ-कुछ बन्द हुए एक सौ आठ पँखुड़ियों वाले कमलों के बीच आँखें बंद करके देवाराधना कर रही उरीरै के मुख-कमल को देखा। सोचा “यह संसार कितना बदल गया है, अब तो इस रास-मंडल में जल-कमल और स्थल-कमल साथ-साथ खिलने लगे हैं।”

उसी वक्त “ओ सखी! कमल तोड़कर सूर्य-पूजा करने की तैयारी में स्वयं कमल बनकर गहरे जल में उतराने लगी हो। पर सखी डूब रही है! कोई है? मेरी सखी के प्राण बचाओ, मेरी सखी को किनारे पर लाओ।” कहते हुए एक लड़की पोखरी के किनारे घबराते हुए चिल्लाने लगी। उसी क्षण वीरेन् अरे यह तो कमल नहीं है, कोई पानी में डूब रही है" कहते हुए पोखरी में कूद पड़ा और डूबती हुई लड़की को ऊपर ले आया। कैसा दैवयोग था! वह कोई और नहीं थी, उरीरै ही थी!

इस बीच चिल्लानेवाली लड़की अचानक गायब हो गई। पोखरी के किनारे उठा लाने के बाद दोनों युवक-युवती पुनः अचानक मिलने पर आनन्द और प्रेम में विभोर होकर कई क्षण तक कुछ भी नहीं बोल सके! पहली बार इसी प्रकार अचानक तलहटी के उद्यान में मिले थे। अब वीरेन् ज्यादा देर तक चुप नहीं रह सका, उरीरै! काँची उद्यान की उरीरै! मेरे मनोद्यान की उरीरै! मुझे क्षमा करो। तुमने मेरे लिए कितने दुख सहे, सोचते ही मुझे इतनी पीड़ा हुई कि जैसे मेरे हृदय में भाला चुभ गया हो। आओ, तुम्हें अपनी बाँहों में लेकर यह पीड़ा शान्त करुँ।" कहते हुए उरीरै को अपनी बाँहों में ले लिया। उरीरै भी पहले की तरह लजालू नहीं रही, अनवरत आँसू बहाते हुए बोली “हे वीर! तुमने अभी तक मुझे नहीं भुलाया, यह जानते ही मेरा सारा दुख-दर्द मिट गया। नारी-रूप में मेरा यह जीवन सफल हो गया। हे वीर! अब जाओ। मनचाही युवती के साथ ब्याह कर लो। वर-पूजा (वर-पूजा : विवाह के एक रोज पूर्व शाम को सम्पन्न विवाह सम्बन्धी एक रस्म, जिसमें कन्या-पक्ष की ओर से एक छोटे बालक द्वारा किसी एक बुजुर्ग के साथ वर के घर जाकर वर की पूजा करके विवाह के लिए आमन्त्रित किया जाता है) के लिए लोग प्रतीक्षा कर रहे होंगे। दोनों के कल्याण के लिए मैं तन-मन एक करके ईश्वर की आराधना करुँगी। अब मैं अभागिनी ब्रहाचारिणी बनकर दूर चली जाऊँगी। कल ब्याह करनेवाले पुरुष की बाँहों में समाने योग्य नहीं रही।" क्या उत्तर दे, कुछ भी न समझ सकने के कारण वीरेन् उरीरै के उदार ललाट को बार-बार चूमने लगा। अरे वीरेन्! यह तुम्हारा कैसा उत्तर है? एम.ए. तक की पढ़ाई में इस प्रकार का प्रश्न कभी नहीं मिला? यथायोग्य उत्तर क्यों नहीं दे सकते?